संसद करे किसानों की सुनवाई

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जीएसटी कर लागू करने के लिये सरकार मध्य रात्रि को सदन का विशेष सत्र आहूत कर संसद का कार्य चला सकती है, लेकिन किसानों की माँगों के सन्दर्भ में तीन हफ्ते के लिये सदन का विशेष सत्र नहीं बुलाया जा सकता है? बेहतर होगा कि सरकार इस तीन सप्ताह के विशेष सत्र में स्वामीनाथन आयोग की सिफारिशों पर तीन दिन के लिये चर्चा रखे।

वर्तमान सरकार किसानों की समस्याओं को लेकर क्या सोचती है, इसे ‘प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना’ से समझा जा सकता है, जिसके तहत निजी बीमा कम्पनियों को सरकार ने एक प्रकार से किसानों को लूटने की खुली छूट दे रखी है। यह एक बलपूर्वक थोपी गई योजना है। जिन 18 बीमा कम्पनियों, जिनमें 12-13 निजी खिलाड़ी ही सक्रिय हैं, को सरकार ने ‘प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना’ में शामिल किया है, उनका मुनाफा बेहद चौंकाने वाला है। इस मुनाफे को तो मैं ‘राफेल’ से भी बड़ा घोटाला मान रहा हूँ। इस घोटाले को कैसे थोपा गया है, इसे इस तरह समझा जा सकता है। मान लीजिए आप किसान हैं, और बैंक के पास कर्ज के लिये आते हैं, तो बैंक कहता है कि आप पहले ‘प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना’ लीजिए। कोई और चारा न देख आप बैंक की शर्तों के मुताबिक इस योजना में खुद को शामिल करते हैं। अब देखिए बैंक आपको दिए हुए कर्ज में से सबसे पहला प्रीमियम तुरन्त ही काट लेता है। इसी तरह आपकी फसल को नुकसान होने की कोई छोटी-मोटी रकम भी बीमा कम्पनी की ओर से आती है, तो उस रकम का पहला दावेदार किसान नहीं, बल्कि बैंक होता है।

विभिन्न बीमा कम्पनियों को एक प्रकार से समूचे देश को जागीर में बाँट दिया गया है। धीरे-धीरे सार्वजनिक बीमा कम्पनियों के उपभोक्ताओं को निजी कम्पनियों की ओर धकेला जा रहा है। 2016-17 के मुकाबले 2017-18 में ‘एग्रीकल्चर बीमा कॉर्पोरेशन’ के आँकड़े इसकी गवाही दे रहे हैं, जहाँ बीमा उपभक्ताओं की संख्या सिर्फ एक साल में एक करोड़ से नीचे आ गई है। ‘प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना’ बैंकों और बीमा कम्पनियों के लिये फायदे की शानदार योजना है, जो सरकार की मिली-भगत से संचालित की जा रही है। सूचना के अधिकार के तहत प्राप्त एक जानकारी के अनुसार पहले दो सालों में इन 12-13 निजी बीमा कम्पनियों को 15 हजार करोड़ रुपए से ज्यादा का मुनाफा हुआ है, वो भी तब जब देश में भिन्न कारणों से हुए फसल के नुकसान से हम अंजान नहीं हैं। हम योजना लागू होने के पहले साल के आँकड़ों को देखें तो औसतन हर बीमा कम्पनी को महीने के हिसाब से 530 करोड़ रुपये का मुनाफा हुआ। दूसरे साल में जब बीमित किसानों की सख्या कम हुई तो मुनाफे की यह दर हर महीने 778 करोड़ पहुँच गई। मतलब है कि सरकार द्वारा प्रीमियम बढ़ा दिया गया।

किसानों से सम्बन्धित कोई डाटा नहीं

ध्यान देने वाली बात है कि इन बीमा कम्पनियों की संचालन लागत न के बराबर है क्योंकि तालुका स्तर पर इनका कोई प्रतिनिधि नियुक्त नहीं है। किसान, केन्द्र और राज्य सरकारें इस रिस्क कवर में 18 फीसद का योगदान कर रही हैं। मगर बीमा कम्पनियाँ फसल लागत का 20 फीसद भी मुआवजा नहीं दे रही हैं। कैग की रिपोर्ट तो और भी ज्यादा चौंकाने वाली है। 2017 में जारी रिपोर्ट के मुताबिक सरकार के पास किसानों से सम्बन्धित कोई डाटा नहीं है। वह पूरी तरह बैंकों और बीमा कम्पनियों पर निर्भर है। गौर करने वाली बात यह है कि कई बैंकों की अपनी बीमा कम्पनियों भी हैं, जो हितों के टकराव को भी रेखांकित करता है। कुल मिलाकर बात यह है कि जनता के पैसों से कम्पनियों को हजारों करोड़ रुपए का मुनाफा कराया जा रहा है। महाराष्ट्र के अपने अनुभव से कह सकता हूँ कि किसान जहाँ एकजुट नहीं हैं और संघर्ष नहीं कर रहे हैं, वहाँ बीमा कम्पनियाँ उन्हें ठेंगा दिखा दे रही हैं। 2014-15 की तुलना में बीमा कम्पनियों को आज 350 फीसद की बढ़ोत्तरी के साथ प्रीमियम दिया जा रहा है। एक तरह से बैंक और बीमा कम्पनियों को मालामाल करने की यह योजना है। प्रीमियम बढ़ने के बावजूद राज्य सरकारें सूखे के लिये केन्द्र से पैसा क्यों माँग रही हैं? फिर किसी प्रकार के बीमा का मतलब क्या रह जाता है। सीधा-सा मतलब है कि बीमा कम्पनियाँ क्षतिपूर्ति नहीं कर रहीं, उससे भाग रही हैं। इसी तरह का मामला विभिन्न फसल योजनाओं को लेकर भी है, जहाँ राज्य सरकारें केन्द्र से सहायता माँग रही हैं।

परेशानी बढ़ी

‘प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना’ में कोई व्यावहारिक प्रक्रिया नहीं है। किसान को अपनी क्षतिपूर्ति पाने के लिये नाकों चने चबाने पड़ते हैं। इस समूचे मामले में बीमा विनायक विकास प्राधिकरण (इरडा) की भूमिका सिर्फ दलाल की रह गई है, जो वह विभिन्न बीमा कम्पनियों के लिये कर रहा है। बीमा पाने के लिये फॉर्म मिलने से लेकर जमा करने की पूरी प्रक्रिया इतनी उलझी हुई है कि अच्छे अच्छे जानकारों के भी पसीने छूट जाएँ। पहले साल में 20, दूसरे में 22, इस साल के लिये 26 हजार करोड़ रुपए ‘प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना’ के तहत बीमा कम्पनियों के झोलों में डाले गए हैं। लागत जोड़कर न्यूनतम समर्थन मूल्य देने का वादा भाजपा ने लोक सभा के चुनावों में किया था। यह स्वामीनाथन आयोग की सिफारिशों पर आधारित था। सत्ता में आने के बाद से सरकार अपने वादे से पलट गई। अब न्यूनतम समर्थन मूल्य की परिभाषा को बदल कर वह वादा पूरा करने का दावा कर रही है, जो पूरी तरह झूठ है। आज देश का किसान लागत से भी कम मूल्य पर अपना उत्पाद बेचने को मजबूर है। जहाँ तक कर्ज माफी की बात है, तो किसानों को दी जाने वाली कर्ज माफी अन्य क्षेत्रों विशेषकर कॉर्पोरेट की तुलना में तो कुछ भी नहीं है? 2006 से 2015 के बीच 42 खरब रुपए की विभिन्न कर छूट किसी-न-किसी रूप में कृषि के अलावा सरकारों को अन्य क्षेत्रों के लिये छोड़नी पड़ी है, या देनी पड़ी है।

जीएसटी कर लागू करने के लिये सरकार मध्य रात्रि को सदन का विशेष सत्र आहूत कर संसद का कार्य चला सकती है, लेकिन किसानों की माँगों के सन्दर्भ में तीन हफ्ते के लिये सदन का विशेष सत्र नहीं बुलाया जा सकता है? बेहतर होगा कि सरकार इस तीन सप्ताह के विशेष सत्र में स्वामीनाथन आयोग की सिफारिशों पर तीन दिन के लिये र्चचा रखे।

(लेखक प्रख्यात कृषि जानकार हैं।)


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