संसद की लोक लेखा समिति द्वारा पर्यावरण मंत्रालय की खिंचाई

संसद की लोक लेखा समिति द्वारा वन एवं पर्यावरण मंत्रालय में व्याप्त अनियमितताओं, लेट-लतीफी, भ्रष्टाचार एवं लापरवाही को उजागर किए जाने के बाद जो तस्वीर उभरी है वह चौका देने वाली है। लोक लेखा समिति ने पाया कि पर्यावरण एवं वन मंत्रालय को भारत से बाहर ले जाए गए अनेक वानस्पतिक संसाधनों को लेकर दिए गए बौद्धिक सम्पदा अधिकारों के संबंध में भी कोई जानकारी नहीं है। अब देखना यह है कि पर्यावरण मंत्रालय में हुआ लापरवाही के बारे में क्या कार्रवाई होती है। पर्यावरण मंत्रालय में हुए लापरवाही को उजागर करते कुमार संभव श्रीवास्तव।

पर्यावरण मंत्रालय में हुए लापरवाही से भारतीय जैव विविधता को न केवल गणनातीत नुकसान पहुंचा है बल्कि राष्ट्रीय खजाने को भी अपरिमित हानि हुई है। रिपोर्ट में आगे कहा गया है कि राष्ट्रीय जैव विविधता बोर्ड की कार्यप्रणाली को देखकर दुख होता है क्योंकि यह अपने गठन के छ: वर्ष पश्चात भी कई महत्वपूर्ण विषयों जैसे जैव विविधता तक पहुंच, शोध परिणामों का हस्तांतरण और बौद्धिक सम्पदा अधिकारों के संबंध में नियमन बनाने एवं पर्याप्त संख्या में वर्गीकरण करने वालों को भर्ती करने या उन्हें संविदा पर रखने एवं एक नियमित कानूनी सेल बनाने में असफल रहा है।

संसद की लोक लेखा समिति ने लोकसभा के पटल पर रखी अपनी रिपोर्ट में साफ तौर पर कहा है कि संघीय पर्यावरण एवं वन मंत्रालय देश के पर्यावरण को प्रभावशाली ढंग से संरक्षित कर पाने में असफल रहा है। इस रिपोर्ट में वनीकरण, जैव विविधता संरक्षण, प्रदूषण नियंत्रण एवं पर्यावरण एवं वन मंत्रालय के अंतर्गत पर्यावरणीय शिक्षा से संबद्ध पर्यावरणीय कार्यक्रमों के क्रियान्वयन एवं संस्थानों की कार्यप्रणाली में गंभीर कमियों को दर्शाया गया है। समिति की रिपोर्ट वर्ष 2008-09 में विभाग के कार्यों का महालेखाकार द्वारा किए गए अंकेक्षण की उस रिपोर्ट पर आधारित है, जिसे नवम्बर 2010 में लोकसभा के पटल पर रखा गया था। भारतीय जनता पार्टी के मुरली मनोहर जोशी की अध्यक्षता वाली इस समिति ने इस रिपोर्ट की विवेचना एवं मंत्रालय से प्राप्त मौखिक जानकारी एवं दस्तावेजों के आधार पर यह रिपोर्ट तैयार की है। इसमें पर्यावरण संरक्षण हेतु मंत्रालय से तुरंत एवं प्रभावशाली हस्तक्षेप करने को कहा है।

लोक लेखा समिति की रिपोर्ट के अनुसार मंत्रालय की विभिन्न योजनाओं के अंतर्गत की परियोजनाओं की पूर्णता की दर बहुत ही कमजोर है। इतना ही नहीं इस बात की भी कम संभावना नजर आती है कि जारी किया गया धन का उपयोग उन्हीं कार्यों के लिए किया गया हो जिसके लिए कि स्वीकृति दी गई थी। रिपोर्ट में इस ओर इंगित करते हुए बताया गया है कि वर्ष 2003 से 2008 के मध्य मंत्रालय ने राष्ट्रीय वनीकरण एवं पर्यावरण विकास बोर्ड द्वारा 59.48 करोड़ लागत की 647 वनीकरण परियोजनाओं की स्वीकृति दी गई थी। इनमें से केवल 20 परियोजनाएं पूरी हुई एवं इस मद से जारी कुल 47.03 करोड़ रुपए में से केवल 5.65 प्रतिशत ही इन पूर्ण हुई परियोजनाओं पर खर्च किया गया। बाकी मामलों में जिन स्वैच्छिक संस्थाओं को इन परियोजनाओं का क्रियान्वयन करना था वे पहली और दूसरी किश्तें मिलने के बाद गायब हो गई। वनीकरण के बहाने मंत्रालय द्वारा गबन करने वाली सात संस्थाओं को काली सूची में डाला गया और पुलिस में एफआईआर दर्ज की गई वही दूसरी ओर केवल एक दोषी अधिकारी के खिलाफ कार्यवाही हुई।

रिपोर्ट में कहा गया है 'समिति को यह देख कर धक्का पहुंचा है कि वनीकरण के नाम पर सार्वजनिक धन की लूट हुई और सरकार ने इन गबनकर्ताओं के खिलाफ मामला दर्ज करने हेतु बहुत ही कम ठोस प्रयास किए हैं। वर्ष 2001 में योजना आयोग ने वर्ष 2012 तक वनवृक्ष आच्छादन के लक्ष्य को बढ़ाकर 33 प्रतिशत कर दिया था। जबकि नवीनतम वन सर्वेक्षण बताता है कि वन आच्छादन मात्र 21 प्रतिशत ही है। समिति की रिपोर्ट में दर्शाया गया है कि वनीकरण के राष्ट्रीय कार्यक्रम को महज स्वैच्छिक या गैर सरकारी संगठनों के भरोसे नहीं छोड़ा जा सकता। यदि चाहे गए लक्ष्य की पूर्ति करना है तो संघीय सरकार के साथ ही साथ राय सरकारों के सभी विभागों एवं संस्थाओं और पंचायती राज संस्थानों को प्रभावशाली ढंग से इसमें शामिल करना होगा। समिति ने प्रधानमंत्री ग्रामीण सड़क योजना के संबंध में अनुशंसा करते हुए कहा है कि इस हेतु ऐसे तीसरे पक्ष को निगरानी का कार्य सौंपा जाना चाहिए जो कि सेटेलाइट के माध्यम से वनीकरण का सत्यापन कर पाने में सक्षम हो।

जैव विविधता - जैव विविधता के संरक्षण वाले मोर्चे पर भी वन एवं पर्यावरण मंत्रालय असफल सिद्ध हुआ है। 45500 वनस्पति प्रजातियों एवं 91000 जैव प्रजातियों की उपस्थिति भारत को विश्व के 17 व्यापक जैव विविधता वाले क्षेत्रों में शामिल करती है। ऐसी अपेक्षा थी कि राष्ट्रीय जैव विविधता प्राधिकरण स्थानीय जैव संसाधनों की उपलब्धता एवं इससे संबंधित ज्ञान की परिपूर्ण जानकारी एकत्रित करने हेतु नागरिकों से सलाह मशविरा कर अपनी आंचलिक जैव विविधता प्रबंधन समितियों के माध्यम से जन जैव विविधता रजिस्टर तैयार करेगा।' रिपोर्ट में कहा गया है कि गत अक्टूबर तक जहां इस प्रकार के 14000 रजिस्टर तैयार करने थे, के मुकाबले में महज 1,121 रजिस्टरों का दस्तावेजीकरण हो पाया है।

भूमंडलीकरण युग के प्रारंभ होने के 15 वर्षों में गुम या लूट ली गई जैव विविधता के बारे में समिति के सवालों पर मंत्रालय के एक प्रतिनिधि ने बताया कि 'भारतीय वानस्पतिक सर्वेक्षण (बीसीआई) केवल 46000 वनस्पतीय प्रजातियों एवं 81000 जीव जंतु प्रजातियों की ही पहचान कर पाया है, जबकि भारत में यह लाखों की संख्या में पाई जाती हैं। इस तरह यह कुल संख्या के आस-पास भी नहीं पहुंचा है। रिपोर्ट में समिति के सदस्यों ने बेईमान विदेशी वैज्ञानिकों, वनस्पति विज्ञानियों और व्यापारियों द्वारा बहुमूल्य विविधता भरी जैव विविधता प्रजातियों के दुरुपयोग (ले जाने) पर दु:ख प्रकट करते हुए कहा है कि इससे जहां भारतीय जैव विविधता को न केवल गणनातीत नुकसान पहुंचा है बल्कि राष्ट्रीय खजाने को भी अपरिमित हानि हुई है। रिपोर्ट में आगे कहा गया है कि राष्ट्रीय जैव विविधता बोर्ड की कार्यप्रणाली को देखकर दुख होता है क्योंकि यह अपने गठन के छ: वर्ष पश्चात भी कई महत्वपूर्ण विषयों जैसे जैव विविधता तक पहुंच, शोध परिणामों का हस्तांतरण और बौद्धिक सम्पदा अधिकारों के संबंध में नियमन बनाने एवं पर्याप्त संख्या में वर्गीकरण करने वालों को भर्ती करने या उन्हें संविदा पर रखने एवं एक नियमित कानूनी सेल (एकांश) बनाने में असफल रहा है।

लोक लेखा समिति ने यह भी पाया कि पर्यावरण एवं वन मंत्रालय को भारत से बाहर ले जाए गए अनेक वानस्पतिक संसाधनों को लेकर दिए गए बौद्धिक सम्पदा अधिकारों के संबंध में भी कोई जानकारी नहीं है। इसने अनुशंसा की है कि एनबीए इस पर निगाह रखने के लिए तुरंत एक निगरानी सेल स्थापित करे और इसकी मदद के लिए एक कानूनी सेल भी स्थापित करे। समिति का यह भी कहना है कि भारतीय वानस्पतिक सर्वेक्षण भी वानस्पतिक प्रजातियों के दस्तावेजीकरण एवं निगरानी प्रक्रिया में अपर्याप्तता की वजह से जैव विविधता सम्मेलन के प्रावधानों के उद्देश्यों को पूरा कर पाने में असमर्थ रहा है। इतना ही नहीं वर्ष 1990 के बाद बीएसआई ने विभिन्न वनस्पति प्रजातियों को लेकर विभिन्न जातीय समूहों जो कि अनेक कारणों से इनका प्रयोग करते हैं एवं इनसे जुड़ाव संबंधी कोई सर्वेक्षण नहीं किया है।

समिति ने यह भी पाया कि वर्ष 2002 से 2009 के मध्य 21 राष्ट्रीय पार्क, चार जैव रिजर्व एवं 27 वन्य जीव अभ्यारण्यों का पहली बार लोक लेखा समिति द्वारा या तो पूर्ण या आंशिक अध्ययन किया गया। वर्ष 2009 तक 64 प्रतिशत राष्ट्रीय पार्क, 54 प्रतिशत जैव विविधता रिजर्व एवं 94 प्रतिशत वन्यजीव अभ्यारण्यों का अध्ययन होना शेष है। इसी प्रकार वर्ष 2009 तक देश में मौजूद कुल 15397 पवित्र उपवनों में से मात्र 3 पवित्र उपवनों का अध्ययन किया गया था। इस पर अपना मत देते हुए मंत्रालय ने बताया कि 'जैसा कि नाम से ही स्पष्ट है पवित्र उपवनों को पवित्र इसलिए माना जाता है क्योंकि उनसे जुड़े व्यक्तियों के धार्मिक विश्वास उन्हें पर लौकिक शक्तियों से जोड़ते हैं, अधिकांश मामलों में इस तरह के उपवनों का संरक्षण स्वयं लोग ही करते हैं। अतएव प्राथमिकता के लिहाज से ये उपवन संरक्षित क्षेत्रों, जैव विविधता प्रमुख स्थलों और नाजुक इकोसिस्टम से कम महत्व रखते हैं जिन्हें बाहरी तत्वों से जबरदस्त खतरा है।'

समिति का कहना है कि बीएसआई गंभीर वित्तीय एवं अधोसंरचनात्मक संकट एवं कर्मचारियों की कमी से जूझ रहा है और समिति ने इस मृतप्राय संस्थान को वित्तीय पोषण उपलब्ध करवाकर इसमें प्राण फूंकने को कहा है। लोक लेखा समिति ने केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के 30 करोड़ रुपए के ईको सिटी कार्यक्रम में भी चौका देने वाली अनिमितताएं पाई हैं। इस कार्यक्रम का क्रियान्वयन 10वीं पंचवर्षीय योजना (2002-2007) के मध्य ऐतिहासिक एवं सांस्कृतिक महत्व के बारह शहरों के पर्यावरण को बेहतर बनाने के लिए किया गया था। समिति ने इस पर टिप्पणी करते हुए कहा है कि इस परियोजना के लिए धन जारी करना न केवल तयशुदा वित्तीय प्रक्रिया का उल्लंघन थी बल्कि असंतोषजनक क्रियान्वयन की सूचना मिलने के बावजूद धन जारी कर दिया गया। समिति ने रिपोर्ट में कहा है अतएव समिति सरकार से अनुरोध करती है कि लापरवाही के कारणों का पता लगाया जाए। अंत में केवल इतना ही वन एवं पर्यावरण मंत्रालय से बार-बार अनुरोध किए जाने के बावजूद उन्होंने इस विषय पर किसी भी तरह की टिप्पणी नहीं की।

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