कौन थे अनाम लोग?
सैकड़ों, हजारों तालाब अचानक शून्य से प्रकट नहीं हुए थे। इनके पीछे एक इकाई थी बनवाने वालों की, तो दहाई थी बनाने वालों की। यह इकाई, दहाई मिलकर सैकड़ा, हजार बनती थी। लेकिन पिछले 200 बरसों में नए किस्म की थोड़ी सी पढ़ाई पढ़ गए समाज ने इस इकाई, दहाई, सैकड़ा, हजार को शून्य ही बना दिया। इस नए समाज के मन में इतनी भी उत्सुकता नहीं बची कि उससे पहले के दौर में इतने सारे तालाब भला कौन बनाता था। उसने इस तरह के काम को करने के लिए जो नया ढांचा खड़ा किया है, आई. आई. टी. का, सिविल इंजीनियरिंग का, उस पैमाने से, उस गज से भी उसने पहले हो चुके इस काम को नापने की कोई कोशिश नहीं की।
वह अपने गज से भी नापता तो कम से कम उसके मन में ऐसे सवाल तो उठते कि उस दौर की आई.आई. टी. कहां थी? कौन थे उसके निर्देशक? कितना बजट था, कितने सिविल इंजीनियर निकलते थे? लेकिन उसने सब को गए जमाने का गया, बीता काम माना और पानी के प्रश्न को नए ढंग से हल करने का वायदा भी किया और दावा भी। गांवों, कस्बों की तो कौन कहे, बड़े शहरों के नलों में चाहे जब बहने वाला सन्नाटा इस वायदे और दावे पर सबसे मुखर टिप्पणी है। इस समय के समाज के दावों को इसी समय के गज से नापें तो कभी दावे छोटे पड़ते हैं तो कभी गज ही छोटा निकल आता है।
इस गज को अभी यही छोड़ें और थोड़ा पीछे लौटें। आज जो अनाम हो गए, उनका एक समय में बड़ा नाम था। पूरे देश में तालाब बनते थे और बनाने वाले भी पूरे देश में थे। कहीं यह विद्या जाति के विद्यालय में सिखाई जाती थी तो कहीं यह जात से हट कर एक विशेष पांत भी बन जाती थी। बनाने वाले लोग कहीं एक जगह बसे मिलते थे तो कहीं वे घूम- घूम कर इस काम को करते थे।
गजधर एक सुन्दर शब्द है, तालाब बनाने वालों को आदर के साथ याद करने के लिए। राजस्थान के कुछ भागों में यह शब्द आज भी बाकी है। गजधर यानी जो गज को धारण करता है। और गज वही जो नापने के काम आता है। लेकिन फिर भी समाज में इन्हें तीन हाथ की लोहे की छड़ लेकर घूमने वाला मिस्त्री नहीं माना। गजधर तो समाज की गहराई नाप ले- उसे ऐसा दर्जा दिया गया है।
गजधर वास्तुकार थे। गांव- समाज हो या नगर- समाज- उसके नव निर्माण की, रख - रखाव की जिम्मेदारी गजधर निभाते थे। नगर नियोजन से लेकर छोटे निर्माण के काम गजधर के कंधों पर टिके थे। वे योजना बनाते थे, कुल काम की लागत निकालते थे, काम में लगने वाली सारी सामग्री जुटाते थे और इस सबके बदले वे अपने जजमान से ऐसा कुछ नहीं मांग बैठते थे, जो वे दे न पाएं। लोग भी ऐसे थे कि उनसे जो कुछ बनता, वे गजधर को भेंट कर देते।
काम पूरा होने पर पारिश्रमिक के अलावा गजधर को सम्मान भी मिलता था। सरोपा भेंट करना अब शायद सिर्फ सिख परंपरा में ही बचा है पर अभी कुछ समय पहले तक राजस्थान में गजधर को गृहस्थ की ओर से बड़े आदर के साथ सरोपा भेंट किया जाता रहा है। पगड़ी बांधने के अलावा चांदी और कभी-कभी सोने के बटन भी भेंट दिए जाते थे। जमीन भी उनके नाम की जाती थी। पगड़ी पहनाए जाने के बाद गजधर अपने साथ काम करने वाली टोली के कुछ और लोगों का नाम बताते थे, उन्हें भी पारिश्रमिक के अलावा यथाशक्ति कुछ न कुछ भेंट दी जाती थी। कृतज्ञता का यह भाव तालाब बनने के बाद होने वाले भोज में विशेष रूप से देखने में आता था।
गजधर हिन्दू थे और बाद में मुसलमान भी। सिलावट या सिलावटा नामक एक जाति वास्तुकला में बहुत निष्णात हुई है। सिलावटा शब्द शिला यानी पत्थर से बना है। सिलावटा भी गजधरों की तरह दोनों धर्मों में थे। आबादी के अनुपात में उनकी संख्या काफी थी। इनके अपने मोहल्ले थे। आज भी राजस्थान के पुराने शहरों में सिलावटपाड़ा मिल जाएंगे। सिंध क्षेत्र में, कराची में भी सिलावटों का भरा- पूरा मोहल्ला है। गजधर और सिलावटा- एक ही काम को करने वाले ये दो नाम कहीं - कहीं एक ही हो जाते थे। जैसलमेर और सिंध में सिलवटों के नायक ही गजधर कहलाते थे। कराची में भी इन्हें सम्मान से देखा जाता था। बंटवारे के बाद पाकिस्तान मंत्रिमंडल में भी एक सिलावट- हाकिम मोहम्मद गजधर की नियुक्ति हुई थी।
इनकी एक धारा तोमर वंश तक जाती थी और समाज के निर्माण के सबसे ऊंचे पद को भी छूती रही है। अनंगपाल तंवर ने भी कभी दिल्ली पर झंडा लहराया था।
अभ्यस्त आंखों का सुंदर उदाहरण थे गजधर। गुरु- शिष्य परंपरा से काम सिखाया जाता था। नए हाथ को पुराना हाथ इतना सिखाता, इतना उठाता कि वह कुछ समय बाद `जोड़िया´ बन जाता। जोड़िया यानी गजधर का विश्वसनीय साथी। एक गजधर के साथ कई जोड़िया होते थे। कुछ अच्छे जोड़ियों वाले गजधर स्वयं इतने ऊपर उठ जाते थे कि बस फिर उनका नाम ही गजधर रह जाता, पर गज उनका छूट जाता। अच्छे गजधर की एक परिभाषा यही थी कि वे औजारों को हाथ नहीं लगाते। सिर्फ जगह देखकर निर्णय लेते कि कहां क्या करना है। वे एक जगह बैठ जाते और सारा काम उनके मौखिक निर्देश पर चलता रहता।
औजारों का उपयोग करते-करते इतना ऊपर उठना कि फिर उनकी जरूरत ही नहीं रहे- यह एक बात है। पर कभी औजारों को हाथ ही नहीं लगाना- यह दूसरी बात है। ऐसे सिद्ध सिरभाव कहलाते थे। सिरभाव किसी भी औजार के बिना पानी भी ठीक जगह बताते थे। कहते हैं भाव आता था उन्हें, यानी बस पता चल जाता था। सिरभाव कोई जाति विशेष से नहीं होते थे। बस किसी- किसी को यह सिद्धि मिल जाती थी। जलसूंघा यानी भूजल को `सूंघ´ कर बताने वाले लोग भी सिरभाव जैसे ही होते थे पर वे भी जल की तरंगों के संकेत को आम या जामुन की लकड़ी की सहायता से पकड़ कर पानी का पता बताते थे। यह काम आज भी जारी है। ट्यूबवैल खोलने वाली कंपनियां पहले अपने यंत्र से जगह चुनती हैं फिर इन्हें बुलाकर और पक्का कर लेती हैं कि पानी मिलेगा या नहीं। सरकारी क्षेत्रों में भी बिना कागज पर दिखाए इनकी सेवाएं ले ली जाती हैं।
सिलावटा शब्द मध्य प्रदेश तक जाते-जाते एक मात्रा खोकर सिलावट बन जाता है पर गुण ज्यों के त्यों रहते हैं। कहीं- कहीं मध्य-देश में सिलाकार भी थे। गुजरात में भी इनकी अच्छी आबादी है। वहां ये सलाट कहलाते हैं। इनमें हीरा सलाट पत्थर पर अपने काम के कारण बहुत ही प्रसिद्ध हुए हैं।
कच्छ में गजधर गईधर हो गए हैं। उनका वंशवृक्ष इंद्र देवता के पुत्र जयंत से प्रारंभ होता है। गजधरों का एक नाम सूत्रधार भी रहा है। यही बाद में, गुजरात में ठार और देश के कई भागों में सुथार हो गया।
गजधरों को एक शास्त्रीय नाम स्थपति भी था, जो थवई की तरह आज भी प्रचलित है।
पथरोट और टकारी भी पत्थर पर होने वाले सभी कामों के अच्छे जानकार थे और तालाब बनाने के काम में भी लगते थे। मध्य प्रदेश में पथरौटा नाम के गांव और मोहल्ले आज भी इनकी याद दिलाते हैं। टकारी दूर दक्षिण तक फैले थे और इनके मोहल्ले टकेरवाड़ी कहलाते थे।
संसार है माटी का और इस माटी का पूरा संसार जानने वालों की कमी नहीं थी। वे मटकूट थे तो कहीं मटकूड़ा और जहां ये बसते थे, वे गांव मटकूली कहलाते थे। सोनकर और सुनकर शब्द सोने का काम करने वालों के लिए थे। पर यह सोना सोना नहीं, मिट्टी ही था। सोनकर या सुनकर राजलहरिया भी कहलाते थे। ये अपने को रघुवंश के सम्राट सगर के बेटों से जोड़ते थे। अश्वमेध यज्ञ के लिए छोड़े गए घोड़ों की चोरी हो जाने पर सगर- पुत्रों ने उसको ढूंढ़ निकालने के लिए सारी पृथ्वी खोद डाली थी और अंत में कपिल मुनि के क्रोध के पात्र बन बैठे थे। उसी शाप के कारण सोनकर तालाबों में मिट्टी खोदने का काम करते थे, पर अब क्रोध नहीं पुण्य कमाते थे। ये ईंट बनाने के काम में भी बहुत कुशल रहे हैं। खंती भी तालाब में मिट्टी काटने के काम में बुलाए जाते थे। जहां ये किसी वजह से न हों, वहां कुम्हार से तालाब की मिट्टी के बारे में सलाह ली जाती थी।
तालाब की जगह का चुनाव करते समय बुलई बिना बुलाए जाते थे। बुलई यानी जिन्हें गांव की पूरी- पूरी जानकारी रहती थी। कहां कैसी जमीन है किसकी है, पहले कहां-कहां तालाब, बावड़ी आदि बन चुके हैं, कहां और बन सकते हैं- ऐसी सब जानकारियां बुलई को कंठस्थ रहती थी, फिर भी उनके पास इस सबका बारीक हिसाब- किताब लिखा भी मिलता था।
मालवा के इलाकों में बुलई की मदद से ही यह सब जानकारी रकबे में बाकायदा दर्ज की जाती थी। और यह रकबा हरेक जमींदारी में सुरक्षित रहता था।
बुलई कहीं ढेर भी कहलाते थे। और इसी तरह मिर्धा थे, जो जमीन की नाप- जोख, हिसाब- किताब और जमीन के झगड़ों का निपटारा भी करते थे।
ईंट और चूने के गारे का काम चुनकर करते थे। बचे समय में नमक का भी व्यापार इन्हीं के हाथ होता था। आज के मध्य प्रदेश में सन् 1911 में चुनकरों की आबादी 25000 से ऊपर थी। उधर उड़ीसा में लुनिया, मुरहा और सांसिया थे। अंग्रेज के समय सांसियों को अपराधी जाति का बताकर पूरी तरह तोड़ दिया गया था।
नए लोग जैसे तालाबों को भूलते गए, वैसे ही उनको बनाने वालों को भी। भूले- बिसरे लोगों की सूची में दुसाध, नौनिया, गोंड, परधान, कोल, ढीमर, ढींवर, भेई भी आते हैं। एक समय था जब ये तालाब के अच्छे जानकर माने जाते थे। आज इनकी उस भूमिका को समझने के विवरण भी हम खो बैठे हैं।
कोरी या कोली जाति ने भी तालाबों का बड़ा काम किया था। सैकड़ों तालाब बनाने वाले कोरियों के बारे में आज ठीक ढंग से जानकारी देने वाली एक पंक्ति भी नहीं मिल पाती। लेकिन एक समय था जब बहुत से क्षेत्र कोली जाति के सदस्यों को अपने यहां बसाने के लिए कई तरह की सुविधाएं जुटाते थे। महाराष्ट्र, गुजरात के अनेक गांवों में उन्हें जो जमीन दी जाती थी, उसका लगान माफ कर दिया जाता था। ऐसी जमीन बारा या वारो कहलाती थी।
सचमुच लौह पुरुष थे अगरिया। यह जाति लोहे के काम के कारण जानी जाती थी। पर कहीं-कहीं अगरिया तालाब भी बनाते थे। तालाब खोदने के औजार- गेंती, फावड़ा, बेल, मेटाक, तसले या तगाड़ी बनाने वाले लोग उन औजारों को चलाने में भी किसी से पीछे नहीं थे। बेल से ही बेलदार शब्द बना है।
माली समाज और इस काम में लगी परिहार जाति का भी तालाब बनाने में, तालाब बनने पर उसमें कमल, कुमुदिनी लगाने में योगदान रहता था। कहीं- कहीं तालाब के किनारे की कुछ जमीन केवल माली परिवारों के लिए सुरक्षित रखी जाती थी। उनका जीवन तालाब से चलता था और जीवनभर वे तालाब की रखवाली करते थे।
भील, भिलाले, सहरिया, कोल आज अपना सब कुछ खोकर जनजाति की अनुसूचित सूची में शामिल कर दिए गए हैं पर एक समय में इनके छोटे- बड़े राज थे। इन राज्यों में ये पानी की, तालाबों की पूरी व्यवस्था खुद संभालते थे। बहती नदी का पानी कहां रोक कर कैसा बंधान बांधना है और फिर उस बंधान का पानी कितनी दूर तक सींचने ले जाना है- यह कौशल भील, तीर- धनुष की तरह अपने कंधे पर ही रखते थे। इस तरह बांधे गए बंधानों और तालाबों के पानी के दबाव की भी उन्हें खूब परख रहती। दबाव कितना है और कितनी दूरी के कुओं को वह हरा कर देगा, यह भेद वे अपने तीर से रेखा खींच कर बता सकते थे।
राजस्थान में यह काम मीणा करते थे। अलवर जिले में एक छोटी- सी नई संस्था `तरुण भारत संघ´ ने पिछले 10 वर्षों में 2000 से अधिक तालाब बनाए हैं। उसे हर गांव में यही लगा कि पूरा गांव तालाब बनाना जानता है। कठिन से कठिन मामलों में संस्था को बाहर से कोई सलाह नहीं लेनी पड़ी, क्योंकि भीतर तो मीणा थे जो पीढ़ियों से यहां तालाब बनाते रहे हैं।
भीलों में कईं भेद थे। नायक, नायका, चोलीवाला नायक, कापड़िया नायक, बड़ा नायक, छोटा नायक और फिर तलाबिया, गरासिया- सब तालाब और पानी के काम के नायक माने जाते थे।
नायक या महाराष्ट्र कोंकण में नाईक उपाधि, बंजारा समाज में भी थी। वन में बिचरने वाले बनचर, बिनचर धीरे- धीरे बंजारे कहलाने लगे। ये आज दयनीय बना दिए गए है, पर एक समय ये शहर से दूसरे शहर सैकड़ों पशुओं पर माल लाद कर व्यापार करने निकलते थे। गन्ने के क्षेत्र से धान के क्षेत्र में गुड़ ले जाते और फिर धान लाकर दूसरे क्षेत्रों में बेचते थे।
शाहजहां के वजीर आसफजहां जब सन् 1630 में दक्खन आए थे तो उनकी फौज का सामान भंगी- जंगी नाम के नायक बंजारों के बैलों पर लदा था। बैलों की संख्या थी एक लाख अस्सी हजार। भंगी- जंगी के बिना शाही फौज हिल नहीं सकती थी। उनकी प्रशंसा में वजीर आसफजहां ने उन्हें सोने से लिखा एक ताम्रपत्र भेंट किया था।
वर्णनों में कुछ अतिशयोक्ति होगी पर इनके कारवां में पशु इतने होते कि गिनना कठिन हो जाता था। तब इसे एक लाख पशुओं का कारवां मान लिया जाता था और ऐसी टोली का नायक लाखा बंजारा कहलाता था। हजारों पशुओं के इस कारवां को सैकड़ों लोग लेकर चलते थे। इसके एक दिन के पड़ाव पर पानी की कितनी मांग होती, इसका अंदाजा लगाया जा सकता है। जहां ये जाते, वहां अगर पहले से बना तालाब नहीं होता तो फिर वहां तालाब बनाना ये अपना कर्तव्य मानते थे। मध्य प्रदेश के सागर नाम की जगह में बना सुंदर और बड़ा तालाब ऐसे ही किसी लाखा बंजारे ने बनाया था। छत्तीसगढ़ में आज भी कई गांवों में लोग अपने तालाब को किसी लाखा बंजारे से जोड़कर याद करते हैं। इन अज्ञात लाखा बंजारों के हाथों से बने ज्ञात तालाबों की सूची में कई प्रदेशों के नाम समा जाएंगे।
गोंड समाज का तालाबों से गहरा संबंध रहा है। महाकौशल में गोंड का यह गुण जगह- जगह तालाबों के रूप में बिखरा मिलेगा। जबलपुर के पास कूड़न द्वारा बनाया गया ताल आज कोई एक हजार बरस बाद भी काम दे रहा है। इसी समाज में रानी दुर्गावती हुईं, जिनने अपने छोटे से काल में एक बड़े भाग को तालाबों से भर दिया था।
गोंड न सिर्फ खुद तालाब बनाते- बनवाते थे, बल्कि तालाब बनाने वाले दूसरे लोगों का भी खूब सम्मान करते थे। गोंड राजाओं ने उत्तर भारत से कोहली समाज के लोगों को आज के महाराष्ट्र के भंडारा जिले में उत्साह के साथ लाकर बसाया था। भंडारा में भी इसी कारण बहुत अच्छे तालाब मिलते हैं।
बड़े तालाबों की गिनती में सबसे पहले आने वाला प्रसिद्ध भोपाल ताल बनवाया तो राजा भोज ने था पर इसकी योजना भी कालिया नामक एक गोंड सरदार की मदद से ही पूरी हो सकी थी। भोपाल- होशंगाबाद के बीच की घाटी में बहने वाली कालिया सोत नदी इन्हीं गोंड सरदार के नाम से याद की जाती है।
ओढ़िया, ओढ़ही, होरही, ओड़, औंड़- जैसे- जैसे जगह बदली, वैसे- वैसे इनका नाम बदलता था पर काम एक ही था, दिन- रात तालाब और कुएं बनाना। इतने कि गिनना संभव न बचे। ऐसे लोगों के लिए ही कहावत बनी थी कि ओड़ हर रोज नए कुएं से पानी पीते हैं। बनाने वाले और बनने वाली चीज के एकाकार होने का सबसे अच्छा उदाहरण शायद ही मिले क्योंकि कुएं का एक नाम ओड़ भी है। ये पश्चिम में ठेठ गुजरात से राजस्थान, उत्तर प्रदेश, विशेषकर बुलंदशहर और उसके आसपास के क्षेत्र, महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, उड़ीसा तक फैले थे। इनकी संख्या भी काफी रही होगी। उड़ीसा में कभी कोई संकट आने पर नौ लाख ओढ़िया के धार नगरी में पहुंचने की कहानी मिलती है। ये गधे पालते थे। कहीं ये गधों से मिट्टी ढो कर केवल पाल बनाते थे, तो कहीं तालाब की मिट्टी काटते थे। प्राय: स्त्री- पुरुष एक साथ काम करते थे। ओढ़ी मिट्टी के अच्छे जानकार होते थे। मिट्टी के रंग और मिट्टी की गंध से स्वभाव पढ़ लेते थे। मिट्टी की सतह और दबाव भी खूब पहचानते थे। राजस्थान में तो आज भी कहावत है कि ओढ़ी कभी दब कर नहीं मरते।
प्रसिद्ध लोकनायिका जसमा ओढ़न धार नगरी के ऐसे ही एक तालाब पर काम कर रही थी, जब राजा भोज ने देख अपना राज- पाट तक छोड़ने का फैसला ले लिया था। राजा ने जसमा को सोने से बनी एक अप्सरा की तरह देखा था। पर ओढ़ी परिवार में जन्मी जसमा अपने को, अपने शरीर को तो क्या संसार तक को मिट्टी मानने वाली परंपरा का हिस्सा थी। किस्सा बताता है कि राजा जसमा को पाने के लिए कुछ भी करने को तैयार था, अपने कर्तव्य को छोड़ कर जो नहीं करने लायक था, वह भी करने लगा था। जसमा ऐसे राजा की रानी बनने से पहले मृत्यु का वरण करना तय करती है। राजा का नाम मिट गया पर जसमा ओढ़न का जस आज भी उड़ीसा से लेकर छत्तीसगढ़, महाकौशल, मालवा, राजस्थान और गुजरात में फैला हुआ है। सैकड़ों बरस बीत गए हैं, इन हिस्सों में फसल कटने के बाद आज भी रात- रात भर जसमा ओढ़न के गीत गाए जाते हैं, नौटंकी खेली जाती है। भवई के मंचों से लेकर भारत भवन, राष्ट्रीय नाटक विद्यालय तक में जसमा के चरण पड़े हैं।
जसमा ओढ़न का यश तो लोगों के मन में बाकी रहा पर ओढ़ियों का तालाब और कुएं वाला यश नए लोगों ने भुला दिया है। जो सचमुच राष्ट्र निर्माता थे, उन्हें अनिश्चित रोजी- रोटी की तलाश में भटकने के लिए मजबूर कर दिया गया है। कई ओढ़ी आज भी वही काम करते हैं- इंदिरा नहर को बनाने में हजारों ओढ़ी लगे थे- पर जस चला गया है उनका।
उड़ीसा में ओढ़ियों के अलावा सोनपुर, और महापात्रे भी तालाब और कुएं के निर्माता रहे हैं। ये गंजाम, पुरी, कोणार्क और आसपास के क्षेत्रों में फैले थे। सोनपुरा बालंगीर जिले के सोनपुर गांव से निकले लोग थे। एक तरफ ये मध्य प्रदेश जाते थे तो दूसरी तरफ नीचे आंध्र तक। खरिया जाति रामगढ़, बिलासपुर और सरगुजा के आसपास तालाब, छोटे बांध और नहरों का काम करती थी। 1971 की जनगणना में इनकी संख्या 23 हजार थी।
बिहार में मुसहर, बिहार से जुड़े उत्तर प्रदेश के हिस्सों में लुनिया, मध्य प्रदेश में नौनिया, दुसाध और कोल जाति भी तालाब बनाने में मग्न रहती थी। मुसहर, लुनिया और नौनिया तब आज जैसे लाचार नहीं थे। 18वीं सदी तक मुसहरों को तालाब पूरा होने पर उचित पारिश्रमिक के साथ- साथ जमीन भी दी जाती थी। नौनिया, लुनिया की तालाब बनने पर पूजा होती थी। मिट्टी के पारखी मुसहर का समाज में अपना स्थान था। चोहरमल उनके एक शक्तिशाली नेता थे किसी समय। श्री सलेस (शैलेष) दुसाध के पूज्य थे। इनके गीत जगह- जगह गाए जाते हैं और इन्हें दूसरे लोग भी इज्जत देते हैं। दुसाध जब श्री सलेस के यज्ञ करते हैं तो अन्य जातियों के लोग भी उसमें भाग लेते हैं।
इन्हीं इलाकों में बसी थी डांढ़ी नामक एक जाति। यह कठिन और मेहनती काम करने के लिए प्रसिद्ध थी और इस सूची में तालाब और कुंआ तो शामिल था ही। बिहार में आज भी किसी कठिन काम का ठीक हल न सूझे तो कह देते हैं, ``डांढ़ी लगा दो।´´ डांढ़ी बहुत ही सुन्दर मजबूत काठी की जाति थी। इस जाति के सुडौल, गठीले शरीर मछली गिनने का न्यौता देते थे।
आज के बिहार और बंगाल में बसे संथाल सुंदर तालाब बनाते थे। संथाल परगने में बहुत कुछ मिट जाने के बाद भी कई आहर यानी तालाब, संथालों की कुशलता की याद दिलाने खड़े हैं।
महाराष्ट्र के नासिक क्षेत्र में कोहलियों के हाथों इतने बंधान और तालाब बने थे कि इस हिस्से पर अकाल की छाया नहीं पड़ती थी। समुद्र तटवर्ती गोवा और कोंकण प्रदेश घनघोर वर्षा के क्षेत्र हैं। पर यहां वर्षा का मीठा पानी देखते ही देखते खारे पानी के विशाल समुद्र में मिल जाता है। यह गावड़ी जाति की ही कुशलता थी कि पश्चिमी घाट की पहाड़ियों पर ऊपर से नीचे तक कई तालाबों में वर्षा का पानी वर्ष भर रोककर रखा जाता था। यहां और इससे ही जुड़े कर्नाटक के उत्तरी कन्नड़ क्षेत्र में चीरे नामक पत्थर मिलता है। तेज बरसात और बहाव को इसी पत्थर के सहारे बांधा जाता है। चीरे पत्थर को खानों से निकाल कर एक मानक आकार में तराशा जाता रहा है। इस आकार में रत्ती भर परिवर्तन नहीं आया है।
इतना व्यवस्थित काम बिना किसी व्यवस्थित ढांचे के नहीं हो सकता था। बुद्धि और संगठन का एक ठीक तालमेल खड़े किए बिना देश में इतने सारे तालाब न तो बन सकते थे, न टिक ही सकते थे। यह संगठन कितना चुस्त, दुरुस्त रहा होगा, इस प्रश्न का उत्तर दक्षिण की एक झलक से मिलता है।
दक्षिण में सिंचाई के लिए बनने वाले तालाब एरी कहलाते हैं। गांव- गांव में एरी थीं और उपेक्षा के 200 बरसों के इस दौर के बावजूद इनमें से हजारों एरियां आज भी सेवा कर रही हैं। गांव में पंचायत के भीतर ही एक और संस्था होती थी : एरी वार्यम्। एरी वार्यम में गांव के छह सदस्यों की एक वर्ष के लिए नियुक्ति होती थी। एरी से संबंधित हरेक काम- एरी बनाना, उसका रख- रखाव, सिंचाई की उचित और निष्पक्ष व्यवस्था और इन सब कामों के लिए सतत साधन जुटाना वार्यम् के जिम्मे होता था वार्यम् के छह सदस्य इन कामों को ठीक से नहीं कर पाएं तो उन्हें नियुक्ति की अवधि से पहले भी हटाया जा सकता था।
यहां एरी बनाने का काम वोद्दार करते थे। सिंचाई की पूरी व्यवस्था के लिए एक पद होता था। इसे अलग- अलग क्षेत्र में नीरघंटी, नीरगंटी, नीरआनी, कंबककट्टी और माइयन थोट्टी के नाम से जाना जाता था। तालाब में कितना पानी है, कितने खेतों में सिंचाई होनी है, पानी का कैसा बंटवारा करना है- ये सारे काम नीरघंटी करते थे। नीरघंटी का पद अनेक क्षेत्रों में सिर्फ हरिजन को ही दिया जाता था और सिंचाई के मामले में उनका निर्णय सर्वोपरि रहता था। किसान कितना भी बड़ा क्यों न हो, इस मामले में नीरघंटी से छोटा ही माना जाता था।
एक तरफ दक्षिण में नीरघंटी जैसे हरिजन थे तो पश्चिम में पालीवाल जैसे ब्राह्मण भी थे। जैसलमेर, जोधपुर के पास दसवीं सदी में पल्ली नगर में बसने के कारण ये पल्लीवाल या पालीवाल कहलाए। इन ब्राह्मणों को मरुभूमि में बरसने वाले थोड़े- से पानी को पूरी तरह से रोक लेने का अच्छा कौशल सध गया था। वे खडीन के अच्छे निर्माता थे। मरुभूमि का कोई ऐसा बड़ा टुकड़ा जहां पानी बहकर आता हो, वहां दो या तीन तरफ से मेड़बंदी कर पानी रोक कर विशिष्ट ढंग से तैयार बांधनुमा खेत को खडीन कहा जाता है। खडीन खेत बाद में है, पहले तो तालाब ही है। मरुभूमि में सैकड़ों मन अनाज इन्हीं खडीनों में पैदा किया जाता रहा है। आज भी जोधपुर, जैसलमेर, बाड़मेर क्षेत्र में सैकड़ों खडीन खड़ी हैं।
लेकिन पानी के काम के अलावा स्वाभिमान भी क्या होता है, इसे पालीवाल ही जानते थे। जैसलमेर में न जाने कितने गांव पालीवालों के थे। राजा से किसी समय विवाद हुआ। बस, रातों-रात पालीवालों के गांव खाली हो गए। एक से एक कीमती, सुन्दर घर, कुएं खडीन सब छोड़कर पालीवाल राज्य से बाहर हो गए। आज उनके वीरान गांव और घर जैसलमेर में पर्यटक को गाइड बड़े गर्व के साथ दिखाते हैं। पालीवाल वहां से निकलकर कहां- कहां गए इसका ठीक अंदाज नहीं है पर एक मुख्य धारा आगरा और जौनपुर में जा बसी थी।
महाराष्ट्र में चितपावन ब्राह्मण भी तालाब बनाने से जुड़े थे। कुछ दूसरे ब्राह्मणों को यह ठीक नहीं लगा कि ब्राह्मण मिट्टी खोदने और ढोने के काम में लगें। कथा है वासुदेव चित्तले नामक चितपावन ब्राह्मण की। वासुदेव ने कई तालाब, बावड़ी और कुएं बनाए थे। जब वे परशुराम क्षेत्र में एक बड़ा सरोवर बना रहे थे और उनके कारण अनेक ब्राह्मण मिट्टी खोद रहे थे तो देवरुख नामक स्थान से आए ब्राह्मणों के एक समूह ने उनका विरोध किया। तब वासुदेव ने उन्हें शाप दिया कि जो भी ब्राह्मण तुम्हारा साथ देंगे वे तेजहीन होकर लोगों की निंदा के पात्र बनेंगे। उस चितपावन के शाप से बाद में ये लोग देवरुख ब्राह्मण कहलाए। देवरुख ब्राह्मण तेजहीन हुए कि नहीं, लोक निंद्य बने कि नहीं, पता नहीं। लेकिन चितपावन ब्राह्मण अपने क्षेत्र में और देश में भी हर मामले में अपनी विशेष पहचान बनाए रहे हैं।
कहा जाता है कि पुष्करणा ब्राह्मणों को भी तालाब ने ही उस समय समाज में ब्राह्मण का दर्जा दिलाया था। जैसलमेर के पास पोकरन में रहने वाला यह समूह तालाब बनाने का काम करता था। उन्हें प्रसिद्ध तीर्थ पुष्करजी के तालाब को बनाने का काम सौंपा गया था। रेत से घिरे बहुत कठिन क्षेत्र में इन लोगों ने दिन- रात एक करके सुंदर तालाब बनाया। जब वह भरा तो प्रसन्न होकर इन्हें ब्राह्मणों का दर्जा दिया गया। पुष्करणा ब्राह्मणों के यहां कुदाल रूपी मूर्ति की पूजा की जाती रही है।
अपने पूरे शरीर पर राम नाम का गुदना गुदवाने और राम- नाम की चादर ओढ़ने वाले छत्तीसगढ़ के रामनामी तालाबों के अच्छे जानकार थे। मिट्टी का काम राम का ही नाम था इनके लिए। रायपुर, बिलासपुर और रायगढ़ जिलों में फैले इस संप्रदाय के लोग छत्तीसगढ़ क्षेत्र में घूम- घूमकर तालाब खोदते रहे हैं। संभवत: इस घूमने के कारण ही इन्हें बंजारा भी मान लिया गया था। छत्तीसगढ़ में कई गांवों में लोग यह कहते हुए मिल जाएंगे कि उनका तालाब बंजारों ने बनाया था। रामनामी परिवारों में हिंदू होते हुए भी अंतिम संस्कार में अग्नि नहीं दी जाती थी, मिट्टी में दफनाया जाता था, क्योंकि उनके लिए मिट्टी से बड़ा और कुछ नहीं। जीवन- भर राम का नाम लेकर तालाब का काम करने वाले के लिए जीवन के पूर्ण विराम की इससे पवित्र और कौन सी रीति होगी?
आज ये सब नाम अनाम हो गए हैं। उनके नामों का स्मरण करने की यह नाम- माला, गजधर से लेकर रामनामी तक की नाम- माला अधूरी ही है। सब जगह तालाब बनते थे और सब जगह उन्हें बनाने वाले लोग थे।
सैकड़ों, हजारों तालाब शून्य में से प्रकट नहीं हुए थे। लेकिन उन्हें बनाने वाले लोग आज शून्य बना दिए गए हैं।
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