भूजल का यह संकट मात्र उसकी निर्भरता से दोहन के कारण ही नहीं, बल्कि दुनिया में औद्योगिक इकाइयों से निकलने वाले कचरे का उचित प्रबन्धन न करने और अन्य कई छोटी-बड़ी नासमझी के कारण उत्पन्न ग्लोबल वार्मिंग से पैदा हुआ है। समुद्र के जलस्तर में औसतन सालाना दो मिलीमीटर की दर से वृद्धि होनी चाहिए
पानी की समस्या से विश्व की पूरी आबादी प्रभावित हो रही है। पानी की चिन्ता में छोटे-बड़े राष्ट्रीय व अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर सेमिनार आयोजित किये जाते रहे हैं। पानी और पर्यावरण की चिन्ता धीरे-धीरे ही सही विश्व राजनीति का हिस्सा बनती जा रही है। यह अलग बात है कि भारत में अब भी सत्ता की सीढ़ी का सफर तय करने वाली पार्टियों का ध्यान इस ओर नहीं है, लेकिन दुनिया के दूसरे विकसित मुल्कों में इसे आधार बनाकर सरकार का गठन हो रहा है और सरकारों के पतन के कारणों में भी इसकी अहमियत साबित हो रही है।ग्रीन पार्टी का गठन पर्यावरण की समस्या को उठाने के लिये किया गया है। कई तरह के गैर-सरकारी और सरकारी संगठन इन मुद्दों पर पैसे बना और बहा रहे हैं। विशेषकर भारत में गैर-सरकारी और कुछेक व्यक्तिगत प्रयास इस मसले को लेकर देखे जा सकते हैं।
हम मानते रहे हैं कि अगर हम अपने संसाधनों का इस्तेमाल किफायत से करते हैं तो संकट के दिनों में ये हमारे ही काम आएँगे। हम अपने संसाधनों के प्रति सचेत होते थे और उसके इस्तेमाल को लेकर सतर्क भी, परन्तु जबसे हमने उपभोक्तावादी संस्कृति की ओर रुख किया, तबसे हम दोहन करने में माहिर हो गए और संसाधनों के प्रति हमारी चेतना निष्ठुर और अविवेकी किस्म की होती चली गई है। बाजार की अनियंत्रित और बेहिसाब मुनाफे की चाहत की, चाहे वह किसी भी कीमत पर मिल रही हो, इस कला में हम भी माहिर होते चले गए हैं। हम भी अपने संसाधनों से केवल मुनाफा कूटने में संलग्न हो गए हैं। हमारे अपने संसाधनों से रिश्ता लेने भर का रह गया है। उसके संरक्षण और उसमें इजाफे की बात हमारी सोच से अनुपस्थित होती चली गई है। यही वजह है कि हम कई तरह के संसाधनों में, जिनकी कभी हमारे यहाँ प्रचुरता होती थी, आज कंगाली और बदहाली नजर आ रही है। पानी की कंगाली तो इस तरह से हमारे सामने आ खड़ी हुई है कि पानी हासिल करने के लिये एक-दूसरे से लड़ने-भिड़ने को तैयार रहते हैं।
पानी की समस्या को लेकर व्यक्ति, समाज, परिवार, राज्य और देश के बीच लड़ाई के किस्से से हम अच्छी तरह वाकिफ हैं। कभी दिल्ली के यमुना विहार में तो कभी भोपाल और कभी नागपुर से इस तरह की घटनाएँ समाचारों की सुर्खियों में जगह पा रही हैं कि पानी के लिये हाथापाई और हत्याएँ भी हो रही हैं। यह समस्या आखिर पैदा किन वजहों से हुई है? क्या पानी हासिल करने के मुख्य स्रोत ग्राउंड वाटर यानी भूजल संसाधन के मामले में हम पहले से कंगाल थे? हमने ऐसा क्या कर दिया कि आज हम लाचार और बेबस नजर आ रहे हैं?
पानी की अधिकांश जरूरतों के लिये हम आज भी भूजल पर आश्रित हैं। ग्रामीण इलाकों की 85 फीसदी और शहरी इलाकों की लगभग 50 प्रतिशत हमारी जरूरतें भूजल के स्रोतों से ही पूरी होती हैं। पर्यावरणविद हिमांशु ठक्कर द्वारा सम्पादित पुस्तिका ‘देयर इज लिटिल होप हियर’ में प्रकाशित एक आँकड़े के अनुसार राजस्थान में वर्ष 1984 में 236 प्रखण्डों में से 203 प्रखण्डों में भूजल भण्डार सुरक्षित थे। यह पीने योग्य भी हुआ करते थे। इन प्रखण्डों में भूजल संसाधन पर लोगों की निर्भरता लगभग 70 प्रतिशत थी, लेकिन वर्ष 2007 तक आते-आते भूजल की मात्रा 32 प्रखण्डों में ही सुरक्षित रह पाई और इन्हीं जगहों पर भूजल पीने योग्य रह गया। जिन प्रखण्डों में भूजल भण्डार या तो खत्म-से हो गए या फिर नाममात्र बच गये, वहाँ इसका दोहन 100 प्रतिशत से भी ज्यादा था। राजस्थान के इन इलाकों में वर्ष 1984 में मात्र 12 ही ऐसे प्रखण्ड थे, जहाँ भूजल भण्डार की स्थिति बहुत दयनीय थी, जो वर्ष 2007 में बढ़कर 140 हो गई। ‘वर्ल्ड इकोनॉमिक फोरम’ के वरिष्ठ निदेशक डॉमिनिक वॉघरे का मानना है कि भारत में भूजल का विशाल भण्डार हुआ करता था, जिसकी मदद से भारत की अर्थव्यवस्था को ठोस आधार प्रदान किया जा सकता था, लेकिन अब पानी के संकट का यह बुलबुला कभी भी फटने को तैयार है।
भूजल का यह संकट मात्र उसकी निर्भरता से दोहन के कारण ही नहीं, बल्कि दुनिया में औद्योगिक इकाइयों से निकलने वाले कचरे का उचित प्रबन्धन न करने और अन्य कई छोटी-बड़ी नासमझी के कारण उत्पन्न ग्लोबल वार्मिंग से पैदा हुआ है। समुद्र के जलस्तर में औसतन सालाना दो मिलीमीटर की दर से वृद्धि होनी चाहिए, लेकिन फिलहाल इसका जलस्तर खतरनाक तरीके से 3.14 मिलीमीटर की रफ्तार से बढ़ने लगा है। समुद्र के जलस्तर में अप्रत्याशित वृद्धि से समुद्र का पानी गंगा में जाने लगा है। गंगा के पानी में नमक की मात्रा में इजाफा हो रहा है। यह गंगा के किनारे और उसके सहारे विकसित पारिस्थितिकी तंत्र के लिये खतरे की घंटी की तरह है। यह सब कुछ इस तरह से चलता रहा तो आने वाले समय में गंगा के किनारे या इससे सिंचित होने वाले खेत बंजर भूमि में तब्दील हो जाएँगे। गंगा के पानी में बढ़ते खारेपन के कारण पूर्व के राज्यों बंगाल, बिहार और उत्तर प्रदेश के कई जिलों में भूमि की उत्पादकता में कमी आएगी और इस इलाके के लोग जिनकी पूरी निर्भरता खेती पर है, वे तबाह हो जाएँगे। निश्चित तौर पर इस तबाही का असर प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से पूरे भारत और कम-से-कम भारत से सटे देश की अर्थव्यवस्था पर पड़ेगा। समय रहते अगर हम अपने संसाधनों के प्रति संवेदनशील हो जाते हैं तो इससे हमारे ही हित सधने वाले हैं।
जल, जंगल और जमीन - उलट-पुलट पर्यावरण (इस पुस्तक के अन्य अध्यायों को पढ़ने के लिये कृपया आलेख के लिंक पर क्लिक करें) | |
क्रम | अध्याय |
पुस्तक परिचय - जल, जंगल और जमीन - उलट-पुलट पर्यावरण | |
1 | |
2 | |
3 | |
4 | |
5 | |
6 | |
7 | |
8 | |
9 | |
10 | |
11 | |
12 | |
13 | |
14 | |
15 | |
16 | |
17 | |
18 | |
19 | |
20 | |
21 | |
22 | |
23 | |
24 | |
25 | |
26 | |
27 | |
28 | |
29 | |
30 | |
31 | |
32 | |
33 | |
34 | |
35 | |
36 |
Path Alias
/articles/sansaadhanaon-kaa-asanataulaita-daohana-saoca-kaa-akaala
Post By: Hindi