संरक्षण एवं समझ भरे प्रयोग से जल संवर्द्धन

 

पानी की कमी के कारण आज दुनिया के सामने कई खतरे मँडरा रहे हैं, जिनका असर विश्व शांति, न्याय एवं सुरक्षा पर पड़ सकता है। पानी की किल्लत से सामाजिक-आर्थिक वृद्धि प्रभावित होती है। विश्व आर्थिक मंच की वैश्विक जोखिम रिपोर्ट 2016 में जल संकट को सबसे अधिक प्रभाव डालने वाले दस खतरों में तीसरा खतरा बताया गया है। विश्व बैंक की हाल की एक रिपोर्ट इस बात की पुष्टि करती है कि पानी की माँग तो पहले से ही बढ़ रही है, लेकिन जलवायु परिवर्तन संकट को और भी बढ़ा देगा।

अनुमानों से संकेत मिलता है कि लगभग 4 अरब लोग यानि विश्व की दो-तिहाई जनसंख्या हर वर्ष कम से कम एक महीने पानी की जबरदस्त किल्लत से जूझती है। पानी की कमी के कारण उपज कम हो सकती है या फसल बर्बाद हो सकती है, जिससे खाद्य की कमी हो सकती है, कीमतें बढ़ सकती हैं और भूखों की तादाद भी बढ़ सकती है।

संयुक्त राष्ट्र के अनुसार 2050 में नौ अरब अथवा अधिक की जनसंख्या के उपयोग के लिये खाद्य उत्पादन में 60 प्रतिशत बढ़ोतरी होनी ही चाहिए। खाद्य उत्पादन के लिये भारी मात्रा में बिजली और पानी की जरूरत होती है, जिससे टकराव भरी माँग की चुनौती उत्पन्न होती है। किन्तु 2030 तक दुनिया को पानी की आपूर्ति में 40 फीसदी कमी का सामना करना ही होगा। दुनिया भर में इस्तेमाल होने वाले कुल ताजे पानी का 70 प्रतिशत हिस्सा पहले ही कृषि में चला जाता है और ताजे पानी की वैश्विक किल्लत के पीछे उसे ही सबसे अधिक जिम्मेदार माना जाता है। दुनिया भर में सिंचाई के लिये उपयोग किये जाने वाले पानी में 2050 तक 6 प्रतिशत वृद्धि की अपेक्षा है।

सितम्बर 2015 में संयुक्त राष्ट्र ने सतत विकास के लिये 2030 की कार्यसूची स्वीकार की, जिसमें सतत विकास के 17 लक्ष्य हैं। इनमें से छठा लक्ष्य सभी के लिये पानी एवं स्वच्छता सुनिश्चित करने हेतु समर्पित है। भारत के संदर्भ में यह लक्ष्य प्राप्त करने की राह में बहुत चुनौतियाँ हैं, लेकिन यह संभव है बशर्ते कुछ कदम जल्द से जल्द उठाए जाएँ।

 

 

 

भारत का वर्तमान जल संकट


भारत में 2016 के जल संकट की तस्वीर नीचे दी गई हैः

- भारत के एक तिहाई जिले भीषण सूखे से प्रभावित हैं, जिसका असर 10 राज्यों के 256 जिलों में 33 करोड़ लोगों पर पड़ रहा है।

- मार्च 2016 में 91 प्रमुख जलाशयों में केवल 24 प्रतिशत पानी बचा था।

- कर्नाटक में जनवरी 2015 से अभी तक भीषण सूखे और कर्ज के कारण लगभग 1,000 किसान आत्महत्या कर चुके हैं।

- गुजरात के आठ जिलों में लगभग, 1,000 गाँव पेयजल के गंभीर संकट से जूझ रहे हैं।

- पश्चिमी महाराष्ट्र में मिराज से पानी की गाड़ियाँ लातूर के सूखाग्रस्त इलाकों में जा रही हैं। दंगों से बचने के लिये जलस्रोतों के आस-पास लोगों के इकट्ठा होने पर रोक लगा दी गई है। मानसून आने तक कुँओं और पानी इकट्ठा करने वाले सार्वजनिक टैंकरों तक पाँच से अधिक लोगों को एक साथ नहीं आने दिया जा रहा है।

- मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश में फैले बुन्देलखण्ड के जिले लगातार तीसरे वर्ष सूखे से जूझ रहे हैं। लगभग 50 प्रतिशत जलस्रोत सूख चुके हैं। पेयजल लाने के लिये महिलाओं को दूर-दूर तक जाना पड़ रहा है। खेती बर्बाद हो चुकी है, जिस कारण विशाल स्तर पर लोगों का पलायन हुआ है, गरीबी फैली है और लोगों को भूखा रहना पड़ रहा है। बुन्देलखण्ड, मध्य प्रदेश की टीकमगढ़ नगर पालिका के अध्यक्ष को पड़ोसी उत्तर प्रदेश के किसानों द्वारा पानी की चोरी रोकने के लिये सशस्त्र सुरक्षाकर्मी लगाने पड़े हैं क्योंकि वे किसान नगर पालिका के पेयजल के एकमात्र स्रोत से पानी चुराने की कोशिश करते हैं। हैदराबाद शहर को पानी की आपूर्ति करने वाले चार प्रमुख जलाशय सूख चुके हैं।

- हिमाचल प्रदेश में शिमला पहाड़ी शहरों में भीषण जल संकट का उदाहरण है, जहाँ दूषित जलापूर्ति के कारण पीलिया फैला है। अधिकारियों का अनुमान है कि वहाँ रोजाना 1.40 करोड़ लीटर पानी की कमी होती है, जिसके कारण शहर की 80-85 प्रतिशत स्थानीय आबादी प्रभावित हो रही है।

- महाराष्ट्र के पुणे में पानी की बढ़ती माँग पूरी करने के लिये सरकार पानी के टैंकरों के भरोसे है।

- पानी की किल्लत के कारण उद्योग बंद होने के समाचार हैं।

- औद्योगिक नगरी तजोला में हफ्ते में लगातार दो दिन तक उत्पादन बंद रहता है। यहाँ 60-70 प्रतिशत इकाइयाँ पानी का बहुत इस्तेमाल करने वाले उद्योगों जैसे उर्वरक, रसायन, औषधि, खाद्य एवं पेय तथा धातु की हैं।

- महाराष्ट्र में सोलापुर तथा मराठवाड़ा में लगभग 13 चीनी मिलें बंद हो चुकी हैं। पानी बंद होने पर कपड़ा उद्योग तथा रंगाई की इकाइयाँ भी काम बंद कर रही हैं।

- पश्चिम बंगाल के फरक्का में पानी की कमी के कारण बिजली का उत्पादन बाधित हुआ है।

विभिन्न राज्यों में पानी की कमी के कारण फसल बर्बाद हुई है, लोगों के झुंड को पलायन करना पड़ा है, आत्महत्या हुई हैं, मौतें हुई हैं, स्वास्थ्य सेवा की इकाइयाँ और उद्योग बंद हुए हैं। महिलाओं और बच्चों के स्वास्थ्य पर भी इसका गंभीर प्रभाव पड़ा है। जिस देश में 14 बड़ी, 55 सामान्य और 700 छोटी नदियाँ हैं, हर वर्ष औसतन 1,170 मिलीमीटर वर्षा होती है और हर जगह वर्षाजल संरक्षण की परम्परा रही है, वहाँ ऐसे संकटों से बचा जा सकता है। यहाँ समस्या का कारण पानी की वास्तविक किल्लत कम है और पानी का कुप्रबंधन अधिक है।

 

 

 

 

धारा बदलनाः पानी का संवर्द्धन


यदि मिल-जुलकर, लगातार एवं सतत प्रयास किये जाएँ तो सूखे को रोका जा सकता है और प्रचुर मात्रा में पानी उपलब्ध कराया जा सकता है। इससे जलवायु परिवर्तन की चुनौतियाँ भी समाप्त की जा सकती हैं। लेकिन इसके लिये सभी पक्षों के सहयोग की आवश्यकता होगी।

जल प्रबंधन में पहले कदम के रूप में समग्र, सतत एवं स्थायी अभियान चलाने होंगे ताकि लोगों का पानी के साथ रिश्ता एक बार फिर कायम किया जा सके। इससे सभी वर्गों के हितधारकों को यह महसूस होगा कि पानी कम मात्रा वाला संसाधन है। जल संरक्षण गतिविधियों के लिये समुदायों में जागरुकता लाना आवश्यक है। इसका आशय यह भी है कि जल प्रबंधन का काम जनता अपने हाथ में ले और उसके लिये प्रतिबद्धता से कार्य करे।

प्रचुर मात्रा में जल उपलब्ध कराने के आंदोलन में अल्पावधि और दीर्घावधि उपायों के रूप में कई मोर्चों पर काम करना होगा। जल बैंक तैयार करने होंगे, माँग घटानी होगी, पानी का कई तरह से इस्तेमाल करना होगा और नए आविष्कारों एवं प्रौद्योगिकी को भी अपनाना होगा। इनमें से कुछ को नीचे रेखांकित किया गया है।

 

 

 

 

त्वरित उपाय


वर्तमान संकट से निपटने के लिये ये उपाय महत्त्वपूर्ण हैं और उनमें से कुछ हैंः

1. गाँवों में सूखा रहात समितियों का गठनः इन ग्राम समितियों में पंचायत सदस्य और गाँवों के सभी सम्बन्धित समूहों के प्रतिनिधि होने चाहिए। ये समितियाँ सूखे से सम्बन्धित आवश्यकताओं तथा प्रबंधन को संभालेंगे और उन पर नजर रखेंगी।

2. आत्महत्याएं रोकने का संकल्पः आपदाग्रस्त ग्रामीणों में यह विश्वास होना चाहिए कि वे अकेले नहीं हैं और एक साथ मिलकर उन्हें यह शपथ लेनी चाहिए और वे आत्महत्या नहीं करेंगे।

3. पेयजल की किल्लत वाले क्षेत्रों में पानी के टैंकरों से आपूर्तिः गाँवों के साथ मिलकर यह सुनिश्चित करें कि पानी सुरक्षित है और गाँवों में सभी को प्रदान किया जाएगा। पेयजल आपूर्ति एवं स्वच्छता मंत्रालय के पास सूखे जैसी आपात स्थितियों के लिये प्रबंधन हैं और उनका प्रयोग किया जाना चाहिए।

4. पशुओं के शिविरों में उनके लिये पानी तथा चारे की व्यवस्था लोगों को अपने पशु बेचने या छोड़ने पड़ते हैं (जैसे बुन्देलखण्ड क्षेत्र और राजस्थान) क्योंकि वे उन्हें पालने की स्थिति में नहीं होते हैं। ये शिविर पशुओं की जरूरतों का ध्यान रखेंगे और मजबूरी में होने वाली उनकी बिक्री रोकेंगे।

5. भोजन के अधिकार (आरटीएफ) का क्रियान्वयनः आरटीएफ के अन्तर्गत सार्वजनिक वितरण प्रणाली (पीडीएस) और अन्य कार्यक्रमों के क्रियान्वयन की जाँच हो और यह सुनिश्चित किया जाए कि प्रभावितों को खाद्यान्न प्राप्त हो। यह उच्चतम न्यायालय का निर्देश है।

6. जल संरक्षण निकायों का संरक्षण/पुनरुद्धार/निर्माणः ग्रामीणों तक संदेश पहुँचाएं कि खेतों में, बस्तियों में, गाँवों में या ग्राम पंचायत में गिरने वाली बारिश की एक भी बूँद बर्बाद नहीं होनी चाहिए। मानसून के इस पानी को बचाया जाना चाहिए। कई काम किये जा सकते हैं। उदाहरण के लियेः

क. किसान अपने खेतों में मेड़ बाँध सकते हैं ताकि बारिश के पानी को इकट्ठा किया जा सके। बारिश के पानी को इकट्ठा करने के लिये छोटा गड्ढा भी खोदा जाना चाहिए। कुँओं की सफाई की जानी चाहिए और वर्षा के स्वागत के लिये उन्हें तैयार किया जाना चाहिए।

ख. लगभग सभी गाँवों में टैंक, तालाब, कुएँ या अन्य निकाय होंगे। ग्राम समिति इनकी स्थिति का जायजा ले सकती है और मरम्मत करा सकती है या गाद निकलवा सकती है। सभी नालों, नहरों या नदियों की रक्षा होनी चाहिए और उन्हें भूजल का स्तर बढ़ाने के लिये इस्तेमाल करना चाहिए।

ग. वर्षाजल संरक्षण के लिये नये ढाँचे जैसे तालाब आदि बनाए जाने चाहिए। मानसून आने के बाद यह महत्त्वपूर्ण है कि ग्रामीण उन इलाकों को चिन्हित कर लें, जहाँ पानी बहता है या इकट्ठा हो जाता है ताकि उन इलाकों में ही आगे चलकर वर्षाजल संचयन के निकाय या ढाँचे बनाए जा सकें।

मनरेगा के लिये आवंटित धन का प्रयोग जल संरक्षण निकायों की मरम्मत और निर्माण में होना चाहिए। गाँवों को धन आसानी से प्रदान किये जाने की जरूरत है, जिसका आदेश उच्चतम न्यायालय ने भी दिया है। सांसद स्थानीय क्षेत्र विकास योजना के धन तथा सरकार से मिली दूसरी रकम का इस्तेमाल भी किया जा सकता है।

 

 

 

 

दीर्घावधि उपाय


जल संपदाओं के विकास के लिये दीर्घावधि उपायों की आवश्यकता है। इसके लिये व्यापक योजना और धन की आवश्यकता होगी, लेकिन यह काम किया जा सकता है। भारत में प्रतिवर्ष औसतन 1,100 मिलीमीटर वर्षा होती है, जिसमें से ज्यादातर लगभग 100 घंटों में हो जाती है। जल के प्राथमिक स्रोत को प्रत्यक्ष इस्तेमाल के लिये या भूमिगत जल पर्तों तक या सतह पर स्थित जल निकायों तक पानी पहुँचाने के लिये इकट्ठा किया जाना चाहिए। यदि बारिश का ठीक से प्रबंधन नहीं किया गया तो मानसून में बाढ़ आएगी और बाद के महीनों में पानी की किल्लत हो जाएगी। इसका विकल्प यही है कि बारिश का पानी इकट्ठा किया जाए तथा वर्तमान और भावी उपयोग के लिये जल कोष यानी पानी का बैंक बनाया जाए।

बारिश के पानी को वापस प्राकृतिक जल चक्र में पहुँचाने का अर्थ है प्राकृतिक परिवेश के अनुसार उसे इकट्ठा करना, साफ करना, रखना और छोड़ देना। भारत के प्रत्येक क्षेत्र में उसकी आवश्यकता के अनुरूप जल संचयन की पारम्परिक प्रणालियाँ हैं, जिन्हें बड़े पैमाने पर पुनर्जीवित किया जाना चाहिए। उन प्रणालियों का परीक्षण किया जा सकता है, अनुसरण किया जा सकता है और जरूरत पड़ने पर आज की आवश्यकताओं के हिसाब से उनमें परिवर्तन भी किया जा सकता है। देश भर में ऐसे समुदायों के उदाहरण भरे पड़े हैं, जो एक साथ आए हैं और पानी का संरक्षण किया है। कृषि के उचित तरीकों के साथ यह प्रयास करने से उन्हें आने वाले वर्षों में भी सूखे की विभीषिका का सामना करने में मदद मिल सकती है।

 

 

 

 

कृत्रिम रूप से भूजल बढ़ाकर सतह के ठीक नीचे पानी का भण्डारण


भूजल की दोबारा पूर्ति कम से कम दोगुनी करनी होगी। प्राकृतिक प्रक्रियाओं तथा वर्षा के पानी को भूमिगत जल निकायों में भेजकर यह काम आसानी से हो सकता है। वर्षाजल संचयन और भूजल की कृत्रिम पूर्ति से दो उद्देश्य पूरे हो जाते हैंः अधिक जल सोख लिया जाता है और आवश्यकता पड़ने पर उसे वापस कर दिया जाता है। चूँकि खाली भूमि विशेष रूप से शहरों में घटती जा रही है, इसीलिए बड़े पैमाने पर कृत्रिम तरीके से भूजल बढ़ाकर पानी की कमी को दूर किया जा सकता है, बाढ़ कम की जा सकती है और पानी की गुणवत्ता सुधारी जा सकती है।

भूजल में कृत्रिम तरीके से वृद्धि का अर्थ सतह के पानी को उथले जल निकायों में भेजना है ताकि सतह के नीचे पानी की मात्रा बढ़े और प्राकृतिक तरीके से उसकी गुणवत्ता में सुधार हो। नदियों की घाटियों तथा तलछट के मैदानों में नदियों या झीलों के पानी को रेत और बजरी की परतों से गुजारकर ऐसा किया जा सकता है। पानी को बेसिन, पाइप, नालियों और कुँओं के जरिये जल निकायों में भेजा जा सकता है।

भूजल को कृत्रिम तरीके से जल निकायों में भेजने के गुणात्मक और मात्रात्मक लाभ हैंः प्राकृतिक प्रक्रियाएँ छने हुए पानी के प्रदूषण को कम करती हैं। छनने से पानी का बेहतर प्रबंधन होता है क्योंकि नदियों तथा भूजल निकायों के बीच जल स्तर को नदियों के पानी के कम और ज्यादा रिसाव के समय परिवर्तित किया जा सकता है। समय बीतने पर नदी और जल निकाय के बीच संतुलन हो जाता है, जिससे पूरे वर्ष पानी उपलब्ध रहता है। इससे पूरे वर्ष पानी की लगातार आपूर्ति होती रहती है। सामान्यतः कृत्रिम रूप से पहुँचाया गया भूजल सतही जल के मुकाबले प्रदूषण से अधिक सुरक्षित रहता है और जल संरक्षण क्षेत्रों का सीमांकन इसे अधिक सुरक्षित बनाता है।

नदियों का तल भूजल में वृद्धि का बड़ा अवसर प्रदान करता है। समय बीतने पर सतही जल और नदियों में जा रहे भूजल के बीच संतुलन स्थापित हो जाता है। नदियों का यह जल पूरे वर्ष बहता है और भूजल के निकायों का स्तर बढ़ाता है। दिल्ली जल बोर्ड द्वारा छोड़ा जाने वाला बाढ़ का संरक्षित पानी इसका उदाहरण है।

यदि इसे बड़े पैमाने पर किया जाए तो अतुलनीय मात्रा में पानी बचाया जा सकता है। बाँध जैसे कृत्रिम भण्डारण निकाय बनाने में पर्यावरणीय, वित्तीय एवं सामाजिक मसले हैं, लेकिन भूजल निकायों में जल स्तर बढ़ाना स्वाभाविक पसंद है। इस तरह कृत्रिम जलस्तर वृद्धि में असीम संभावनाएं हैं। यदि सबसे छोटी इकाई से लेकर राज्य तक ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों में वर्षा जल संचयन किया जाए।

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जल संरक्षण के लिये क्षेत्रवार तरीके


जल का सर्वाधिक उपभोग करने वाला कृषि क्षेत्र तथा उद्योगों द्वारा उठाए जा सकने वाले कुछ कदम नीचे रेखांकित किये गये हैं।

 

 

कृषि


कृषि क्षेत्र को पानी से जुड़ी कई समस्याओं का सामना करना हैः पानी की क्षमता से कम इस्तेमाल- नहर सिंचाई योजनाओं के लिये 38-40 प्रतिशत और भूजल सिंचाई योजनाओं के लिये 60 प्रतिशत, पानी की उपलब्धता में कमी, जनसंख्या वृद्धि के कारण खाने की माँग में बढ़ोतरी, खानपान की बदलतीं आदतें, भोजन के अधिकार के अन्तर्गत प्रतिबद्धताएँ तथा पानी की प्रतिस्पर्द्धात्मक माँग। इसमें यह अनुमान भी जताया गया कि सिंचाई के लिये पानी की माँग समय के साथ बढ़ेगी।

कृषि में पानी का उपयोग अधिक क्षमता के साथ करने के कुछ विकल्प इस प्रकार हैंः

(अ) उपलब्ध पानी में ही उगने योग्य कृषि फसलों को बढ़ावा देनाः गन्ने और चावल जैसी फसलों के लिये बहुत अधिक पानी की जरूरत पड़ती है। उन्हें केवल उन्हीं क्षेत्रों में उगाया जाना चाहिए, जहाँ पर्याप्त जल होता है। स्थानीय किस्मों को बढ़ावा मिलना चाहिए और उनके लिये न्यूनतम मूल्य, बाजार तथा विपणन प्रणालियाँ विकसित की जानी चाहिए।

(आ) सूक्ष्म सिंचाई अपनानाः ड्रिप यानि रिसाव तथा स्प्रिंकलर अर्थात फव्वारे से सिंचाई करने पर पानी की खपत घटती है और 40 से 80 प्रतिशत पानी बच जाता है। सिंचाई का समय तय करने, जुताई करने, मिट्टी पर परत बिछाने (मल्चिंग) और उर्वरक डालने जैसे तरीकों से वाष्प उत्सर्जन में वाष्पोत्सर्जन का अंश बढ़ सकता है, जिससे फसलें पानी का अधिक उपयोग कर लेती हैं और उनकी उत्पादकता बढ़ जाती है।

(इ) भूमि एवं जल प्रबंधन प्रणालीः इनमें कई तरीके शामिल होते हैं, जैसे मृदा-जल संरक्षण, फसल उगाने के लिये जमीन ठीक से तैयार करना, वर्षाजल संचयन, कृषि के अपशिष्ट जल का अधिक से अधिक पुनर्चक्रण, पानी का रिसाव बढ़ाने के लिये जुताई, पानी की बर्बादी में कमी और मिट्टी में नमी बढ़ाना।

(ई) लेजर से भूमि समतलनः इस तकनीक से जमीन की सतह की असमानता समाप्त होती है, जिससे फसल के अंकुरण और उपज पर बहुत प्रभाव पड़ता है। इससे लगभग 20-30 प्रतिशत पानी बच जाता है और उत्पादन में कम से कम 10 प्रतिशत वृद्धि होती है।

(उ) राइस इंटेंसिफिकेशन प्रणाली (एसआरआई): एसआरआई पानी की आवश्यकता को लगभग 29 प्रतिशत तक कम करने तथा फसल तैयार होने की अवधि 8-12 दिन कम करने के लिये प्रख्यात है, जिससे चावल अधिक पानी बचा देता है। इस प्रौद्योगिकी का इस्तेमाल गन्ने की खेती में भी किया जाता है।

 

 

 

 

उद्योग


भारत के सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में उद्योगों का महत्त्वपूर्ण योगदान है औद्योगिक क्षेत्र के विस्तार के साथ ही उनकी पानी की माँग बढ़ती जाएगी। उद्योगों द्वारा इस्तेमाल किये जा रहे पानी का दुरुपयोग होता है और प्रदूषण होता है, जिससे पानी की किल्लत होती है और उसकी गुणवत्ता खराब होती है।

सबसे पहले तो पानी के प्रति उद्योगों का दृष्टिकोण बदलना होगा। पानी को प्रचुर मात्रा में उपलब्ध सस्ता संसाधन मानने वाले पारंपरिक दृष्टिकोण के बजाय ऐसा संसाधन मानना होगा, जिसे इस्तेमाल करने वाले कई लोग हैं और जो मूल मानवाधिकारों पर प्रभाव डालता है। पानी पर निर्भर उद्योग पानी के लिये स्थानीय किसानों, परिवारों तथा अन्य उपयोगकर्ताओं से प्रतिस्पर्द्धा कर रहे हैं।

सौभाग्य से पानी कह रह जाने का खतरा अक्सर कम्पनियों को उत्पादन की प्रक्रिया में पानी का इस्तेमाल घटाने के लिये प्रेरित करता है। कम्पनियाँ पानी का उपयोग (वाटर फुटप्रिंट) घटाने, पानी के प्रति अपने जिम्मेदारी भरे व्यवहार एवं उत्पादों का प्रमाणपत्र पाने के लिये उत्सुक हैं। उद्योगों के सामने मौजूद कुछ विकल्प नीचे दिये गए हैंः

(क) कम से कम पानी में काम करनाः कम से कम पानी में काम करना पानी की माँग घटाने के लिये महत्त्वपूर्ण है। यदि व्यवस्थित तरीका अपनाया जाए तो औद्योगिक इकाइयों में पानी की खपत 25 से 50 प्रतिशत तक घटायी जा सकती है। पानी का इस्तेमाल घटाने वाले कुछ तरीकों में पानी से ठंडा करने के बजाय हवा से ठंडा करने की तकनीक, अपनाना, पानी का अधिक इस्तेमाल करने वाले उपकरण बदलना, बेकार पानी का पुनर्चक्रण कर उसे औद्योगिक प्रक्रिया में दोबारा इस्तेमाल करना तथा बारिश का पानी इकट्ठा कर उसका प्रयोग करना।

(ख) जीवन चक्र का विश्लेषणः जीवन चक्र का विश्लेषण उत्पाद के आरम्भ से अंत तक उसके जीवन के विभिन्न चरणों (कच्चा माल निकालने से लेकर उस सामग्री पर काम, विनिर्माण, वितरण, प्रयोग, मरम्मत, रख-रखाव करने और फेंकने तक) से जुड़े पर्यावरणीय प्रभाव का आकलन करने में मदद करता है।

इसका क्रैडल टू क्रैडल प्रमाणन प्राप्त करने के लिये पानी के विशिष्ट मानदंड को पूरा करना पड़ता है। क्रैडल टु क्रैडल प्रमाणन के अंश के रूप में पानी का ध्यान रखना होता है, जिसके लिये औद्योगिक प्रक्रियाओं और आपूर्ति श्रृंखला में ही नहीं बल्कि उद्योग के कामकाज वाले वातावरण में भी पानी का इस्तेमाल घटाना होता है। कुल पाँच स्तर होते हैं - बेसिक, ब्रॉन्ज, सिल्वर, गोल्ड, प्लेटिनम और प्रत्येक स्तर के साथ उद्योग पानी के मामले में बेहतर मानक हासिल करता जाता है।

(ग) आपूर्ति श्रृंखला में जल प्रबंधनः कम्पनियाँ अपनी आपूर्ति श्रृंखला के लिये जल प्रबंधन की प्रभावी रणनीतियाँ तैयार कर रही हैं। उदाहरण के लिये एचएंडएम ने डब्ल्यूडब्ल्यूएफ के साथ साझेदारी में जल प्रबंधन के स्तंभ तैयार किये हैं, जो हैंः प्रशिक्षण सामग्री तैयार करना, जो डिजाइन तथा सामग्री लाने वाली टीम को उत्पादन के तरीकों एवं कच्चे माल से पानी पर पड़ने वाले प्रभाव के बारे में बताएँगे, कम्पनी के कारखानों में पानी बचाने की संभावनाएँ तलाशेंगे, चीन और बांग्लादेश में पानी के बेहतर प्रबंधन के लिये स्थानीय एवं क्षेत्रीय प्रशासनों, गैरसरकारी संगठनों एवं अन्य कम्पनियों जैसे हितधारकों के साथ काम करेंगे तथा उपभोक्ताओं को जल प्रबंधन के महत्व के बारे में शिक्षित करेंगे।

(घ) पानी की बराबरी (ऑफसेट): जहाँ कम पानी में काम करने के प्रयासों, पानी के दोबारा इस्तेमाल या पुनर्चक्रण के बाद भी पानी की खपत कम नहीं की जा सकती, वहाँ पानी के ऑफसेट में निवेश किया जाता है। इसमें या तो पौधे रोपे जाते हैं अथवा सुदूर भूमि पर पानी की दक्षता बढ़ाने के उपाय किये जाते हैं।

संदर्भ
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15. http://indianexpress.com/article/india/india-news-india/its-centres-responsibilty-to-warn-States-on-draught-supreme-court-maharashtra-latur-water-crisis-2761046/ (8 जून, 2016 को पढ़ा गया)

 

 

 

 

लेखक परिचय


लेखिका अन्तरराष्ट्रीय सामाजिक विकास परामर्शकारी संस्था आईपीई ग्लोबल लिमिटेड के वाश (वाटर, सेनिटेशन एंड हाईजीन) की प्रमुख हैं। यह संस्था प्राकृतिक संसाधन प्रबंधन, पेयजल एवं स्वच्छता, खाद्य सुरक्षा और ग्रामीण आजीविका आदि विषयों पर लगभग एक दशक से कार्य कर रही हैं। इनके अनेक शोधपत्र प्रकाशित हो चुके हैं। ईमेलः dr.indira.khurana@gmail.com;ikhurana@ipeglobal.com

 

 

 

 

 

 

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