आंखें आसमान पर टिकी हैं, तेज धूप में चमकता साफ नीला आसमान! कहीं कोई काला-घना बादल दिख जाए इसी उम्मीद में आषाढ़ निकल गया। सावन में छींटे भी नहीं पड़े। भादों में दो दिन पानी बरसा तो, लेकिन गर्मी से बेहाल धरती पर बूंदे गिरीं और भाप बन गईं। अब....? अब क्या होगा....? यह सवाल हमारे देश में लगभग हर तीसरे साल खड़ा हो जाता है। देश के 13 राज्यों के 135 जिलों की कोई दो करोड़ हेक्टेयर कृषि भूमि प्रत्येक दस साल में चार बार पानी के लिए त्राहि-त्राहि करती है।
भारत की अर्थ-व्यवस्था का आधार खेती-किसानी है। हमारी लगभग तीन-चौथाई खेती बारिश के भरोसे है। जिस साल बादल कम बरसे, आम-आदमी के जीवन का पहिया जैसे पटरी से नीचे उतर जाता है। एक बार गाड़ी नीचे उतरी तो उसे अपनी पुरानी गति पाने में कई-कई साल लग जाते हैं। मौसम विज्ञान के मुताबिक किसी इलाके की औसत बारिश से यदि 19 फीसदी से भी कम हो तो इसे ‘अनावृष्टि’ कहते हैं। लेकिन जब बारिश इतनी कम हो कि उसकी माप औसत बारिश से 19 फीसदी से भी नीचे रह जाए तो इसको ‘सूखे’ के हालात कहते हैं।
कहने को तो सूखा एक प्राकृतिक संकट है, लेकिन आज विकास के नाम पर इंसान ने भी बहुत कुछ ऐसा किया है जो कम बारिश के लिए जिम्मेदार है। राजस्थान के रेगिस्तान और कच्छ के रण गवाह हैं कि पानी की कमी इंसान के जीवन के रंगों को मुरझा नहीं सकती है। वहां सदियों से, पीढ़ियों से बेहद कम बारिश होती है। इसके बावजूद वहां लोगों की बस्तियां हैं, उन लोगों का बहुरंगी लोक-रंग है। वे कम पानी में जीवन जीना और पानी की हर बूंद को सहेजना जानते हैं।
जिन इलाकों में अच्छी बारिश होती है वहां के लोग बेशकीमती पानी की कीमत नहीं जान पाते हैं। जिस साल वहां कुछ कम पानी बरसता है तो वे बेहाल हो जाते हैं। सूखे के दौर में पीने के पानी का संकट, अन्न का अभाव और मवेशियों के लिए चारे की कमी सिर उठाने लगती है। फसलें बर्बाद हो जाती हैं। कुपोषण, बीमारी जीवन में आई अनिश्चितता के कारण मानसिक परेशानियां इस त्रासदी को भयावह बना देते हैं।
सूखा बेरोजगारी साथ ले कर आता है। ऐसे में लोग काम की तलाश में अपने घर-गांव से दूर पलायन करते हैं। छोटा किसान अगली फसल की तैयारी के लिए सूदखोरों की गिरफ्त में फंस जाता है। यह ऐसा दुष्चक्र होता है, जिससे बाहर निकलना बेहद कठिन है।
तो क्या सूखे से बचा जा सकता है? आज हमारा विज्ञान प्रकृति पर नियंत्रण के भले ही बड़े-बड़े दावे करे, लेकिन एक छोटी-सी प्राकृतिक आपदा के सामने हम बौने साबित होते हैं। हम ना तो बारिश को बुला सकते हैं, ना ही उसकी दिशा बदल सकते हैं। ऐसे में इस संकट का सहजता से सामना करने का एकमात्र रास्ता है- सावधानी और प्रबंधन।
आखिर मेरे इलाके का पानी कहां चला जाता है? जब रेगिस्तान में लोग थोड़े-से पानी में साल भर जीवन मजे से काटते हैं तो हम क्यों नहीं? जब मालूम है कि औसतन हर तीन साल में एक बार कम बारिश से हमारा पाला पड़ेगा तो हम पहले से तैयार क्यों नहीं रहते हैं? क्या कम बारिश होने के बाद सरकार की ओर उम्मीद से देखना या फिर पलायन कर जाना ही एकमात्र विकल्प है? ये सारे सवाल यदि आपके भी मन में आते हैं- तो निश्चित ही आप सूखे से जूझ सकते हैं।
पानी की हर बूंद को बचाना, पेड़ों का रोपण, खेती में बदलाव, जमीन को मवेशियों की अतिचराई से बचाना- ये ऐसे निदान हैं, जो कम बारिश के बावजूद सूखे के हालात बनने से रोक सकते हैं।
पीने के लिए स्वच्छ जल, खेत के लिए पर्याप्त सिंचाई, साफ-सफाई के लिए पानी और मवेशियों के लिए पेयजल पानी के बगैर इंसान का जीवन असंभव हैं। कम बारिश के संभावित इलाकों की जानकारी सभी को है। बारिश के समय पानी को रोकने के हरसंभव उपाय किए जाएं।
1. पारंपरिक तालाबों की सफाई, मरम्मत व गहरीकरण गर्मी के महीनों में कर लें, जल-संग्रह हो सके।
2. पुराने तालाबों, झीलों के किनारों से पानी की आवक के रास्ते में यदि कोई रुकावट हो तो उन्हें हटा दें।
3. पुराने कुओं की नियमित सफाई करें। जिन रास्तों से पानी बह कर नदी- नालों में जाता हो, उसके आस-पास कुएं खोदें।
4. गांव-मुहल्ले के हैंडपंपों की सफाई मरम्मत।
5. पक्के घरों की छतों पर बारिश के पानी की निकासी को नाली में बहने देने से रोकें। इस पानी को किसी पाईप के जरिए, जमीन में गहरे उतार दें। इसे ‘‘वाटर हारवेस्टिंग’’ कहते हैं। इसकी तकनीकी जानकारी विकासखंड कार्यालय से लें और अधिक से अधिक भवनों में इस लागू करें।
6. हैंडपंप और ट्यूबवेल के करीब छोटे-छोटे गड्ढे या तलैया खोदें, जिससे बारिश का पानी इनमें एकत्र हो। यह पानी भूजल को ताकत देता है।
7. बर्तन और कपड़ों की धुलाई, वाहन व अन्य चीजों की सफाई में कम से कम पानी का इस्तेमाल करें। जहां जरूरी ना हो डिटरजेंट-साबुन का प्रयोग कतई ना करें। डिटरजेंट की सफाई में अधिक पानी लगता है।
8. हैंडपंप से बहे बेकार पानी को एकत्र करने की व्यवस्था करें। यदि पक्की हौद या टंकी बना लें तो बेहतर होगा। यह पानी मवेशियों के लिए जीवनदायी होगा।
जहां हरियाली होगी, वहां बादल जरूर बरसेंगे, यह बात विज्ञान से सिद्ध हो चुकी है। सूखे के हालात में पेड़ों की मौजूदगी किसी चमत्कार की तरह होती है। पेड़-पौधे जमीन की नमी बरकरार रखते हैं, साथ ही मिट्टी की ऊपरी सतह को टूटने-बिखरने से बचाते हैं।
1. गांव के स्कूल, पंचायत और ऐसी ही सार्वजनिक जगहों पर पेड़ लगाए जाएं। ध्यान रहे पेड़ वहीं चुनें जो पारंपरिक रूप से आपके इलाके का हो। सफेदा या विलायती बबूल लग तो जल्दी जाता है, लेकिन यह नए संकटों को बुलावा देते हैं।
2. फलदार पेड़ आय का वैकल्पिक साधन बनते हैं। आम, जामुन, नीम, नींबू जैसे पेड़ ज्यादा उपयोगी होंगे।
3. नदी, तालाबों के किनारे पड़ी बेकार जमीन पर चारा उगाएं। यह संकट के समय मवेशियों के लिए उपयोगी होगा। इससे जमीन का क्षरण भी रुकता है। मिट्टी की नमी बरकरार रहती है, सो अलग।
बगैर पानी के खेती संभव नहीं है। आज कई ऐसे बीज बाजार में आ गए हैं, जिसमें कम पानी की जरूरत होती है। साथ फसल भी जल्दी तैयार होती है।
1. खेत के आसपास छोटे-छोटे तालाब बनाएं। यह पानी भूजल के लिए फायदे-मंद होगा।
2. मक्का की जीएम-6, धान की अशोका-114, के अलावा चने की भी कुछ ऐसी किस्में उपलब्ध हैं, जो कम पानी मांगती हैं।
3. रासायनिक खादों के स्थान पर कंपोस्ट का इस्तेमाल भी खेतों में पानी की मांग को कम करता है।
सूखे का पूरे जन-जीवन पर विपरीत असर पड़ता है इसके बाद विकास के काम ठप्प हो जाते हैं। जो पैसा या संसाधन विकास के कामों में लगता, वह राहत व पुनर्वास में खर्च हो जाता है। भोजन, खेती, रोजगार, बच्चों की शिक्षा, स्वास्थ्य ऐसी ही कई समस्याएं सूखा साथ लेकर आता है। सूखे से संभावित क्षेत्रों में प्रबंधन के तीन प्रमुख चरण होते हैं।
1. सूखा-पूर्व तैयारी
2. सूखे के दौरान प्रबंधन
3. जन-जीवन सामान्य बनाने हेतु कदम
सूखे या ऐसी किसी आपदा को नियंत्रित करना तो संभव नहीं है, लेकिन इसका पूर्वानुमान होने पर इससे जूझने की तैयारी जरूर की जा सकती है। कम बारिश होने की मौसम विभाग की चेतावनियों को कभी हल्के में नहीं लेना चाहिए। वहीं बारिश के पूर्वानुमानों के देशी-पारंपरिक तरीकों को भी ध्यान देना ठीक रहता है। इसमें सतर्कता जरूरी है, क्योंकि पारंपरिक ज्ञान का अंधविश्वासों से घाल-मेल होने की बेहद संभावना होती है।
1. मौसम विभाग के पूर्वानुमानों को रेडियों, अखबार, टी.वी. के माध्यम से देखा पढ़ा जा सकता है। यदि कम बारिश की संभावना हो तो आने वाले महीनों के लिए सामूहिक तैयारी करनी होगी।
2. कृषि विस्तार अधिकारी और विकास खंड कार्यालयों में भी बारिश की संभावना की सूचनाएं उपलब्ध रहती हैं। इस सूचना को गांव के प्रत्येक व्यक्ति तक इस तरह पहुंचाएं कि कहीं डर, आतंक या घबराहट का माहौल ना पैदा हो जाए। ध्यान रहे कि ऐसी हड़बड़ाहट का फायदा सूदखोर, बिचौलिए और काला बाजारी करने वाले लोग उठा सकते हैं।
3. गांव की कुल आबादी, मवेशियों की संख्या, जल के स्रोत आदि आंकड़ों कोेे एकत्र कर लें। इससे अनुमान लगाया जा सकता है कि आने वाले महीनों में गांव में खाने की सामग्री पेयजल और चारे की कितनी मांग होगी।
4. पानी के कमी के कारण फैलने वाली बीमारियों की संभावित दवाईयां जैसे ओ. आर. एस. घोल आदि एकत्र रखें।
5. शुद्ध पेयजल के लिए देशी तकनीक पर आधारित छन्नों (बजरी, चूना, फिटकरी वाले) की व्यवस्था रखें। यदि असुरक्षित पानी पीने की मजबूरी हो तो पानी को उबालने व उसे देशी छन्नों से शुद्ध करने की तकनीक का घर-घर तक प्रचार करें।
6. रोजगार गांरटी योजना के तहत ‘जॉब-कार्ड’ बनवाएं। गांव की सार्वजनिक वितरण प्रणाली में यदि कमी हो तो उसे ठीक करने के लिए संबंधित अधिकारी से संपर्क करें।
7. हालात बिगड़ने से पहले ही गांव के लोगों की दिक्कतों की जानकारी जिले के वरिष्ठ अधिकारियों तक अवश्य पहुंचाएं।
8. ‘अन्न-बैंक’ और ‘स्वयं सहायता समूह’ योजनाएं सूखा-संभावित इलाकों के लिए वरदान हैं। हर इंसान को अन्न और हर मवेशी को चारे का अनुमान लगाकर इसका भंडारण करें। ‘स्वयं सहायता समूह’ रोजगार के दूसरे अवसर मुहैया करवाने तथा ऊंची ब्याज दरों पर उधार देने वाले साहूकारों से मुक्ति का माध्यम हैं।
9. छोटे-मोटे आपसी विवादों, जातीय या धार्मिक टकरावों को भूल जाएं। प्रयास करें कि नियमित समय में सभी लोग एक साथ बैठें, नाचें, गाएं और कुछ पल आनंद के बिताएं।
10. कम बारिश की संभावनाओं की जानकारी मिलते ही पानी के संचयन के उपायों को गंभीरता से लागू करने लगें।
11. प्रयास करें कि इलाके का हर खेत ‘‘फसल बीमा योजना’’ में शामिल हो।
सूखे के दौरान संयम और प्रबंधन, शिक्षा और जागरूकता के माध्यम से ही संभव हैं। सूखा तात्कालिक मुसीबत नहीं है, समय के साथ इसकी विकरालता भी बढ़ती जाती है। इसके दुष्प्रभाव दूरगामी होते हैं। इन हालातों में आपसी तालमेल, सुनियोजित व्यवस्था और प्रबंधन से तकलीफों को कम किया जा सकता है।
1. सूखे के संकट का सामना करने का सूत्र है- साझा रहो। सूखे की मार से कहीं ज्यादा तकलीफदेहक होता है- अकेले पड़ जाना। यदि समूचा गांव एक-साथ हो तो लोग संकट और शोषण दोनों से बच सकते हैं।
2. सूखे के शुरूआती दिनों मेें कुछ दृढ़-संकल्प जरूरी हैं - गांव नहीं छोड़ेंगे, किसी ओर को भी नहीं छोड़ने देंगे, बच्चों का स्कूल जाना नहीं रोकेंगे, मौजूद संसाधनों का इस्तेमाल सभी लोग समान रूप से करेंगे। यदि यह संकल्प कारगर हो गया तो सूखे की कड़ी धूप, पूर्णिमा के चांद की तरह शीतल महसूस होगी।
3. चाहे कम पानी से ही सही, नहाएं अवश्य। इसी तरह कपड़ों को भी साफ रखें, वरना खुजली जैसे रोग हो सकते हैं।
4. पीने का पानी शुद्ध हो, इसका पालन कड़ाई से करें। पानी चाहे हैंडपंप का हो या कुएं का या फिर नदी-पोखर का, उसे उबालना और छानना ना भूलें।
5. इस संकट के काल में सामाजिक या धार्मिक उत्सवों में फिजूलखर्ची और दिखाने से बचें।
6. यदि गांव/मुहल्ले में पानी के सभी खेत सूख गए हों तो वरिष्ठ अधिकारियों को इसकी सूचना दें।
पाने के पानी को टैंकर के माध्यम से सप्लाई करवाने का सरकार के पास प्रावधान होता है। ऊपर सुनवाई ना होने की दशा में जन-प्रतिनिधियों और मीडिया के माध्यम से अपनी बात ऊपर तक पहुंचाएं।
7. दुर्भाग्य से यदि मवेशियों की मौत होने लगे तो लाशों के तत्काल निबटारे की व्यवस्था की जाए, वरना कई बीमारियां फैल सकती हैं।
8. जब चारे की कमी होती है, तब मवेशी जंगलों व चरागाहों में अंधाधुंध चराई करते हैं। इसके कारण जमीन की ऊपरी परत को नुकसान होता है। चिड़ियों, मवेशियों आदि के माध्यम से होने वाला बीजों का संचारण भी इससे प्रभावित होता है। मवेशियों के नंगी जमीन को लगातार चाटने और चलने से जमीन की उर्वरा-शक्ति भी नष्ट हो जाती है। अतः चारे की व्यवस्था तथा अतिचराई पर गंभीरता से ध्यान दें।
9. मामूली मजदूरी की लालसा या पलायन के कारण बच्चों का स्कूल जान कतई न रोकें। बच्चों को स्कूल में ‘मिड डे मिल’ तो मिलता ही है, साथ ही पढ़ाई उन्हें समाज के प्रति संवेदनशील बनाए रखती है। याद रहे कि अब कक्षा आठ तक के स्कूलों में मिड डे मील योजना लागू कर दी गई है।
10. गांव/मुहल्ले के हर घर के प्रत्येक सदस्य की जानकारी नियमित एकत्र करते रहें। कहीं शर्म या सामाजिक-संकोच के कारण कोई भूखा, बीमार या तनावग्रस्त तो नहीं है।
11. अगली फसल की तैयारी के लिए उचित बीज, खाद आदि के बारे में सोचें। इसके लिए कर्ज लेना हो तो सरकारी योजनाओं का ही सहारा लें।
12. गर्भवती महिलाओं, बुजुर्गों और शिशुओं को पौष्टिक आहार मिलते रहना चाहिए। इसमें आंगनवाड़ी कार्यकर्ता, गैरसरकारी संगठन और पंचायत से सहयोग लेना आपका अधिकार है।
संकट, जन्म-मरण, बदलाव आते-जाते रहते हैं, लेकिन मानव-जीवन की गति अबाध है। हर रात के बाद सुनहरी सुबह होती है। ठीक इसी तरह सूखे की विपदा के बाद सपनों, उम्मीदों और बदलाव का सभी को इंतजार रहता है। इस दौर में सामाजिक कार्यकर्ता की महत्वपूर्ण जिम्मेदारी होती है।
1. अलबता तो कोशिश होनी चाहिए कि कोई व्यक्ति रोजी-रोटी के लिए अपना घर-गांव छोड़कर ना जाए। मजबूरी में किसी को जाना ही पड़े तो उसका खाली घर सुरक्षित रहे, वहां चोरी या कब्जा न हो, यह समाज की जिम्मेदारी है।
2. नई फसल की तैयारी करना।
3. हम कहां असफल रहे, इसका आकलन कर भविष्य में इसके निदान के उपाय करना।
‘कम पानी में भी बेहतरीन जीवन जिया जा सकता है’’ - यह बात हमारे देश के कई जिलों के कई गांव के लोग सिद्ध कर चुके हैं। अल्प वर्षा की त्रासदी में सहज जिंदगी जीने के नुस्खे कुछ किताबों में बताए गए हैं। ये पुस्तकें आपके संदर्भ-केंद्र के लिए उपयोगी हो सकती हैं -
1. पानीदार समाज, लेखकः अमन नम्र, नेशनल बुक ट्रस्ट, नई दिल्ली-110070
2. आज भी खरे हैं तालाब, लेखकः अनुपम मिश्र, गांधी शांति प्रतिष्ठान, दीनदयाल उपाध्याय मार्ग, नई दिल्ली-10003
3. राजस्थान की रजत बूंदें, लेखकः अनुपम मिश्र, गांधी शांति प्रतिष्ठान, नई दिल्ली-3
भारत की अर्थ-व्यवस्था का आधार खेती-किसानी है। हमारी लगभग तीन-चौथाई खेती बारिश के भरोसे है। जिस साल बादल कम बरसे, आम-आदमी के जीवन का पहिया जैसे पटरी से नीचे उतर जाता है। एक बार गाड़ी नीचे उतरी तो उसे अपनी पुरानी गति पाने में कई-कई साल लग जाते हैं। मौसम विज्ञान के मुताबिक किसी इलाके की औसत बारिश से यदि 19 फीसदी से भी कम हो तो इसे ‘अनावृष्टि’ कहते हैं। लेकिन जब बारिश इतनी कम हो कि उसकी माप औसत बारिश से 19 फीसदी से भी नीचे रह जाए तो इसको ‘सूखे’ के हालात कहते हैं।
कहने को तो सूखा एक प्राकृतिक संकट है, लेकिन आज विकास के नाम पर इंसान ने भी बहुत कुछ ऐसा किया है जो कम बारिश के लिए जिम्मेदार है। राजस्थान के रेगिस्तान और कच्छ के रण गवाह हैं कि पानी की कमी इंसान के जीवन के रंगों को मुरझा नहीं सकती है। वहां सदियों से, पीढ़ियों से बेहद कम बारिश होती है। इसके बावजूद वहां लोगों की बस्तियां हैं, उन लोगों का बहुरंगी लोक-रंग है। वे कम पानी में जीवन जीना और पानी की हर बूंद को सहेजना जानते हैं।
जिन इलाकों में अच्छी बारिश होती है वहां के लोग बेशकीमती पानी की कीमत नहीं जान पाते हैं। जिस साल वहां कुछ कम पानी बरसता है तो वे बेहाल हो जाते हैं। सूखे के दौर में पीने के पानी का संकट, अन्न का अभाव और मवेशियों के लिए चारे की कमी सिर उठाने लगती है। फसलें बर्बाद हो जाती हैं। कुपोषण, बीमारी जीवन में आई अनिश्चितता के कारण मानसिक परेशानियां इस त्रासदी को भयावह बना देते हैं।
सूखा बेरोजगारी साथ ले कर आता है। ऐसे में लोग काम की तलाश में अपने घर-गांव से दूर पलायन करते हैं। छोटा किसान अगली फसल की तैयारी के लिए सूदखोरों की गिरफ्त में फंस जाता है। यह ऐसा दुष्चक्र होता है, जिससे बाहर निकलना बेहद कठिन है।
तो क्या सूखे से बचा जा सकता है? आज हमारा विज्ञान प्रकृति पर नियंत्रण के भले ही बड़े-बड़े दावे करे, लेकिन एक छोटी-सी प्राकृतिक आपदा के सामने हम बौने साबित होते हैं। हम ना तो बारिश को बुला सकते हैं, ना ही उसकी दिशा बदल सकते हैं। ऐसे में इस संकट का सहजता से सामना करने का एकमात्र रास्ता है- सावधानी और प्रबंधन।
सावधानी
आखिर मेरे इलाके का पानी कहां चला जाता है? जब रेगिस्तान में लोग थोड़े-से पानी में साल भर जीवन मजे से काटते हैं तो हम क्यों नहीं? जब मालूम है कि औसतन हर तीन साल में एक बार कम बारिश से हमारा पाला पड़ेगा तो हम पहले से तैयार क्यों नहीं रहते हैं? क्या कम बारिश होने के बाद सरकार की ओर उम्मीद से देखना या फिर पलायन कर जाना ही एकमात्र विकल्प है? ये सारे सवाल यदि आपके भी मन में आते हैं- तो निश्चित ही आप सूखे से जूझ सकते हैं।
पानी की हर बूंद को बचाना, पेड़ों का रोपण, खेती में बदलाव, जमीन को मवेशियों की अतिचराई से बचाना- ये ऐसे निदान हैं, जो कम बारिश के बावजूद सूखे के हालात बनने से रोक सकते हैं।
हर बूंद को बचाना
पीने के लिए स्वच्छ जल, खेत के लिए पर्याप्त सिंचाई, साफ-सफाई के लिए पानी और मवेशियों के लिए पेयजल पानी के बगैर इंसान का जीवन असंभव हैं। कम बारिश के संभावित इलाकों की जानकारी सभी को है। बारिश के समय पानी को रोकने के हरसंभव उपाय किए जाएं।
1. पारंपरिक तालाबों की सफाई, मरम्मत व गहरीकरण गर्मी के महीनों में कर लें, जल-संग्रह हो सके।
2. पुराने तालाबों, झीलों के किनारों से पानी की आवक के रास्ते में यदि कोई रुकावट हो तो उन्हें हटा दें।
3. पुराने कुओं की नियमित सफाई करें। जिन रास्तों से पानी बह कर नदी- नालों में जाता हो, उसके आस-पास कुएं खोदें।
4. गांव-मुहल्ले के हैंडपंपों की सफाई मरम्मत।
5. पक्के घरों की छतों पर बारिश के पानी की निकासी को नाली में बहने देने से रोकें। इस पानी को किसी पाईप के जरिए, जमीन में गहरे उतार दें। इसे ‘‘वाटर हारवेस्टिंग’’ कहते हैं। इसकी तकनीकी जानकारी विकासखंड कार्यालय से लें और अधिक से अधिक भवनों में इस लागू करें।
6. हैंडपंप और ट्यूबवेल के करीब छोटे-छोटे गड्ढे या तलैया खोदें, जिससे बारिश का पानी इनमें एकत्र हो। यह पानी भूजल को ताकत देता है।
7. बर्तन और कपड़ों की धुलाई, वाहन व अन्य चीजों की सफाई में कम से कम पानी का इस्तेमाल करें। जहां जरूरी ना हो डिटरजेंट-साबुन का प्रयोग कतई ना करें। डिटरजेंट की सफाई में अधिक पानी लगता है।
8. हैंडपंप से बहे बेकार पानी को एकत्र करने की व्यवस्था करें। यदि पक्की हौद या टंकी बना लें तो बेहतर होगा। यह पानी मवेशियों के लिए जीवनदायी होगा।
पेड़ लगाना
जहां हरियाली होगी, वहां बादल जरूर बरसेंगे, यह बात विज्ञान से सिद्ध हो चुकी है। सूखे के हालात में पेड़ों की मौजूदगी किसी चमत्कार की तरह होती है। पेड़-पौधे जमीन की नमी बरकरार रखते हैं, साथ ही मिट्टी की ऊपरी सतह को टूटने-बिखरने से बचाते हैं।
1. गांव के स्कूल, पंचायत और ऐसी ही सार्वजनिक जगहों पर पेड़ लगाए जाएं। ध्यान रहे पेड़ वहीं चुनें जो पारंपरिक रूप से आपके इलाके का हो। सफेदा या विलायती बबूल लग तो जल्दी जाता है, लेकिन यह नए संकटों को बुलावा देते हैं।
2. फलदार पेड़ आय का वैकल्पिक साधन बनते हैं। आम, जामुन, नीम, नींबू जैसे पेड़ ज्यादा उपयोगी होंगे।
3. नदी, तालाबों के किनारे पड़ी बेकार जमीन पर चारा उगाएं। यह संकट के समय मवेशियों के लिए उपयोगी होगा। इससे जमीन का क्षरण भी रुकता है। मिट्टी की नमी बरकरार रहती है, सो अलग।
खेती-किसानी
बगैर पानी के खेती संभव नहीं है। आज कई ऐसे बीज बाजार में आ गए हैं, जिसमें कम पानी की जरूरत होती है। साथ फसल भी जल्दी तैयार होती है।
1. खेत के आसपास छोटे-छोटे तालाब बनाएं। यह पानी भूजल के लिए फायदे-मंद होगा।
2. मक्का की जीएम-6, धान की अशोका-114, के अलावा चने की भी कुछ ऐसी किस्में उपलब्ध हैं, जो कम पानी मांगती हैं।
3. रासायनिक खादों के स्थान पर कंपोस्ट का इस्तेमाल भी खेतों में पानी की मांग को कम करता है।
प्रबंधन
सूखे का पूरे जन-जीवन पर विपरीत असर पड़ता है इसके बाद विकास के काम ठप्प हो जाते हैं। जो पैसा या संसाधन विकास के कामों में लगता, वह राहत व पुनर्वास में खर्च हो जाता है। भोजन, खेती, रोजगार, बच्चों की शिक्षा, स्वास्थ्य ऐसी ही कई समस्याएं सूखा साथ लेकर आता है। सूखे से संभावित क्षेत्रों में प्रबंधन के तीन प्रमुख चरण होते हैं।
1. सूखा-पूर्व तैयारी
2. सूखे के दौरान प्रबंधन
3. जन-जीवन सामान्य बनाने हेतु कदम
सूखा-पूर्व तैयारी
सूखे या ऐसी किसी आपदा को नियंत्रित करना तो संभव नहीं है, लेकिन इसका पूर्वानुमान होने पर इससे जूझने की तैयारी जरूर की जा सकती है। कम बारिश होने की मौसम विभाग की चेतावनियों को कभी हल्के में नहीं लेना चाहिए। वहीं बारिश के पूर्वानुमानों के देशी-पारंपरिक तरीकों को भी ध्यान देना ठीक रहता है। इसमें सतर्कता जरूरी है, क्योंकि पारंपरिक ज्ञान का अंधविश्वासों से घाल-मेल होने की बेहद संभावना होती है।
1. मौसम विभाग के पूर्वानुमानों को रेडियों, अखबार, टी.वी. के माध्यम से देखा पढ़ा जा सकता है। यदि कम बारिश की संभावना हो तो आने वाले महीनों के लिए सामूहिक तैयारी करनी होगी।
2. कृषि विस्तार अधिकारी और विकास खंड कार्यालयों में भी बारिश की संभावना की सूचनाएं उपलब्ध रहती हैं। इस सूचना को गांव के प्रत्येक व्यक्ति तक इस तरह पहुंचाएं कि कहीं डर, आतंक या घबराहट का माहौल ना पैदा हो जाए। ध्यान रहे कि ऐसी हड़बड़ाहट का फायदा सूदखोर, बिचौलिए और काला बाजारी करने वाले लोग उठा सकते हैं।
3. गांव की कुल आबादी, मवेशियों की संख्या, जल के स्रोत आदि आंकड़ों कोेे एकत्र कर लें। इससे अनुमान लगाया जा सकता है कि आने वाले महीनों में गांव में खाने की सामग्री पेयजल और चारे की कितनी मांग होगी।
4. पानी के कमी के कारण फैलने वाली बीमारियों की संभावित दवाईयां जैसे ओ. आर. एस. घोल आदि एकत्र रखें।
5. शुद्ध पेयजल के लिए देशी तकनीक पर आधारित छन्नों (बजरी, चूना, फिटकरी वाले) की व्यवस्था रखें। यदि असुरक्षित पानी पीने की मजबूरी हो तो पानी को उबालने व उसे देशी छन्नों से शुद्ध करने की तकनीक का घर-घर तक प्रचार करें।
6. रोजगार गांरटी योजना के तहत ‘जॉब-कार्ड’ बनवाएं। गांव की सार्वजनिक वितरण प्रणाली में यदि कमी हो तो उसे ठीक करने के लिए संबंधित अधिकारी से संपर्क करें।
7. हालात बिगड़ने से पहले ही गांव के लोगों की दिक्कतों की जानकारी जिले के वरिष्ठ अधिकारियों तक अवश्य पहुंचाएं।
8. ‘अन्न-बैंक’ और ‘स्वयं सहायता समूह’ योजनाएं सूखा-संभावित इलाकों के लिए वरदान हैं। हर इंसान को अन्न और हर मवेशी को चारे का अनुमान लगाकर इसका भंडारण करें। ‘स्वयं सहायता समूह’ रोजगार के दूसरे अवसर मुहैया करवाने तथा ऊंची ब्याज दरों पर उधार देने वाले साहूकारों से मुक्ति का माध्यम हैं।
9. छोटे-मोटे आपसी विवादों, जातीय या धार्मिक टकरावों को भूल जाएं। प्रयास करें कि नियमित समय में सभी लोग एक साथ बैठें, नाचें, गाएं और कुछ पल आनंद के बिताएं।
10. कम बारिश की संभावनाओं की जानकारी मिलते ही पानी के संचयन के उपायों को गंभीरता से लागू करने लगें।
11. प्रयास करें कि इलाके का हर खेत ‘‘फसल बीमा योजना’’ में शामिल हो।
सूखे के दौरान प्रबंधन
सूखे के दौरान संयम और प्रबंधन, शिक्षा और जागरूकता के माध्यम से ही संभव हैं। सूखा तात्कालिक मुसीबत नहीं है, समय के साथ इसकी विकरालता भी बढ़ती जाती है। इसके दुष्प्रभाव दूरगामी होते हैं। इन हालातों में आपसी तालमेल, सुनियोजित व्यवस्था और प्रबंधन से तकलीफों को कम किया जा सकता है।
1. सूखे के संकट का सामना करने का सूत्र है- साझा रहो। सूखे की मार से कहीं ज्यादा तकलीफदेहक होता है- अकेले पड़ जाना। यदि समूचा गांव एक-साथ हो तो लोग संकट और शोषण दोनों से बच सकते हैं।
2. सूखे के शुरूआती दिनों मेें कुछ दृढ़-संकल्प जरूरी हैं - गांव नहीं छोड़ेंगे, किसी ओर को भी नहीं छोड़ने देंगे, बच्चों का स्कूल जाना नहीं रोकेंगे, मौजूद संसाधनों का इस्तेमाल सभी लोग समान रूप से करेंगे। यदि यह संकल्प कारगर हो गया तो सूखे की कड़ी धूप, पूर्णिमा के चांद की तरह शीतल महसूस होगी।
3. चाहे कम पानी से ही सही, नहाएं अवश्य। इसी तरह कपड़ों को भी साफ रखें, वरना खुजली जैसे रोग हो सकते हैं।
4. पीने का पानी शुद्ध हो, इसका पालन कड़ाई से करें। पानी चाहे हैंडपंप का हो या कुएं का या फिर नदी-पोखर का, उसे उबालना और छानना ना भूलें।
5. इस संकट के काल में सामाजिक या धार्मिक उत्सवों में फिजूलखर्ची और दिखाने से बचें।
6. यदि गांव/मुहल्ले में पानी के सभी खेत सूख गए हों तो वरिष्ठ अधिकारियों को इसकी सूचना दें।
पाने के पानी को टैंकर के माध्यम से सप्लाई करवाने का सरकार के पास प्रावधान होता है। ऊपर सुनवाई ना होने की दशा में जन-प्रतिनिधियों और मीडिया के माध्यम से अपनी बात ऊपर तक पहुंचाएं।
7. दुर्भाग्य से यदि मवेशियों की मौत होने लगे तो लाशों के तत्काल निबटारे की व्यवस्था की जाए, वरना कई बीमारियां फैल सकती हैं।
8. जब चारे की कमी होती है, तब मवेशी जंगलों व चरागाहों में अंधाधुंध चराई करते हैं। इसके कारण जमीन की ऊपरी परत को नुकसान होता है। चिड़ियों, मवेशियों आदि के माध्यम से होने वाला बीजों का संचारण भी इससे प्रभावित होता है। मवेशियों के नंगी जमीन को लगातार चाटने और चलने से जमीन की उर्वरा-शक्ति भी नष्ट हो जाती है। अतः चारे की व्यवस्था तथा अतिचराई पर गंभीरता से ध्यान दें।
9. मामूली मजदूरी की लालसा या पलायन के कारण बच्चों का स्कूल जान कतई न रोकें। बच्चों को स्कूल में ‘मिड डे मिल’ तो मिलता ही है, साथ ही पढ़ाई उन्हें समाज के प्रति संवेदनशील बनाए रखती है। याद रहे कि अब कक्षा आठ तक के स्कूलों में मिड डे मील योजना लागू कर दी गई है।
10. गांव/मुहल्ले के हर घर के प्रत्येक सदस्य की जानकारी नियमित एकत्र करते रहें। कहीं शर्म या सामाजिक-संकोच के कारण कोई भूखा, बीमार या तनावग्रस्त तो नहीं है।
11. अगली फसल की तैयारी के लिए उचित बीज, खाद आदि के बारे में सोचें। इसके लिए कर्ज लेना हो तो सरकारी योजनाओं का ही सहारा लें।
12. गर्भवती महिलाओं, बुजुर्गों और शिशुओं को पौष्टिक आहार मिलते रहना चाहिए। इसमें आंगनवाड़ी कार्यकर्ता, गैरसरकारी संगठन और पंचायत से सहयोग लेना आपका अधिकार है।
जनजीवन को सामान्य बनाने हेतु कदम
संकट, जन्म-मरण, बदलाव आते-जाते रहते हैं, लेकिन मानव-जीवन की गति अबाध है। हर रात के बाद सुनहरी सुबह होती है। ठीक इसी तरह सूखे की विपदा के बाद सपनों, उम्मीदों और बदलाव का सभी को इंतजार रहता है। इस दौर में सामाजिक कार्यकर्ता की महत्वपूर्ण जिम्मेदारी होती है।
1. अलबता तो कोशिश होनी चाहिए कि कोई व्यक्ति रोजी-रोटी के लिए अपना घर-गांव छोड़कर ना जाए। मजबूरी में किसी को जाना ही पड़े तो उसका खाली घर सुरक्षित रहे, वहां चोरी या कब्जा न हो, यह समाज की जिम्मेदारी है।
2. नई फसल की तैयारी करना।
3. हम कहां असफल रहे, इसका आकलन कर भविष्य में इसके निदान के उपाय करना।
‘कम पानी में भी बेहतरीन जीवन जिया जा सकता है’’ - यह बात हमारे देश के कई जिलों के कई गांव के लोग सिद्ध कर चुके हैं। अल्प वर्षा की त्रासदी में सहज जिंदगी जीने के नुस्खे कुछ किताबों में बताए गए हैं। ये पुस्तकें आपके संदर्भ-केंद्र के लिए उपयोगी हो सकती हैं -
1. पानीदार समाज, लेखकः अमन नम्र, नेशनल बुक ट्रस्ट, नई दिल्ली-110070
2. आज भी खरे हैं तालाब, लेखकः अनुपम मिश्र, गांधी शांति प्रतिष्ठान, दीनदयाल उपाध्याय मार्ग, नई दिल्ली-10003
3. राजस्थान की रजत बूंदें, लेखकः अनुपम मिश्र, गांधी शांति प्रतिष्ठान, नई दिल्ली-3
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Post By: Shivendra