संकट में पंछी

अनेक अध्ययनों से जाहिर हो चुका है कि खेती में रसायनों के अंधाधुंध उपयोग से भूजल में अनेक विषैले तत्त्व घुल-मिल गए हैं, जिससे लोगों की सेहत पर बुरा असर पड़ रहा है। खेतों से रिस कर नदियों-तालाबों में गए रसायन उनमें पलने वाले जीवों के लिए घातक साबित हो रहे हैं। पंछियों के भोजन का मुख्य स्रोत चूंकि खेत-खलिहान हैं, जब वे रसायन मिले दाने चुगते हैं, मौत को गले लगा लेते हैं। इस तरह पारिस्थितिकी चक्र कमजोर पड़ता जा रहा है।

कीटनाशकों के इस्तेमाल से पंछियों और जल-जीवों के जीवन पर पड़ने वाले दुष्प्रभाव को लेकर काफी समय से चिंता जताई जाती रही है। मगर इस पर काबू पाने के लिए जमीनी स्तर पर जैसे प्रयास होने चाहिए, अभी तक नहीं हो पाए हैं। इसी का नतीजा है कि पक्षियों और जल-जीवों की सामूहिक मृत्यु की घटनाएं जब-तब सुनने को मिल जाती हैं। उड़ीसा के गंजाम जिले में दस से ज्यादा मोरों की मौत इसी सिलसिले का ताजा उदाहरण है। गंजाम के पकीड़ी इलाके में राष्ट्रीय पक्षी संरक्षण अभियान चलाया जाता है। इसलिए वहां मोरों की खासी तादाद है। उस इलाके में बड़े पैमाने पर कपास की खेती होती है। कीड़ों से बचाव के लिए किसान इन फसलों पर जहरीले रसायनों का छिड़काव करते हैं। पकीड़ी पहाड़ियों से उतर कर अक्सर मोर कपास के इन खेतों में आते और उनके फलों को खा जाते हैं। हालांकि मोरों को कीटनाशकों के दुष्प्रभाव से बचाने के लिए उस इलाके में कपास के खेतों के आसपास वन विभाग के कर्मचारी तैनात किए गए हैं, गांव वाले भी खासी सतर्कता बरतते हैं।

मगर कई बार लापरवाही के चलते उन्हें रोका नहीं जा पाता और कीटनाशक वाले फल खाने से उनकी मौत हो जाती है। अनुमान है कि उस पूरे इलाके में इस तरह एक हजार से अधिक मोर मारे जा चुके हैं। इससे मोर संरक्षण समिति के सदस्यों की चिंता स्वाभाविक है। वे इस बात की जागरूकता लाने की कोशिश कर रहे हैं कि किसान जैविक खादों और कीटों से फसलों को बचाने के देसी तरीकों का इस्तेमाल करें ताकि मोर और दूसरे पक्षी इस तरह जहरीले रसायनों की चपेट में आकर मारे न जाएं। पर्यावरणविद बहुत पहले से कह रहे हैं कि रासायनिक खादों और कीटनाशकों के बेतहाशा इस्तेमाल से गौरेया, कौआ, गिद्ध आदि पंछियों की प्रजातियां तेजी से लुप्त हो रही हैं। मगर न तो किसानों में इसे लेकर अपेक्षित जागरूकता फैलाने का प्रयास किया जाता है न ऐसे बीजों के इस्तेमाल पर बल दिया जाता है जो रासायनिक खादों और कीटनाशकों से छुटकारा दिला सकें।

दुनिया के बहुत-से देशों में अब जैविक खेती पर जोर दिया जा रहा है, मगर हमारे यहां सरकार जीन-संशोधित फसलों को प्रोत्साहित करने में जुटी हुई। इसके लिए एक विधेयक का मसविदा भी तैयार कर लिया गया है। पर्यावरण के क्षेत्र में काम करने वाली संस्थाएं कपास, बैगन, मक्का आदि के ऐसे बीजों को बढ़ावा देने का लगातार विरोध करती रही हैं। जीएम फसलें काफी संवेदनशील होती हैं, इसलिए उनमें पैदावार बढ़ाने के लिए पारंपरिक फसलों की अपेक्षा अधिक मात्रा में रासायनिक खादों और कीटनाशकों का इस्तेमाल करना पड़ता है। इस तरह जमीन की उर्वरा शक्ति भी तेजी से क्षीण होती जाती है।

अनेक अध्ययनों से जाहिर हो चुका है कि खेती में रसायनों के अंधाधुंध उपयोग से भूजल में अनेक विषैले तत्त्व घुल-मिल गए हैं, जिससे लोगों की सेहत पर बुरा असर पड़ रहा है। खेतों से रिस कर नदियों-तालाबों में गए रसायन उनमें पलने वाले जीवों के लिए घातक साबित हो रहे हैं। पंछियों के भोजन का मुख्य स्रोत चूंकि खेत-खलिहान हैं, जब वे रसायन मिले दाने चुगते हैं, मौत को गले लगा लेते हैं। इस तरह पारिस्थितिकी चक्र कमजोर पड़ता जा रहा है। कुछ स्वयंसेवी संगठन इस मामले में जागरूकता अभियान चला रहे हैं। मगर यह भी जरूरी है कि सरकार खाद, बीज, रसायनों का कारोबार करने वाली कंपनियों के स्वार्थों को तरजीह देने के बजाय सेहत और पर्यावरण की दृष्टि से सोचे।

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