भारत में जिन पक्षियों के अस्तित्व पर खतरा मंडरा रहा है उनमें उपरोक्त पक्षियों के अतिरिक्त ग्रेट इंडियन बस्टर्ड, गुलाबी सिर वाली बत्तख, हिमालयन बटेर, साइबेरियाई सारस, बंगाल फ्लेरिकन और उल्लू वगैरह प्रमुख हैं। दरअसल जब भी जीवों के संरक्षण की योजनाएं बनती हैं तो बाघ, शेर और हाथी जैसे बड़े जीवों के संरक्षण पर तो ध्यान दिया जाता है लेकिन पक्षियों के संरक्षण पर तो ध्यान दिया जाता है लेकिन पक्षियों के संरक्षण को अपेक्षित महत्व नहीं दिया जाता है। यह दुर्भाग्यपूर्ण ही है कि भारत सहित दुनिया भर में जैवविविधता तेजी के साथ घट रही है। जैवविविधता पर मंडराता यह खतरा हमारे पर्यावरण के लिए नित नई समस्याएं पैदा कर रहा है। अपने स्वार्थ के चलते मनुष्य द्वारा किए गए प्राकृतिक संसाधनों के दोहन का नतीजा यह हुआ के बीते चालीस सालों में पशु-पक्षियों की संख्या घट कर एक तिहाई रह गई। इस दौरान पेड़-पौधों की विभिन्न प्रजातियाँ भी कम हुई हैं। पेड़-पौधों की कई प्रजातियाँ तो विलुप्त होने के कगार पर हैं। दरअसल जैवविविधता पर्यावरण को बचाती तो है, हमारे जीवन पर भी सकारात्मक प्रभाव डालती हैं। विडंबना यह है कि जैवविविधता के संकट को देखते हुए भी हम अपनी जीवनशैली को बदलने के लिए तैयार नहीं हैं। वर्ल्ड वाइल्डलाइफ फंड की एक रिपोर्ट के अनुसार 1970 से 2008 के बीच जंगली जानवरों की संख्या तीस फीसद घट गई है। कुछ जगहों पर तो यह संख्या साठ फीसद तक घटी है। इस अवधि के दौरान मीठे पानी में रहने वाले पक्षियों जानवरों और मछलियों की संख्या में सत्तर फीसद गिरावट दर्ज की गई। विभिन्न कारणों से डॉल्फिन, बाघ और दरयाई घोड़ों की संख्या भी आश्चर्यजनक रूप से घटी।
1980 से अब तक एशिया में बाघों की संख्या सत्तर फीसद कम हो चुकी है। यह दुर्भाग्यपूर्ण ही है कि इस दौर में विभिन्न पक्षियों के अस्तित्व पर भी संकट के बादल मंडरा रहे हैं। पक्षी हमारे देश की जैवविविधता की एक महत्वपूर्ण कड़ी हैं। दुनिया में पक्षियों की लगभग 9900 प्रजातियाँ ज्ञात है। एक अनुमान के मुताबिक अगले सौ साल में पक्षियों की लगभग 1100 प्रजातियाँ विलुप्त हो सकती हैं। भारत में पक्षियों की लगभग 1250 प्रजातियाँ पाई जाती हैं। इनमें से लगभग पचासी प्रजातियाँ विलुप्त होने के कगार पर हैं। दरअसल पशु-पक्षी अपने प्राकृतिक जगह पर ही अपने आपको सुरक्षित महसूस करते हैं। प्राकृतिक जगह में ही इनकी जैविक क्रियाओं के बीच एक संतुलन बना रहता है। यह दुर्भाग्यपूर्ण ही है कि इस दौर में विभिन्न कारणों से पक्षियों का प्राकृतिक आवास उजड़ता जा रहा है बढ़ते शहरीकरण और औद्योगीकरण के कारण पेड़ लगातार कम हो रहे हैं। जलीय पक्षियों का प्राकृतिक आवास भी सुरक्षित नहीं बचा है। इन कारणों से किसी एक निश्चित जगह पर बने रहने के लिए पक्षियों के बीच प्रतिस्पर्धा बढ़ रही है। एक ओर पक्षी मानवीय लोभ की भेंट चढ़ रहे हैं, तो दूसरी ओर जलवायु परिवर्तन के कारण इनकी संख्या लगातार घटती जा रही है। इससे बड़ी विडंबना और क्या हो सकती है कि तमाम नियम-क़ानूनों के बावजूद भी पक्षियों का शिकार और अवैध व्यापार किया जा रहा है।
लोग सजावट, मनोरंजन और घर की शान बढ़ाने के लिए तोते और रंग-बिरंगी चिड़ियों को पिंजरों में रखते हैं। इसके साथ ही तीतर जैसे पक्षियों का शिकार भी किया जाता है। पक्षी विभिन्न रसायनों और जहरीले पदार्थों के प्रति अतिसंवेदनशील होते हैं। ऐसे पदार्थ के प्रति अतिसंवेदनशील होते हैं। ऐसे पदार्थ भोजन या फिर पक्षियों की त्वचा के माध्यम से पक्षियों के अंदर पहुंच कर उनकी मौत का कारण बनते हैं। डीडीटी जैसे कीटनाशक और खरपतवार खत्म करने वाले रसायन पक्षियों के लिए बहुत खतरनाक होते हैं। मोर जैसे पक्षी कीटनाशकों की वजहों से मर रहे हैं। पर्यावरण को स्वच्छ रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाला गिद्ध पशुओं को दी जाने वाली दर्द निवारक दवा की वजह से लुप्त हो रहे हैं। गिद्ध मरे हुए पशुओं का मांस खाकर पर्यावरण साफ रखने में मदद करता है। पशुओं को दी जाने वाली दर्द निवारक दवा के अंश मरने के बाद भी पशुओं के शरीर में रह जाते हैं। जब इन मरे हुए पशुओं को गिद्ध खाते हैं तो यह दवा गिद्धों के शरीर में पहुंचकर उनकी मौत का कारण बनती है।
यह दुर्भाग्यपूर्ण ही है कि इस दौर में हमारे घर-आंगन में गौरैया कहीं दिखाई नहीं देती है। वैज्ञानिकों का मानना है कि भोजन में कमी, घोंसलों के निर्माण के लिए उचित जगह न मिलना और माइक्रोवेव प्रदूषण जैसे कारक गौरैया की घटती संख्या के लिए जिम्मेदार हैं। शुरुआती पंद्रह दिनों में गौरैया के बच्चों का भोजन मुख्य रूप से कीट-पतंगें ही होते हैं।
वैज्ञानिकों का मानना है कि गौरैया के बच्चों के आसपास भोजन के रूप में कीट-पतंगों की संख्या कम होने के कारण उनकी मृत्यु दर बढ़ रही है। दरअसल इस दौर में हम अपने बगीचों में सुंदरता के लिए विदेशी या फिर ऐसे पौधे ज्यादा उगाते हैं जो प्राकृतिक रूप से उस जगह पर नहीं उगते हैं। ऐसे पौधे स्थानीय पौधों की तुलना में उस जगह पर रहने वाले कीट-पतंगों को अपनी ओर आकर्षित नहीं कर पाते हैं। साथ ही इन पौधों को ज्यादा रासायनिक उर्वरक और कीटनाशक रसायनों की आवश्यकता होती हैं। ये रसायन वातावरण को प्रदूषित कर लाभकारी सूक्ष्मजीवों और कीट-पतंगों को भी खत्म कर देते हैं। ऐसी स्थिति में गौरैया जैसे पक्षियों के लिए भोजन की कमी हो जाती है। इसलिए आज आवश्यकता इस बात की है कि हम अपने आस-पास स्थानीय पौधों को ज्यादा उगाएं। ऐसे पौधों को रासायनिक उर्वरक और कीटनाशक रसायनों की ज्यादा जरूरत नहीं पड़ती है और वे स्थानीय कीट-पतंगों को अपनी ओर आकर्षित करने में भी सफल रहते हैं।
इस दौर में गौरैया के साथ-साथ तोते पर भी संकट बढ़ा है। विश्व में तोते की लगभग 330 प्रजातियाँ हैं अगले सौ सालों में इनमें से एक तिहाई प्रजातियों के विलुप्त होने का अंदेशा है। भारत में जिन पक्षियों के अस्तित्व पर खतरा मंडरा रहा है उनमें उपरोक्त पक्षियों के अतिरिक्त ग्रेट इंडियन बस्टर्ड, गुलाबी सिर वाली बत्तख, हिमालयन बटेर, साइबेरियाई सारस, बंगाल फ्लेरिकन और उल्लू वगैरह प्रमुख हैं। दरअसल जब भी जीवों के संरक्षण की योजनाएं बनती हैं तो बाघ, शेर और हाथी जैसे बड़े जीवों के संरक्षण पर तो ध्यान दिया जाता है लेकिन पक्षियों के संरक्षण पर तो ध्यान दिया जाता है लेकिन पक्षियों के संरक्षण को अपेक्षित महत्व नहीं दिया जाता है। वृक्षों की संख्या में इज़ाफा, जैविक खेती को प्रोत्साहित और माइक्रोवेव प्रदूषण को कम करके काफी हद तक पक्षियों के संरक्षण के लिए सरकार को भी कुछ ठोस योजनाएं बनानी होगी। अब समय आ गया है कि जैवविविधता को बचाने के लिए सामूहिक प्रयास किया जाए। हमें यह भी समझना होगा कि जैवविविधता पर मंडराता यह खतरा भविष्य में हमारे अस्तित्व पर भी प्रश्नचिह्न लगा सकता है।
1980 से अब तक एशिया में बाघों की संख्या सत्तर फीसद कम हो चुकी है। यह दुर्भाग्यपूर्ण ही है कि इस दौर में विभिन्न पक्षियों के अस्तित्व पर भी संकट के बादल मंडरा रहे हैं। पक्षी हमारे देश की जैवविविधता की एक महत्वपूर्ण कड़ी हैं। दुनिया में पक्षियों की लगभग 9900 प्रजातियाँ ज्ञात है। एक अनुमान के मुताबिक अगले सौ साल में पक्षियों की लगभग 1100 प्रजातियाँ विलुप्त हो सकती हैं। भारत में पक्षियों की लगभग 1250 प्रजातियाँ पाई जाती हैं। इनमें से लगभग पचासी प्रजातियाँ विलुप्त होने के कगार पर हैं। दरअसल पशु-पक्षी अपने प्राकृतिक जगह पर ही अपने आपको सुरक्षित महसूस करते हैं। प्राकृतिक जगह में ही इनकी जैविक क्रियाओं के बीच एक संतुलन बना रहता है। यह दुर्भाग्यपूर्ण ही है कि इस दौर में विभिन्न कारणों से पक्षियों का प्राकृतिक आवास उजड़ता जा रहा है बढ़ते शहरीकरण और औद्योगीकरण के कारण पेड़ लगातार कम हो रहे हैं। जलीय पक्षियों का प्राकृतिक आवास भी सुरक्षित नहीं बचा है। इन कारणों से किसी एक निश्चित जगह पर बने रहने के लिए पक्षियों के बीच प्रतिस्पर्धा बढ़ रही है। एक ओर पक्षी मानवीय लोभ की भेंट चढ़ रहे हैं, तो दूसरी ओर जलवायु परिवर्तन के कारण इनकी संख्या लगातार घटती जा रही है। इससे बड़ी विडंबना और क्या हो सकती है कि तमाम नियम-क़ानूनों के बावजूद भी पक्षियों का शिकार और अवैध व्यापार किया जा रहा है।
लोग सजावट, मनोरंजन और घर की शान बढ़ाने के लिए तोते और रंग-बिरंगी चिड़ियों को पिंजरों में रखते हैं। इसके साथ ही तीतर जैसे पक्षियों का शिकार भी किया जाता है। पक्षी विभिन्न रसायनों और जहरीले पदार्थों के प्रति अतिसंवेदनशील होते हैं। ऐसे पदार्थ के प्रति अतिसंवेदनशील होते हैं। ऐसे पदार्थ भोजन या फिर पक्षियों की त्वचा के माध्यम से पक्षियों के अंदर पहुंच कर उनकी मौत का कारण बनते हैं। डीडीटी जैसे कीटनाशक और खरपतवार खत्म करने वाले रसायन पक्षियों के लिए बहुत खतरनाक होते हैं। मोर जैसे पक्षी कीटनाशकों की वजहों से मर रहे हैं। पर्यावरण को स्वच्छ रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाला गिद्ध पशुओं को दी जाने वाली दर्द निवारक दवा की वजह से लुप्त हो रहे हैं। गिद्ध मरे हुए पशुओं का मांस खाकर पर्यावरण साफ रखने में मदद करता है। पशुओं को दी जाने वाली दर्द निवारक दवा के अंश मरने के बाद भी पशुओं के शरीर में रह जाते हैं। जब इन मरे हुए पशुओं को गिद्ध खाते हैं तो यह दवा गिद्धों के शरीर में पहुंचकर उनकी मौत का कारण बनती है।
यह दुर्भाग्यपूर्ण ही है कि इस दौर में हमारे घर-आंगन में गौरैया कहीं दिखाई नहीं देती है। वैज्ञानिकों का मानना है कि भोजन में कमी, घोंसलों के निर्माण के लिए उचित जगह न मिलना और माइक्रोवेव प्रदूषण जैसे कारक गौरैया की घटती संख्या के लिए जिम्मेदार हैं। शुरुआती पंद्रह दिनों में गौरैया के बच्चों का भोजन मुख्य रूप से कीट-पतंगें ही होते हैं।
वैज्ञानिकों का मानना है कि गौरैया के बच्चों के आसपास भोजन के रूप में कीट-पतंगों की संख्या कम होने के कारण उनकी मृत्यु दर बढ़ रही है। दरअसल इस दौर में हम अपने बगीचों में सुंदरता के लिए विदेशी या फिर ऐसे पौधे ज्यादा उगाते हैं जो प्राकृतिक रूप से उस जगह पर नहीं उगते हैं। ऐसे पौधे स्थानीय पौधों की तुलना में उस जगह पर रहने वाले कीट-पतंगों को अपनी ओर आकर्षित नहीं कर पाते हैं। साथ ही इन पौधों को ज्यादा रासायनिक उर्वरक और कीटनाशक रसायनों की आवश्यकता होती हैं। ये रसायन वातावरण को प्रदूषित कर लाभकारी सूक्ष्मजीवों और कीट-पतंगों को भी खत्म कर देते हैं। ऐसी स्थिति में गौरैया जैसे पक्षियों के लिए भोजन की कमी हो जाती है। इसलिए आज आवश्यकता इस बात की है कि हम अपने आस-पास स्थानीय पौधों को ज्यादा उगाएं। ऐसे पौधों को रासायनिक उर्वरक और कीटनाशक रसायनों की ज्यादा जरूरत नहीं पड़ती है और वे स्थानीय कीट-पतंगों को अपनी ओर आकर्षित करने में भी सफल रहते हैं।
इस दौर में गौरैया के साथ-साथ तोते पर भी संकट बढ़ा है। विश्व में तोते की लगभग 330 प्रजातियाँ हैं अगले सौ सालों में इनमें से एक तिहाई प्रजातियों के विलुप्त होने का अंदेशा है। भारत में जिन पक्षियों के अस्तित्व पर खतरा मंडरा रहा है उनमें उपरोक्त पक्षियों के अतिरिक्त ग्रेट इंडियन बस्टर्ड, गुलाबी सिर वाली बत्तख, हिमालयन बटेर, साइबेरियाई सारस, बंगाल फ्लेरिकन और उल्लू वगैरह प्रमुख हैं। दरअसल जब भी जीवों के संरक्षण की योजनाएं बनती हैं तो बाघ, शेर और हाथी जैसे बड़े जीवों के संरक्षण पर तो ध्यान दिया जाता है लेकिन पक्षियों के संरक्षण पर तो ध्यान दिया जाता है लेकिन पक्षियों के संरक्षण को अपेक्षित महत्व नहीं दिया जाता है। वृक्षों की संख्या में इज़ाफा, जैविक खेती को प्रोत्साहित और माइक्रोवेव प्रदूषण को कम करके काफी हद तक पक्षियों के संरक्षण के लिए सरकार को भी कुछ ठोस योजनाएं बनानी होगी। अब समय आ गया है कि जैवविविधता को बचाने के लिए सामूहिक प्रयास किया जाए। हमें यह भी समझना होगा कि जैवविविधता पर मंडराता यह खतरा भविष्य में हमारे अस्तित्व पर भी प्रश्नचिह्न लगा सकता है।
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