तीन सौ साल से भी पुराने शहर कोलकाता के पूर्वी क्षेत्र में विशाल आर्द्रभूमि है। इसे ईस्ट कोलकाता वेटलैंड्स (पूर्व कोलकाता आर्द्रभूमि) कहा जाता है। इस आर्द्रभूमि के पीछे गगनचुम्बी ईमारतों की शृंखला देखी जा सकती है।
इस वेटलैंड्स की खासियत यह है कि इसमें शहर से निकलने वाले गन्दे पानी का परिशोधन प्राकृतिक तरीके से होता है लेकिन इन दिनों यह आर्द्रभूमि संकट में है। पता चला है कि इस जलमय भूखण्ड को बचाए रखने के लिये जितनी मात्रा में गन्दा पानी डाला जाना चाहिए उतना नहीं डाला जा रहा है।
ईस्ट कोलकाता वेटलैंड्स 125 वर्ग किलोमीटर में फैला हुआ है। इसमें कोलकाता शहर से निकलने वाले गन्दे पानी का प्राकृतिक तरीके से परिशोधन होता है। वर्ष 2011 की जनगणना के अनुसार कोलकाता की आबादी लगभग 44 लाख है। कोलकाता से रोज लगभग 750 मिलियन लीटर गन्दा पानी निकलता है। यह ईस्ट कोलकाता वेटलैंड्स में जाता है जहाँ सूर्य की रोशनी और वेटलैंड्स में मौजूद बैक्टीरिया कुछ ही दिनों में गन्दे पानी को परिशोधित कर देते हैं। इस वेटलैंड्स पर ही 1 लाख से अधिक मछुआरों की रोजीरोटी टिकी हुई है क्योंकि इसमें मत्स्यपालन भी होता है।
19 अगस्त 2002 में रामसर कनवेंशन में इसे अन्तरराष्ट्रीय महत्त्व का वेटलैंड्स घोषित किया गया था। रामसर कनवेंशन असल में अन्तरराष्ट्रीय समझौता है। इसमें वेटलैंड के संरक्षण और इनके दीर्घावधि इस्तेमाल पर काम किया जाता है। रामसर कनवेंशन पर हस्ताक्षर 2 फरवरी 1971 को किये गए थे। रामसर कनवेंशन में भारत के 25 वेटलैंड्स को शामिल किया गया है। इस सूची में भारत के चिल्का लेक, भोज वेटलैंड, चंद्र ताल, कांजली वेटलैंड, रेणुका लेक, रुद्रसागर लेक आदि को भी जगह मिली है।
इस आर्द्रभूमि के अस्तित्व पर मँडराते खतरे को देखते हुए पर्यावरण विशेषज्ञों ने राष्ट्रीय हरित पंचाट (नेशनल ग्रीन ट्रायबुनल) में एक जनहित याचिका दायर की थी जिसमें मुख्य रूप से दो मुद्दों को उठाया गया था। जनहित याचिका दायर करने वालों में शामिल ध्रुवादास गुप्ता कहती हैं, ‘हमने पंचाट में याचिका दायर कर अपील की थी कि सेंट्रल वेटलैंड अथॉरिटी द्वारा वर्ष 2010 में बनाए गए वेटलैंड रूल से ईस्ट कोलकाता वेटलैंड्स को अलग रखा जाये क्योंकि इस रूल में सीवेज को वेटलैंड में डालने पर मनाही है। यही नहीं याचिका में हमने यह भी अपील की थी कि इस आर्द्रभूमि में निर्धारित मात्रा में ही गन्दा पानी फेंका जाये, ताकि इसका अस्तित्व बचा रहे। याचिका में सिंचाई विभाग से पूछा गया गया था कि जनवरी से मई महीने तक इस जलमय भूखण्ड में कितना गन्दा पानी फेंका गया है इसकी रिपोर्ट दी जाये।’
राष्ट्रीय हरित पंचाट ने याचिका पर सुनवाई करते हुए कितना गन्दा पानी वेटलैंड्स में जाता है इसकी रिपोर्ट माँगी है। हरित पंचाट ने अपने आदेश में कहा है, ‘हम पश्चिम बंगाल के सिंचाई विभाग को निर्देश देते हैं कि वह बानतल्ला लॉक गेट का स्टेटस रिपोर्ट दे (इस रिपोर्ट में वेटलैंड की तुलना में सीवेज की मात्रा के बारे में बताना है)।’ मामले की अगली सुनवाई 18 अगस्त को होगी।
गौरतलब है कि अस्सी के दशक में पर्यावरणविद ध्रुव ज्योति घोष को कहा गया था कि वे पता लगाएँ कि शहर से निकलने वाला गन्दा पानी आखिर जाता कहाँ है। उन्होंने जब पड़ताल शुरू की तो यह जानकर दंग रह गए कि गन्दे पानी का पूर्व कोलकाता के जलमय भूखण्ड में प्राकृतिक तरीके से परिशोधन हो जाता है और इसका इस्तेमाल मछलियों के भोजन के रूप में होता है।
विशेषज्ञ बताते हैं कि इस आर्द्रभूमि में ऐसे बैक्टीरिया हैं जिनकी मदद से महज 20 दिनों में ही सूरज की रोशनी से गन्दा पानी परिशोधित होकर मछलियों के खाद्य में तब्दील हो जाता है। साथ ही इस पानी का इस्तेमाल फसलों की सिंचाई के लिये भी किया जाता है।
बताया जाता है कि एक मछुआरे ने इस तकनीक की शुरुआत की थी। यह तकरीबन 9 दशक पहले की बात होगी। यह तकनीक इतनी प्रख्यात हुई कि दूसरे मछुआरों ने भी इसे अपनाना शुरू कर दिया। कहते हैं इस तकनीकी से ही प्रभावित होकर उस वक्त इंजीनियर भूपेंद्रनाथ डे ने सीवेज पाइपलाइन का निर्माण किया था।
कोलकाता म्यूनिसिपल कॉरपोरेशन के सूत्रों की मानें तो शहर से निकलने वाले गन्दे पानी को बानतल्ला लॉक गेट में एकत्र किया जाता है और वहाँ से इसे ईस्ट कोलकाता वेटलैंड्स में भेजा जाता है।
ध्रुवज्योति घोष बताते हैं, ‘ईस्ट कोलकाता आर्द्रभूमि (वेटलैंड्स) 700-से-750 मिलियन लीटर तक गन्दे पानी को परिशोधित कर सकती है। इससे कम पानी अगर जाएगा तो वेटलैंड की जैवविविधता को नुकसान हो सकता है।’
ध्रुवादास गुप्ता कहती हैं, ‘कितना गन्दा पानी डाला जाता है, यह बड़ी बात नहीं है। चार पम्पिंग स्टेशनों से होकर शहर का गन्दा पानी बानतल्ला लॉकगेट में पहुँचता है। सबसे जरूरी है कि बानतल्ला लॉक गेट में गन्दे पानी की ऊँचाई 9 फीट रखी जानी चाहिए और इसके बाद पानी को छोड़ना चाहिए। इससे फायदा यह होता है कि पानी वेटलैंड्स में दूर तक जाता है और अच्छे से उसका ट्रीटमेंट हो पाता है लेकिन अभी इसकी ऊँचाई घटकर 8 फीट हो गई है। इससे पूरा पानी वेटलैंड में नहीं जा पाता है बल्कि कई बार यह सुन्दरबन की ओर चला जाता है। चूँकि यह गन्दा पानी परिशोधित नहीं होता है इसलिये यह सुन्दरबन के जलीय जीवों को नुकसान पहुँचाता है।’
कोलकाता म्यूनिसिपल कॉरपोरेशन (केएमसी) के सीवेज और ड्रेनेज विभाग के डायरेक्टर जनरल अमित रॉय से इस सम्बन्ध में बात की गई तो उन्होंने कहा, ‘यह बताना मुश्किल है कि ईस्ट कोलकाता वेटलैंड में कितनी सीवेज जाता है लेकिन यह सही है कि केएमसी का पूरा सीवेज ईस्ट कोलकाता वेटलैंड में नहीं फेंका जाता है।’
ध्यान देने वाली बात यह भी है कि ईस्ट कोलकाता वेटलैंड्स के तर्ज पर ही पश्चिम बंगाल के कोना, टीटागढ़ और पानीहाटी में भी प्राकृतिक तरीके से सीवेज के ट्रीटमेंट की व्यवस्था की गई थी लेकिन प्रशासनिक लापरवाही के चलते यह ठप हो गई। पानीहाटी में वर्ष 1996 में यह व्यवस्था शुरू हुई थी जो काफी दिनों तक चली लेकिन बाद में यह निष्क्रिय हो गई।
सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरनमेंट (सीएसई) द्वारा वर्ष 2015 में भारत में सेप्टेज प्रबन्धन पर पेश किये गए पॉलिसी पेपर के अनुसार पूरे भारत में रोज 22900 मिलियन लीटर गन्दा पानी निकलता है लेकिन 26 प्रतिशत हिस्से का ही ट्रीटमेंट हो पाता है। बाकी का गन्दा पानी बिना ट्रीटमेंट किये ही या तो नदी या तालाबों में फेंक दिया जाता है। इससे भूजल के प्रदूषित होने का खतरा भी रहता है।
विशेषज्ञों का कहना है कि भारी मात्रा में निकल रहे गन्दे पानी का परिशोधन ईस्ट कोलकाता वेटलैंड्स के तर्ज पर किया जा सकता है। ध्रुवादास गुप्ता के अनुसार ऐसी व्यवस्था किसी भी शहर में सम्भव है और इसमें बहुत अधिक खर्च भी नहीं है लेकिन ऐसा करने के लिये इच्छाशक्ति की जरूरत है।
नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल कोलकाता की रिपोर्ट देखने के लिये अटैचमेंट डाउनलोड करें।
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