मेरे मन में पहाड़ किसी अपराध बोध की तरह नहीं है और न ही मैं पहाड़ को लेकर किसी अतिरिक्त चिन्ता का शिकार रहा हूँ। यदि पहाड़ के सौंदर्य का या वहाँ की गरीबी का रोमांटिक शोषण मेरे लिए कुफ्र रहा है तो मैदानी सुविधाओं और समृद्धि का नयनाभिराम वर्णन भी मेरे लिए अपराध रहा है। मैंने जहाँ तक हो सका है स्थितियों को उनके परिप्रेक्ष्य में देखने का प्रयत्न किया है। सच्चाई यह है कि पहाड़ औज जिस समस्या से जूझ रहे हैं, वह वास्तव में आदमी और प्रकृति के सम्बन्धों के संतुलन की समस्या से जुड़ी है और इस तरह से एक तरफ यह समस्या ऐसे उन सभी समाजों की है जा आज भी तुलनात्मक रूप में प्रकृति के अधिक निकट है या दूसरे शब्दों में जो समाज आज भी प्रकृति पर अधिक निर्भर हैं और दूसरी ओर यह समस्या पूरे मानव समाज की है। उदाहरण स्वरूप अगर नई वन नीति का या औद्योगीकरण या मास मीडिया का असर गढ़वाल या कुमाऊँ की पहाड़ियों पर घातक होता है तो इस घातक असर से मध्य प्रदेश, बिहार, हिमाचल प्रदेश, गुजरात, उड़ीसा तथा उत्तर पूर्वी क्षेत्र के आदिवासी भी बचे नहीं रह सकते। इसी तरह क्या इथोपिया के लोग आज, मानवीय लालच के कारण हुए अंधाधुंध प्राकृतिक शोषण का, जो खामियाजा भोग रहे हैं, उसे हम नजरअंदाज कर सकते हैं?
आज ‘ग्लोबल विलेज’ का दौर है। इस पर भी चूँकि हम एक विशिष्ट सामाजिक, सांस्कृतिक व भौगोलिक स्थितियों की उपज हैं। प्रश्न उठता है हमारा सरोकार अपनी इस पृष्ठभूमि के प्रति क्या है और क्या होना चाहिए।
पहाड़ से मेरा लगाव इस मामले में भिनन है (पहाड़ों से प्रेम के लिये वैसे पहाड़ी होना कोई जरूरी नहीं है) कि मैं अपनी जड़ें वहाँ पाता हूँ और इसीलिए जब सम्भव हो पाता है वहाँ जाता हूँ और वहाँ की समस्याओं को समझने की कोशिश भी करता हूँ। यद्यपि आज किसी भी समस्या को ‘आइसोलेट’ करके नहीं देखा जा सकता है और न ही देखा जाना चाहिए। इस पर भी अगर हम स्वयं को संकीर्णता का शिकार न होने दें तो हर समस्या हमें अन्ततः पूरी व्यवस्था को समझने में मदद करती है। इस मायने में मैने पहाड़ को जितना समझा है अपने को बाकी देश की समस्याओं से अलग नहीं पाया है। कई बार यह सुनने को मिलता है कि ये प्रवासी वहाँ मजे मार रहे हैं और हमें आकर भाषण देते हैं। मैं स्पष्ट कर देना चाहता हूँ कि प्रवास में रहकर रोटी कमाना और कुछ नहीं तो कम से कम उतनी ही बड़ी चुनौती तो है ही जितनी की पहाड़ में रहना। पहाड़ में हमारे लिए कम से कम एक बनी- बनाई व्यवस्था तो है, अपना समाज तो है पर प्रवास में तो खुद ही कुआँ खोदना होता है, प्रवास आधुनिक समात की एक नियती है। वैसे भी एक स्थान से दूसरे स्थान जाना मानव की आदिकालीन प्रवृति रही है। और कोई क्यों न जाये ? दुनिया के लोग कहाँ से कहाँ पहुँच चुके हैं (क्या यह याद दिलाना जरूरी है कि यूरोपीय कहाँ-कहाँ आया गया) एशियाई लोगों ने आस्ट्रेलिया जैसा महाद्वीप अपनी इसी ‘घर स्वर्ग है’ मनोवृत्ति के चलते गँवाया हैं, और हम अपने ही देश के कोने-कोने में पड़े (अक्सर तो पहाड़ से सिर्फ दो-ढाई सौ कि.मी. की दूरी पर ही) प्रवास की बात करते हैं। हमें इस कूपमंडूक प्रवृत्ति से निकलना चाहिये। पंजाब का उदाहरण हमारे सामने है। आज पंजाबी विश्व के किस कोने में नहीं हैं ? पर जो लोग पंजाब में रहे उन्होंने वहाँ काम किया है। यही बात गुजरातियों पर भी लागू होती है। सवाल यह है कि जो पहाड़ में रहे उन्होंने क्या किया, सिवाय मनिऑर्डर-अर्थव्यवस्था पर आश्रित रहने के अलावा?
अब मुझे लगने लगा है पेड़ पहाड़ों ज्यादा चिन्ता आदमी की मूल्यहीनता की होनी चाहिए। प्रकृति के विनाश और उसमें असंतुलन पैदा करने का एकमात्र कारण आदमी ही तो है। सरस्वती नदी के भूमिगत होने और किसी समय के, उपजाऊ राजस्थान के मरुस्थल बनने में वहाँ के निवासियों के ही भूमिका रही है। राजस्थान मानव की आधि सभ्यता की जननी रही है। इसलिए मेरी चिन्ता पहाड़ से ज्यादा पहाड़ियों को लेकर है। जो भागे (प्रवासी) सो भागे, पर अब चिन्ता उन लोगों की है जा पहाड़ में तो हैं पर टिंचरी के शिकार है या जो आई.आर.डी. के ऋणों को ठग कर ले रहे हैं। यह ठगी अनैतिक ही नहीं, एक सामाजिक अपराध हैं जिसका दुष्परिणाम हमें शीघ्र ही भुगतान पड़ेगा।
राजनीतिक के नाम पर जो चल रहा है वह एक अलग ही कहानी है, आम उत्तरांचली काफी बुद्धिमान होता है, पर दुर्भाग्य से उसकी सारी मेधा दूसरों की आलोचना और घटिया राजनीति या तिकड़म करने में लगी रही है। अपना तो वह कुछ नहीं करना चाहता पर जब कोई और कुछ करना चाहता तो वह भी उसे बर्दाश्त नहीं होता (हम चाहे दुनियाभर में फैल जाएँ, उसकी ओर ध्यान देने की आवश्यकता नहीं है)। हाल ही में एक महिला जिन्हें पहाड़ों से वास्तविक लगाव है और जो अपनी सामर्थ्य में जो कुछ हो पा रहा है कर रही है। पिथौरागढ़ के एक स्वानामधान्य युवा पत्रकार नेता से हुआ संवाद बतलाया। युवा नेता ने महिला से कहा- “आपका पहाड़ से क्या लेना-देना है? आप तो पहाड़ को भुना रही हैं और खा-कमा रहीे हैं।”
मै उस महिला का जानता हूँ इसलिये कहता हूँ कि उनके पास खाने-कमाने के बेहतर जरिये हैं, पहाड़ों में दर-दर भटकने से, पर पहाड़ के अकेले हकदार इन क्रुद्ध युवा नेता की स्थिति यह है कि वह स्वयं दस-बीस हजार का सरकारी ऋण ले चुके हैं और उसे निगल जाने की अपनी मंशा साफ जाहिर करते फिरते हैं। खुद टिंचरी के आदी हैं और नशाबंदी आंदोलन की नेतागिरी कर रहे हैं, यह नैतिकता (?) हमें कहाँ ले जायेगी। क्या हमने कभी सोचा है ?
एक और उदाहरण लीजिये। हाल ही में ‘इनहेयर’ नामक संस्था ने अल्मोड़ा जिले के पाली पछाऊँ क्षेत्र में एक पर्यावरण शिविर लगाया। उन्होंने वहाँ जो सर्वेक्षण किया उससे कुछ बातें सामने आयी। उनमें से एक महत्त्वपूर्ण बात यह थी कि हर ग्रामवासी ने कम से कम एक पेड़ तो काटा ही है, पर जहाँ तक किसी भी तरह का पेड़ लगाने का सवाल था, उसका औसत हजार में एक आदमी का भी नहीं था। जैसा कि ऊपर कह चुका हूँ, राजस्थान को मरूस्थल बनाने में जंगलाती ठेकेदारों की नहीं वहाँ के निवासियों की ही तटस्थता जिम्मेवार थी। कुछ इतिहासकार तो यह भी मानते हैं कि सिंधुघाटी की सभ्यता भी प्रकृति के अंधाधुंध विनाश का ही सीधा परिणाम थी। असल में सारे संकट की जड़ हमारी यही तटस्थता की प्रवृत्ति है। वैसे यहाँ यह बताना अप्रासंगिक न होगा कि पाली पछाऊँ का यह इलाका पिछले कई वर्षों से अनावृष्टि का शिकार रहा है और इस वर्ष यहाँ के निवासियों को पानी के कारण जो कष्ट सहने पड़े वह आज तक के इतिहास में अपने तरह के थे।
असल में पहाड़ को बचाना देश को बचाना है और इसके लिए हमें स्वयं को बचाना है।
आज ‘ग्लोबल विलेज’ का दौर है। इस पर भी चूँकि हम एक विशिष्ट सामाजिक, सांस्कृतिक व भौगोलिक स्थितियों की उपज हैं। प्रश्न उठता है हमारा सरोकार अपनी इस पृष्ठभूमि के प्रति क्या है और क्या होना चाहिए।
पहाड़ से मेरा लगाव इस मामले में भिनन है (पहाड़ों से प्रेम के लिये वैसे पहाड़ी होना कोई जरूरी नहीं है) कि मैं अपनी जड़ें वहाँ पाता हूँ और इसीलिए जब सम्भव हो पाता है वहाँ जाता हूँ और वहाँ की समस्याओं को समझने की कोशिश भी करता हूँ। यद्यपि आज किसी भी समस्या को ‘आइसोलेट’ करके नहीं देखा जा सकता है और न ही देखा जाना चाहिए। इस पर भी अगर हम स्वयं को संकीर्णता का शिकार न होने दें तो हर समस्या हमें अन्ततः पूरी व्यवस्था को समझने में मदद करती है। इस मायने में मैने पहाड़ को जितना समझा है अपने को बाकी देश की समस्याओं से अलग नहीं पाया है। कई बार यह सुनने को मिलता है कि ये प्रवासी वहाँ मजे मार रहे हैं और हमें आकर भाषण देते हैं। मैं स्पष्ट कर देना चाहता हूँ कि प्रवास में रहकर रोटी कमाना और कुछ नहीं तो कम से कम उतनी ही बड़ी चुनौती तो है ही जितनी की पहाड़ में रहना। पहाड़ में हमारे लिए कम से कम एक बनी- बनाई व्यवस्था तो है, अपना समाज तो है पर प्रवास में तो खुद ही कुआँ खोदना होता है, प्रवास आधुनिक समात की एक नियती है। वैसे भी एक स्थान से दूसरे स्थान जाना मानव की आदिकालीन प्रवृति रही है। और कोई क्यों न जाये ? दुनिया के लोग कहाँ से कहाँ पहुँच चुके हैं (क्या यह याद दिलाना जरूरी है कि यूरोपीय कहाँ-कहाँ आया गया) एशियाई लोगों ने आस्ट्रेलिया जैसा महाद्वीप अपनी इसी ‘घर स्वर्ग है’ मनोवृत्ति के चलते गँवाया हैं, और हम अपने ही देश के कोने-कोने में पड़े (अक्सर तो पहाड़ से सिर्फ दो-ढाई सौ कि.मी. की दूरी पर ही) प्रवास की बात करते हैं। हमें इस कूपमंडूक प्रवृत्ति से निकलना चाहिये। पंजाब का उदाहरण हमारे सामने है। आज पंजाबी विश्व के किस कोने में नहीं हैं ? पर जो लोग पंजाब में रहे उन्होंने वहाँ काम किया है। यही बात गुजरातियों पर भी लागू होती है। सवाल यह है कि जो पहाड़ में रहे उन्होंने क्या किया, सिवाय मनिऑर्डर-अर्थव्यवस्था पर आश्रित रहने के अलावा?
अब मुझे लगने लगा है पेड़ पहाड़ों ज्यादा चिन्ता आदमी की मूल्यहीनता की होनी चाहिए। प्रकृति के विनाश और उसमें असंतुलन पैदा करने का एकमात्र कारण आदमी ही तो है। सरस्वती नदी के भूमिगत होने और किसी समय के, उपजाऊ राजस्थान के मरुस्थल बनने में वहाँ के निवासियों के ही भूमिका रही है। राजस्थान मानव की आधि सभ्यता की जननी रही है। इसलिए मेरी चिन्ता पहाड़ से ज्यादा पहाड़ियों को लेकर है। जो भागे (प्रवासी) सो भागे, पर अब चिन्ता उन लोगों की है जा पहाड़ में तो हैं पर टिंचरी के शिकार है या जो आई.आर.डी. के ऋणों को ठग कर ले रहे हैं। यह ठगी अनैतिक ही नहीं, एक सामाजिक अपराध हैं जिसका दुष्परिणाम हमें शीघ्र ही भुगतान पड़ेगा।
राजनीतिक के नाम पर जो चल रहा है वह एक अलग ही कहानी है, आम उत्तरांचली काफी बुद्धिमान होता है, पर दुर्भाग्य से उसकी सारी मेधा दूसरों की आलोचना और घटिया राजनीति या तिकड़म करने में लगी रही है। अपना तो वह कुछ नहीं करना चाहता पर जब कोई और कुछ करना चाहता तो वह भी उसे बर्दाश्त नहीं होता (हम चाहे दुनियाभर में फैल जाएँ, उसकी ओर ध्यान देने की आवश्यकता नहीं है)। हाल ही में एक महिला जिन्हें पहाड़ों से वास्तविक लगाव है और जो अपनी सामर्थ्य में जो कुछ हो पा रहा है कर रही है। पिथौरागढ़ के एक स्वानामधान्य युवा पत्रकार नेता से हुआ संवाद बतलाया। युवा नेता ने महिला से कहा- “आपका पहाड़ से क्या लेना-देना है? आप तो पहाड़ को भुना रही हैं और खा-कमा रहीे हैं।”
मै उस महिला का जानता हूँ इसलिये कहता हूँ कि उनके पास खाने-कमाने के बेहतर जरिये हैं, पहाड़ों में दर-दर भटकने से, पर पहाड़ के अकेले हकदार इन क्रुद्ध युवा नेता की स्थिति यह है कि वह स्वयं दस-बीस हजार का सरकारी ऋण ले चुके हैं और उसे निगल जाने की अपनी मंशा साफ जाहिर करते फिरते हैं। खुद टिंचरी के आदी हैं और नशाबंदी आंदोलन की नेतागिरी कर रहे हैं, यह नैतिकता (?) हमें कहाँ ले जायेगी। क्या हमने कभी सोचा है ?
एक और उदाहरण लीजिये। हाल ही में ‘इनहेयर’ नामक संस्था ने अल्मोड़ा जिले के पाली पछाऊँ क्षेत्र में एक पर्यावरण शिविर लगाया। उन्होंने वहाँ जो सर्वेक्षण किया उससे कुछ बातें सामने आयी। उनमें से एक महत्त्वपूर्ण बात यह थी कि हर ग्रामवासी ने कम से कम एक पेड़ तो काटा ही है, पर जहाँ तक किसी भी तरह का पेड़ लगाने का सवाल था, उसका औसत हजार में एक आदमी का भी नहीं था। जैसा कि ऊपर कह चुका हूँ, राजस्थान को मरूस्थल बनाने में जंगलाती ठेकेदारों की नहीं वहाँ के निवासियों की ही तटस्थता जिम्मेवार थी। कुछ इतिहासकार तो यह भी मानते हैं कि सिंधुघाटी की सभ्यता भी प्रकृति के अंधाधुंध विनाश का ही सीधा परिणाम थी। असल में सारे संकट की जड़ हमारी यही तटस्थता की प्रवृत्ति है। वैसे यहाँ यह बताना अप्रासंगिक न होगा कि पाली पछाऊँ का यह इलाका पिछले कई वर्षों से अनावृष्टि का शिकार रहा है और इस वर्ष यहाँ के निवासियों को पानी के कारण जो कष्ट सहने पड़े वह आज तक के इतिहास में अपने तरह के थे।
असल में पहाड़ को बचाना देश को बचाना है और इसके लिए हमें स्वयं को बचाना है।
Path Alias
/articles/sankata-kai-jada-hamaarai-tatasathataa-haai
Post By: Hindi