संदर्भ दरकते पहाड़ : खतरनाक नीति को कहा जाए अलविदा

 लैंडस्लाइड फ्लैश फ्लड की तबाही
लैंडस्लाइड फ्लैश फ्लड की तबाही

हिमाचल प्रदेश में भारी बारिश से होने वाली आफत का सिलसिला खत्म होने का नाम नहीं ले रहा। लैंडस्लाइड, घरों के भरभरा कर गिरने और फ्लैश फ्लड की तबाही ने जहां सैकड़ों लोगों की जिंदगी को ख़त्म कर दिया है, वहीं हजारों जिंदगियों को ऐसी मुसीबत में डाल दिया है जहां से निकल कर फिर से खड़े होना उनके लिए बड़ी चुनौती है। कहा तो यहां तक जा रहा है कि देवभूमि हिमाचल प्रदेश 25 साल पीछे चला गया है। ऐसे में इस बात को समझना जरूरी है कि आखिर, हिमाचल में तबाही के पीछे की असल कहानी है क्या और किस तरह से दोबारा इसके खोए स्वरूप को पा सकेंगे?

बात पूरे हिमालय क्षेत्र की 

जब हम बात तबाही के मंजर की करते हैं, तो बात सिर्फ हिमाचल की ही नहीं होनी चाहिए। बात पूरे हिमालय क्षेत्र की है जिसकी सत्ता, समाज और सियासत, तीनों ने मिलकर बेतरतीब तरीके: से इसका दोहन किया है। मेरी समझ कहती है कि जल, जंगल, जमीन, पहाड़ और नदी के मसलों पर केंद्र और राज्य या राज्यों के बीच की सियासत वाली लड़ाई इस तबाही के पीछे सबसे बड़ी मुसीबत हैं, जो समस्या को समग्रता में देखने से बचती है.. समाधान तो बहुत दूर की बात है।

अमूनन पहाड़ी इलाकों में भारी बारिश होना कोई असामान्य बात नहीं है, लेकिन हिमाचल प्रदेश में इन दिनों हर किसी के मुँह से यही सुना जा रहा है कि ऐसी बारिश हमने पहले कभी नहीं देखी। बड़े-बुजुर्ग भी कह रहे हैं कि ऐसी बारिश शायद उन्होंने बचपन में देखी थी, मगर तब भी जान-माल का ऐसा नुकसान होते उन्होंने पहले कभी नहीं देखा। तो बड़ा सवाल यह कि भारी बारिश से अब इतनी तबाही क्यों मच रही है? जान-माल का इतना बड़ा नुकसान क्यों हो रहा है? 

समग्रता में बात करें तो तबाही के पीछे एक बड़ी वजह हम ऊपर बता चुके हैं कि सत्ता, समाज और सियासत की तिकड़ी जब भौतिकवादी सोच के साथ विकास की नीतियों को अंजाम तक पहुंचाने की कोशिश करती है, तो वह प्रकृति (जल, जंगल, जमीन, पहाड़ और नदियां) को नागवार गुजरता है, और प्रकृति अपने तरीके से बदला लेती है। लेकिन इससे इतर कई तात्कालिक वजहें भी तबाही को जन्म देती हैं। 

दरअसल, मई-जून के बाद पहाड़ी वादियों में पर्यटन का सीजन अपने शबाब पर होता है। सालाना कोई एक करोड़ से ज्यादा सैलानियों के लिए पलक पांवड़े बिछाकर स्वागत करने वाला करीब 70 लाख की आबादी वाला यह सूबा पानी, बिजली और संसाधनों के दोहरे दबाव में आ जाता है, और ऐसे में भारी बारिश का कहर। इसमें कोई दो राय नहीं कि इस बार बारिश ने हिमाचल में सारे रिकॉर्ड तोड़ दिए हैं। सामान्य से 200 प्रतिशत ज्यादा पानी गिरा है। बावजूद इसके पहाड़ी जमीन की हकीकत यही है कि तबाही पानी से उतनी नहीं हुई है, जितनी पानी के साथ आए मलबे से हुई है।

तबाही क्यों 

हिमाचल की वादियों में रचे-बसे पत्रकार-संपादक अधीर रोहल से जब हमने जानना चाहा कि आखिर हिमाचल में इतने बड़े पैमाने पर तबाही क्यों हो रही है, तो उनका भी साफ तौर पर यही कहना है- 90 के दशक के बाद से बादलों के फटने की घटनाएं बढ़ी हैं। नदियों में पानी का स्तर बढ़ने से आसपास का नुकसान और लैंडस्लाइडिंग भी बड़ा खतरा बन गया है। इसके पीछे ग्लोबल वार्मिंग से मौसम में बदलाव का असर बहुत साफ तौर पर दिख रहा है। पूरे हिमाचल में जून से सितम्बर तक पूरे मानसून सीजन में सामान्य तौर पर औसतन 500-600 मिलीमीटर के बीच बारिश होती थी, लेकिन अब मौसम में बदलाव की वजह से 12 से 24 घंटे में ही कई जगहों पर एक साथ 180 मिलीमीटर तक बारिश हो रही है। सिरमौर जिले में जुलाई के महीने में 850 मिलीमीटर से ज्यादा पानी बरस गया। ऊना शहर में 24 घंटे में हुई बारिश का 80 साल का रिकॉर्ड टूट गया। पूरे प्रदेश में 20 अगस्त तक हुई बारिश ने 1980 के रिकॉर्ड तोड़ दिए।'

बादल फटना

रोहल कहते हैं कि दो दशक तक बादल फटने के लिहाज से कुल्लू से लेकर मंडी जिले के ऊंचाई वाले इलाकों के साथ कांगड़ा जिले का बैजनाथ, पालमपुर एरिया और चंबा जिला सेंसटिव क्षेत्र था। लेकिन अब मौसम में बदलाव की वजह से शिमला जिले के अलावा सिरमौर जिले में भी बादल फटने की घटनाएं हो रही हैं, जो पहले नहीं होती थीं। तो मौसम में बदलाव हिमाचल के सामने बड़ा संकट लेकर आ रहा है। व्यास नदी में बाढ़ की मुख्य वजह यह है कि मनाली से लेकर मंडी जिले में पॉवर प्रोजेक्ट्स से लेकर नये निर्माण का जो भी मलबा था वो या तो व्यास नदी में डाला गया या इसकी सहयोगी नदी-नालों में फेंका गया। 

पिछले 3 दशकों में इस घाटी में बेतहाशा निर्माण हुआ और सारा मलबा नदी में फेंका गया। कुल्लू मनाली फोर लेन का मलबा भी तो इसी नदी में डाला गया। इस वजह से बरसात के दिनों में जब कई घंटों तक एक साथ होने वाली तेज बारिश से नदी-नालों का पानी मलबा लेकर व्यास में आया तो कई जगहों पर व्यास नदी ने अपना बहाव बदल कर आबादी या सड़कों की तरफ रुख किया जिससे यह बड़ा नुकसान हुआ। रोहल इस बात पर भी जोर देते हैं कि जो कंस्ट्रक्शन हो रहे हैं, उनकी कोई प्लानिंग नहीं है। देखने-सुनने के लिए कंस्ट्रक्शन के नियम-कायदे जरूर है, लेकिन किस जगह पर कैसी कंस्ट्रक्शन और किस मैटेरियल से कंस्ट्रक्शन होनी चाहिए, इस दिशा में कभी सोचा ही नहीं गया। हिमाचल के हर हिस्से की जमीन की मिट्टी और इस मिट्टी की भार सहने की क्षमता एक जैसी नहीं है। लेकिन हिमाचल के शहरों के लिए भवन निर्माण के डिजाइन और भवनों के निर्माण में मंजिलों की ऊंचाई के लिए भूमि की प्रकृति या क्षमता के हिसाब से कोई अलग नियम नहीं हैं। जब हिमाचल के हर हिस्से में एक जैसी वनस्पति और जंगली प्राणी एक जैसे नहीं हैं, तो एक जैसे डिजाइन के मुताबिक भवनों, सड़कों, पुलों और फोर लेन का निर्माण करना तबाही के सिवा और क्या देगा?

समाधान

जहां तक नुकसान और इससे बचने के लिए समाधान की बात है, तो अभी तक 12 हजार करोड़ रुपये से ज्यादा के नुकसान का आकलन है। निजी संपत्ति का नुकसान अलग से है, जिसका आकलन होना अभी बाकी है। इंफ्रास्ट्रक्चर को नुकसान की बात करें तो इसकी भरपाई राज्य के अगले 15 साल का बजट भी नहीं कर सकता। प्रदेश सरकार केंद्र से हिमाचल की आपदा को राष्ट्रीय आपदा घोषित करके 10 हजार करोड़ रुपये की मदद मांग रही हैं, लेकिन राजनीतिक कारणों और राष्ट्रीय आपदा के तय मानकों का हवाला देकर केंद्र सरकार प्रदेश को यह मदद देने के लिए आगे बढ़ती नहीं दिख रही तो बड़ा सवाल यह है कि तबाही के बाद आखिर हिमाचल अब अपने स्वरूप में कैसे लौट पाएगा?

रोहन कहते हैं, 'वक्त की मांग है कि तबाही से सबक लेकर हिमाचल के हर हिस्से में अब भवनों से लेकर इंफ्रास्ट्रक्चर के निर्माण के लिए अलग-अलग डिजाइन और निर्माण के तरीकों को नये सिरे से बनाने की जरूरत है।' कहने का मतलब यह कि अब और तबाही की परिस्थिति से बचना है, हिमाचल को बचाना है तो समाधान यही है कि हम अपनी नीतियों- भूमि नीति, जल नीति, कृषि नीति, वन नीति, परिवहन नीति आदि को नदी बेसिन को केंद्र में रखकर तैयार करें। जब तक आप नदी बेसिन को केंद्रीय नीति निर्माण के मूल में नहीं रखेंगे तब तक कुछ भी समाधान नहीं निकलेगा। निश्चित रूप से प्रकृति के कोप से बचना है तो न सिर्फ पहाड़, बल्कि नदी, निर्माण, बसाहट आदि के बारे में भी सत्ता, समाज और सियासत को नये सिरे से सोचना होगा। हिमाचल में मौजूदा तबाही से सबक लेते हुए खतरनाक नीति को गुडबाइ करने का यही सही वक्त है।

स्रोतः शनिवार 26 अगस्त 2023, हस्तक्षेप, राष्ट्रीय सहारा, लखनऊ। 

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