जलवायु तथा मौसम पैटर्नों के आधार पर टॉरनेडो, हरिकेन, चक्रवात, अंधड़ तथा दावाग्नियों के घटनास्थलों की भविष्यवाणी की जा सकती है। जलवायु परिवर्तनों के पैटर्नों में कृषीय क्षेत्रों में बदलाव आ सकता है और मौसम बदल सकता है। ग्लेशियरों के पिघलने से सारे विश्व में समुद्री जलस्तर बढ़ेगा और कुछ जीव प्रजातियाँ अपना आवास त्याग सकती हैं। ऐसा माना जा रहा है कि जलवायु परिवर्तन के कारण कृषकों के समक्ष जल आपूर्ति की भयंकर समस्या उत्पन्न हो जाएगी।
वर्तमान में जलवायु परिवर्तन एक विश्वव्यापी चर्चा का विषय बना हुआ है। विगत कुछ दशकों में जलवायु परिवर्तन विषयक जानकारी में काफी वृद्धि हुई है फिर भी अनेक प्रश्न अनुत्तरित रह जाते हैं। इतना तो अब स्पष्ट हो चुका है कि जलवायु परिवर्तन से उत्पन्न प्रभावों को कम करने के लिये विविध क्षेत्रों के विशेषज्ञों को मिल-जुलकर काम करने की आवश्यकता है। जलवायु परिवर्तन से प्राकृतिक आपदाओं में भी वृद्धि हुई है। चक्रवातों की उग्रता बढ़ी है, नदियों मेें भीषण बाढ़ें आने लगी हैं। पर्वतीय क्षेत्रों में भू-स्खलन की घटनाएँ बढ़ी हैं। औद्योगिकीकरण के जोश में जीवाश्म ईंधनों का जिस गति से और जिस प्रचुर मात्रा में खपत हुई है उससे ग्रीनहाउस गैसों में असाधारण वृद्धि हुई है। इस वृद्धि से वैश्विक तापन हुआ है जिसके परिणामस्वरूप जलवायु में परिवर्तन आया है।वस्तुतः विश्व के विभिन्न भागों में जलवायु में काफी परिवर्तन पाया जाता है। समुद्र ऊष्मा को संचित करके उसे पृथ्वी के चारों ओर गतिमान करते हैं- इस तरह वे जलवायु को रूप देते हैं। समुद्र गैसों के विशेषतया कार्बन डाइऑक्साइड के प्रमुख स्रोत होने के साथ ही संग्राहक भी हैं। यह कार्बन डाइऑक्साइड जलवायु को प्रभावित करती है। वस्तुतः समुद्र तथा वायुमण्डल मिलकर पृथ्वी के जलवायु-तंत्र की रचना करते हैं। पृथ्वी समुद्रों की अपेक्षा जल्दी गर्म और जल्दी ठंडी हो जाती है किन्तु समुद्र दीर्घकाल तक उष्मा ग्रहण करते हैं और संचित उष्मा को दीर्घकाल तक बाहर निकालते रहते हैं। अतः जब पृथ्वी की सतह सूर्य द्वारा गर्माती है या ठंडी होती है तो पृथ्वी पर ताप परिवर्तन समुद्रों की अपेक्षा ज्यादा और अधिक तेजी से होता है। जब समुद्र का कोई भाग अधिक गर्म या शीतल हो जाता है तो उसे पृथ्वी की अपेक्षा सामान्य स्थिति पर पहुँचने में काफी समय लगता है। यही कारण है कि समुद्र तटों की जलवायु उतनी तीक्ष्ण नहीं होती जितनी कि भीतरी भू-भाग में महाद्वीपीय क्षेत्रों में। समुद्री धाराएँ भी तटीय क्षेत्रोें की जलवायु पर प्रभाव डालती हैं। समुद्र का जल प्रबल धाराओं के द्वारा निरन्तर गतिशील बना रहता है। सतही धाराएँ पवन प्रेरित होती है, यद्यपि पृथ्वी के परिभ्रमण तथा महाद्वीपों की उपस्थिति का भी प्रभाव पड़ता है किन्तु समुद्र की गहराइयों मेें उष्मन तथा शीतलन एवं वर्षा तथा वाष्पन के कारण घनत्व में अन्तर के कारण धाराएँ चलती हैं। सागरीय धाराएँ उष्मा का वहन करके जलवायु को प्रभावित करती हैं।
वायुमण्डल में ग्रीनहाउस गैसों की सान्द्रता में वृद्धि होने से वैश्विक तापन में वृद्धि हुई है जिसके परिणामस्वरूप जलवायु में परिवर्तन आया है। ऐसा माना जा रहा है कि जलवायु परिवर्तन का पर्यावरण पर महत्त्वपूर्ण प्रभाव पड़ेगा। इससे तटों का अपरदन होगा, तटवर्ती इमारतों को तूफानों से अधिक क्षति पहुँच सकती है। इससे तटीय आर्द्र भूमियाँ समाप्त हो सकती हैं। भौमजल (भूजल) में समुद्री जल प्रवेश करके तटवासी समुदायों के लिये पेयजल की समस्या उत्पन्न कर सकता है। फिलीपीन्स, मिस्र, इंडोनेशिया तथा मालद्वीप में समुद्र तल ऊपर उठने से करोड़ों लोग संकट में पड़ सकते हैं।
जलवायु तथा मौसम पैटर्नों के आधार पर टॉरनेडो, हरिकेन, चक्रवात, अंधड़ तथा दावाग्नियों के घटनास्थलों की भविष्यवाणी की जा सकती है। जलवायु परिवर्तनों के पैटर्नों में कृषीय क्षेत्रों में बदलाव आ सकता है और मौसम बदल सकता है। ग्लेशियरों के पिघलने से सारे विश्व में समुद्री जलस्तर बढ़ेगा और कुछ जीव प्रजातियाँ अपना आवास त्याग सकती हैं। ऐसा माना जा रहा है कि जलवायु परिवर्तन के कारण कृषकों के समक्ष जल आपूर्ति की भयंकर समस्या उत्पन्न हो जाएगी। बाढ़ एवं सूखे की बारम्बारता मेें वृद्धि होगी। अर्धशुष्क क्षेत्रों में लम्बे शुष्क मौसम होंगे तथा फसलोत्पादन में कमी आएगी।
जलवायु परिवर्तन से कीट एवं रोगों की वृद्धि होगी। ताप नमी तथा पर्यावरण में गैसों से पौधों फफूँद तथा अन्य रोगाणुओं के प्रजनन में वृद्धि तथा कीटों और उनके प्राकृतिक शत्रुओं के अन्तर्सम्बन्धों में परिवर्तन आएगा। गर्म जलवायु कीटपतंगों की प्रजनन क्षमता में वृद्धि में सहायक है। इनको नियंत्रित करने में अधिक कीटनाशकों का प्रयोग करना होगा जो अन्य बीमारियों को बढ़ावा देंगे। इस प्रकार जलवायु परिवर्तन के कृषि पर तात्कालिक एवं दूरगामी प्रभावों के अध्ययन की आवश्यकता है। हमें अपने देश में जलवायु परिवर्तन से कृषि-चक्र पर पड़ने वाले अन्तर का अध्ययन करके वैकल्पिक फसलों के उगाने पर विचार करना होगा। जलवायु परिवर्तन के खतरों से निपटने में सक्षम फसलों की खोज अति आवश्यक है।
हमें यह ज्ञात है कि वैश्विक तापन हमारी ऊर्जा माँगों का प्रत्यक्ष प्रतिफल है। चाहे उत्पादन हो या उद्योग में काम आने वाली सामग्री हो, सभी के लिये यह ऊर्जा चाहिए। यातायात के लिये भी ऊर्जा चाहिए। यातायात के लिये यह ऊर्जा पेट्रोल, डीजल तथा बिजली से प्राप्त होती है। इन सबके जलने से अप्रत्यक्षतः वायुमण्डल में कार्बन डाइऑक्साइड की वृद्धि होती है। अतः यदि हम ऊर्जा की बचत कर सकें चाहे वह किसी भी रूप में क्यों न हो, तो कार्बन डाइऑक्साइड उत्सर्जन में कमी आएगी। इसके लिये कुछ सरल उपाय सुझाए जा सकते हैं जिनका दैनन्दिन जीवन में उपयोग करके हम पर्यावरण को प्रदूषण रहित बनाने में मदद कर सकते हैं। यद्यपि इन छोटे-छोटे उपायों से कार्बन डाइऑक्साइड का उत्सर्जन पूरी तरह से बन्द नहीं हो पाएगा, किन्तु कुछ-न-कुछ कमी अवश्य आएगी। कालान्तर में इन लघु प्रयासों का सम्मिलित दुष्प्रभाव पड़ सकता है।
जिस रूप में वैश्विक जलवायु में परिवर्तन आ रहा है और ऊर्जा उपयोग तथा वन-विनाश की जो नवीन प्रवृत्तियाँ हैं, उन्हें देखते हुए हमें इन परिवर्तनों के साथ रहने के लिये तालमेल बैठाना होगा। जलवायु परिवर्तन के लिये उत्तरदायी वैश्विक तापन को दूर करने का सर्वोत्तम उपाय होगा- जीवाश्म ईंधनों पर निर्भरता को दूर करने का सर्वोत्तम उपाय होगा- जीवाश्म ईंधनों पर निर्भरता कम करके स्वच्छ ऊर्जा के वैकल्पिक संसाधनों का जल्द-से-जल्द उपयोग। परन्तु एकाएक ऐसा कर पाना आसान कार्य नहीं होगा। पहले हमें वैकल्पिक ऊर्जा संसाधनों को विकसित कर लेना होगा। विशेषज्ञों के साथ-साथ सामान्य जन का भी यह दायित्व है कि अपनी वर्तमान सुख-सुविधाओं में कटौती करते हुए कुछ-न-कुछ त्याग करे।
हमें जितनी जल्दी हो सके, अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर जलवायु परिवर्तन की विभीषिका पर विचार-विमर्श करके सन्तोषजनक जल खोजना होगा। हमें विश्व ग्राम की संकल्पना को साकार करना होगा यदि विकसित देश अपनी सुविधाओं में कटौती करने के लिये तैयार नहीं होते और जलवायु परिवर्तन का ठीकरा विकासशील देशों पर फोड़ना चाहेंगे तो यह सुनिश्चित है कि जलवायु परिवर्तन से अवश्य ही विनाश होगा। सर्वनाश/प्रलय की-सी स्थिति से बचने के लिये विवेक से सन्तोष से, धैर्य से, उदारता से काम करना होगा। इसके लिये ‘वसुधैव कुटुम्बकम’ की भावना के अनुरूप कार्य करना होगा।
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