आज पृथ्वी का पारिस्थितिकी तंत्र पूरी तरह से गड़बड़ा गया है। इसके बहुत से कारणों में एक हमारी इसे न समझने की प्रवृत्ति रही है। देखिए, अगर पृथ्वी सबकी थी तो ऐसा क्या हुआ कि हमारे बीच से कई प्रजातियाँ, चाहे वो पेड़-पौधे हों या जीव, उनका गायब होना शुरू हो गया ? एक मोटा आंकड़ा बताता है कि दुनिया से वन्यजीवों की 45 फीसदी और पेड़-पौधों की 12 फीसदी प्रजातियाँ घट गई हैं। इसका मतलब यह कि हमारे बीच से बाघ, शेर, हिरन व अन्य अद्भुत वन्य जीवों की संख्या या तो घट रही है या विलुप्त होने की कगार पर है। दूसरी तरफ अगर दुनिया में किसी जीव की संख्या अप्रत्याशित रूप से बढ़ रही है तो या तो वह मनुष्य है या पेड़-पौधों की ऐसी प्रजातियाँ जिन्हें जहरीला कहा जा सकता है। मसलन लैंटाना (कुर्री), वनों में काला बांस तो तालाबों-पोखरों को खत्म करती टायफा की प्रजाति। चाहे खेत हों या वनभूमि, ऐसी प्रजातियाँ ही जगह बना रही हैं जिनका पारिस्थितिकी तंत्र से न कुछ लेना है और न ही उसकी बेहतरी में कोई योगदान है। जीवों में ही देखिए, मनुष्य व बन्दर ही संख्या में अप्रत्याशित रूप से बढ़े हैं, जिनका योगदान पारिस्थितिकी को बेहतर करने में नहीं बल्कि उसको पछाड़ने में ही रहा है।
फंसी है हमारी ही जान
असल में ये सब प्रजातियाँ, जिसमें मनुष्य भी शामिल है, पारिस्थितिकी में न तो इनकी सकारात्मक भूमिका रही और न ही इनका योगदान इसको बेहतर करने में रहा। एकपक्षीय शोषण की प्रवृत्ति ने जहाँ इनकी संख्या बढ़ाई वहीं दूसरी ओर जो पारिस्थितिकी तंत्र को लाचार बनाने में ही रहा और इसीलिए इस तंत्र का पारम्परिक ताना-बाना टूटने लगा। अब देखिए, अगर वनों से पानी, हवा, मिट्टी पैदा होती रही तो उनका महत्व बढ़ जाता है क्योंकि ये तीनों वनोत्पाद ही हमारे जीवन के कारक हैं। वनों पर हमारे दुव्र्यवहार से हमें ही चोट पहुँची। हवा-पानी के वर्तमान हालात हमारे सामने हैं पर इनके बिगड़ते हालातों को हम गम्भीरता से व्यवहार और वनों से जोड़कर नहीं देखते। उदाहरण के लिए, वन वृक्षों को लगाने में हम पीछे नहीं हैं पर कितने बचे और बना पाए वो सत्य सामने है। ऐसा इसलिए होता है कि हम न तो प्रकृति को समझे और न ही वनों की सीरत। ऐसा पिछले दशकों से लगातार होता रहा और आज हमारी जान ऐसे जंजाल में फंसी है जिसकी वापसी में दशकों लगेंगे।
बुद्धि का दुरुपयोग
पारिस्थितिकी तंत्र में मनुष्य या अन्य जीवों की संख्या के अनुपात में प्रकृति के अन्य उत्पाद घटते चले गए। पृथ्वी का तंत्र एक ऐसे बोझ में दब गया जिसमें पारिस्थितिकी का दम घुटता चला गया। इसके दुष्परिणाम मात्र हमारे बीच से घटते पानी-हवा से ही नहीं जुड़े थे बल्कि जलवायु परिवर्तन जैसे मुद्दे खड़े हो गए और इन्होंने सब पर ही चोट कर दी। प्रकृति का ही सब पर नियंत्रण जरूरी हो न कि इस पर दूसरों की मनमर्जी का क्योंकि मनुष्य में लोपुपता इतनी बढ़ गई कि उसका स्वयं पर केन्द्रित होकर प्रकृति का शोषण अब भारी पड़ने लगा। मनुष्य ने अपनी बुद्धि व कौशल का दुरुपयोग किया। इस पारिस्थितिकी तंत्र में वह अपने लिए सब कुछ जुटाने में लग गया। अन्य जीव व प्रकृति के अन्य उत्पादों पर हमने गौर ही नहीं किया बल्कि उनके महत्व को नकार दिया।
नगण्य है हमारा योगदान
प्रकृति में हर जीव का जहाँ एक तरफ अपना महत्व है वहीं दूसरी तरफ प्रकृति में उपलब्ध पानी, मिट्टी, हवा सीमित रूप से ही जीवन को पाल सकती है। जिस तरह से प्रकृति सबको स्वतंत्र रूप से सब कुछ देती है वो ही अपेक्षा उसकी हम सबसे है और प्रकृति के इस संदेश को समझने में हम चूक गए। अन्य जीव-जन्तु निश्चित रूप से अपने हिस्से का योगदान इन्हें पनपाने और बनाने के लिए करते हैं सिवाय मनुष्य के। पक्षी हो या जीव, पेड़ हों या पौधे सब प्रकृति को बनाए रखने में योगदान करते हैं। सिर्फ मनुष्य ही है जिसने पारिस्थितिकी तंत्र को छिन्न-भिन्न कर दिया, इसलिए मनुष्य ही इस दंड का सबसे बड़ा भागीदार बना। हमने प्रकृति व प्रभु में अंतर कर दिया जबकि वो एक ही थे। जैसे प्रभु सबको देते हैं वो ही व्यवहार प्रकृति का है पर इन दोनों से ही हम यह नही समझ सके कि इनके इस व्यवहार को हमें अपनाना है, ताकि हम इसके लिए सबके साथ मिलकर जीवन-यापन करें।
प्रदूषण नियंत्रण के परम्परागत कारक
राष्ट्रीय वानस्पतिक अनुसंधान संस्थान ने बढ़ते प्रदूषण से निपटने के लिए जो रास्ता सुझाया वह प्रकृति के रास्ते से गुजरता है। उन्होंने इससे निपटने के लिए ऐसे वृक्षों पर काम शुरू किया जिनकी क्षमताएँ वायु प्रदूषण को नियंत्रित करने में महत्त्वपूर्ण हैं। डॉ. प्रमोद ए शिर्के, चीफ साइंटिस्ट डॉ. विवेक पांडे, सीनियर प्रिसिंपल व साइंटिस्ट डॉ. एस.के.बारिक, निदेशक एनबीआरआई पिछले 4 वर्ष से ऐसी प्रजातियों का अध्ययन कर रहे हैं जिनसे वायु प्रदूषण पर नियंत्रण सम्भव है। ये वो वृक्ष हैं जो सड़क किनारे छाया के साथ-साथ गाड़ियों से निकल रहे परदूषण को सोख सकते हैं। इन पेड़ों में खासतौर से बरगद, पीपल व गूलर आते हैं जो परम्परागत रूप में भी प्रयोग होते रहे हैं। ये पहल प्रकृति को समझते हुए नए विज्ञान और ज्ञान से जुड़ने की है। यह योजना नजदीक भविष्य में पर्यावरण की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण होगी और सड़क निर्माण के साथ ही इस तरह के वृक्षारोपण नए विकास के साथ प्राणों की भी रक्षा कर सकेंगे। इसमें बड़ी बात यह भी है कि पुराणों में इन्हीं वृक्षों का पर्यावरण पर योगदान भी दर्शाया गया है।
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