सन्तुलित आहार की पहाड़ी परम्परा

Barahnaja
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शरद ऋतु का आगमन हो चुका है और आहिस्ता-आहिस्ता हम शीत की ओर बढ़ रहे हैं। यह ऐसा मौसम है, जब हमारी पाचन क्षमता दुरुस्त होने के कारण भोजन आसानी से पच जाता है। लेकिन, अधिक ठंड से होने वाली बीमारियों का भी भय बना रहता है। ऐसे में हमें जरूरत होती है शरीर को गर्मी प्रदान करने वाले पौष्टिक आहार की। पहाड़ की बारहनाजा पद्धति में हमारे पूर्वजों ने इस दौरान मोटे अनाज के तैयार पारम्परिक व्यंजनों को खाने की सलाह दी है। ‘सबरंग’ के इस अंक में हम उत्तराखण्डी खान-पान के इन्ही पहलुओं से आपका परिचय करा रहे हैं।।

सर्दियोंं के मौसम को खाने-पीने के लिहाज से सबसे बेहतरीन माना गया है। इस मौसम में जठराग्नि बहुत तेजी से काम करती है, जिसकी वजह से बहुत ज्यादा भूख लगती है। हम जो भी खाते हैं, पाचन क्षमता दुरुस्त रहने की वजह से वह आसानी से पच जाता है। लेकिन, सर्दियों में ठंड बढ़ने के साथ जहाँ सर्दी-जुकाम समेत अन्य बीमारियाँ दस्तक देने लगती हैं, वहीं सुस्ती और आलस की समस्या भी घेरे रहती है। ऐसे में हम आहार में शरीर को गर्मी प्रदान करने वाली चीजों को शामिल कर स्वयं को स्वस्थ रखने के साथ चुस्त-दुरुस्त भी रख सकते हैं। पर, असल सवाल यही है कि आखिर हमारा आहार कैसे हो। इसके लिये उत्तराखण्ड की बारहनाजा पद्धति में सनातनी व्यवस्था है।

यहाँ लोगों का पारम्परिक भोजन पूरी तरह सन्तुलित व पोषक तत्वों से परिपूर्ण है। वजह यह कि इसमें सभी मोटे अनाज शामिल हैं। एक प्रकार से यह ‘बैलेंस डाइट’ है। हालांकि, एक दौर में लोग पारम्परिक भोजन से दूरी बनाने लगे थे, लेकिन अब वे फिर से पारम्परिक भोजन का महत्व समझने लगे हैं।

आलू के गुटके

आलू के गुटके विशुद्ध रूप से कुमाऊँनी स्नैक्स हैं। इसके लिये उबले हुए आलू को इस तरह से पकाया जाता है कि आलू का हर टुकड़ा अलग दिखे। इसमें पानी का इस्तेमाल बिल्कुल नही होता। मसाले मिलाकर इसे लाल भुनी हुई मिर्च व धनिये के पत्तों के साथ परोसा जाता है। स्वाद में वृद्धि के लिये इसमें जख्या के तड़के की अहम भूमिका होती है। आलू के गुटके मंडुवे की रोटी और चाय के साथ भी खाए जा सकते हैं।

भांग या तिल की चटनी

भांग या तिल की चटनी बनाने के लिये इनके दानों को पहले गर्म तवे या कढ़ाई में भूना जाता है। फिर इन्हें सिल या मिक्सी में पीसा जाता है। इसमें जीरा पाउडर, धनिया, नमक और स्वादानुसार मिर्च डालकर अच्छे से सभी को सिल में पीस लिया जाता है। बाद में नींबू का रस डालकर इसे आलू के गुटके, अन्य स्नैक्स, रोटी आदि के साथ परोसा जाता है। इस चटनी का स्वाद अलौकिक होता है।

काप या काफली

यह एक हरी करी है। सरसों, पालक आदि के पत्तों को पीसकर बनाया जाने वाला काप कुमाऊँनी खाने का अहम हिस्सा है, जिसे गढ़वाल में काफली कहते हैं। इस रोटी और चावल के साथ लंच और डिनर में परोसा जाता है। यह एक शानदार और पोषक आहार है। काप बनाने के लिये हरे साग को काटकर उबाल लिया जाता है। फिर इन पत्तों को पीसकर पकाया जाता है।


बारहनाजाबारहनाजा कंडाली का साग

कंडाली के साग में बहुत ज्यादा पौष्टिकता होती है। कंडाली को आमतौर पर बिच्छू घास भी कहते हैं। इसके हरे पत्तों का साग बनाया जाता है। मुलायम कांटेदार होने के कारण कंडाली के पत्तों या डंडी को सीधे नहीं छुआ जा सकता। यह अगर शरीर के किसी हिस्से में लग जाए तो वहाँ सूजन आ जाती है और बहुत ज्यादा जलन होती है। गाँव-देहात के अनुभवी लोग इसे बड़ी सावधानी से हाथ में कपड़ा लपेटकर काटते हैं। काली दाल और चावल के साथ इसकी खिचड़ी भी बेहद स्वादिष्ट होती है।

चैंसू

चैंसू एक प्रोटीन युक्त लाजवाब व्यंजन है, जो कि काली दाल (उड़द) को पीसकर बनता है। यह हर पहाड़ी के लिये एक लोकप्रिय भोजन विकल्प है। चैंसू बनाने के लिये दाल को सिल या मिक्सी में पीसा जाता है। दाल का अच्छा पेस्ट तैयार कर उसे धीमी आँच पर पकाया जाता है और फिर भात के साथ खाया जाता है। बेहतर स्वाद के लिये इसे लोहे के बर्तन (कढ़ाई) में पकाया जाता है।

अरसा

यह पहाड़ का पारम्परिक मीठा पकवान है। आमतौर पर पहाड़ी शादियों में इसे बनाया जाता है। इसमें गुड़, चावल और सरसों के तेल का इस्तेमाल होता है। पहले चावल को कम-से-कम तीन-चार घंटे तक भिगोया जाता है और फिर उसे बारीक कूटकर गुड़ की चासनी के साथ पेस्ट बनाया जाता है। इस मिश्रण को छोटे-छोटे गोलों के रूप में तैयार कर तेल में तला जाता है। कहीं-कहीं अरसे तलने के बाद दोबारा गुड़ की चासनी में डाला जाता है। इसे पाक लगाना कहते हैं।

बाड़ी (मंडुए का फीका हलवा)

बाड़ी उत्तराखण्ड के सबसे पुराने व्यंजनों में से एक है। इसे मंडुए के आटे से बनाया जाता है। बाड़ी में पोषक तत्व भरपूर मात्रा मे होते हैं। मंडुए के आटे को पानी में घी के साथ अच्छे से पकाकर इसे बनाया जाता है। इसे फाणू अथवा तिल की चटनी के साथ भी खाया जाता है। घर के घी और फाणू में इसका स्वाद और निखर जाता है।

कुमाऊँनी रायता

कुमाऊँ का रायता देश के अन्य हिस्सों के रायते से काफी अलग होता है। इसे आमतौर पर दोपहर के भोजन के साथ परोसा जाता है। इसमें बड़ी मात्रा में ककड़ी (खीरा) सरसों के दाने, हरी मिर्च, हल्दी पाउडर और धनिये का इस्तेमाल होता है। इस रायते की खास बात छनी हुई छाज (प्लेन लस्सी) होती है।

गहत (कुलथ) के पराठे

गहत की दाल के पराठे उत्तराखण्ड का एक प्रसिद्ध पकवान है। यह पराठे गहत की दाल को गेहूँ या मंडुवे के आटे के मिश्रण में भरकर बनाए जाते हैं। देसी घी, भांग व लहसुन की चटनी या घर के बने अचार के साथ खाने का इसका स्वाद ही निराला है।

डुबुक (डुबुके)

डुबुक भी कुमाऊँ अंचल में अक्सर खाई जाने वाली डिश है। असल में यह दाल ही है, लेकिन इसमें दाल को दरदरा (मोटा) पीसकर बनाया जाता है। बावजूद यह मास (उड़द) के चैस (चैंसू) से अलग है। डुबुक पहाड़ी दाल भट, गहत आदि को पीसकर बनाया जाता है। लंच के समय चावल के साथ डुबुक का सेवन किया जाता है।

फानु (फाणु)

यह एक खास प्रकार का पहाड़ी व्यंजन है। इसके लिये विभिन्न प्रकार की दाल (विशेषकर गहत) रात भर पानी में भिगोई जाती है। फिर इस दाल को अच्छे से पीसकर फाणु बनाया जाता है। गर्म-गर्म चावल के साथ परोसे जाने पर यह व्यंजन अत्यन्त स्वादिष्ट होता है। सर्दियों में फाणु-भात उत्तराखण्ड में बहुत ज्यादा खाया जाता है।

थिच्वाणी

थिच्वाणी बनाने के लिये पहाड़ी मूला या पहाड़ी आलू को क्रश (थींचा) कर पकाया जाता है। सर्दियों में इसे रोटी या चावल के साथ बड़े चाव से खाया जाता है। जख्या या फरण का तड़का इसका स्वाद और बढ़ा देता है।

पौष्टिक व्यंजन और लाजवाब जायका

उत्तराखण्ड में कहीं पहाड़, कहीं मैदान, कहीं उपजाऊ तो कहीं ऊसर भूमि है। यहाँ का वातावरण भी ठंडा है। इन्हीं विविधताओं के अनुसार यहाँ के भोजन के लिये फसलें तैयार होती हैं, जो ज्यादातर मोटे अनाज के रूप में है। इनमें गेहूँ, धान, मंडुआ, झंगोरा, ज्वार, चौलाई, तिल, राजमा, उड़द, गहथ, नौरंगी, लोबिया और तोर जैसी फसलें मुख्य हैं। इन्ही अनाजों से यहाँ पर पौष्टिक एवं स्वादिष्ट व्यंजन बनाए जाते हैं। अब जबकि त्योहारों के साथ शादी-ब्याह का सीजन भी शुरू हो चुका है। ऐसे अवसरों पर मोटे अनाजो से बनने वाले नाना प्रकार के व्यंजनों का स्वाद हर किसी को भाता है। शादी-ब्याह के मौके पर चावल के आटे से बनने वाले अरसे और पीसी हुई उड़द की दाल की पकोड़ियाँ भला किसे नहीं ललचाती होंगी। स्वाले, भूड़े, खीर, रोट, पुए, पत्यूड़, गुंडला, पेठा व पिंडालू से बनने वाली बड़िया जैसे व्यंजनों को ग्रहण करने का भी अलग ही मजा है।

मंडुए की रोटी

मंडुए में बहुत ज्यादा फाइबर होता है। इसलिये इसकी रोटी स्वादिष्ट होने के साथ स्वास्थ्यवर्धक भी होती हैं। मंडुए की रोटी भूरे रंग की बनती है। क्योंकि इसका दाना गहरे लाल या भूरे रंग का होता है, जो कि सरसों के दाने से भी छोटा होता है। मंडुए की रोटी को घी, दूध या भांग व तिल की चटनी के साथ परोसा जाता है। कई बार पूरी तरह से मंडुए की रोटी के अलावा इसे गेहूँ की रोटी के अन्दर भरकर भी बनाया जाता है। ऐसी रोटी को लोहोटु (डोठ) रोटी कहा जाता है। जबकि, गेहूँ के आटे व मंडुए को मिलाकर जो रोटी बनती है, उसे ढबड़ी रोटी कहते हैं।

चटखारेदार और स्वास्थ्यवर्धक पहाड़ का खान-पान

पहाड़ में लोगों ने अपनी आवश्यकता के अनुसार कई प्रकार के स्वादिष्ट व्यंजन ईजाद किये हैं। इनमें दाल-भात के साथ काफली, फाणु, इवली (कढ़ी), चैंसू, रैलु, बाड़ी, पल्यो, कोदे (मंडुआ) व मुंगरी (मक्का) की रोटी, आलू का थिंचोंणी, आलू का झोल, झंगोरे का भात, अरसा, बाल मिठाई, भांग की चटनी, भट का चुलकाणि, डुबुक, गहत (कुलथ) का गथ्वाणि, गहत की भरवा रोटी, गुलगुला, झंगोरे की खीर, स्वाला, तिल की चटनी, उड़द की पकोड़ी आदि प्रमुख हैं। सब्जियों में कंडाली की भी सब्जी बनाई गई। जंगलों से लाकर तैडु, गींठी भी खाई गई। कभी बसिंग तो कभी सेमल के फूल का साग भी बनाया जाता रहा है।

प्रोटीन, कैल्शियम, विटामिन व खनिज लवण का भंडार

सर्दी के मौसम में भले ही हमारी डाइट कम हो, लेकिन शरीर के लिये जरूरी पौष्टिक तत्वों और कैलोरी की मात्रा कम नहीं होनी चाहिए। तीनों समय के खाने में ऐसी चीजों को शामिल किया जाना चाहिए। जिनसे हमारे शरीर के लिये जरूरी कैलोरी के साथ प्रोटीन, कैल्शियम, विटामिन व खनिज लवण की कमी पूरी हो जाए। भोजन में एंटी अॉक्सीडेंट तत्वों से भरपूर वस्तुएँ शामिल होनी चाहिए। इनके सेवन से शरीर की रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ती है, जिससे हम मौसमी बीमारियों से बचे रहते हैं। इस मौसम में शरीर की प्राकृतिक नमी कम हो जाती है। सो, इससे बचने के लिये खूब सारा पानी पीना जरूरी है।

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