सन्दर्भ- नदी जोड़ : कार्यशाला रपट, 23-24 मई, 2003: नदी वापसी अभियान समिति

गंगा घाटी और नदी जोड़ योजना: चर्चा के मुद्दे


गंगा घाटी की समस्या और नदी जोड़ने की योजना से संबंधित इस कार्यशाला में आप सभी प्रतिभागियों का स्वागत है। इस कार्यशाला में समन्वय की राष्ट्रीय संयोजक एवं नर्मदा बचाओ आंदोलन की नेत्री मेधा पाटेकर, भूजल वैज्ञानिक सुव्रतो सिन्हा तथा भूगर्भ-वैज्ञानिक कल्याण रुद्र जैसे लोग भी पधारने वाले थे। मध्य प्रदेश शासन ने 5-6 दिन पूर्व नर्मदा बांध को 5 मीटर ऊंचा करने का काम प्रारम्भ करने की घोषणा कर दी है। सर्वोच्च न्यायालय ने अपने आदेश में पुनर्वास प्रक्रिया समाप्त करके, ऊंचाई बढ़ाने की बात कही थी। लेकिन, मध्य प्रदेश शासन ने बिना किसी पुनर्वास की व्यवस्था किए बांध की ऊंचाई बढ़ाने की घोषणा कर दी। इस फैसले के विरोध में मेधा जी ने आन्दोलन प्रारम्भ कर दिया। मध्य प्रदेश शासन ने मेधा जी सहित दो-तीन सौ लोगों को गिरफ्तार कर लिया। मेधा जी के साथ बदसलूकी भी की गयी और उन्हें भोपाल के अस्पताल के आईसीयू में नजरबंद किया गया। मेधा जी को जब शासन छोड़ रहा था, तब मेधा जी ने अपने साथ गिरफ्तार सभी सहयोगियों के साथ रिहा होने की बात की। मेधा जी ने रिहा होते ही कल फोन पर बताया कि वे पटना आ रही हैं। लेकिन जब वे भोपाल हवाई अड्डा आईं, तब विमान उड़ने में दो घंटा विलम्ब था। इसी बीच उन्हें खबर मिली कि नर्मदा बचाओ आंदोलन की एक कार्यकर्ता नर्मदा में डूब गयी है। इसलिए उन्होंने खबर भेजी कि वे वापस जा रही हैं। मेधा जी यहां आने की पूर्ण इच्छा रखते हुए भी घटना-दर-घटना घटित होने के कारण यहां नहीं आ पाईं।

कल शाम हावड़ा में अत्यधिक वर्षा के कारण कोलकाता का जीवन ठहर सा गया, इसलिए श्री सुव्रतो सिन्हा तथा कल्याण रुद्र सहित कोलकाता से चार अन्य साथी नहीं आ पाये। इन तमाम बाधाओं के बावजूद आज इस सभागार में बिहार के कई जिलों के साथी सहित उत्तर प्रदेश, बंगाल और असम के साथी उपस्थित हैं। गंगा घाटी तथा नदी जोड़ने की योजना से संबंधित जानकारी रखने वाले समाजोन्मुखी विशेषज्ञ डाॅ. एस परशुरामण, श्रीरामास्वामी अय्यर, प्रो. सीपी सिन्हा एवं श्री दिनेश कुमार मिश्र उपस्थित हैं। हम उनका स्वागत करते हैं। नेपाल से गोपाल शिवकोटे ‘चिन्तन’ के साथ आये पांच अन्य साथियों का भी स्वागत करते हैं और, स्वागत करते हैं बांग्लादेश से आये तीन मित्रों का, जो बांग्लादेश में ‘नदी जन आयोग’ के माध्यम से जल समस्या पर काम कर रहे हैं।गंगा घाटी की समस्या और नदी जोड़ने की योजना के विषय पर कार्यशाला आयोजित करने का उद्देश्य यह है कि गंगा-ब्रह्मपुत्र घाटी के विकास में दोनों नदियों का महत्वपूर्ण योगदान है। विकास की पश्चिमी अवधारणाओं के तहत जल-प्रबन्धन के नाम पर विभिन्न प्रकार की संरचनाओं का निर्माण किया गया है, लेकिन ये संरचनाएं भूख और गरीबी मिटाने में सहायक नहीं हुईं। उलटे इन संरचनाओं के कारण गंगा-ब्रह्मपुत्र क्षेत्र में गरीबी, बेरोजगारी, महामारी, बीमारी सहित पलायन जैसी समस्याओं को विस्तार मिला है। प्रकृति राजनीतिक सीमा को नहीं मानती। किसकी या किस तरह की सरकार कहां है, यह भी नहीं जानती है। वह तो अपना काम करती रहती है। लेकिन उसके काम में बाधा पहुंचाई जाए तो वह समस्या को और बढ़ा देती है। समस्या से ग्रस्त तीनों देश नेपाल, भारत और बांग्लादेश की विकास-कुंजी उचित जल-प्रबंधन में है। लेकिन अप्राकृतिक और अवैज्ञानिक नीतियों के कारण सदानीरा गंगा सूखने के कगार पर है। फिर भी यह नदी भारत-बांग्लादेश के बीच विवाद का विषय बनी हुई है। संरचनाओं के कारण नेपाल भी भारत को शक की निगाह से देख रहा है।

अब भारत में इन समस्याओं का समाधान नदियों को जोड़ने वाली योजना में दिखाया जा रहा है। बताया जा रहा है कि योजना पूरी होने के बाद जीडीपी 4 प्रतिशत की दर से बढ़ेगा और गरीबी, बेरोजगारी जैसी समस्याओं का समाधान होगा। नदी जोड़ने वाली योजना के तहत हिमालय क्षेत्र में 9 बड़े डैम, 14 लिंक कैनाल और 6044 किलोमीटर लंबी नहर बनाने की योजना प्रस्तावित है।

हिमालय क्षेत्र की भू-बनावट में इस प्रकार की योजना भविष्य में खतरनाक रूप लेगी और इस क्षेत्र में भुक्खड़ों की तादाद और बढ़ेगी। इस योजना के कई समर्थकों से जब जानना चाहता हूं कि इससे सूखा और अकाल के लिए मशहूर कालाहांडी या तेलंगाना क्षेत्र मंे पानी पहुंचेगा क्या? वहां समृद्धि आयेगी क्या? इस बात पर वे चुप हो जाते हैं। अभी तक प्रकाशित नक्शा देखने से लगता है कि नहर वहीं जाएगी जहां पहले से पानी है या पानी का भरपूर उपयोग हो रहा है। इन योजनाओं पर जितना खर्च होगा, उतनी ही तबाही बढ़ेगी और आवश्यकता वाली जगह पर पानी नहीं पहुंचेगा। जल संरक्षण की पुरानी अवधारणा पर काम हो, तो खर्च भी कम होगा और तबाही भी नहीं होगी। लोग पानीदार भी हो सकेंगे और कोई अन्तरराज्यीय या अन्तरराष्ट्रीय विवाद भी नहीं होगा।

इन्हीं विषयों पर विचार करने के लिए विशषेज्ञों सहित तीनों देश के समाजकर्मियों को यहां आमंत्रित किया गया है ताकि विवाद समाप्त कर जनहित की दिशा में एक सोच बने और उचित जल-प्रबंधन के माध्यम से इस क्षेत्र में गरीबी, भुखमरी को दूर किया जा सके।
विजय कुमार, संयोजक, जन-आंदोलनों का राष्ट्रीय समन्वय, बिहार

नदी जोड़ कार्यक्रम


मुझे इस कार्यशाला में आप सबों के बीच नदी जोड़ने का विवरण प्रस्तुत करने के लिए कहा गया है। मैं योजना के विस्तार में जाने से पहले इसके इतिहास पर थोड़ा प्रकाश डालूंगा। लगभग चार दशक पूर्व भारत के पूर्व सिंचाई एवं ऊर्जा मंत्री डाॅ. केएल राव ने सबसे पहले देश की नदियों को जोड़ने का प्रस्ताव रखा था। उनका प्रस्ताव उत्तर की गंगा और दक्षिण की कावेरी को जोड़ने का था। उनके बाद दूसरे व्यक्ति पेशे से पायलट श्री दिनशा-जे दस्तूर थे, जिन्होंने ‘गारलैण्ड कैनाल’ का प्रस्ताव रखा था। दोनों व्यक्तियों का प्रस्ताव काफी दिनों तक ठंडे बस्ते में पड़ा रहा।

विगत दो-तीन वर्षों के दौरान कावेरी विवाद में आयी गर्मी के परिणामस्वरूप सर्वोच्च न्यायालय में हो रही कावेरी विवाद की सुनवाई के दौरान न्यायालय ने केन्द्र सरकार को निर्देश दिया कि वह नदियों को जोड़ने की योजना पर तत्काल काम शुरू करे और पन्द्रह वर्षों के अन्दर, 2015 तक इस योजना को अंजाम दे। न्यायालय के इस निर्देश का पालन करते हुए केन्द्र सरकार ने दिसंबर 2002 में एक कार्यदल का गठन किया। पूर्व केन्द्रीय बिजली मंत्री श्री सुरेश प्रभु को इस कार्यदल का अध्यक्ष नियुक्त किया गया और इस कार्यदल को जून, 2003 तक रिपोर्ट तैयार कर लेनी है ताकि 2005 में इस महायोजना पर कार्य शुरू हो जाये।

भारत में विभिन्न नदी घाटियों में जल उपलब्धता में भारी असमानता है। 1991 की जनगणना के अनुसार प्रति व्यक्ति उपयोग योग्य जल की उपलब्धता साबरमती घाटी में 182 घनमीटर, महानदी घाटी में 2500 घनमीटर तथा नर्मदा घाटी मंे 3082 घनमीटर है। कृषि योग्य भूमि के हिसाब से इन घाटियों में यह प्रति हेक्टेयर क्रमशः 1244, 8320 तथा 7669 घनमीटर है। इस स्थिति में बाढ़-सुखाड़ की समस्या बनी रहती है। देश का 32 प्रतिशत जल तो अकेले ब्रह्मपुत्र-बराक में बहता है और घाटी को बाढ़ से तबाह करता है। ऐसे में यदि जल बहुल क्षेत्र से जलाभाव क्षेत्र में जल का स्थानांतरण किया जाए तो यह सबके हित में ही होगा।देश की जनसंख्या अभी सौ करोड़ से कुछ अधिक है। इस सदी के मध्य तक यह 135 से 158 करोड़ के बीच होगी, जिसके लिए 38 से 45 करोड़ टन खाद्यान्न की जरूरत होगी। भंडारण तथा परिवहन में बर्बादी, बीज-चारे की जरूरत व मानसून की संभावित विफलता के मद्देनजर 2050 तक कम से कम 50 करोड़ टन अनाज प्रति वर्ष की जरूरत होगी। अभी हम प्रति वर्ष औसतन 20 करोड़ टन अनाज पैदा करते हैं। 50 करोड़ टन पैदा करने के लिए 16 करोड़ हेक्टेयर कृषि भूमि पर सिंचाई की व्यवस्था करनी होगी। हमारी वर्तमान सिंचाई क्षमता लगभग 9 करोड़ हेक्टेयर है। अगले पांच दशकों में इसे 16 करोड़ हेक्टेयर पर ले जाना कठिन किंतु अनिवार्य है। वर्तमान सिंचाई पद्धतियों से देश की चरम सिंचाई क्षमता 11.3 करोड़ हेक्टेयर आंकी गई है। उन्नत सिंचाई प्रबंधन, जल की बचत तथा भू-जल के अत्यधिक उपयोग से इसे 14 करोड़ हेक्टेयर तक पहुंचाया जा सकता है, किन्तु इसे16 करोड़ हेक्टेयर करने तथा एतदर्थ भू-जल के पुनः पूरण के लिए जल का अंतरघाटी स्थानांतरण ही एकमात्र उपाय है।

अंतरघाटी जल स्थानांतरण कोई नया विचार नहीं है। चीन में यह काम लिंगुआ नहर द्वारा 214 ईस्वी पूर्व में हुआ। मुगलकाल में बनी पश्चिमी यमुना व आगरा नहर इसका उदाहरण हैं। अमरीका के कैलिफोर्निया राज्य जल परियोजना एक विशाल परियोजना है, जिसमें 4 घनमीटर जल का स्थानांतरण होगा। अन्य देशों में ऐसी परियोजनाएं बनी हैं और बन रही हैं, इस देश में हाल में बनी व्यास-सतलुज सम्पर्क नहर, रामगंगा मोड़ नहर, कुरनूल, कुंडप्पा नहर, पराम्बिकुलम-अलियार नहर व पेरियार मोड़ नहर ऐसी ही परियोजनाएं हैं।

देश में समय-समय पर अंतरघाटी जल स्थानांतरण पर विचार होता रहा है। 1980 में भारत सरकार के जल संसाधन विभाग ने राष्ट्रीय प्ररिप्रेक्ष्य सूत्रबद्ध किया तथा इसके गहन अध्ययन के लिए 1982 में राष्ट्रीय जल विकास अभिकरण का गठन किया।

राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में यह योजना दो खंडों में हिमालय तथा प्रायद्वीप की नदियों के विकास के रूप में सोची गई है। हिमालय क्षेत्र में गंगा तथा ब्रह्मपुत्र की मुख्य सहायक नदियों पर भंडारण जलाशय तथा सम्पर्क नहरों के निर्माण से गंगा की पूर्वी सहायक नदियों का जल पश्चिम की ओर स्थानांतरित करने के साथ, ब्रह्मपुत्र और इसकी मुख्य सहायक नदियांें को गंगा से तथा गंगा को महानदी से जोड़ने का विचार है। प्रायद्वीप की योजना में महानदी-गोदावरी-कृष्णा-कावेरी सम्पर्क, मुम्बई के उत्तर तथा तापी के दक्षिण में पश्चिम की ओर बहने वाली नदियों को मोड़ना शामिल है। सर्वे और अनुसंधान के बाद राष्ट्रीय जल विकास अभिकरण ने हिमालय और प्रायद्वीप क्षेत्रों में क्रमशः 14 तथा 16 प्रस्तावित सम्पर्क नहरों को विस्तृत अध्ययन के लिए चुना है। यह उल्लेखनीय है कि मानस-संकोश-तीस्ता-गंगा (फरक्का) सम्पर्क नहर से ब्रह्मपुत्र घाटी की मानस तथा संकोश नदियों के अतिरिक्त जल से फरक्का पर गंगा के जल में वृद्धि करना है। प्रायद्वीप में स्वर्णरेखा और महानदी से गुजराती सम्पर्क नहर द्वारा कृष्णा, पेन्नार व कावेरी की जलाभाव वाली घाटियों में और अधिक जल का स्थानांतरण संभव बन पाता है। कोसी-घाघरा, गंडक-गंगा, घाघरा-यमुना, शारदा-यमुना में जलापूर्ति बढ़ाना तथा पश्चिम की ओर राजस्थान एवं साबरमती में और अधिक जल का स्थानांतरण करना है।

जिस घाटी से जल स्थानांतरित होता है, वहां लोग सोचते हैं कि कहीं उनके यहां जल की कमी न हो जाए। वस्तुतः अंतरघाटी जल स्थानांतरण का तो सिद्धांत ही है कि मूलधारी की आवश्यकता की पूर्ति करने के बाद ही जल दूसरी घाटी में जाएगा। यही नहीं, पर्यावरण सुरक्षा व नीचे की ओर रहने वाले लोगों की आवश्यकता की पूर्ति के बाद ही स्थानांतरण हेतु अतिरिक्त जल का आकलन किया जाएगा।

अंतरघाटी जल स्थानांतरण की परियोजना इस विशाल देश के विकास का महानतम प्रयास है। किंतु निहित स्वार्थ तथा राजनीति के चलते बिना औचित्य के जल संसाधन विकास का विरोध चिंता का कारण है। काल्पनिक आशंकाओं के नाम पर अनर्गल बातें हो रही हैं। कभी तो बड़ी लागत, जो 5 लाख 60 हजार करोड़ रुपये आंकी गई है, कहां से आएगी, इसका हौआ खड़ा किया जाता है, तो कभी विस्थापन का बवाल और पर्यावरण का सवाल किया जाता है। कहा जाता है, यह परियोजना वन विनाश और जल विवाद की स्थिति पैदा करेगी। लागत की व्यवस्था जब सरकार को करनी है और वह इसके लिए तैयार है तो और लोग चिंता में दुबले क्यों हो रहे हैं?

पर्यावरण की सुरक्षा तो इस परियोजना का अंग है और इसकी चिंता करना बेकार है। असल विस्थापन तो गरीबी के कारण होता है और जल संसाधन विकास से गरीबी मिटती है और विस्थापन कम होता है। कोई भी कार्रवाई आशंकाजनित न होकर गुण-दोष पर आधारित होनी चाहिए।

भारत सरकार ने इसे लगभग एक दशक में पूरा करने के उद्देश्य से टास्क फोर्स का गठन कर पहला कारगर कदम उठाया है। इससे बाढ़ और सुखाड़ से राहत मिलेगी, सिंचाई क्षमता बढ़ेगी, जिससे हम भविष्य में खाद्यान्न के मामले में आत्मनिर्भर रह सकेंगे, नौपरिवहन द्वारा परिवहन के वैकल्पिक साधन उपलब्ध होंगे। अधिक ऊर्जा का उत्पादन हो सकेगा, रोजगार के विशाल अवसर पैदा होंगे और सकल घरेलू उत्पाद में भारी वृद्धि होगी। सबसे बढ़कर इससे राष्ट्रीय एकीकरण बढ़ेगा। हमें कठिनाई या हानि के भय से फायदे से मुंह मोड़ने की भूल कदापि नहीं करनी चाहिए।
प्रो. सी पी सिन्हा, पूर्व प्राध्यापक, आईआईटी रुड़की

भारतीय नदी घाटी परियोजनायें और नेपाल


हम इस आयोजन में भाग लेते हुए काफी खुश हैं। हम नेपाल से 6 प्रतिनिधि इस बैठक में भाग लेने आये हैं। मैं सबसे पहले प्रो. सिन्हा की बातों पर अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करूंगा।

मैं प्रो. सिन्हा को सबसे पहले धन्यवाद देना चाहूंगा, जिन्होंने हमें नदियों को जोड़ने के प्रस्ताव के संदर्भ में भारत में उपलब्ध जल, जल की जरूरत और भारत के जल संसाधन विकास संबंधी जरूरतों की जरूरी सूचनाओं से अवगत करवाया है।

पर, मैं इस बात से काफी नाराज हूं कि उन्होंने अपने वक्तव्य में यह नहीं बतलाया कि इस परियोजना का पड़ोसी नेपाल और बांग्लादेश पर क्या प्रभाव पड़ेगा।

मैं यहां पानी या भारत के पानी पर कोई चर्चा नहीं करूंगा, क्योंकि भारत का यह पानी हिमालय का पानी है, जो चीन, तिब्बत और नेपाल से यहां आता है, लेकिन प्रो. सिन्हा ने यह जो कहा है कि यह भारत का पानी है, गलत कहा है। भारत को जल संसाधन विकास संबंधी किसी भी योजना पर फैसला लेने से पहले नेपाल व बांग्लादेश जैसे पड़ोसियों से राय मशविरा करके आगे बढ़ना चाहिए।

पिछले पांच दशकों में भारत में जिस प्रकार जल-प्रबंधन हुआ है, उससे अब यह प्रमाणित हो चुका है कि भारत जल के सही प्रबंधन के मामले में सक्षम नहीं है।

पांच दशक पहले कोसी नदी पर एक बराज, दो तटबंध और हजारों किलोमीटर लम्बी सिंचाई नहरों का निर्माण कर बिहार के कोसी क्षेत्र में बाढ़ निवारण और सिंचाई हेतु जल प्रबंधन किया गया था, लेकिन क्या हुआ, यह अब किसी से छुपा नहीं है इससे जो विनाश हुआ, उसका शिकार नेपाल और बिहार के कोसी क्षेत्र के निवासी हुए।

यहां जो हमारे साथी हैं, वे महाकाली और गंडक बेसिन से आये हैं। वहां भी ऐसे ही विनाश की तैयारी का दृश्य चल रहा है। वे इन बातों को मुझसे ज्यादा बेहतर ढंग से बतायेंगे।

भारत और नेपाल का रिश्ता बेहतर ढंग से विकसित नहीं हो पा रहा है। पानी के कारण दोनों के बीच मतभेद है, इसे सुलझाना चाहिए। पानी की कोई भी परियोजना बनाने से पहले भारत को नेपाल और बांग्लादेश से मशविरा कर के सहमत करना चाहिए। भारत बिना संवाद के पानी की परियोजनाएं बनाता है। हम नेपाली लोग भारतीयों से घृणा नहीं करते। पर, दिल्ली के जो भारतीय नौकरशाह हैं, उनसे हम नफरत करते हैं। हम इनसे भी बेहतर रिश्ता बनाना चाहते हैं, पर जल परियोजना के संदर्भ में इनका रूढ़िवादी दृष्टिकोण अब तक बाधा बना हुआ है। हमें लगता है कि भारत हमें धोखा दे रहा है, क्योंकि बिना हमसे पूछे भारत-नेपाल सीमा के पास कई नदियों पर कई बराजों की शृंखलाएं बनायी जा रही हैं। इन निर्माणों के कारण हमारे सैकड़ों गांव डूब क्षेत्र बन गये हैं। वहां बाढ़ और जल जमाव के कारण हजारों लोग विस्थापन की त्रासदी झेलने पर मजबूर हो गये हैं। इसके बावजूद भारत न तो पीड़ित आबादी के लिए कोई पुनर्वास कार्य चला रहा है और न ही किसी प्रकार का सहाय्य व बचाव कार्य चला रहा है। इस एकतरफ कार्यक्रम का हमारी आबादी पर काफी बुरा प्रभाव पड़ रहा है।

हमें लगता है कि भारत को अपने पड़ोसियों से लोकतांत्रिक तरीके से व्यवहार करना सीखना चाहिए। पानी की परियोजनाओं के संदर्भ में भारत अकेले कोई बेहतर परिणाम हासिल नहीं कर सकता। उसे अपने पड़ोसियों, खासकर नेपाल के साथ मिल बैठकर विचार-विमर्श करना चाहिए, तभी बेहतर समाधान हासिल किया जा सकता है। पिछले कुछ वर्षों का यह अनुभव रहा है कि भारत अकेले ही सब कुछ करना चाहता है। वह नेपाल और बांग्लादेश को शामिल कर पानी की समस्याओं का समाधान नहीं करना चाहता। पर भारत सरकार की यह प्रवृत्ति गलत है। उसे अपने पड़ोसियों के साथ द्विपक्षीय वार्ता करके समस्याओं का समाधान निकालना चाहिए।

अभी प्रो. सिन्हा ने कहा कि पानी सामुदायिक मिल्कियत की वस्तु है। उस पर किसी एक का हक नहीं होता है। तो, हम प्रो. सिन्हा से यह पूछना चाहते हैं कि भारत में जो पानी बहता है वह पहले नेपाल का है। फिर, भारत नेपाल से बिना पूछे उस पानी का मनमाना उपयोग कैसे करता है। प्रो. सिन्हा के पास इस प्रश्न का क्या जवाब है?

भारत की पिछली और वर्तमान सभी प्रस्तावित जल परियोजनाओं में नेपाल का सहमत-सहभाग शामिल नहीं है। नेपाल भारत के इस रवैये से खुश नहीं है। भारत को नेपाल के सहभाग पर गंभीरता से विचार करना चाहिए। भारत को नदी के ऊपरी और निचले दोनों इलाकों में रहने वाले लोगों के हितों का ख्याल रखना चाहिए।

हिमालय से उतरने वाली नदियों के पानी का नेपाल, भरत और बांग्लादेश तीनों तटवासी देश समान रूप से हिस्सेदार हैं। लेकिन भारत इन नदियों के पानी के उपयोग के मामले में नेपाल और बांग्लादेश के हितों की उपेक्षा करता रहा है। भारत के इस रुख के मद्देनजर नेपाल अगर भारत के हितों की उपेक्षा करे तो भारत मुश्किल में पड़ सकता है। भारत की तरह अगर नेपाल भी अकेले-अकेले अपनी नदियों के पानी को लेकर अपने देश की पेयजल, सिंचाई और पनबिजली की जरूरतों को पूरा करने के लिए नदियों को जोड़ने जैसी कोई 50 या 100 साल की योजना बनाये, तो भारत की नदी जोड़ने जैसी जल परियोजनाओं के लिए उनकी नदियों में पानी ही नहीं बचेगा।

कल और आज की बातें सुनकर लग रहा है कि भारत में जो नदियों को जोड़ने की योजना बन रही है, वह एक सपना है।

यहां की नदियों में जो पानी आता है, उसका स्रोत चीन, तिब्बत और नेपाल हैं, न कि बिहार या उत्तर प्रदेश। नेपाल, भारत और बांग्लादेश इस पानी के उपयोगकर्ता हैं। अतः हम तीनों देशों को इस क्षेत्रीय परिदृष्य को केन्द्र में रखकर ही पानी की परियोजनाओं को निरूपित करना चाहिए।

नेपाल में पेयजल, सिंचाई और पनबिजली उत्पादन की 50 से 100 वर्षों की अपनी योजनाएं हैं, लेकिन भारत जिस प्रकार से नेपाल को उपेक्षित कर नदी जोड़ने की योजना बना रहा है, उसको लेकर नेपाल में काफी नाराजगी है। भारत की अधिसंख्या आम जनता भी नदी जोड़ने की भावी परियोजना से खुश नहीं दिखती। भारत सरकार अपनी नदियों को जोड़ने की योजना को कैसे तर्कसंगत और सही बता सकती है, जबकि वह अपने जल संसाधन विभाग के पूर्व सचिव रामास्वामी अय्यर और सुश्री मेधा पाटकर जैसे सामाजिक कार्यकर्ताओं को संतुष्ट नहीं कर पा रही है।

भारत के विभिन्न इलाकों में कई सामाजिक संगठन, जन संगठन और व्यक्ति पानी से जुड़े मुद्दों व परियोजनाओं के खिलाफ वर्षों से लड़ रहे हैं। वे भारत सरकार को देश में पानी की जरूरत को पूरा करने की बेहतर वैकल्पिक योजनाएं सुझा सकते हैं। मैं भारत और नेपाल की दोनों सरकारों को बेहतर तरीके से जानता हूं। दोनों सरकारें समस्याओं का निदान चुनने में लोकतांत्रिक प्रक्रिया अपनाने की बातें तो खूब करती हैं, पर अंतिम निर्णय जनता की राय को उपेक्षित रखकर करती हैं।

हम दोनों देशों की संस्कृति में पानी बेचना गुनाह है, पाप है। पर, हमारी सरकारें आज बहुद्देशीय कम्पनियों को नदी और पानी बेच रही हैं। सरकारों के ऐसे जनविरोधी और संस्कृति विरोधी कदमों के खिलाफ जनांदोलनों, जनसंगठनों और सक्रिय कर्मियों को एकजुट होना चाहिए। आज समय बदल गया है। सरकारों को यह मानना चाहिए कि बिना जनता को साथ लिए वह अकेले किसी भी समस्या का समाधान नहीं कर सकतीं।

परियोजनाओं के निरूपण में जनता को अलग-थलग करने के कारण ही आज सरकारों को कोसी परियोजना, महाकाली परियोजना, लक्ष्मणपुर बराज परियोजना, नर्मदा परियोजना, फरक्का परियोजना जैसी सैकड़ों परियोजनाओं में जनता का विरोध झेलना पड़ रहा है। इस कारण हम जैसे तीनों देशों के सक्रियकर्मियों का आज यह चुनौतीपूर्ण दायित्व है कि भारत, नेपाल और बांग्लादेश के क्षेत्रीय परिप्रेक्ष्य में टिकाऊ व समतापूर्ण जल संसाधन विकास का वैकल्पिक समाधान तलाशने के लिए अध्ययन, संगठन और संघर्ष का कोई साझा मंच विकसित करें।

ऐसी जनपहलों से ही हम तीनों देशों के अवाम के बीच खुशहाली आ सकती है। इसके लिए इस साझा मंच को ‘विश्व बांध आयोग’ की अनुशंसाओं में जो मार्ग-निर्देश है वह हम तीनों देशों के जल संसाधन विकास की दृष्टि से सबसे बेहतर निर्देश हैं। इसे अपनाने पर जनजीवन की खुशहाली के साथ-साथ हम तीनों देशों के आपसी रिश्ते भी बेहतर बनेंगे।
गोपाल शिवाकोटे ‘चिन्तन’, जल एवं ऊर्जा उपभोक्ता महासंघ, नेपाल

फरक्का बराज और बांग्लादेश


मैं यहां कुछ कहने नहीं आया हूं। मैं यहां सुनने आया हूं। भारत की रिवरलिंकिंग योजना के बारे में सुनने आया हूं। प्रो. सिन्हा ने यहां इस योजना के बारे में विस्तार से बताया, उनकी बातें सुनकर इस योजना के बारे में मेरा ज्ञानवर्द्धन हुआ। मैं बांग्लादेश का काफी सामान्य कार्यकर्ता हूं। मैं यहां अपने देश में फरक्का बांध के पश्चात प्रभावों पर थोड़ी चर्चा करूंगा। फरक्का बांध, कोलकाता बंदरगाह को पर्याप्त पानी उपलब्ध करवा कर उसे बचाने के लिए बनाया गया था। पर, यह बांध बनाकर भी उस बंदरगाह को नहीं बचाया जा सका। हां, इस बांध के बनने के बाद बांग्लादेश को कई विकृतियों का सामना जरूर करना पड़ा। इस बराज की वजह से बांग्लादेश के कुष्टिया सहित 7-8 जिलों में जलस्तर काफी नीचे चला गया है। इस कारण यहां के पेड़-पौधों पर काफी बुरा असर पड़ा है। जल स्तर नीचे चले जाने के कारण जमीन का लवण काफी नीचे चला गया है। सुंदरी पेड़, जिसकी यहां बहुलता थी, जिसके कारण सुंदर वन प्रसिद्ध है, उसका सबसे अधिक विनाश हुआ है। यह पेड़ अब खोज का विषय बन गया है। मछलियों की कई महत्वपूर्ण प्रजाति का भी विनाश हुआ है।

इसके अलावा गंगा के स्वाभाविक प्रवाह में बाधा उत्पन्न करने के कारण पूरी बायोडायवर्सिटी पर काफी विनाशकारी प्रभाव पड़ा है। इसी कारण प्रवासी पक्षियों का आवागमन भी बाधित हुआ है। उनकी आवक अब काफी घट गई है। मछलियों का प्रजनन स्थल (ब्रीडिंग ग्राउंड) भी नष्ट हुआ है। बांग्लादेश जैसे नदी प्रधान देश में अब कई नदियां सूख गयी हैं। यह सब 1960 के दशक में फरक्का बांध बनने के बाद हुआ है।

इस वक्त, भारत में नदियों को जोड़ने की जो योजना तैयार की जा रही है उसका सर्वाधिक प्रतिकूल प्रभाव बांग्लादेश के जन-जीवन पर पड़ेगा। अब तक जितना विनाश हुआ है वह बढ़कर सम्पूर्ण विनाश में बदल जायेगा, क्योंकि गंगा नदी से जो थोड़ा पानी हमें मिलता है, वह सब इस योजना के पूरा होने पर दक्षिण भारत भेज दिया जायेगा। इस योजना के पूरी होने पर पूर्वी बांग्लादेश की साढ़े सात करोड़ आबादी के जीवनयापन का मुख्य साधन वहां की खेती की जमीनें रेगिस्तान बन जायेंगी।

भारत और बांग्लादेश के बीच अगर कोई द्वंद्व है तो सिर्फ पानी को लेकर है। इसके अलावा कोई दूसरा मतभेद हम दोनों के बीच नहीं है। बांग्लादेश के स्वतंत्र अस्तित्व के पूर्व से चला आ रहा यह विवाद हमारे देशवासियों को देश की आजादी के बाद समाप्त हो जाने की उम्मीद थी, क्योंकि हम भारत के सक्रिय सहयोग से ही आजाद हुए थे।

ल्ेकिन हमारी अपेक्षा के अनुरूप इस विवाद का समाधान नहीं हुआ। और अब भारत में नदियों को जोड़ने की परियोजना शुरू होने से हमारी अपेक्षा के बाकी आसार भी समाप्त होते दिख रहे हैं, क्योंकि यह परियोजना नई उलझनें पैदा करने वाला है। इसलिए पानी को लेकर भारत, नेपाल और बांग्लादेश के बीच जो विवाद है, या संभावित है, उसे हम सिर्फ ‘त्रिपक्षीय वार्ता’ के प्रयासों से समाप्त कर सकते हैं। यह पहल सरकार के स्तर पर हो, न हो, पर जनता और सक्रिय कर्मियों की यह त्रिपक्षीय वार्ता-पहल शीघ्र शुरू करनी चाहिए।
शाहिदुल इस्लाम, उत्तरान, ताला, सतखीरा, बांग्लादेश

विनाशकारी है नदी संयोगीकरण


विषय पर बात रखने से पूर्व मैं यहां नेपाल और बांग्लादेश से आये प्रतिनिधि सक्रियकर्मियों के कुछ आरोपों व संदेहों के बारे में कुछ बातें रखना चाहता हूं, क्योंकि इन लोगों ने अपने वक्तव्य में भारत को अपने पड़ोसियों के प्रति असंवेदनशील माना है। यह बात सच है कि हमारे आपसी संबंधों के मुद्दे काफी संश्लिष्ट हैं। इसलिए हम अपने पड़ोसियों से बेहतर से बेहतर रिश्ता बनाने के लिए कई स्तर पर काम करते हें। मैं खुद भी इन रिश्तों का ताना-बाना बेहतर बनाने के लिए ‘सेंटर फाॅर पाॅलिसी रिसर्च’ नामक संस्था के तहत काम करता हूं।

भारत-नेपाल के बीच पिछली परियोजनाओं के मद्देनजर हमने जो सीख हासिल की उसे महाकाली परियोजना शुरू करने के दौरान लागू किया। भारत-नेपाल के बीच महाकाली-संधि ऐसा ही प्रयास है। नेपाल ने कहा कि यह संधि तब ही लागू होगी, जब यह हमारी संसद में दो-तिहाई मत से पारित होगी। हमने नेपाल की यह शर्त मानी। महाकाली संधि नेपाल की संसद में दो-तिहाई मतों से पारित हुई। इस परियोजना को लेकर अगर आज भी कतिपय समस्यायें हैं, तो सिर्फ भारत इसके लिए दोषी नहीं है। फिर भी, वर्तमान समस्याओं के समाधान के लिए पुनः मिल बैठकर विचार-विमर्श करने का रास्ता खुला है।

भारत और बांग्लादेश के बीच गंगा के पानी के बंटवारे को लेकर दो समझौते हुए थे, जो 1983-84 तक चला। फिर वह एक एक्सटेंशन पाकर 1988 तक चला। 1988 से 1996 तक दोनों ओर से वार्ता के दौरान कोई रजामंदी नहीं हो पायीं फिर, 1996 में एक समझौता हुआ। फरक्का के पानी का यही समझौता आज भी लागू है कि चूंकि 1996 से अब तक दोनों देशों की ओर से समझौते के पुनरीक्षण का कोई प्रस्ताव नहीं आया है, इसलिए यह माना जाता है कि सब कुछ ठीक-ठाक चल रहा है। भारत और बांग्लादेश के बीच सिर्फ पानी ही मुद्दा नहीं है। व्यापार आदि भी मुद्दा है। इन सभी मुद्दों पर दोनों सरकारों में समय-समय पर चर्चा-परिचर्चा होती रहती है। इसके अलावा दोनों देशों की संस्थाएं भी आपस में चर्चा कर मुद्दे सुलझाती रहती हैं। इसलिए बहुत ज्यादा निराश होने की जरूरत नहीं है।

(पूर्व वक्ताओं के वक्तव्यों पर उपरोक्त टिप्पणी व्यक्त करने के बाद श्री अय्यर साहब ने नदी जोड़ने के विषय पर अपनी बातें रखीं।)

सबसे पहले तो हमें यह तय करना होगा कि यह जो नदियों को जोड़ने की परियोजना है, उसकी भारत में कोई जरूरत है क्या? अगर है तो उसका पड़ोसी देशों पर क्या असर पड़ेगा? अगर हमारी किसी संरचना से नेपाल पर असर पड़ता है तो हमें नेपाल से बात करनी चाहिए। अगर हमारी किसी पहल से बांग्लादेश की नदियां सूखने लगती हैं तो बेशक हमें बांग्लादेश से बात करनी चाहिए। लेकिन, भारत की नदियों को जोड़ने की परियोजना आंतरिक है। इसके लिए ही में किसी से बात करने की जरूरत नहीं है। यों व्यक्तिगत तौर पर मैं इस योजना का पक्षधर नहीं हूं। नदियों को जोड़ने की परियोजना को कुछ लोग बहुत अच्छा कहते हैं, तो फिर इसका इतने बड़े पैमाने पर विरोध क्यों हो रहा है? भारत सरकार के जल संसाधन विभाग के पूर्व सचिव, केन्द्रीय जल आयोग के अधिकारी और विश्वविद्यालय के कुलपति जैसे कई महत्वपूर्ण व्यक्ति भी इस परिकल्पना को सही नहीं मानते हैं।

डाॅ. केएल राव ने सबसे पहले देश की नदियों को जोड़ने का प्रस्ताव देश के सामने रखा था। फिर, दस्तूर साहब ने गारलैण्ड कैनाल का प्रस्ताव रखा।

ये दोनों प्रस्ताव 70 के दशक में खारिज कर दिए गए। नेशनल वाटर डेवलपमेंट अथाॅरिटी नामक एक एजेंसी देश की नदियों से जलापूर्ति की संभावनाओं का अध्ययन करती रही, लेकिन उसने कोई खास रिपोर्ट तैयार नहीं की। सिर्फ कुछ सुझाव दिया। वे लोग किसी निश्चित मत पर भी नहीं पहुंचे। इस नदी को जोड़ने की परिकल्पना की कभी किसी पंचवर्षीय योजना में भी चर्चा नहीं हुई। हाल में किसी साहब ने सुप्रीम कोर्ट में एक मुकदमा दायर किया और कोर्ट ने भारत सरकार को नदियों को जोड़ने का निर्देश दे दिया।

नदियों को जोड़ने का यह मसला कोई प्रोजेक्ट नहीं, काॅन्सेप्ट है, क्योंकि कोई भी प्रोजेक्ट जब तैयार होता है, तो उसका विस्तृत अध्ययन होता है। उसके अलग-अलग मुद्दों पर विचार होता है। कई अलग-अलग विभाग की अनुमति हासिल करनी पड़ती है। किसी भी प्रोजेक्ट को अंतिम रूप देने के लिए काफी लम्बी प्रक्रिया से गुजरना पड़ता है। पूरी प्रक्रिया की परीक्षा होती है। ऐसी परियोजनाओं को वन विभाग, पर्यावरण विभाग जैसे कई विभागों से मंजूरी लेनी पड़ती है। लेकिन, इस मामले में कोर्ट ने आॅर्डर दिया और सारी प्रक्रिया छोटी हो गयी।

पानी देश मंे हर जगह समान रूप से फैला हुआ नहीं है, कहीं ज्यादा है, तो कहीं कम है। ऐसे हालात में पानी की अधिकता वाले इलाके से पानी के अभाव वाले इलाके में पानी भेजने की परिकल्पना लुभावनी लगती है। तब सब लोग कहते हैं कि ऐसा होना ही चाहिए। दक्षिण भारत में उत्तर भारत का पानी पहुंचने का अभी से इंतजार होने लगा है। लोगों की मानसिकताएं बदल गयी हैं।

लगभग एक माह पूर्व देश के 58 बुद्धिजीवियों जिनमें वैज्ञानिक, समाज वैज्ञानिक, अर्थशास्त्री, राजनीति शास्त्री, सामाजिक कार्यकर्ता और गैर सरकारी संगठनों के लोग शामिल हैं, ने इस परियोजना का विरोध करते हुए देश के प्रधानमंत्री के नाम एक ज्ञापन तैयार कर उन्हें भेजा है। इस दस्तावेज में उन्होंने देश के प्रधानमंत्री को कहा है कि देश में पानी की जरूरत पूरी करने के लिए ऐसी परियोजना का देश के पर्यावरण पर काफी बुरा और गम्भीर असर पड़ेगा और फिर इस परियोजना पर जो काफी बड़ी राशि खर्च होगी उसके एवज में देश के विकास के कई जरूरी कार्यक्रम स्थगित हो जाएंगे। इस दस्तावेज में उन्होंने आगे यह कहा है कि इस परियोजना के पक्ष में जो तीन आधार-तर्क दिये गये हैं कि इस परियोजना से बाढ़ समस्या का निदान होगा, बिजली की जरूरत पूरी करने के लिए पनबिजली का निर्माण होगा और सुखाड़ निवारण के लिए सिंचाई का प्रबंध होगा, सब विवाद के विषय हैं।

बाढ़ समस्या के निदान के लिए प्रथम पंचवर्षीय योजना से अब तक देश में कई बड़ी परियोजनाएं बनायी गयीं, पर ये सभी परियोजनाएं बाढ़ समस्या के निदान का लक्ष्य हासिल करने में विफल रही हैं। अतएव नदियों को जोड़ने की यह परियोजना भी बाढ़ समस्या के निदान का कोई ठोस भौतिक आधार नहीं प्रस्तुत करती है। इसके अलावा पनबिजली उत्पादन और बाढ़ निवारण दोनों के लिए नदियों को जोड़ने की कोई आवश्यकता नहीं है। देश के वैज्ञानिक भी इस संदर्भ में कोई निश्चित मत नहीं रखते। अधिकांश लोग यह मानते हैं कि इन दो कामों के लिए नदियों को जोड़ने की कोई आवश्यकता नहीं है।

नदियों को जोड़कर पनबिजली उत्पादन करने के लिए या तो नदियों का पानी लिफ्ट करके एक नदी से दूसरी नदी में ले जाया जायेगा, या फिर कोई सुरंग बनायी जायेगी या फिर एक बड़ा नाला खोदकर नदियों का पानी एक जगह से दूसरी जगह ले जाया जायेगा। इस काम में काफी बिजली खर्च होगी। यह खर्च होने वाली बिजली और इस परियोजना से उत्पादित की जाने वाली 30,000 मेगावाट बिजली का आपसी अनुपात कितना होगा, यह स्पष्ट नहीं किया गया है। मुझे यह शक है कि उत्पादित पनबिजली की तुलना में जल अंतरण पर खर्च की जाने वाली बिजली का परिमाण इतना अधिक होगा कि देश के दूसरे विकास कार्यों के लिए इस परियोजना से उत्पादित पनबिजली में से ज्यादा बिजली नहीं बचेगी। इस परियोजना के लाभ और नुकसान के संदर्भ में ऐसे कई विन्दु अभी अस्पष्ट हैं। मेरा यह कहना है कि इस प्रकार के अस्पष्ट चित्र के तथ्यों को देश की जनता के सामने पूरी स्पष्टता के साथ रखा जाए, ताकि इस परियोजना के लाभ और नुकसान पर तर्कसंगत विचार-विमर्श किया जा सके।

इस परियोजना का जो चित्र अभी स्पष्ट है, वह यह है कि हम एक नदी का पानी दूसरी नदी में डालेंगे। यानी, जहां पहले से पानी है हम वहीं पानी पहुंचायेंगे। अर्थात् जहां पानी नहीं है वहां पानी नहीं पहुंचायेंगे। ऐसी दशा में सूखा निवारण का दावा कैसे पूरा होगा? हमारे देश के कई इलाकों में हाल-साल में कई ऐसे काम हुए हैं, जिसके तहत स्थानीय जल संसाधनों से ही जल की स्थानीय जरूरतों को सफलतापूर्वक पूरा किया गया है। इनमें महाराष्ट्र के श्री अण्णा हजारे और राजस्थान के श्री राजेन्द्र सिंह का नाम-काम आज सारा देश जानता है। इन लोगों ने जो प्रयोग किया, उसके परिणामस्वरूप तीन-चार वर्षों के लगातार सुखाड़ के बाद भी वहां के खेतों में नमी बरकरार रही और कृषकों ने अपनी फसल उगायी। इस वक्त, दिल्ली के एक हिस्से में पानी की स्थानीय जरूरत को स्थानीय जल संसाधन से पूरा करने का काम शुरू हुआ है। नजफगढ़ नाला का पुनरुद्धार किया जा रहा है। इसके साथ-साथ ‘रूफ टाप वाटर हार्वेस्टिंग’ का काम भी बड़े पैमाने पर किया जा रहा है।

अतएव, मेरा यह मानना है कि देश में पानी की कमी वाले इलाकों में स्थानीय समाज हमेशा अपनी पानी की जरूरत पूरी करने के लिए जागरूक रहा है। इन दिनों देश में ऐसे प्रयासों को बढ़ावा देने का जनमत भी बना है। प्रधानमंत्री ने भी अपने कई भाषणों में जल-संरक्षण के ऐसे प्रयासों को बढ़ावा देने के लिए राष्ट्रीय अभियान चलाने की बात कही है, लेकिन दुर्भाग्यपूर्ण बात यह है कि नदियों को जोड़ने के लिए बनाये गये टास्क फोर्स के काम में जल-संरक्षण के प्रयासों की संभावनओं को तलाशने के कार्य को शामिल नहीं किया गया है। यह टास्क फोर्स सिर्फ नदियों को जोड़ने की संभावना तलाशने के लिए गठित किया गया है। इस टास्क फोर्स को भंग करने की मांग उठनी चाहिए।

कर्नाटक और तमिलनाडु के बीच कावेरी नदी के जल बंटवारे के जिस जल विवाद के कारण देश की नदियों जोड़ने की बात उठायी गयी है, उन्हीं दोनों राज्यों में पिछले कुछ सालों में स्थानीय जल संकट के निवारण के लिए किसानों और विशेषज्ञों की कई बैठकें हुई हैं। इन बैठकों में स्थानीय जल संकट के स्थानीय निवारणों पर चर्चाएं हुई हैं, जिनमें यह बात उभरकर सामने आयी है कि जल संरक्षण के स्थानीय प्रयासों को मजबूत करना चाहिए और कम सिंचाई वाली फसलों की खेती अपनानी चाहिए, क्योंकि दूसरे इलाकों से पानी आयात करने पर कई दूसरे गंभीर दुष्परिणामों का सामना करना पड़ सकता है।

पानी की कमी और स्थानीय जल-संरक्षण के विषय पर चीन और जापान के कृषकों व विशेषज्ञों के साथ भारत के लोगों की एक बैठक पिछले दिनों दिल्ली में हुई है, जिसमें स्थानीय जल-संरक्षण, कम पानी की खेती और कम पानी वाली फसलों पर चर्चा हुई। इस बैठक में चीन और जापान के लोगों ने उपरोक्त विषय के अपने अनुभव भारत के लोगों को बताए। इस बैठक में यह तथ्य भी उभरकर सामने आया कि भारत अपनी धान जैसी फसलों की खेती में 5 हजार क्यूबिक मीटर पानी का इस्तेमाल करता है, जबकि चीन 2.75 हजार क्यूबिक मीटर पानी का उपयोग करता है। इस बैठक में पानी की उपलब्धता के अनुरूप फसल चक्र अपनाने पर भी चर्चा हुई। जल की अधिकता वाले इलाके में जल की कमी वाले इलाकों मंे पानी आयात करने के काम को इस बैठक में गंभीर दुष्परिणामों वाला बताया गया।

राजस्थान में इंदिरा कैनाल बनाने, उसकी मार्फत पानी ले जाने और उससे वहां तथाकथित हरियाली-खुशहाली पैदा करने का बड़ा गुणगान किया जाता है। इस संदर्भ में सबसे पहले तो यह सवाल उठता है कि हम राजस्थान की मरुभूमि में पानी क्यों ले जायें, जबकि राजस्थान का रेगिस्तान प्रकृति की देन है। वहां का जीवन-चक्र और फसल चक्र पानी वाले इलाके से सर्वथा भिन्न है। इंदिरा नहर से जब वहां पानी पहुंचा, तब हम वहां पानी वाली धान जैसी फसल ले गये और फिर वहां के लोगों को धान की खेती की विधि सिखायी। इस सब के कारण वहां के जन-जीवन और पर्यावरण में जो उथल-पुथल हुई, उसके कारण वहां जल-जमाव की समस्या पैदा हुई, वहां की अपनी टिकाऊ खेती नष्ट हुई और गरीबी के साथ-साथ सामाजिक तनाव भी पैदा हुआ।

नदियों को जोड़ने की इस परियोजना में करीब 30 छोटे-बड़े लिंक बनाने की बात कही जा रही है। इन सभी जोड़ों को अलग-अलग तरीके से बनाने की बात कही गई है, लेकिन मेरा मानना है कि नदियां कोई कृत्रिम पाइपलाइन नहीं, जिसे जहां चाहे मोड़ दिया जाये और जो जोड़ दिया जाये। हर नदी अलग-अलग प्राकृतिक व सांस्कृतिक धारा है जिसे जोड़-मोड़कर जिन्दा रखना असंभव ही नहीं विनाशकारी भी है।

अलग-अलग नदियों पर अलग-अलग राज्यों के अपने अधिकार हैं, समझौते हैं। उड़ीसा की महानदी का पानी आंध्रप्रदेश भेजा जाना है। पर, वहां की सरकार का कहना है कि महानदी में राज्य के उपयोग से अधिक पानी नहीं है, इसलिए वे इस नदी का पानी किसी और राज्य में नहीं भेजेंगे। आंध्रप्रदेश के मुख्यमंत्री श्री चंद्रबाबू नायडू दूसरे राज्यों की नदियों का पानी तो लेंगे, पर अपनी गोदावरी नदी का पानी किसी और राज्य में भेजने के पक्षधर नहीं हैं। नदियों को जोड़ने की परियोजना के कार्यान्वयन के दौरान राज्यों के बीच इस प्रकार के बहुत सारे मतभेद उभरने की आशंका है। अधिकांश राज्य दूसरे राज्यों से पानी तो सहर्ष लेंगे, लेकिन जब अपना पानी बांटने की नौबत आयेगी तो सभी राज्य पानी देने से इनकार करेंगे और तरह-तरह के टंटे खड़े करेंगे। नदियों को जोड़ने की परिकल्पना में अब तक जो प्रावधान है उसके तहत पानी के बदले पैसे देने की जगह यह काम रजामंदी से होगा। इस परियोजना के तहत अगर हम पड़ोसी देशों की नदियों का पानी चाहिए तो सबसे पहले नेपाल से बात करनी होगी। अगर हमें मानस नदी का पानी चाहिए तो हमें भूटान से बात करनी होगी और यदि हमें गंगा का पानी चाहिए तो हमें बांग्लादेश से बात करनी होगी। ठीक है कि भारत और बांग्लादेश के बीच जो पूर्व समझौता है उसके कारण गंगा का ज्यादा पानी नहीं मोड़ा जा सकेगा। पर, अगर गंगा से पानी नहीं मिलेगा तो पानी मिलेगा कहां से? इसके बारे में खुलासा होना चाहिए।

नदियों को जोड़ने की इस परिकल्पना को साकार करने पर अभी 5,60,000 करोड़ रुपये का जो खर्चा बताया जा रहा है, उस लागत के परियोजना पूरी होने तक दोगुना से दस गुना तक हो जाने की संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता। तब यह प्रश्न उठता है कि इतनी बड़ी राशि का इंतजाम कहां से किया जायेगा? अगर नही ंतो फिर, देश के विकास की अन्य परियोजनओं का काम रोक कर उनका पैसा इस परियोजना में नहीं लगाया जायेगा? इस प्रकार आगे आने वाले दिनों में काफी विकट स्थिति पैदा होगी।

हम लोगों ने इस परिकल्पना को लेकर जो दस्तावेज प्रधानमंत्री को भेजा है, उसका पावती-पत्र हम लोगों को मिला है, जिसमें उन्होंने कहा है कि इस मसले पर हम लोग टास्क फोर्स के अध्यक्ष श्री सुरेश प्रभु से बात करें। हम लोग सुरेश प्रभु से बात करने जायेंगे। पर, कुल मिलाकर यह मसला जितना आसान दिखता है, दरअसल यह मसला उतना आसान है नहीं।
रामास्वामी अय्यर, पूर्व सचिव, जल संसाधन विभाग, भारत सरकार, नई दिल्ली

बन्दी गंगा का भुक्तभोगी: पश्चिम बंगाल


हम ‘बंदी गंगा’ के भुक्तभोगी हैं। फरक्का बराज बनाकर गंगा की धारा के प्रवाह को रोका गया, लेकिन गंगा मुक्ति चाहती है। उसकी इस चाहत के कारण बराज के आस-पास के जिलों का जन-जीवन बाढ़, जल-जमाव और कटाव का शिकार हो गया है। इन त्रासदियों के कारण हमारा जन-जीवन लगातार विस्थापन और गरीबी का शिकार हो रहा है।

आज देश में नदियों को जोड़ने पर जो बातचीत हो रही है, वह हमारे लिए नयी नहीं है। गंगा नदी पर फरक्का बराज बनाकर उसके 109 गेट के माध्यम से गंगा के पानी को रोका गया और इस रोके गये पानी को 32 किलोमीटर का एक फीडर कैनाल बनाकर सूख रहे कोलकाता बंदरगाह को बचाने के लिए हुगली नदी तक ले जाया गया, लेकिन इस प्रयास के बावजूद कोलकाता बंदरगाह को सूखे से बचाया नहीं जा सका।

कोलकाता बंदरगाह को पर्याप्त पानी उपलब्ध करवाना फरक्का बराज परियोजना का मुख्य उद्देश्य था। इसके अलावा नहरी सिंचाई और पनबिजली उत्पादन की व्यवस्था भी इसके दूसरे उद्देश्यों में शामिल था। पश्चिम बंगाल के प्रसिद्ध अभियंता स्व. कपिल भट्टाचार्य ने इस परियोजना की परिकल्पना के समय ही इसके उद्देश्यों की सफलता पर अपने तर्कपूर्ण संदेहों से तत्कालीन समाज और सरकार को अवगत करवाया था। पर, उस समय उन्हें विकास विरोधी कहकर उनके सारे संदेहों को खारिज कर दिया गया था।

उनके उस समय के सारे संदेह आज फरक्का के इलाके में मूर्त-सच के रूप में विराजमान हैं। इस परियोजना के माध्यम से कोलकाता बंदरगाह को सूखने से नहीं बचा पाने के अलावा न तो नहरी सिंचाई उपलब्ध हो सकी है और न ही पनबिजली उत्पादन हो सका। पनबिजली की जगह यहां थर्मल बिजली बनायी जा रही है। इस उद्देश्यगत असफलता के अलावा पश्चिम बंगाल के मालदह और मुर्शिदाबाद जिलों में बाढ़ जल-जमाव और भूमि कटाव नयी समस्याएं बनकर उभरीं। मेरा अपना घर फरक्का बराज बनने के समय तक बाढ़मुक्त था, पर इसके निर्माण के पश्चात 6 बार कटाव का शिकार हो चुका है। मेरी तरह पश्चिम बंगाल के इन दोनों जिलों के लाखों लोग कटाव और विस्थापन के शिकार हैं। गंगा नदी का पेट और फरक्का बराज का आधा से अधिक गेट बालू-मिट्टी से भर गया है। इस कारण गंगा नदी फरक्का बराज वाले पूर्व प्रवाह धारा से अलग हटकर बहना चाहती है। गंगा नदी की धारा परिवर्तन की इस प्रवृत्ति के कारण हमारे दोनों जिलों में भूमि-कटाव का विनाश काफी बढ़ गया है।

फरक्का बराज के इस अनुभव के कारण हमारी स्पष्ट मान्यता है कि सरकारें सही जलप्रबंधन नहीं कर सकतीं। सिर्फ जनता के आपसी सहभाग से ही प्राकृतिक जलस्रोतों का सही जल-प्रबंधन सम्भव है। हम नदी-विज्ञानी नहीं हैं, पर हम नदी की प्राकृतिक धारा के साथ किये गये छेड़-छाड़ के दुष्परिणामों के अनुभवी भुक्तभोगी हैं। इस कारण हमने अपने क्षेत्र की विनाशकारी बाढ़, जल-जमाव और कटाव जैसी समस्याओं का समाधान तय किया है। इन समाधानों को लेकर हम राज्य के नीति निर्धारकों और राज्यपाल आदि से मिले हैं। नदियों को जोड़ने की परियोजना के संदर्भ में हम अपने इन्हीं अनुभवों के आधार पर देश के कर्णधारों को यह संदेश देना चाहते हैं कि अगर नदियों की प्राकृतिक धारा में किसी भी प्रकार की छेड़-छाड़ की जायेगी, तो नदियों देर-सवेर अपना प्रतिशोध अवश्य लेंगी।

हम यहां भारत, नेपाल और बांग्लादेश के सक्रिय समाजकर्मी गंगा घाटी में पानी और पानी की परियोजनाओं से उत्पन्न समस्याओं के समाधान के लिए एकजुट हुए हैं। यह एक अच्छी शुरुआत है। इस पहल को आगे जारी रखकर इसे किसी ठोस अभियान का स्वरूप दिया जाना चाहिए।
केदारनाथ मंडल, गंगा भांगन प्रतिरोध नागरिक समिति, पंचानन्दपुर, कलियाचक, मालदह, प. बंगाल

हम पश्चिम बंगाल के मालदह जिला के लोग फरक्का बराज के कारण कितनी बुरी तरह से प्रभावित हुए हैं, इसकी आप कल्पना नहीं कर सकते। हम नहीं जानते कि हमारे इलाके के 45 हजार परिवार के दो लाख लोग कहां चले गये। हम नहीं जानते कि हमारे इलाके का 15-16 हाई स्कूल, सौ से अधिक प्राथमिक व मध्य विद्यालय, आम और अन्य फलों के सैकड़ों बागान और काफी बड़े क्षेत्रफल के उपजाऊ खेत कहां चले गये। फरक्का बराज बनने से पहले हम जितने सम्पन्न थे, आज हम उससे कई गुना ज्यादा विपन्न हैं। अगर नदी संयोगीकरण परियोजना लागू हुई तो हमारा शेष अस्तित्व भी समाप्त हो जायेगा।
मोहम्मद तारिकुल इस्लाम, पंचानन्दपुर, मालदह, प. बंगाल

उत्तर बिहार की त्रासदी है नदी कुप्रबंधन


हम तीनों देश के सक्रिय समाजकर्मी यहां जिस विषय पर बातचीत करने के लिए उपस्थिति हुए हैं, वह दो अलग-अलग परिस्थितियों की उपज है। हमारी इस बैठक का विषय है ‘गंगा घाटी की समस्याएं और नदियों को जोड़ने की परियोजना’। देश की नदियों को जोड़ने की परियोजना जहां पानी की कम की समस्या से उपजी है वहीं गंगा घाटी की समस्याएं पानी और जलस्रोतों के कुप्रबंधन की उपज हैं। देश की नदियों को जोड़ना, गंगा घाटी में विगत पचास वर्षों के दौरान किये गये जल-कुप्रबंधन का ही देशव्यापी विस्तार होगा। इस परियोजना से पानी की कमी की समस्या का अंत नहीं होगा, बल्कि देश के कई इलाकों में पानी के कुप्रबंधन से पैदा होने वाली उत्तर बिहार जैसी नयी समस्यायें जन्म लेंगी।

गंगा घाटी की एक नदी है कोसी। मैं कोसी-कमला क्षेत्र का निवासी हूं। हमारे क्षेत्र में बाढ़-नियंत्रण, नहरी सिंचाई और पनबिजली उत्पादन के लिए कोसी परियोजना का निर्माण हुआ है। मैं जब स्कूल में पढ़ता था तब इस परियोजना के तहत बाढ़ नियंत्रण तटबंधों का निर्माण आरंभ हुआ था। उस समय मैंने भी तटबंध निर्माण में श्रमदान किया था। तब सरकार और राजनेताओं की ओर से इस परियोजना के बारे में अक्सर कहा जाता था कि इस परियोजना के पूरा होने पर अंग्रेजों की गुलामी से देश को मिली आजादी के बाद इस क्षेत्र को दूसरी आजादी मिलेगी। यानी इस क्षेत्र को बाढ़ से मुक्ति मिलेगी, खेतों को नहरी सिंचाई की सुनिश्चित सुविधा मिलेगी और जल-बिजली की जगमगाहट से हर घर इंजोर हो जायेगा।

लेकिन आज इस परियोजना को शुरू हुए लगभग 50 साल पूरा होने के बाद हम तब और अब की स्थितियों का मूल्यांकन करते हैं तो हम परियोजना पूर्व की स्थितियों को ही ज्यादा खुशहाल पाते हैं, क्योंकि उस समय बरसात के महीनों में हमारी नदियों में तीन-चार बार बाढ़ आती थी, आस-पास के इलाकों में थोड़ा फैलती थी, पर सप्ताह-दस दिन के अन्दर बाढ़ का सारा पानी नदी के प्रवाह में सिमटकर गंगा के रास्ते से समुद्र में पहुंच जाया करता था। यह बाढ़ हमारे लिये फायदेमंद थी। हर बाढ़ हमारे खेतों को नई, उर्वर मिट्टी देती थी और हमारे खेतों की प्राकृतिक सिंचाई होती थी। इस स्थिति के कारण बाढ़ के समय और बाढ़ के पश्चात हम वर्ष भर पूरी फसलें काटा करते थे। उस समय हमारी खेती में खाद और सिंचाई पर खर्च नहीं होता था। दस वर्षों में बड़ी बाढ़ आती थी। ऐसी बाढ़ में विनाश होता था। लेकिन बाढ़ के बाद उपजने वाली भरपूर फसलें बाढ़ से हुई क्षति की भरपायी कर देती थीं। नदियां मछलियों से भरी रहती थीं, जो हमें पौष्टिक आहार उपलब्ध कराती थीं। पशुओं के लिए पर्याप्त चारा उपलब्ध रहता था। गर्मी के महीनों में सूख-प्रवण इलाकों के पशुपालक अपने पशुओं को लेकर हमारे इलाके में आया करते थे।

किन्तु परियोजना बनने के बाद हमारी यह सुख-सुविधा छिन गई और हमें नई विपत्तियों व तकलीफों का सामना करना पड़ रहा है। बाढ़-नियंत्रण तटबंध बनने के बाद हमारे खेत-खलिहान, जो पहले बरसात समाप्त होते ही हमें उपजाऊ फसल लगाने के लिए आमंत्रित करते थे, अब 6 से 9 माह तक जल जमाव से भरे रहते हैं। हम इन उपजाऊ खेतों में कोई फसल नहीं लगा पाते। वर्ष में धान की तीन फसलें उपजाने वाले इस इलाके में अब सिर्फ रबी (गेहूं/मक्का) की एक फसल होती है। हम चावल बाजार से खरीद कर खाते हैं। हमारा हाट-बाजारों में दूसरे इलाकों से आया ‘परमल’ चावल बिकता है। बाढ़ का पानी अधिक समय तक रुका होने के कारण हमारे इलाके का अधिकांश गांव पानी से घिरा रहता है। इस स्थिति के कारण शौचालय व श्मशान के लिए भी सूखी, खाली जमीन हमें नहीं मिलती। हमारी औरतों व बच्चों को पेड़ या नाव पर चढ़कर शौच क्रिया से निवृत्त होना पड़ता है। इस कारण जान जाने का खतरा हमेशा बना रहता है। मृत व्यक्ति की लाश को मिट्टी की कोठी में गोईठों-उपलों के साथ नाव पर रखकर उनका अग्नि-संस्कार किया जाता है। पर्याप्त लकड़ी के अभाव के कारण इस प्रकार के दाह-संस्कार में शव पूरी तरह जल नहीं पाता है। तब मजबूरन अधजले शव को नाव से धकेल कर पानी में बहा दिया जाता है। इन अमानवीय स्थितियों के अलावा कुपोषण व कई जानलेवा बीमारियों ने हमारी पूरी आबदी को अपना स्थायी घर बना लिया है। इन बीमारियों में कालाजार, मलेरिया व जल-जनित बीमारियां प्रमुख हैं। दरभंगा जिले के कुशेश्वर स्थान इलाका में सिर्फ दर्जन भर गांव में पिछले दो वर्षों में कालाजार से सैकड़ों मौतें हुई हैं। फिलहाल इस जिला के 18 प्रखंडों में 2378 लोग कालाजार से पीड़ित हैं। हमारी समस्या कितनी गम्भीर है, इसका अंदाजा आप इस तथ्य से लगा सकते हैं कि हम पानी के बीच रहकर भी पेयजल के लिए तरसते रहते हैं।

सीधे तौर पर कहें, तो हम प्राकृतिक जलस्रोतों के आधुनिक कुप्रबंधन के शिकार हैं। हम यहां तीन देशों के सक्रियकर्मी व विशेषज्ञ उपस्थित हुए हैं। हमारे सहभागी सोच-विचार ही हमारी समस्याओं का निदान तय कर सकते हैं। अतएव इस पहल को सबल व सक्षम बनाने की जरूरत है।
हृदय नारायण चौधरी, नदी वापसी अभियान समिति, दरभंगा, बिहार

बाढ़ का निदान नहीं है नदी संयोगीकरण


यहां नेपाल, बांग्लादेश, बिहार व बंगाल के सक्रियकर्मियों ने अपनी-अपनी बातें रखीं। हृदय नारायण चौधरी ने उत्तर बिहार की समस्या की तस्वीर यहां रखी। यह जरूरी था। एक तरफ हमारी समस्या जहां की तहां है। दूसरी तरफ, अब नदियों के लिंकिंग का प्रस्ताव आ गया है। अब सब लोग अपना-अपना काम छोड़ कर इस पर लगेंगे। हमें यह कहा जा रहा है कि नदियों को जोड़कर यहां की बाढ़ का पानी अन्यत्र ले जाकर यहां की बाढ़ की समस्या का समाधान कर दिया जायेगा। अब हमारी बात कभी नहीं सुनी जायेगी। हमारी बात अब नक्कारखाने मंे तूती की आवाज होकर रह जायेगी।

अब हम जब भी यह सवाल उठायेंगे कि नेपाल से हाया घाट होते हुए कुरसेला तक लगभग 30 लाख की आबादी पानी में हैं, तो कहा जायेगा कि कोसी को मेची से जोड़ देंगे, मेची को महानंदा से जोड़ देंगे, गंडक को घाघरा से जोड़ देंगे और इन जोड़-नहरों से यहां के सभी फालतू पानी को राजस्थान भेज देंगे। इससे यहां की बाढ़ समस्या का समाधान हो जायेगा। जिस प्रकार पिछले पचास वर्षों तक आपने इंतजार किया है, अब दस वर्ष और इंतजार कर लें। हम यहां का सारा पानी निकाल लेंगे, उड़नछू कर देंगे। अपनी समस्या के बारे में फिक्र मत कीजिए। यह सब अब हमारे साथ होने वाला है।

जो लोग उत्तर बिहार की नदियों को जोड़कर पानी हटा लेने की बात करते हैं, मैं उनसे कहता हूं कि वे चलें हमारे साथ पूर्वी कोसी नहर के इलाके में। कोसी क्षेत्र में सिंचाई के लिए बनी ये नहरें आज बालू से भरकर बेकार पड़ी हैं। कोसी, गंडक, घाघरा, मेची आदि को जोड़ने वाली भावी नहरें बालू से भरकर बेकार नहीं होंगी, इसकी कितनी गारंटी है? हमारे राज्य में बालू का बड़ा महत्व है। कोसी की नहरों से बालू निकालना इस राज्य का काफी फायदेमंद धंधा रहा है। कोसी की नहरों से बालू निकालने का काम करने वाले लोगों का एक गांव अब बलुआ बाजार हो गया है। पता नहीं, पहले इसका क्या नाम था। नदियों को जोड़ने वाली नहरें बनेंगी तो ऐसे लोगों द्वारा फिर से इन नहरों से बालू निकालने का काम चल पड़ेगा। यानी हमारी समस्याओं का तथाकथित समाधान तय करने वाले लोगों की समस्या का समाधान हो जायेगा और हमारी समस्या धरी की धरी रह जायेगी।

हमारा अपना अनुभव है कि इन सबके बीच राजनीति बहुत कुटिल खेल खेलती है। हमारी जानकारी है कि सुंदरलाल बहुगुणा या मेधा पाटकर से कोई भी सरकार आंख मिलाकर बात नहीं कर सकती है। कोई भी सरकार हमेशा यह चाहती है कि ऐसे लोग दूर ही रहें तो अच्छा है। गुजरात वाले चाहते हैं कि मेधा दिग्विजय सिंह के राज्य में काम करें तो अच्छा है। महाराष्ट्र वाले चाहते हैं कि वह मराठी हैं तो क्या हुआ, वह हमारे राज्य में गरीबों के सवाल पर काम न करें। उस मेधा को आज बिहार सरकार आमंत्रित करके बुलाती है, क्यों? इसलिए कि आज बिहार सरकार नदियों को जोड़ने की योजना के खिलाफ है और मेधा भी नदियों को जोड़ने का विरोध करती हैं। इसलिए बिहार सरकार मेधा को आमंत्रित करके उसका इस्तेमाल करना चाहती है। आज जरूरत है तो आमंत्रित करेंगे, कल जब जरूरत खत्म हो जायेगी तो जेल में बंद कर देंगे। आज मेधा के साथ दिग्विजय सिंह ने वही किया और उन्हें गिरफ्तार कर लिया, तो हमें राजनीति के इस चरित्र को ठीक समझने की जरूरत है।

हम तीनों देशों के लोग आज सुबह से जो बातचीत कर रहे थे, उसमें सरकार की भाषा की बू मिल रही थी। हम लोगों ने यहां बातचीत करते हुए एक-दूसरे के खिलाफ ‘चीटिंग’ जैसे शब्द का इस्तेमाल किया है, हमें इससे बचना चाहिए। हम तीनों देशों के लोग सरकार की भाषा में बोल-सोचकर न तो अपनी जनता का भला करेंगे और न ही हम किसी सरकार का कुछ बिगाड़ पायेंगे। हमें आपस में मिल-बैठकर और एक-दूसरे के इलाके में घूमकर सबसे पहले समस्या की समझ बनानी चाहिये। फिर सौहार्दपूर्ण वातावरण में सोच-विचारकर समाधान का रास्ता निकालने की कोशिश करनी चाहिए। तब ही, कोई ठोस हल निकल पायेगा।
दिनेश कुमार मिश्रा, संयोजक, बाढ़ मुक्ति अभियान, बिहार

पंचेश्वर डैम के खिलाफ हैं भारत-नेपाल के नागरिक


मैं नेपाल के महाकाली नदी घाटी क्षेत्र से आया हूं। यह नदी हिमालय के पश्चिमोत्तर हिस्से से निकलती है और नेपाल के पश्चिमांचल में भारत-नेपाल की सीमा पर प्रवाहित होती है। अपने उद्गम स्थल से निकलकर यह नदी दक्षिण-पूरब की दिशा में कभी नेपाल की जमीन पर, तो कभी भारत की जमीन पर बहती है। इस नदी घाटी के ऊपरी हिस्से में पंचेश्वर नामक जगह पर सिंचाई व पनबिजली के उत्पादन के लिए एक 315 मीटर ऊंचा डैम बनाने के लिए भारत और नेपाल की सरकारों के बीच समझौता हुआ है। इस नदी घाटी परियोजना को लेकर नेपाल में काफी राजनीतिक उठा-पटक भी हुई है। क्योंकि इस नदी घाटी के निचले हिस्से में पूर्व में बनाई गयी कुछ छोटी-छोटी परियोजनाओं के परिणामों के हमारे अनुभव काफी कड़वे रहे हैं।

महाकाली नदी की निचली घाटी में पूर्व में बनाये गये टनकपुर बराज से हमें जो फायदा दिलाने की बात कही गयी थी, वह हमें नहीं मिला। बराज परियोजना के तहत हमें सिंचाई आदि का जो लाभ दिलाने की बात कही गयी थी, उसके लिए हमारे क्षेत्र में नहरें नहीं बनीं। इस बराज के कारण हमारे देश के कई गांव डूब-क्षेत्र में आ गये। हमारा सबसे अधिक दुखद अनुभव यह है कि इस बराज में हमारे पशुओं को भी पानी नहीं पीने दिया जाता है। जबकि भारतीय इलाके में इस बराज से फायदे के लिए सभी जरूरी संरचनाएं बनायी गयी हैं और वहां सिंचाई आदि का लाभ भी मिल रहा है। इस बराज को लेकर हमारे देश में स्थानीय लोगों ने काफी आंदोलन किया है। यहां हुई नाइंसाफी की आवाज संसद में भी उठायी गयी। इस कारण हमारे देश में कई सरकारें भी गिरी हैं। फिर भी, हमारी समस्याओं का समाधन नहीं हुआ।

लोक चेतना की इस पूर्व पृष्ठभूमि के कारण जब महाकाली नदी पर पंचेश्वर डैम बनाने का समझौता भारत और नेपाल के बीच हुआ, तब हमारे देश में इस परियोजना के खिलाफ काफी तीव्र आंदोलन हुआ। इस आंदोलन को कुचलने के लिए हमारी पुलिस ने हम पर काफी अत्याचार किया। इस जन आंदोलन में कई जानें भी गयी हैं। भारतीय लोग भी इस परियोजना के खिलाफ हैं। इस डैम के निर्माण से दर्जनों भारतीय गांव की करीब पचास हजार की आबादी प्रभावित होगी। विस्थापन के भय से वहां स्थानीय लोगों ने संगठन बनाकर जब आंदोलन शुरू किया, तब हम लोगों ने उनके कार्यक्रमों में शामिल होकर उनके संघर्ष को समर्थन दिया। इस परियोजना के विरोध में वहां हम दोनों देशों के लोगों ने सम्मिलित संघर्ष चलाने के लिए सांगठनिक ढांचा भी तैयार किया है। वहां हम दोनों देशों के लोगों ने सामूहिक रूप से इस परियोजना के दुष्परिणामों के खिलाफ दुनिया के स्तर पर सभी लोगों का ध्यान आकृष्ट करने का निर्णय लिया है। हमारी स्पष्ट मान्यता है कि सिंचाई और पनबिजली उत्पादन के लिए ऊंचे डैमों वाली विनाशकारी परियोजनाओं की जगह स्थानीय लोगों द्वारा बनायी जाने वाली छोटी-छोटी परियोजनाएं ज्यादा लाभकारी और टिकाऊ हो सकती हैं। हम यहां आये सभी लोगों से आग्रह करना चाहते हैं कि सरकारों के निर्णयों से इतर नागरिकों के स्तर पर समस्याओं को ढूंढा गया समाधान हमें सही तौर पर समस्याओं से निजात दिला सकता है। अतएव हमें मिल-जुलकर सोच-विचार कर यह सिलसिला आगे भी चलाते रहना चाहिए और हमें आपस में अपने अनुभव और सूचनाओं के आदान-प्रदान का भी सिलसिला जारी रखना चाहिए।
गुणदेव पंत, अध्यक्ष, एन इ डब्लू एस, महेन्द्रनगर, नेपाल

गांव को डुबाती हैं पनबिजली परियोजनाएं


मैं नेपाल के पश्चिम अंचल में काम करता हूं। यहां महाकाली नदी, जो आगे चलकर आपके देश में शारदा नदी कहलाती है, के अलावा दूसरी प्रमुख नदी है, कर्णाली। यह नदी भी हमारी पहाड़ियों से नीचे उतरकर आपके देश में शारदा नदी की तरह घाघरा नदी में मिलती है। हमारे पहाड़ों में कर्णाली नदी का काफी बड़ा इलाका जलग्रहण क्षेत्र है। इस जलग्रहण क्षेत्र में इस नदी की कई सहायक नदियां इससे मिलती हैं। इनमें सबसे प्रमुख सहायक नदी है, सेती। कर्णाली और सेती नदी के इलाकों में अब तक सिंचाई या पनबिजली आदि के लिए कोई परियोजना नहीं बनायी गयी है। पर, इन नदियों के इलाकों में कई परियोजनाओं के लिए सर्वेक्षण, अध्ययन एवं बातचीत जैसा आरंभिक काम हुआ है।

कर्णाली नदी की सहायक पश्चिम सेती नदी से पनबिजली बनाने के लिए 1977 में एक सर्वेक्षण-अध्ययन का काम पूरा हुआ था, जिसमें यह माना गया था कि इस परियोजना से 750 मेगावाट पनबिजली उत्पादित होगी। भारत सरकार और नेपाल सरकार के आपसी सहयोग से हुए इस अध्ययन पर परियोजना की ठोस रूपरेखा भी बनायी गयी। भारत सरकार की आर्थिक सहायता से बनायी जाने वाली इस परियोजना को लेकर दोनों देशों के बीच एक समझौता भी हुआ। इस समझौते के अनुसार इस परियोजना से उत्पादित पनबिजली का अधिकांश हिस्सा भारत को मिलना था, नेपाल को बतौर कमीशन सिर्फ 10 प्रतिशत पनबिजली यानी 75 मेगावाट पनबिजली मिलनी थी। उस समय परियोजना का निर्माण कार्य एक बहुद्देशीय कम्पनी को देने की बातचीत हुई थी। बाद में उस कम्पनी ने इस निर्माण कार्य से मुंह मोड़ लिया, जिसके कारण उस वक्त इस समझौते की परियोजना पर काम आरंभ नहीं हो पाया।

इधर हाल में भारत और नेपाल सरकार के बीच इस परियोजना को लेकर फिर बातचीत हुई है। पूर्व के समझौते की शर्तों में थोड़ा फेरबदल हुआ है। अब हमें पहले से थोड़ी अधिक बिजली मिलेगी। पहले के समझौते के अनुसार हमारे किसान भाई परियोजना क्षेत्र से अपनी मर्जी के अनुसार नदी का पानी इस्तेमाल नहीं कर सकते थे। पर नये समझौते में परियोजना के कारण हमारे देश के हजारों एकड़ में डूब क्षेत्र बनेगा और जल जमाव की समस्या पैदा होगी। लगभग पांच हजार लोग अपने घर-बार और खेती से विस्थापित होंगे। समझौते में इन समस्याओं के समाधान के संदर्भ में कुछ नहीं कहा गया है। इस बार इस परियोजना का निर्माण और पनबिजली का उत्पादन का भार एक बहुद्देशीय कम्पनी को दिया गया है। यह कम्पनी हमारी उपरोक्त समस्याओं का कितना निदान करेगी, यह अच्छी तरह से समझा जा सकता है।

अभी हमारे नेपाल में जो बिजली पैदा होती है उसका मुख्य उपभोक्ता हमारा शहर है। हमारा गांव अंधेरे में रहता है। जिस प्रकार नदियां राजनीतिक सीमाओं को नहीं मानतीं, उसी तरह एक जैसी जीवन-संस्कृति भी किसी सीमारेखा को नहीं मानती। हम नेपाली और उत्तर बिहार के लोग राजनीतिक सीमा रेखा से बांटे गये एक तरह की जीवन संस्कृति के समाज के लोग हैं। हम ग्रामीण व कृषि संस्कृति के लोग हैं। हमें शहरों के उपभोग के लिए गांव को डुबाने वाली पनविजली परियोजना का विरोध करना चाहिए और आपसी संगठन से अपने इलाकों की बाढ़ और सिंचाई जैसी समस्या का समाधान सबसे पहले निकालना चाहिए। हम आशा करते हैं कि हमारी यहां प्रकट हुई एकता इस अपेक्षित दिशा में आगे बढ़ती रहेगी।
रतन भंडारी, वाफेड, काठमांडू, नेपाल

नेपाल, भारत, बांग्लादेश व भूटान के इस गरीब क्षेत्र में नदियों का जल प्रबंधन गरीबी का मुख्य कारण है। संसार के अमीर और शक्तिशाली देशों की बहुद्देशीय कम्पनियां इन गरीब इलाकों में आकर यहां की गरीबी दूर करने के लिए परियोजनाएं नहीं बनातीं, बल्कि हमारे नैसर्गिक संसाधनों से अपनी सम्पन्नता बढ़ाने के लिए यहां परियोजनाएं लगाती हैं। चाहे वह सड़क बनाने की परियोजना हो या बिजली बनाने की परियोजना हो, वे ऐसी सभी परियोजनाएं इन गरीब देशों की गरीब जनता को लूटने के लिए बनाती हैं। हम अब तक अपने पहाड़ी अंचलों के गांव में बहुद्देशीय कम्पनियों की इन साजिशों के खिलाफ अकेले संघर्ष कर रहे थे। अब हमें यहां आकर यह आशा बनी है कि आगे हम सभी गरीब देश के लोग मिलकर बहुद्देशीय कम्पनियों के षड्यंत्रों के खिलाफ लड़ेंगे।

रामबहादुर खड़का, सिंधु पाल चैक, बागमती अंचल, नेपाल

वैकल्पिक नागरिक जल-प्रबंधन जरूरी है


यह बहुत अच्छी बात है कि यहां नदी घाटी परियोजनाओं के भुक्तभोगी और परियोजनाओं के विविध पक्ष पर काम करने वाले विशेषज्ञ उपस्थित हैं। नदी घाटी परियोजनाओं के कारण आज ब्रह्मपुत्र नदी घाटी से लेकर महाकाली नदी घाटी तक में काफी समस्यायें उपस्थित हो गयी हैं। मैं कोसी नदी के ऊपरी तराई इलाके में रहता हूं। हमारे इलाके में पहले बाढ़ समस्या नहीं थी। कोसी नदी घाटी परियोजना के तहत कोसी बराज बनने के बाद हमारे इलाके में बाढ़ और जल जमाव की समस्या पैदा हुई है।

कोसी बराज के निर्माण के साथ-साथ इसके दोनों ओर पूर्वी और पश्चिमी बाढ़ सुरक्षा तटबंधों का निर्माण किया गया। इन बाढ़ सुरक्षा तटबंधों के कारण कोसी की दर्जनों छोटी-छोटी सहायक नदियों की धाराओं का पानी मुख्य धारा में मिलने से वंचित होने लगा और भारत व नेपाल के बाढ़ सुरक्षित इलाकों में बाढ़ व जल जमाव नया इलाका बनाने लगे। बाढ़ का यह नया सिलसिला आरंभ होने के बाद स्थानीय स्तर पर कई प्रकार के बाढ़ सुरक्षा बांधों व तटबंधों का निर्माण होने लगा, लेकिन जब इन बांधों के कारण जल जमाव की समस्या गंभीर होने लगी, तब इन्हें काटकर बाढ़ और जल जमाव से निजात पाने का निदान निकाला गया। आज ‘राजविराज नगर सुरक्षा बांध’ के अलावा कई सुरक्षा बांध हैं जिन्हें स्थानीय नागरिक बाढ़ की समस्या बढ़ने पर काट कर बाढ़ से राहत पाते हैं लेकिन स्थानीय समाज में बांध काटने के कारण काफी तनाव पैदा होता है और हिंसा की आशंका बनी रहती है।

कोसी की एक काफी छोटी सहायक नदी है, खाड़ो। यह नदी हमारे देश की हिमालय पर्वतमाला की निचली पहाड़ियों से निकलती है। जब कोसी नदी का पश्चिमी बाढ़ सुरक्षा तटबंध बन गया, तब बरसात के समय इस नदी का पानी नेपाल-भारत सीमा के दक्षिणी तरफ उत्तर बिहार के सुपौल जिला के कुनौली अंचल में बाढ़ और जल जमाव समस्या का कारण बनने लगा। कुछ समय बाद कुनौली के स्थानीय राजनीतिज्ञों ने अपना राजनीतिक हित साधने के उद्देश्य से इस नदी के एक तरफ जवाहर रोजगार योजना के पैसों से भारत-नेपाल सीमा पर एक बाढ़ सुरक्षा बांध बनवा कर दोनों देश की जनता के बीच एक दीवार खींच दी। इस बाढ़ सुरक्षा बांध के बनने के कारण नेपाल के कई गांव में बाढ़ व जल-जमाव की समस्या पैदा होने लगी और यह बांध दोनों देशों की जनता के स्थानीय समाज में तनाव का कारण बन गया। हर बरसात में बाढ़ की समस्या गम्भीर होने पर नेपाल की जनता इस बांध को काटने के लिए सक्रिय होती है। वहीं कुनौली के लोग बांध को बचाने के लिए दल-बल के साथ बांध पर मौजूद रहते। अक्सर झड़पें होतीं। अंततः नेपाल के लोग रात के अंधेरे में आकर बांध काट डालते। दोनों देशों के स्थानीय जन-संगठनों व संस्थाओं के कई वर्षों के प्रयासों के बाद इस वक्त इस बांध की मरम्मत करने पर यह पुनः दोनों देशों की जनता के बीच तनाव का कारण बनेगा।

नदियों को जोड़ने की जो चर्चा अभी भारत में चल रही है, मेरा मानना है कि यह कोसी नदी के संदर्भ में सम्भव नहीं है। कोसी नदी का पानी इस्तेमाल करने में सबसे बड़ी समस्या है इसके पानी में आने वाला अत्यधिक बालू-मिट्टी। आज कोसी बराज, दोनों बाढ़ सुरक्षा तटबंधों के बीच का इलाका, पूर्वी कोसी नहर और कटैया पनबिजली उत्पादन गृह आदि सब बालू से पट गया है और बेकार होने के कगार पर पहुंच गया है। यही दुर्दशा कमला, बागमती और गंडक परियोजना की है। इन परियोजनाओं से हमारे देश में जो भी लाभ मिलने की बात कही गयी थी, वह नहीं मिला। हम यहां गंगा घाटी के सभी देशों के नागरिक संगठनों के प्रतिनिधि उपस्थित हैं और किसी न किसी नदी परियोजना से पीड़ित हैं। अतएव यहां उपस्थित सभी लोगों से मेरा यह आग्रह है कि हम मिल-जुलकर सभी के लिए हितकारी जल-प्रबंधन की दिशा तलाशने की ओर बढ़ें।
देवनारायण यादव, कोशी पीड़ित समाज, राजविराज-9, सप्तरी, नेपाल

नागर समाज के पास है जल संकट का समाधान


नदियों को जोड़ने की घोषणा तात्कालिक तौर पर एक गम्भीर मसला है। सरकार ने पूर्व में भी इस तरह की कई घोषणाएं की हैं। नर्मदा के मामले में ही सरकार ने लम्बी-चौड़ी परियोजना की घोषणा की थी, लेकिन क्या हुआ? नदियों को जोड़ने की इस महापरियोजना में ही 30 जोड़ परियोजना है। हमें इनमें से प्रत्येक के भूत, भविष्य और वर्तमान के बारे में जानना चाहिए। इस महापरियोजना के सामाजिक आर्थिक व पर्यावरणीय प्रभावों के बारे में सरकार से जानकारी हासिल करने के लिए उस पर दबाव देना चाहिए। हमें सरकार पर यह भी दबाव बाना चाहिए कि वह इस महापरियोजला की प्रत्येक परियोजना के सामाजिक, आर्थिक व पर्यावरणीय प्रभावों आदि पर अलग-अलग विस्तृत अध्ययन कराये और उसे जनता के बीच विचार-विमर्श के लिए प्रस्तुत करे। पिछले दिनों इस परियोजना को लेकर देशभर में कई बैठकें हुई हैं। इन सब में इस परियोजना के औचित्य का सवाल महत्वपूर्ण ढंग से उठा है। अतएव इस परियोजना का औचित्य क्या है, यह बताने के लिए भी हमें सरकार पर दबाव बनाने की कोशिश करनी चाहिए। यह सब इसलिए भी जानने की जरूरत है क्योंकि पानी की देशव्यापी समस्या के साथ-साथ देश के हर क्षेत्र में पेयजल और सिंचाई जैसी बुनियादी जरूरत भी समस्या बनी हुई हैं। इसके साथ-साथ हमें यह भी कोशिश करनी चाहिये कि हम नागर समाज के लोग इस महापरियोजना और अपने-अपने देशों-इलाकों की पानी की विभिन्न प्रकार की समस्याओं के समाधान के लिए किस-किस प्रकार का विकल्प प्रस्तुत कर सकते हैं।

पूर्वोक्त जरूरतों के संदर्भ में हम अगर अपनी-अपनी भूमिकाएं और कार्यक्रम यहां स्पष्ट करें, तब एक सम्मिलित व दीर्घकालिक कार्यक्रम को स्वरूप दिया जा सकता है। पिछली चर्चाओं में नेपाल से आये प्रतिनिधियों ने कहा कि सबसे पहले जल संकट और जल-प्रबंधन की समस्याओं को लेकर नदी घाटीस्तर से शुरू कर तटवासी देशों के स्तर पर नागरिक संगठनों की बैठक आयोजित की जानी चाहिये। मेरा मानना है कि ऐसी बैठकों में पानी के साथ-साथ विविध सामाजिक, आर्थिक व पर्यावरणीय मुद्दों पर पूर्व से काम कर रहे संगठनों व व्यक्तियों को अवश्य शामिल किया जाना चाहिए। इससे पानी के सवाल पर मजबूत व सक्षम संगठन बनने की संभावना बनेगी। समस्या की वैकल्पिक दिशा तय करने के लिए हमें विभिन्न क्षेत्र में पानी के वैकल्पिक, पारम्परिक व स्थानीय ज्ञान पर काम करने वाले व्यक्तियों, संगठनों, व संस्थाओं से भी सम्पर्क करना चाहिए और उपलब्ध लोक ज्ञान का दस्तावेज तैयार करना चाहिये। अपने कार्यक्रमों में ऐसे लोक ज्ञान को समस्याग्रस्त आबादी में अधिक से अधिक प्रचारित-प्रसारित करने की गुंजाइश भी रखनी चाहिये। इन सभी विन्दुओं के आलोक में यहां उपस्थित नेपाल, बांग्लादेश और भारत के विभिन्न इलाकों के प्रतिनिधि अपनी-अपनी भूमिका व कार्यक्रम की रूप-रेखा यहां प्रस्तुत करें, तो हम भविष्य के लिए एक सम्मिलित, व्यापक, सार्थक व दीर्घकालिक कार्यक्रम को रेखांकित कर सकेंगे।
एस परशुराम, समाजशास्त्री एवं विश्व बांध आयोग के पूर्व सचिव

हिमालय से निकलने वाली नदियों का संबंध भारत, नेपाल और बांग्लादेश तीनों से है। भारतीय नदियों का संयोगीकरण अभी सिर्फ एक प्रस्तावित विचार है, जिसे कार्यान्वयन हेतु ठोस स्वरूप दिया जाना बाकी है। अतएव इसे अभी भारत का आंतरिक मामला मानना चाहिए। इस परियोजना को केन्द्रित कर नेपाल, भारत और बांग्लादेश के नागरिक संगठनों द्वारा अभी कोई भी संगठित नागरिक अभियान चलाना गलत संदेश प्रसारित करेगा।

हम पड़ोसी देशों पर इस परियोजना के दूरगामी प्रभावों को लेकर आपस में चर्चा अवश्य चलायें। अपने-अपने देशों में जल संसाधन प्रबंधनों को लेकर जो बातें चल रही हैं या जो काम हो रहे हैं, उससे जुड़ी जानकारियों को हम आपस में बांटने का सिलसिला चलाएं। हर देश में जल-प्रबंधन की नीतियों तथा जल-प्रबंधन के पारम्परिक ज्ञान को लेकर कई राष्ट्रीय व स्थानीय स्तर की संस्थायें कार्यरत हैं, इनके कामों को भी आपस में बांटने का सिलसिला हमें चलाना चाहिए। इन संस्थाओं-संगठनों के साथ संवाद भी चलाना चाहिए और पानी के मुद्दों पर सजग साझा-सरोकार विकसित करना चाहिए।
रामास्वामी अय्यर

भारत की तरह नेपाल और बांग्लादेश की सरकारें भी अपने-अपने देशों में समय-समय पर जल प्रबंधन और विकास संबंधी ऐसे कार्यक्रम बनाती हैं जिसमें स्थानीय समाज और पड़ोसी देशों के हितों का ख्याल नहीं रखतीं। इस कारण समय-समय पर कई मुद्दे उभरते रहते हैं। हमें पूरी जागरूकता के साथ इनकी जानकारी रखनी चाहिए और आपस में ऐसा रिश्ता विकसित करना चाहिए जिससे इन जानकारियों का आपस में सहज आदान-प्रदान हो सके। हमें किसी कार्यक्रम को तुरंत सामूहिक विरोध का मुद्दा बनाने से बचना चाहिए, क्योंकि कई ऐसे कार्यक्रम काफी तात्कालिक होते हैं और उन पर वर्षों बाद भी अमल नहीं होता। इसके बदले हमें एक-दूसरे के बीच ऐसा सहयोगात्मक रिश्ता और वातावरण तैयार करना चाहिए, जिससे हम एक-दूसरे के स्थानीय समाज की बाढ़, सूखा, पेयजल आदि जैसी बुनियादी समस्याओं का समाधान कर सकें, साथ ही ऐसे संदर्भों में एक-दूसरे के अर्जित व पाम्परिक ज्ञान के आदान-प्रदान का साझा, सजग, व्यापक सरोकार विकसित कर सकें।
एस परशुरामन

भारतीय नदियों का संयोगीकरण सिर्फ भारत की समस्या नहीं है। यह परियोजना ऐसी समस्यायें खड़ी करेंगी, जिससे नेपाल और बांग्लादेश अछूता नहीं रहेंगे। अतएव, इस परियोजना का विरोध जैसा बड़ा काम अकेले भारत के लोग न करें, इसमें नेपाल और बांग्लादेश के संगठनों का सहकार भी जोड़ा जाए, क्योंकि भारत हमेशा परियोजनाएं बनाते समय यह कहता है कि इसका असर पड़ोसी देशों पर पड़ा और हम कुछ नहीं कर पाये। परियोजना के आरंभ के समय कई वादे किये जाते हैं, पर बाद में उन पर थोड़ा भी अमल नहीं किया जाता। हम कई बार छले गये हैं। आज बात पानी की कमी की नहीं है, बल्कि पानी के कुप्रबंधन की है। इसलिए भारत बांग्लादेश के साथ जो व्यवहार करता रहा है वैसा व्यवहार हम भारत के साथ नहीं कर सकते। भारत के साथ हमारे देश के राजनीतिक संबंध की जटिलता भी इसकी इजाजत नहीं देती।

आज विश्व मंच पर गैर सरकारी संगठनों और नागर समाज की बात सुनी जाती है, इसलिए हम तीनों देशों के नागरिक संगठनों का एक क्षेत्रीय नेटवर्क बनाना चाहिए। इसके साथ-साथ हम सभी के देशों में पहले से कार्यरत कई संगठन व नेटवर्क हैं, जिन्हें ज्यादातर हमारे अवकाश प्राप्त नौकरशाह संचालित करते हैं और जिनकी बातें कार्यान्वयन एजेंसियां सुनती हैं, इन्हें सूचीबद्ध करना चाहिए तथा इनके कार्यों के बारे में जानकारी एकत्र करनी चाहिए। जब दो देशों के बीच किसी परियोजना पर समझौता होता है तो उनमें ये संस्थायें महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं, लेकिन हम उनसे अपरिचित हैं। किसी परियोजना या समझौता के सभी कारकों व तथ्यों से हम पूर्व परिचित रहें, इसलिए यह काम आवश्यक है। कुछ दिन पहले तक भारत में चल रहे सुंदरलाल बहुगुणा के टिहरी बांध विरोधी आंदोलन और मेधा पाटकर के नर्मदा बचाओ आंदोलन की बातें सुनी जाती थीं। अब इन जन आंदोलनों की बातें अनसुनी कर दी जाती हैं। यह शायद आंदोलनों का जन दबाव कम पड़ जाने के कारण हुआ है। इसलिए हमें अपने उद्देश्य के लिए मजबूत जन दबाव बनाने की रणनीति के बारे में भी सोचना चाहिए।

हमने इस वर्ष जनवरी माह में काठमाण्डू में एक बड़ी बैठक की, जिसमें बांग्लादेश के लोग नहीं आ पाये थे। इसमें दक्षिण एशिया के देशों में पानी के सवाल पर काफी अच्छी चर्चा हुई और हमने इस बैठक में ‘सागरमाथा डिक्लेरेशन’ नामक घोषणा पत्र जारी करते हुए ‘सार्प’ (साउथ एशियन साॅलिडारिटी आॅन राइट्स एण्ड पीपुल्स) नामक नेटवर्क की भी घोषणा की थी। नेटवर्क बनाने के संदर्भ में मेरा सुझाव यह है कि या तो हम इस नेटवर्क को अपना लें या फिर किसी बड़ी बैठक के बाद ऐसा नेटवर्क बनायें, जो लोकतांत्रिक, कार्यक्षम, सक्रिय और जीवंत हो। हम लोग बातें बहुत करते हैं, अच्छे-अच्छे प्रस्ताव भी पारित करते हैं पर फाॅलो-अप नहीं करते। पहले बैठक के बाद दूसरी बैठक नहीं करते हैं। हमें आशा है कि हम लोग इस प्रक्रिया में उपरोक्त कथन की पुनरावृत्ति नहीं करेंगे।
गोपाल शिवाकोटे ‘चिन्तन’

हम दुबारा गोपाल शिवाकोटे के इस कथन पर कड़ा ऐतराज व्यक्त करते हैं कि भारत ने नेपाल को छला है। महाकाली संधि को उनके देश की संसद ने दो-तिहायी बहुमत से पारित किया है, फिर उसे धोखा कहना गलत है। मैं इसका विरोध करता हूं। नेपाल और भारत के बीच बहुत तरह के संधि-समझौत होते रहते हैं, उनमें भूल-चूक हो सकती है या फिर, किसी समझौते के कार्यान्वयन के दौरान कोई ऐसी बात सामने आ सकती है, जो पहले सोची न गई हो, तो उसे भी धोखा कहना गलत है। मैं पुनः दोहराना चाहता हूं कि ‘नदी संयोगीकरण’ अभी प्रस्ताव की शक्ल में है और वह भारत का आंतरिक मामला है, इसलिए दूसरे देशों द्वारा इस प्रस्ताव का विरोध गलत संदेश देगा।
रामस्वामी अय्यर

भारत के नदी संयोगीकरण के संभावित प्रभावों को समझना हमारे लिए कठिन नहीं है। फरक्का स्थित गंगा बराज इन प्रभावों को समझने का सबसे जीवंत उदाहरण है। गंगा का पानी अगर दक्षिण भारत में स्थानांतरित किया जायेगा तब सिर्फ हमारा देश ही नहीं, नेपाल भी प्रभावित होगा क्योंकि गंगा की सभी सहायक नदियां नेपाल के हिमालय से निकलती हैं। फिलहाल अगर नदी संयोगीकरण के सवालों को छोड़ दिया जाये तब भी कई ऐसे सवाल हैं, जिन पर हम लोगों को मिल-जुलकर काम करने की आवश्यकता है। इसमें सबसे महत्वपूर्ण है जल-प्रबंधन को लेकर स्थानीय स्तर पर किये कार्यों व परम्परागत जल-प्रबंधन के अनुभवों का आदान-प्रदान।
शाहिदुल इस्लाम

यहां जो अब तक बातें हुई हैं, काफी अच्छी रही हैं। कई बातें काफी स्पष्टता के साथ, काफी साफ-साफ तौर पर यहां रखी गई हैं, जो आगे संगठन की बुनियाद के लिए काफी अच्छा है। देश की परिधि में घिरकर हम लोग एक-दूसरे को संदेह की दृष्टि से न देखें, क्योंकि हम लोग देश की सीमा से ऊपर की बातें करने वाले लोग हैं।
एस परशुरामन

नदी जन आयोग का गठन हो


मैं यहां कुछ कहने नहीं, सुनने आया हूं। खासकर, जल संसाधनों के बारे में यहां हो रही बातों को। इसलिए मुझे सिर्फ इतना ही कहना है कि भारत में नदियों को जोड़ने की परियोजना के लागू होने पर अगर हम प्रभावित होंगे, तो बांग्लादेश, नेपाल और भारत को मिल बैठकर समाधान निकालना चाहिए। हम तीनों देशों के नागरिक संगठनों को भी सामूहिक तौर पर जल संसाधनों के कुप्रबंधन को पुनरीक्षित व पुनर्गठित कर वैकल्पिक दिशा तलाशने की पहल करनी चाहिए। इसके लिए हम सबको सामूहिक तौर पर आम जनता का अाह्वान करना चाहिए और कारगर पहल के लिए आम जनता के बीच जाना चाहिए।
शम्सुल होदा, उन्नयन संघ, जमालपुर, बांग्लादेश

कार्यक्रम और संगठन के संदर्भ में मेरा सुझाव है कि हम तीनों देशों के प्रतिनिधि राजनीतिक सीमा से मुक्त होकर जनता के मुद्दों पर संघर्ष और रचना का कार्यक्रम और उसे संचालित करने के लिए संगठन बनायें। कार्यक्रम तय करते समय हम सभी प्रतिनिधि अपने देश की जन समस्याओं के वैकल्पिक समाधान का अध्ययन अवश्य शामिल रखें। संगठन की आधार भूमि और स्वरूप का मुख्य केंद्र देशों की राजनीतिक सीमा से मुक्त गंगा घाटी का भू-नैसर्गिक क्षेत्र हो, जिसमें हम तीनों देश शामिल हैं। यह संगठन एक प्रकार से ‘क्षेत्रीय नदी जन आयोग’ हो।

हम यहां आये तीनों देश के संगठनों के प्रतिनिधियों से आग्रह करते हैं कि इस सत्र मंे प्रस्तुत किए गये कार्यक्रम संबंधी सुझावों के मद्देनजर रात्रि में हर देश का एक कार्यक्रम तैयार कल सुबह के सत्र में प्रस्तुत करें।
विजय कुमार

सहभागी कार्यक्रम


कार्यशाला के दूसरे दिन 27.5.03, समापन सत्र का शुभारंभ गंगा मुक्ति आंदोलन के कार्यकर्ता श्री रामपूजन ने एक गीत प्रस्तुत कर किया। अपने वक्तव्य में उन्होंने गंगा नदी के आस-पास के जनजीवन में भूमि-कटाव की त्रासदी और बाढ़ की विभीषिका का विवरण प्रस्तुत किया। इस प्रथम वक्तव्य के बाद सत्र की औपचारिक कार्यवाही प्रारंभ हुई। सर्वप्रथम ‘नदी वापसी अभियान समिति’ के श्री हृदय नारायण चौधरी ने भारत की ओर से लिखित कार्यक्रमों का प्रस्ताव प्रस्तुत किया। बांग्लादेश की ओर से श्री शाहिदुल इस्लाम के कार्यक्रम की रूपरेखा प्रस्तुत करते हुए कहा कि हम अपने देश में पानी के सवालों पर मीडिया कैम्पेन चलायेंगे, ग्रासरूट स्तर पर लोगों को जागरूक करेंगे, राष्ट्रीय व क्षेत्रीय स्तर पर एनजीओ, सीबीओज और बुद्धिजीवियों को संगठित करेंगे और पानी से जुड़ी ज्यादतियों को उजागर करेंगे। नेपाल की ओर से श्री देवनारायण यादव और श्री गोपाल शिवाकोटे ‘चिन्तन’ ने भारत की ओर से प्रस्तुत कार्यक्रम का समर्थन करते हुए पानी के सवाल पर नेपाल-भारत सीमा के इलाके में दोनों देशों के नागरिकों व नागरिक संगठनों की बैठकों की शृंखला आयोजित करने का वादा किया।

इन तीनों देशों की प्रस्तुतियों के पश्चात् कार्यक्रम के प्रस्ताव के अंतिम स्वरूप को कार्यशाला सभा में उपस्थित प्रतिनिधियों ने ताली बजाकर सर्वसम्मति से पारित किया। जन आंदोलनों के राष्ट्रीय समन्वय (एन ए पी एम) के बिहार के संयोजक श्री विजय कुमार ने अन्त में कार्यशाला के समापन की घोषणा की।

कार्यक्रम:


1 - भारत, नेपाल व बांग्लादेश में जल संसाधनों के प्रबंधन के नाम पर जो कार्यक्रम चलाया गया है, उसके कारण समाज के सभी तबकों में भ्रम की स्थिति है। इस भ्रम को खत्म करने के लिए सामाजिक संस्था, संगठन, सिविल सोसाइटी एवं आमजन को शामिल कर क्रास बाॅर्डर मीटिंग की जानी चाहिए।
2 - नदियों में जल की उपब्धता को लेकर भी भ्रम है, अतः जल उपलब्धता के बारे में अध्ययन होना आवश्यक है। जल उपलब्धता के साथ-साथ पानी की खपत का हिसाब भी करना जरूरी है।
3 - भारत, नेपाल व बांग्लादेश में जल-प्रबंधन के नाम पर जो परियोजनायें बनीं, उन परियोजनाओं के प्रभाव का मूल्यांकन किया जाना चाहिए।
4 - इन सब कार्यों के संचालन के लिए एक समन्वय कार्यालय होना चाहिए।
5 - भारत, नेपाल व बांग्लादेश के जन संगठन अपने-अपने देश के लिए अपना कार्यक्रम तय कर आपस में विमर्श करेंगे।
6 - नदियां नैसर्गिक/सामुदायिक सम्पदा हैं। नदियों पर आधारित किसी भी योजना के निर्माण के पहले इस बात को सुनिनिश्चत किया जाना जरूरी है कि प्रकृति ने नदियों का जो स्वरूप निर्मित किया है, उसमें किसी भी प्रकार का बदलाव या परिवर्तन नहीं हो।
7 - अब तक का यह अनुभव रहा है कि नदी घाटी परियोजनाओं के कार्यान्वयन से आम तौर पर नदियां मृतप्राय हुई हैं। इसलिए नदियों को समाप्त करने वाली किसी भी परियोजना का निर्माण नहीं किया जाना चाहिए।
8 - पानी नैसर्गिक/सामुदायिक सम्पदा है। इस पर धरती के सभी जीव-जन्तुओं का समान अधिकार है, इसलिए इसे बेचने की छूट नहीं दी जानी चाहिए। यह जन व जीवन के उपयोग की वस्तु है। इसलिए इसे प्रकृति की देन मानकर सबको समान व उचित उपयोग की सुविधा देनी चाहिए।
9 - हिमालय से निकलने वाली नदियां वर्षाकाल में पानी के साथ बड़े पैमाने पर मिट्टी लाती हैं। पानी के बहाव से भू-निर्माण की प्रक्रिया चल रही है। इस प्रक्रिया में किसी भी प्रकार की बाधा से भारी क्षति होती है। अतः इस प्रक्रिया का जारी रहना सुनिश्चित किया जाना चाहिए।
10 - नदियों की धारा को बांधकर उससे मिलने वाली जिन उपधाराओं को बंद कर दिया गया है, उन्हें पुनःजीवित किया जाना चाहिए। जल स्वच्छन्द रूप से अपने प्राकृतिक मार्ग से बहता रहे, इस तरह का प्रबंध किया जाना चाहिए।
11- नदी घाटी योजनाओं के तहत बांधे गये बांधों का मूल्यांकन जनसंगठनों, स्वयंसेवी संगठनों और स्वतंत्र विचार के विशेषज्ञ लोगों से कराया जाना चाहिए। मूल्यांकन के पश्चात् ही सरकारी अधिकारियों और तकनीकी विशेषज्ञों के साथ चर्चा की जानी चाहिए।
12 - नदियों के बांधे जाने अथवा धारा परिवर्तन से जो लोग विस्थापित और प्रभावित हुए हैं, उन्हें बसाने का उचित प्रबंध किया जाना चाहिए।
13 - नेपाल से बांग्लादेश तक के बाढ़ प्रभावित क्षेत्रों के विकास के लिए स्वतंत्र प्राधिकार बनाकर इस क्षेत्र के विकास की संभावनाओं पर विचार किया जाना चाहिए।
14 - स्थानीय स्तर से लेकर राज्य और देश के स्तर तक जन प्रतिनिधियों और स्वयंसेवी संगठनों का संयुक्त मंच बनाकर जागरूकता कार्यक्रम चलाने हेतु गोष्ठी, सभा, सम्मेलन आदि का आयोजन किया जाना चाहिए। स्थानीय लोगों की समझ को इन प्रचार अभियानों में प्रमुखता देनी चाहिए।
15 - भारत सरकार द्वारा बनायी गयी राष्ट्रीय जलनीति से उत्पन्न परिस्थिति की पूरी जानकारी सभा, गोष्ठी, सम्मेलन द्वारा आम लोगों तक पहुंचानी चाहिए।
16 - नदियों को जोड़ने की योजना का ‘पारदर्शी ब्लू प्रिंट’ राष्ट्र के सामने विचारार्थ प्रस्तुत किया जाना चाहिए।
17 - उत्तर भारत के जल प्रबंधन का जो भी प्रारूप तैयार हो, उसे भारत, नेपाल और बांग्लादेश को एक साथ विश्वास में लेकर कार्यान्वित किया जाना चाहिए।
18 - भारत के दक्षिणी भाग में पानी का अभाव नहीं हो और कृष्णा-कावेरी जैसे जल विवाद दूसरी जगह नहीं खड़े हों, इसे ध्यान में रखकर ही सबको समान रूप से पानी उपलब्ध कराया जाये।
19 - स्थानीय स्तर पर रोजगार का प्रबंध शीघ्र हो ताकि बाढ़ से विस्थापित लोगों को स्थानीय स्तर पर ही रोजगार प्राप्त हो पाये और वे पलायन के लिए विवश न हों।
20 - नदी से जुड़ी परियोजनाओं के आरंभ से पहले ही इससे प्रभावित लोगों के रोजगार और पुनर्वास का पूरा इंतजाम किया जाना चाहिए।

कार्यशाला के सहभागी


नेपाल: श्री गोपाल शिवाकोटे ‘चिन्तन’ (वाफेड, काडमाण्डू); श्री गुणदेव पंत (एनइडब्ल्यूएस; महेन्द्र नगर), श्री राम बहादुर खड़का (वाफेड, काठमाण्डू); श्री रतन भंडारी (वाफेड, काठमाण्डू); श्री शैलेन्द्र गुप्ता (वाफेड, काठमाण्डू); श्री देवनारायण यादव (कोशी पीड़ित समाज, राजविराज)।

बांग्लादेश: श्री शम्सुल होदा, श्री शाहिदुल इस्लाम, मो. महब्बूल बारी (ऐक्शन एड)।

भारत: श्री सीपीसिन्हा, पटना; श्री पीयूष पुष्पक, सीतामढ़ी; श्री बालजीतप्रसाद, सिवान; श्री विक्रमा शर्मा, गोपालगंज; सुश्री सुधा कुमारी, पटना; श्री रमेश कुमार सिंह, छपरा; सत्यनारायण मदन, पटना; कामेश्वर कामती, मधुबनी; श्री अहमद बदर; पटना, अंजनी कुमार वर्मा, पटना; सुश्री रामा, राॅबर्ट्सगंज; श्री आर सी शुक्ला, चित्रकूट; श्री अजय कुमार, सोनभद्र; श्री उमेश, दरभंगा; श्री सुजय कुमार सिंह, मुजफ्फरनगर; श्री दिगम्बर मंडल, मधुबनी; सुश्री मीनू मालाकार, पटना; श्री विश्म्भर मंडल, मधुबनी; श्री सुनील कुमार मंडल, मधुबनी; श्री भोला यादव, दरभंगा; श्री दिनेश कुमार मिश्र, जमशेदपुर; श्री एस परशुरामन, बैंकाॅक (थाईलैंड); श्री रामास्वामी आर अय्यर, नई दिल्ली; श्री हृदय नारायण चौधरी, दरभंगा; श्री राधाकान्त यादव, दरभंगा; श्री तारिकुल इस्लाम, मालदह (प. बंगाल); मो. खिदिर बख्श, मालदा (प. बंगाल); श्री रामानन्दन रमन, दरभंगा; श्री रामवृक्ष यादव, दरभंगा; श्री सिकन्दर प्रसाद हिमांशु, दरभंगा; श्री इरफान अहमद, औरंगाबाद; श्री प्रमोद कुमार सिंह, पटना; डाॅ. जौहर, पटना; श्री अविनाश, पटना; श्री रंजन राही, पटना; श्री रणजीव, पटना; श्री प्रभाकर कुमार, पटना; श्री रामपूजन, भागलपुर; सुश्री नूतन/श्री हेमन्त, पटना; श्री विजय कुमार, पटना; श्री अरुण कुमार, पटना।

Path Alias

/articles/sanadarabha-nadai-jaoda-kaarayasaalaa-rapata-23-24-mai-2003-nadai-vaapasai-abhaiyaana

Post By: Shivendra
×