सामूहिक नाकामी है वायु प्रदूषण

सामूहिक नाकामी है वायु प्रदूषण
सामूहिक नाकामी है वायु प्रदूषण

राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली देश का दिल है। दिल की सेहत पर ही जीवन निर्भर करता है, लेकिन लगता नहीं कि दिल्लीवासियों की सेहत की किसी को चिंता है। हर साल सर्दियों की आहट के साथ ही दिल्लीवासियों की सांसों पर संकट शुरू होता है। धीरे-धीरे यह संकट पूरे एनसीआर में फैल जाता है, पर इससे निपटने के आधे-अधूरे सरकारी प्रयास भी तभी शुरू होते हैं, जब दम घुटने लगता है। इस संकट से निपटने के सतत प्रयास और दूरगामी नीति कहीं नजर नहीं आती। जाहिर है, यह आग लगने पर कुआं खोदने की सरकारी मानसिकता का भी परिणाम और प्रमाण है। सरकारें और उनकी संबंधित एजेंसियां खुद कुछ करने से ज्यादा दिल्लीवासियों को आगाह कर, कुछ और सख्त प्रतिबंध लगा कर ही अपने कर्त्तव्य की इतिश्री कर लेती हैं। अब जैसे ही दिल्ली में वायु गुणवत्ता सूचकांक (एक्यूआई) 300 के पार गया, सरकारी नसीहतें और प्रतिबंध सामने आने लगे। बेशक, यह भी जरूरी है मगर ये सब जो आपात कदम हैं तात्कालिक राहत के लिए ऐसी कोई ठोस दूरगामी नीति क्यों नहीं बनाई अपनाई जाती कि दिल्ली-एनसीआर में रहने वाले करोड़ों लोग पूरे साल स्वच्छ हवा में सांस ले कर स्वस्थ जीवन जी सकें?

यह सवाल भी हर साल इन्हीं दिनों पूछा जाता है पर तर्क संगत ठोस जवाब कभी नहीं मिलता। मिलती है तो वायु प्रदूषण रोकने की जिम्मेदारी और उसमें नाकामी के मुद्दे पर दिल्ली सरकार की केंद्र तथा पड़ोसी राज्य सरकारों के साथ अशोभनीय तकरार। सरकारें कितनी जिम्मेदार और जवाबदेह हैं, इसका अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि सर्दियों में जानलेवा से जाने वाले वायु प्रदूषण का दोष मौसम, पराली और पटाखों के सिर मढ़ कर पल्ला झाड़ लिया जाता है। बेशक, यह सच है कि वायु प्रदूषण को खतरनाक स्तर तक बढ़ाने में मौसम, पराली और पटाखों की भूमिका रहती है पर उनके बिना भी दिल्ली वालों को स्वच्छ और स्वस्थ हवा उपलब्ध हो पाती है क्या? सुप्रीम कोर्ट की सख्ती के बाद जागी सरकारों ने खतरनाक वायु प्रदूषण पर इन दिनों नियंत्रण के लिए जो कार्ययोजनाएं बनाई हैं, वे एक्यूआई 200 के पार जाने पर ही धरातल पर उतरती दिखाई देती हैं। ऐसे में जानना जरूरी है कि कितने एक्यूआई तक की हवा जीवन के लिए स्वच्छ और स्वस्थ मानी जाती है। 

लॉकडाउन लगाने की नौबत दरअसल, 50 एक्यूआई तक ही हवा अच्छी मानी जाती है। उसके बाद 51 से 100 एक्यूआई तक संतोषजनक मानी जाती है, और 101 से 200 एक्यूआई तक मध्यम। हमारी सरकारें तब जागती है, जब एक्यूआई 201 पार कर हवा खराब हो जाती है। जैसे-जैसे हवा बहुत खराब (301-400) और गंभीर (401-500) होती जाती है, सरकारी प्रतिबंध बढ़ने लगते हैं। ध्यान रहे कि जब एक्यूआई 450 के पार चला जाता है तब दिल्ली में लॉकडाउन की स्थिति होती है यानी स्कूल बंद, ऑनलाइन क्लासें शुरू और दफ्तर बंद, वर्क फ्रॉम होम शुरू निश्चय ही वह आदर्श या सामान्य जीवन नहीं है। फिर हमारी सरकारें ऐसा असामान्य जीवन जीने को मजबूर करने वाली स्थितियों का हाथ पर हाथ रखे इंतजार क्यों करती रहती हैं? आग लग जाने पर जागने की सरकारी सक्रियता भी 2019 में सुप्रीम कोर्ट की सख्त टिप्पणियों के बाद ही नजर आई। पच्चीस नवम्बर को सुप्रीम कोर्ट ने जानलेवा प्रदूषण पर तल्ख टिप्पणी की कि दिल्ली नरक से भी बदतर हो गई है।

अगर दिल्ली के पर्यावरण मंत्री गोपाल राव का यह आरोप सही है कि राष्ट्रीय राजधानी में प्रदूषण के स्रोतों का पता लगाने के लिए दिल्ली सरकार के अध्ययन को डीपीसीसी अध्यक्ष अश्विनी कुमार के आदेश पर एकतरफा और मनमाने ढंग से रोक दिया गया है तो यह जनहित ही नहीं, बल्कि जीवन से जुड़े मुद्दों पर भी शर्मनाक राजनीति की एक और मिसाल है, पर यह भी अपने आप में बड़ा सवाल है कि 2013 से दिल्ली में सत्तारूह सरकार को अभी तक प्रदूषण के स्रोतों का ही पता नहीं। अक्टूबर, 2018 में भू-विज्ञान मंत्रालय के रिसर्च पेपर में दी गई यह जानकारी गोपनीय तो नहीं ही हैं कि वायु प्रदूषण में सर्वाधिक 41 प्रतिशत भागीदारी वाहनों की होती है। यह भी कि प्रदूषण के अन्य बड़े कारण निर्माण आदि गतिविधियों से उड़ने वाली धूल (21.5 प्रतिशत) और उद्योग ( 18 प्रतिशत) हैं। जाहिर है, पराली और पटाखे बड़ा कारण नहीं हैं। वैसे भी इनका प्रभाव बहुत कम दिनों रहता है। फिर इस साल पराली जलाने की घटनाओं में 50 प्रतिशत की कमी दर्ज की गई है। मौसम पर दोष तो और भी हास्यास्पद ज्यादा नजर आता है, क्योंकि उस पर किसी का वश नहीं चलता। अगर हवा और बारिश को ही वायु प्रदूषण से राहत दिलवानी हैं तो हमारा भारी-भरकम महंगा सरकारी तंत्र आखिर किस मर्ज की दवा है? 

साफ हवा वाले दिन गिनने लायक 

ध्यान रहे कि इस साल 10 सितम्बर को दिल्ली में एक्यूआई 45 दर्ज किया गया था, यानी उस दिन दिल्लीवासियों को साफ हवा नसीब हुई थी, लेकिन सर्दियों की आहट से बहुत पहले ही 14 जून को हवा खराब की श्रेणी में चली गई। जाहिर है, दिल्ली में साल भर में साफ हवा वाले दिन उंगलियों पर गिने जाने लायक ही रहते हैं, जबकि पूरे साल दिल्ली वाले जहरीली हवा में सांस लेने को मजबूर होते हैं। स्थिति की गंभीरता का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि डब्ल्यूएचओ के 1650 तथा अमेरिका स्थित हैल्थ इफैक्ट्स इंस्टीट्यूट के 7000 शहरों के सर्वे में दिल्ली को सबसे प्रदूषित पाया गया। तमाम स्वास्थ्य विशेषज्ञ आगाह करते रहे हैं कि दिल्ली- एनसीआर की प्रदूषित हवा से श्वास संबंधी रोग हो नहीं, बल्कि फेफड़ों के कैंसर के मरीज भी बढ़ रहे हैं। यह भी कि बच्चों और बुजुगों के लिए यह हवा और भी ज्यादा खतरनाक है। देश की वाणिज्यिक राजधानी मुंबई में भी अक्टूबर में कुछ दिन वायु प्रदूषण बेहद खतरनाक स्तर पर रहा। ध्यान रहे कि भारत में हर साल वायु प्रदूषण से 20 लाख मौत होती हैं, और यह देश में मौतों का पांचवां बड़ा कारण है। इसके बावजूद जरूरी मोर्चे पर सरकारी तंत्र की संवेदनशून्य निष्क्रियता कई सवालों को जन्म देती है, जिनका जवाब देना सरकारों की संवैधानिक जिम्मेदारी है।

स्रोत -  हस्तक्षेप, 4 नवम्बर 2023, राष्ट्रीय सहारा

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Post By: Shivendra
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