समुद्री पर्यावरण को बचाने की आवश्यकता

समुद्री पर्यावरण को बचाने की आवश्यकता
समुद्री पर्यावरण को बचाने की आवश्यकता

यह है सुखद है कि 20 वर्षों की लंबी बातचीत के उपरांत एक  सैकड़ा से अधिक देश समुद्री जीवन को बचाने की अहम संधि पर मुहर लगाने को तैयार हो गए हैं। न्यूयॉर्क स्थित संयुक्त राष्ट्र मुख्यालय में संपन्न इस हाई सीज ट्रीट्री के तहत 2030  तक दुनिया के 30  प्रतिशत महासागरों को संरक्षित किया जाना है। संधि को लागू करने के लिए अब सभी देशों को अपनी-अपनी संसद से मंजूरी दिलानी होगी। संधि में प्रावधान है कि समुद्री जलीय जीवन को संरक्षित करने के लिए निकाय बनेगा और जलीय जीवों को हो रहे नुकसान के आंकलन के लिए नियम बनेंगे। यह संधि इसलिए महत्त्वपूर्ण है कि अभी तक इस मकसद के लिए फंडिंग और मछली पकड़ने जैसे अधिकारों पर बात बन नहीं पा रही थी। इसलिए कि समुद्र तट से 200  नॉटिकल मील तक के समुद्र पर ही देशों का अधिकार होता है। उसके आगे का हिस्सा खुला समुद्र कहलाता है। अभी तक इसका 9.2 फीसद हिस्सा ही संरक्षित है। इस संधि के तहत तय किया जाएगा कि खुले समुद्र के कौन से इलाके संरक्षित माने जाएंगे। अगर इस संधि को मूर्त रूप दिया जाता है तो निःसंदेह महासागरों में वास कर रहे समुद्री जल जीव-जंतुओं और खनिजों की रक्षा होगी। उल्लेखनीय है कि 1650  के दशक के शुरुआत में समुद्र के कानून को लेकर हुए संयुक्त राष्ट्र के कई सम्मेलनों में समुद्री प्रदूषण पर चिंता व्यक्त की गयी। 1672  के स्टॉकहोम में मानव पर्यावरण पर हुए संयुक्त राष्ट्र के सम्मेलन में भी समुद्री प्रदूषण पर चर्चा हुई। तब समुद्री प्रदूषण रोकने के लिए कचरे व अन्य पदार्थों के समुद्र में फेंके जाने को लेकर संधि पत्र पर हस्ताक्षर हुए। इस समझौते को लंदन समझौता कहा जाता है। लेकिन सच यहीं है कि समुद्री प्रदूषण रोकने के अभी तक सभी कानून नाकाफी ही साबित हुए हैं। परिणामतः समुद्री जैव विविधता खतरा लगातार बढ़ता जा रहा है। उदाहरण के तौर पर वर्ष 1670  से देखें तो खुले समुद्र में शार्क की तादाद 70  प्रतिशत तक घट गयी है। विचार करें तो समुद्री जीवन में प्रदूषण के तीन रास्ते हैं। एक, महासागरों में कचरे का सीधा छोड़ा जाना, दूसरा वर्षा के कारण नदी-नालों में अपवाह से और तीसरा वातावरण में छोड़े गए प्रदूषकों से समुद्र में प्रदूषण के लिए सबसे आम रास्ता नदियां हैं। समुद्र में पानी का वाष्पीकरण सर्वाधिक होता है।

'1972 के स्टॉकहोम में मानव पर्यावरण पर हुए संयुक्त राष्ट्र के सम्मेलन में भी समुद्री प्रदूषण पर चर्चा हुई। तब समुद्री प्रदूषण रोकने के लिए कचरे व अन्य पदार्थों के समुद्र में फेंके जाने को लेकर संधि पत्र पर हस्ताक्षर हुए। इस समझौते को लंदन समझौता कहा जाता है। लेकिन सच यही है कि समुद्री प्रदूषण रोकने के अभी तक सभी कानून नाकाफी ही साबित हुए हैं। परिणामतः समुद्री जैव विविधता खतरा लगातार बढ़ता जा रहा है'

संतुलन की बहाली महाद्वीपों पर बारिश के नदियों में प्रवेश और फिर समुद्र में वापस मिलने से होती है। उदाहरण के लिए न्यूयॉर्क में हडसन और न्यूजर्सी में रैरीटेन जो स्टेटन द्वीप के उत्तरी और दक्षिणी सिरों में समुद्र में मिलती है जिससे समुद्र में प्राणी मंदप्लवक यानी कोपपॉड के पारा में प्रदूषण का मुख्य स्रोत है। फिल्टर- फीडिंग कोपपॉड में सबसे ज्यादा मात्रा इन नदियों के मुखों में नहीं बल्कि 70  मील दक्षिण में एटलांटिक सिटी के नजदीक है क्योंकि पानी के तट के बिल्कुल नजदीक बहता है। अमूमन तय प्वाइंट प्रदूषण तब होता है जब प्रदूषण का इकलौता, स्पष्ट और स्थानीय स्रोत मौजूद हो। अंदरुनी भागों में तांबे, सोने इत्यादि का खनन भी समुद्री प्रदूषण का एक बड़ा स्रोत है। ज्यादातर प्रदूषण महज मिट्टी से होता है जो नदियों के साथ बहले हुए समुद्र में प्रवेश करती है। हालांकि खनन के दौरान खनिजों के निस्सरण से कई समस्याएं उभरकर सामने आती हैं। गौर करें तो खनन का बहुत घटिया ट्रैक रिकार्ड है। उदाहरण के लिए अमेरिकी पर्यावरण संरक्षण एजेंसी की मानें तो खनन ने पश्चिमी महाद्वीपीय अमेरिका में  40  फीसद  से  ज्यादा जलोत्सारण क्षेत्रों के नदी उद्गमों के हिस्से को प्रदूषित किया है और इस प्रदूषण का सर्वाधिक हिस्सा समुद्र में मिलता है। वातावरण में छोड़े गए प्रदूषकों से भी समुद्र प्रदूषित हो रहा है। मसलन कृषि से सतह का अपवाह, साथ शहरी अपवाह और सड़कों, इमारतों, बंदरगाहों और खाड़ियों के निर्माण से हुआ अपवाह कार्बन, नाइट्रोजन, फास्फोरस और खनिजों से लदे कणों और मिट्टी को अपने साथ ले जाता है। 

सड़कों और राजमार्गों से दूषित अपवाह तटीय इलाकों में जल प्रदूषण का सबसे बड़ा स्रोत है। इसमें प्रवेश करने वाले 75  फीसद जहरीले रसायन, सड़कों, छतों, खेतों और अन्य विकसित भूमि से तूफानों के दौरान पहुंचते हैं। वैज्ञानिकों की मानें तो जीवाश्म ईंधन का उपयोग, औद्योगिक कार्बन उत्सर्जन और जंगल की आग इत्यादि से समुद्री जीवन जहरीला बन रहा है। इनसे उत्सर्जित  पॉलीसाइक्लिक एरोमैटिक हाइड्रोकार्बन्स (पीएएचएस) नामक घातक रसायन की मात्रा समुद्र में लगातार बढ़ रही है और समुद्री जीवों का अस्तित्व संकट में पड़ गया है। वैज्ञानिकों का यह भी कहना है कि इसके पीछे 60000 टन  पीएएचएस का उत्सर्जित होना है। उल्लेखनीय है कि पीएएचएस सौ से अधिक घातक रसायनों का समूह होता है, जो कि जीवाश्म ईंधन और लकड़ी के जलने से वातावरण में उत्सर्जित होता है। इन्हें जानलेवा प्रदूषक तत्वों की श्रेणी में रखा गया है।

स्पेन के वैज्ञानिकों ने बायो हेस्पिराइट्स नाम समुद्री शोध जहाज से ब्राजील, अफ्रीका, आस्ट्रेलिया और हवाई द्वीप समेत कई देशों की समुद्री यात्रा कर इन्हें आंकड़ों में सहेजा है। जांच में टीम को 64  पॉलीसाइक्लिक एरोमैटिक हाइड्रोकार्बन्स मिले हैं जो अटलांटिक, प्रशांत और हिंद महासागर में पाए गए। इनमें से कुछ अत्यंत विषैले हैं जो समुद्र को जहरीला बनाने का काम कर रहे हैं। वैज्ञानिकों का कहना है कि पीएएचएस की प्रति महीने उत्सर्जन की मात्रा इतिहास के सबसे बड़े तेल रिसाव की घटना से चार गुना अधिक खतरनाक है। तेल रिसाव के घातक परिणाम समुद्री जीवों के लिए बेहद नुकसानदायक है। वैज्ञानिकों की मानें तो कच्चे तेल में मौजूद पॉलीसाइक्लिक एरोमैटिक हाइड्रोकार्बन्स को साफ करना एक कठिन कार्य होता है।

अगर यह साफ नहीं हुआ तो कई वर्षों तक तलछट और समुद्री वातावरण को जहरीला बनाए रखता है। यह तथ्य है कि मालवाहक जहाजों द्वारा जानबूझकर अवैध कचरे यानी कूड़ा-कबाड़  समुद्र में छोड़ा जा रहा है। जबकि विदेशी और घरेलू नियमों के तहत ऐसे कार्य प्रतिबंधित हैं। एक अनुमान के मुताबिक कंटेनर ढोने वाल मालवाहक जहाज तूफानों के दौरान हर वर्ष समुद्र में दस हजार ज्यादा कंटेनर खो देते हैं। और उनमें लदा तेल समुद्री जीवों के जीवन पर भारी पड़ता है। तेल रिसाव के अलावा जहाज ध्वनि प्रदूषण भी फैलाते हैं जिससे जीव-जंतु परेशान होते हैं। इसके अलावा स्थिरक टैंकों से निकलने वाला पानी भी हानिकारण शैवाल एवं अन्य तेजी से पनपने वाली आक्रामक प्रजातियों को फैलाने में मददगार साबित होता है।

'जीवाश्म ईंधन का उपयोग, औद्योगिक कार्बन उत्सर्जन और जंगल की आग इत्यादि से समुद्री जीवन जहरीला बन रहा है। इनसे उत्सर्जित पॉलीसाइक्लिक एरोमैटिक हाइड्रोकार्बन्स (पीएएचएस) नामक घातक रसायन की में मात्रा समुद्र में लगातार बढ़ रही है और समुद्री जीवों का अस्तित्व संकट में पड़ गया है'

एक अन्य शोध में दावा किया गया है कि प्रशांत महासागर के एक बड़े क्षेत्र के समुद्री जल में  ऑक्सीजन की मात्रा लगातार घट रही है। यह शोध जार्जिया इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी के शोधकर्ताओं ने किया है। इसके पीछे भी एशियाई क्षेत्र से उत्पन्न वायु प्रदूषण को ही जिम्मेदार ठहराया गया है। गहरे समुद्र में यह संकट अधिक तेजी से बढ़ रहा है जिससे समुद्री जीवन के लिए खतरा उत्पन्न  हो गया है। वैज्ञानिकों का कहना है कि समुद्री प्रदूषण तब होता है जब रसायन, कण, औद्योगिक, कृषि रिहायशी कचरा या आक्रामक  जीव समुद्र में प्रवेश करते हैं और हानिकारक प्रभाव उत्पन्न करते हैं। समुद्री प्रदूषण के अधिकांश स्रोत जल आधारित होते हैं। समुद्री प्रदूषण अकसर कृषि अपवाह या वायु प्रवाह से पैदा हुए कचरे जैसे अस्पष्ट से होता है। वैज्ञानिकों का कहना है कि कई सामर्थ्य जहरीले रसायन सुक्ष्मकणों से चिपक जाते हैं जिनका सेवन प्लवक और नितल जीव समूह जन्तू करते हैं, जिनमें से ज्यादतर तलछट या फिल्टर फीडर  होते हैं। इस तरह जहरीले तत्व समुद्री पदार्थ क्रम में अधिक गाढ़े हो जाते हैं। कई कण भारी ऑक्सीजन का इस्तेमाल करते हुए रासायनिक क्रिया के जरिए मिश्रित होते हैं और इससे खाड़ियां ऑक्सीजन रहित हो जाती हैं उचित होगा कि समुद्र में ऑक्सीजन की मात्रा, जैव विविधता और जलीय जीवों की सुरक्षा बनाए रखने के लिए हाई सीज ट्रीट्री को शीघ्र मूर्त रूप दिया जाए।

स्रोत:- लोक सम्मान अक्टूबर - 2023

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Post By: Shivendra
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