प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की इजराइल यात्रा के दौरान आपने उन्हें वहां के प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू के साथ समुद्र में एक विशिष्ट जीप में बैठे देखा होगा। यह जीप समुद्र के पानी में चलते हुए समुद्री खारे जल को मीठे पेयजल में बदलने का अचरज भरा काम कर रही थी। गंगाजल से भी उज्ज्वल एवं शुद्ध इस जल को दोनों प्रधानमंत्रियों ने पिया भी पूरी दुनिया समुद्र के पानी को मीठे जल में परिवर्तित करने की तकनीक की खोज में लगी है, लेकिन इजराइल के अलावा अन्य किसी देश को इस तकनीक के आविष्कार में अब तक सफलता नहीं मिली है। भारत भी इस प्रौद्योगिकी की खोज में लगा है, लेकिन असफल ही रहा।
इजराइल से सामरिक और जल संरक्षण के क्षेत्र में भारत ने जो सात समझौते किए हैं, उनमें इस तकनीक का हस्तांतरण शामिल नहीं है। हालांकि हमारे अलीगढ़ मुस्लिम विश्व विद्यालय के वैज्ञानिकों ने समुद्र के पानी को मीठे पानी में तब्दील करने का दावा किया है, लेकिन इस पानी का अब तक बड़े पैमाने पर व्यावसायिक उत्पादन संभव नहीं हो सका है।
प्राचीन काल में समुद्र के खारे पानी को मीठा बनाए जाने के प्रयास लंका सम्राट रावण ने किए थे, पर सफलता नहीं मिली। दुनिया के आधुनिक वैज्ञानिक लगातार इन कोशिशों में लगे हैं कि समुद्र के खारे पानी को पीने के लायक बना लिया जाए, जिससे भविष्य दृष्टाओं द्वारा इस सदी में पानी के लिए तीसरे विश्वयुद्ध की जो आशंकाएं जताई जा रही हैं, उन पर पूर्ण विराम लग सके। भारत में खारा पानी मीठे में कब तब्दील होगा, इसके बारे में फिलहाल कुछ निश्चित नहीं कहा जा सकता, लेकिन मुंबई और समुद्र तटीय महानगरों में गहराई से जल दोहन की वर्तमान स्थिति अनवरत रही तो कई महानगरों का पीने योग्य पानी जरूर, आने वाले एक-दो दशकों में खारा हो जाएगा। मीठे पानी में खारे जल का विलय एक आसन्न खतरा है, जिस पर विचार किया जाना जरूरी है।
संयुक्त राष्ट्र के मुताबिक 2050 तक जब विश्व की 40 फीसदी आबादी जलसंकट भोग रही होगी, तब भी इजराइल में पीने के पानी का संकट नहीं होगा। इजराइल न सिर्फ हथियारों, बल्कि पानी के मामले में भी महाशक्ति बनकर उभरा है। पीएम मोदी ने तेल अवीव के डोर तट पर समुद्र के पानी को तत्काल पीने लायक बनाने वाले संयंत्र का अवलोकन किया। यह संयंत्र 'गेलमोबाइल वाटर फिल्ट्रेशन प्लांट' कहलाता है। यह चलित फिल्टर प्लांट है। नेतन्याहू इसे 'फ्यूचर जीप' कहते है। वहीं मोदी ने इसे बेजोड़ वाहन बताते हुए कहा कि प्राकृतिक आपदा के वक्त यह संयंत्र बेहद उपयोगी हो सकता है।
ब्रिटेन के यूनिवर्सिटी ऑफ मैनचेस्टर के वैज्ञानिकों के एक दल ने ग्रेफीन की एक ऐसी छलनी विकसित की है, जो समंदर के खारे पानी से नमक को अलग कर देती है। ग्रैफीन ग्रेफाइट की पतली पट्टी जैसा तत्व है, जिसे प्रयोगशाला में आसानी से तैयार किया जा सकता है ग्रैफीन ऑक्साइड से निर्मित यह छलनी समुद्र के पानी से नमक अलग करने में सक्षम है, लेकिन इससे उत्पादन बहुत महंगा पड़ता है। वैज्ञानिकों के इस दल का नेतृत्व डॉ. राहुल नायर ने किया है। इस आविष्कार से संबंधित शोध-पत्र को 'साइंस जर्नल नेचर नैनोटेक्नॉलॉजी' ने छापा है।
अलीगढ़ मुस्लिम विश्व विद्यालय के वैज्ञानिकों ने उपरोक्त तकनीक की तुलना में बेहद सस्ती तकनीक से खारे पानी को मीठे पानी में बदलने का दावा किया है। इस तकनीकी को 'इंटरडिस्पिलनरी नैनो टेक्नोलॉजी सेंटर' के निदेशक प्रो. अवसार अहमद ने अंजाम दिया है। उन्होंने इंडोफिटिक फंजाई (फंगस) से पोरस नैनो सामग्री तैयार की, इसकी माप नैनो मीटर से होती है यह फंगस खाने-पीने की वस्तुओं में आसानी से मिल जाते हैं। अहमद बताते हैं कि फंगस के मेमरेन (बायोमास) में पहले छेद किया गया।
छेद का व्यास नैनो मीटर से तय किया गया। छेद युक्त इन नैनो पार्टिकल्स (सूक्ष्म कण) से केवल पानी ही रिस कर बाहर निकलता है अन्य लवणयुक्त कण फंगस के ऊपर ही रहे जाते हैं। इस पानी को साफ करने के लिए विशेष प्रकार का फिल्टर बनाया जाएगा, जिसमें नैनो सामग्री डाली जाएगी। जब खारे पानी को यहां से प्रवाहित किया जाएगा तो वह शुद्ध होकर निकलेगा। खारे पानी में नमक 70-80 नैनो मीटर, बैक्टीरिया 2000 नैनो मीटर और फंगस 5000 नैनो मीटर होते हैं, जिन्हें नैनो सामग्री शुद्ध पानी के साथ नहीं निलकने देते हैं। इस तकनीक से 100 लीटर पानी को शुद्ध करने के लिए मात्र 50 ग्राम सूक्ष्म कणों की जरूरत पड़ेगी।
पृथ्वी का 71 प्रतिशत हिस्सा पानी में डूबा हुआ है। 1.6 प्रतिशत पानी धरती के नीचे है और 0.. 001 फीसद वाष्प और बादलों के रूप में है। पृथ्वी की सतह पर जो पानी है, उसमें 97 प्रतिशत सागरों और महासागरों में है, जो नमकीन होने के कारण पीने लायक नहीं है। कुल उपलब्ध पानी में से केवल तीन प्रतिशत पानी ही पीने योग्य है। इसमें से 2.4 फीसदी हिमखंडों के रूप में उत्तरी और दक्षिणी ध्रुवों पर बर्फ के रूप में जमा हुआ है। भूगर्भीय जल भण्डारों का बेइंतहा दोहन करने और शुद्ध पानी के प्राकृतिक भण्डारों के ऊपर बहुमंजिला इमारतें खड़ी किये जाने से मुंबई, चेन्नई, कोलकाता, गोवा, वापी, दमन, तिरूवनतपुरम, पुरी, एर्नाकुलम, कोझीकोड़, रत्नागिरी और विजयनगरम् जैसे नगरों का भूजल समाप्त होने की स्थिति में है। इनमें सबसे बुरा हाल मुंबई का है। मुंबई में जिस तेजी से जल दोहन किया जा रहा है, उससे लगता है कि 2030 तक मुंबई के मीठे पानी के जल भण्डार रीत जाएंगे मुंबई का पानी लगातार खत्म होता जा रहा है। यहां वर्षा का जो पानी जमीन सोखती है, वह एक निश्चित सीमा तक पहुंच पा रहा है, इसी के नीचे समुद्री क्षार वाला पानी बह रहा है, जो खारा है।
ज्यादा गहराई से दोहन पर बरसात का पानी क्षार वाले पानी में विलय होकर खारा हो जाएगा। जमीन की भीतरी बनावट ऐसी होती है कि बारिश का पानी एक निर्धारित सीमा तक ही जमीन में तैरता रहता है, जो कि प्रसंस्कृत होकर नीचे पीने के योग्य अपने आप बनता रहता है लेकिन ज्यादा खुदाई के बाद मुंबई में खारा पानी आ जाता है, क्योंकि वह समुद्री जल स्तर से प्रभावित होने लगता है यह खतरा भूमण्डल का तापमान लगातार बढ़ते जाने से और बढ़ गया है दूर संवेदी उपग्रहों के माध्यम से हुए नए अध्ययनों से पता चलता है कि पश्चिमी अंटार्कटिक में बिछी बर्फ की पट्टी बहुत तेजी से पिघल रही है। यह पानी समुद्री जल को बढ़ा रहा है। इस कारण एक ओर तो बंगलादेश और मार्शल द्वीपों पर डूब जाने का आसन्न खतरा मंडरा है, वहीं समुद्री रिहाइशी इलाकों के पीने योग्य पानी का खारे पानी में विलय हो जाने का खतरा है।
मुंबई में गहराई से जल दोहन के लिए टैंकर लॉबी को दोषी माना जा रहा है। ये टैंकर गहराई से लाखों क्यूसेक मीठा पानी पम्पों से खींचकर भवन निर्माताओं और औद्योगिक इकाइयों को प्रदान करते हैं। जलस्तर गिरने के लिए यही टैंकर लॉबी जिम्मेदार हैं, भूगर्भ जल विशेषज्ञों का मानना है कि मुंबई में अभी भी सैंकड़ों स्थानों पर मीठे पानी के भण्डार गहरे में सुरक्षित हैं लेकिन इन स्थलों से जलदोहन नहीं किया जा सकता क्योंकि यहां बहुमंजली इमारतें खड़ी हो चुकी हैं।
मुंबई के कई पुराने कुंओं का पानी सूख गया है। इससे अनुमान लगता है कि जलस्तर कितने नीचे चला गया है। जल स्तर गिरने का सबसे बड़ा कारण बड़े पैमाने पर आलीशान अट्टालिकाएं बनाए जाने के लिए खोदी गई गहरी बुनियादें हैं। बुनियादें खोदते समय निकले पानी को पपिंग करके पक्के नालों के जरिए समुद्र में बहा देने के कारण जलस्तर नीचे गिर जाने की समस्या भयावह हुई है।
दूसरी तरफ बरसात के पानी को भी पक्के नालों व नालियों के मार्फत समुद्र में बहा दिया जाता है। गोया, जब पानी जमीन पर बहेगा ही नहीं तो जमीन उसे सोखेगी कैसे? और जमीन जलग्रहण ही नहीं करेगी तो जल स्तर बढ़ेगा कैसे? इस सिलसिले में मुंबई के पानी में भीतरी भण्डारों पर अध्ययन कर चुके भूगर्भ शास्त्री डॉ. ऋषिकेश सामंत का कहना है कि नई इमारतों की मंजूरी देने से पहले भूगर्भ जलस्तर की पड़ताल की जाए और यदि ऐसे स्थलों पर पीने योग्य पर्याप्त जल है तो इमारतें खड़ी करने की इजाजत नहीं दी जानी चाहिए।
समुद्र का पानी स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है। इसमें पाये जाने वाले विभिन्न तत्वों को पचाने की क्षमता शरीर में नहीं होती है। ये तत्व मनुष्य के शरीर में ऐसी बीमारियां पैदा करते हैं जो भारत में लाइलाज है। 1994 में लिए गए उपग्रहचित्रों से गहरे भूजल भण्डारों का पता चला था लेकिन इनका उचित संरक्षण नहीं किए जाने से ये लगातार रीतते चले जा रहे हैं।
1924 के पहले तक मुंबई के उपनगरों में बड़ी मात्रा में हरियाली थी और खाली जमीन पर भी पक्की सड़क या खरंजे नहीं थे। ना आदि भी कच्चे थे। बहुमंजिला भवनों का निर्माण भी कम था। गोया, तब इन नगरों में जल भण्डार भी खूब थे और जलस्तर ऊपर था। मुंबई जैसा हाल ही अन्य महानगरों का है। इस स्थिति में बदलाव भी आता नहीं दिख रहा है। इसलिए भारत को जरूरी है कि वह समुद्री जल को मीठे पानी में बदलने की प्रौद्योगिकी या तो स्वयं विकसित करे अथवा इजराइल जैसे देशों से हासिल करे।
समुद्र के खारे पानी से जुड़ी लोक कथा
एक बुंदेली लोक कथा में समुद्र के खारे पानी का रहस्य कुछ यूँ बताया गया है। एक बुजुर्ग महिला के सादे जीवन से प्रसन्न होकर देवी पार्वती ने उसे एक चक्की देते हुए वरदान दिया कि वह इस चक्की से जो भी इच्छित वस्तु मांगेगी, चलती चक्की उसे वह दे देगी। चलती चक्की बंद करने के लिए एक मंत्र का जाप भी बताया। जरूरत भर चीजें पाने के बाद मंत्र जाप करने से चक्की बंद हो जाती थी। इस चक्की को पाकर महिला का जीवन सुखी हो गया। वह जरूरत की चीजें लेती और चक्की बंद कर देती। दुर्योग से इन्हीं दिनों एक विदेशी व्यापारी समुद्री जहाज से बुंदेलखंड व्यापार करने आया। उसे बूढ़ी औरत के पास जादुई चक्की होने की खबर लग गई।
व्यापारी ने एक दिन मौका पाकर चक्की चुरा ली। वह उसे लेकर जहाज से अपने देश रवाना हो गया। समुद्र में जहाज से चलते हुए उसे भोजन में पानी में नमक की कमी अनुभव हुई। उसने चक्की से नमक देने की इच्छा प्रकट की। उसके बोलते ही चक्की चलकर नमक उगलने लगी। नमक का ढेर लग गया। उसे चक्की बंद करने का मंत्र नहीं आता था। फलस्वरूप नमक के पहाड़ के पहाड़ जिठते चले गए। अंततः नमक के बोझ से जहाज समुद्र में डूब गया। किंतु चक्की चलना बंद नहीं हुई। नतीजतन समुद्र के तल में आज भी चक्की चलते हुए नमक के उत्पादन में लगी है। इसी कारण समुद्र का पानी खारा बना हुआ है।
समुद्र का पानी खारा होने का वैज्ञानिक कारण समुद्र में जो नमक है, वह नदियों द्वारा वहां पहुंचाया गया है। जब समुद्र का पानी वाष्पीकृत होता है, तो वह हवा में उठकर बादल बन जाता है। यही बादल जमीनी इलाकों में पहुंचकर वर्षा के रूप में बरसता है। बरसते समय उसका संपर्क हवा में मौजूद कार्बन डाइआक्साइड, सल्फर डाइआक्साइड, नाइट्रोजन ऑक्साइड आदि गैसों से होता है। ये गैसें पानी में घुल जाती हैं। जिससे वर्षा जल हल्का सा अम्लीय हो जाता है। जब यह अम्लीय जल धरती पर गिरता है, तो वह धरती पर उपलब्ध लवणों को अपने में विलय कर लेता है। सतह से जब यह पानी बाहर नदियों में पहुंचता है, तो नदी के पानी में भी यह लवणांश आ जाता है। परंतु इस पानी में लवण की मात्रा बहुत कम होती है, इसलिए नदियों का पानी पीने लायक बना रहता है। नदियों का यह लवणयुक्त पानी हजारों साल से समुद्रों में बहकर पहुंच रहा है। गोया, समुद्र में बड़ी मात्रा में नमक इकट्ठा हो गया है। समुद्र की तलहटी में बड़ी संख्या में चट्टानें मौजूद रहती हैं। इनमें भी नमक बनने की प्रक्रिया निरंतर चलती रहती है। यह नमक भी जल में घुलकर इसे खारा बनाता है। समुद्री सतहों में ज्वालामुखी भी फूटते रहते हैं। इनसे फूटा लावा क्लोरीन, सल्फर डाइऑक्साइड आदि गैसें छोड़ता है। समुद्र में सोडियम आदि पदार्थ भी होते हैं। इनके साथ क्लोरीन की प्रतिक्रिया से लवण बन जाते हैं। जिस नमक को हम खाते हैं, वह सोडियम और क्लोरीन का यौगिक ही होता है।
समुद्र जल में मौजूद नमक तो उसी में रहता है, पर सूर्य की गरमी से समुद्र का जल वाष्पीकृत होकर समुद्र से बाहर आता रहता है। यही आकाश में गहराकर बादल बन जाते हैं। वाष्प पूरी तरह शुद्धतम जल होता है। मसलन इसमें नमक बिल्कुल नहीं रहता है। इस तरह समुद्र का पानी तो निरंतर चक्रित होता रहता है, पर नमक समुद्र में ही एकत्रित होता रहता है। हजारों साल से चल रही इस प्रक्रिया के कारण समुद्रों का जल खारा हो गया है। उपर्युक्त प्रक्रियाओं के निरंतर चलते रहने के कारण समुद्र का खारापन उत्तरोत्तर बढ़ता ही रहता है, ऐसा नहीं है समुद्र के अंदर ऐसी कई प्रक्रियाएं होती रहती हैं, जिनके कारण समुद्र जल का नमक समुद्र के तल में क्षरित भी होता रहता है। इसमें कुछ शल्क धारी जीव-जंतु भी योगदान करते हैं। ये जीवधारी अपनाखोल बनाने के लिए समुद्र जल से नमक लेते रहते हैं। जब ये मरते हैं, तो इनका खोल समुद्र के तल में इकट्ठा होने लगता है, और बहुत समय बीतने पर चूना पत्थर में बदल जाता है। भू-सतह के हलचल के दौरान चूना पत्थर की परतें कहीं से कहीं पहुंच जाती हैं, यानी समुद्र के बाहर निकल आती हैं।
"पृथ्वी का 71 प्रतिशत हिस्सा पानी में डूबा हुआ है। 1.6 प्रतिशत पानी धरती के नीचे है और 0.001 फीसद वाष्प और बादलों के रूप में है। पृथ्वी की सतह पर जो पानी है, उसमें 97 प्रतिशत सागरों और महासागरों में है, जो नमकीन होने के कारण पीने लायक नहीं है। कुल उपलब्ध पानी में से केवल तीन प्रतिशत पानी ही पीने योग्य है। इसमें से 2.4 फीसदी हिमखंडों के रूप में उत्तरी और दक्षिणी ध्रुवों पर बर्फ के रूप में जमा हुआ है। भूगर्भीय जल भण्डारों का बेइंतहा दोहन करने और शुद्ध पानी के प्राकृतिक भण्डारों के ऊपर बहुमंजिला इमारतें खड़ी किये जाने से मुंबई, चैन्नई, कोलकाता, गोवा, बापी, दमन, तिरुवनंतपुरम, पुरी, एर्नाकुलम, कोझीकोड़, रत्नागिरी और विजयनगरम् जैसे नगरों का भूजल समाप्त होने की स्थिति में है।"
इनका खनन करके ही हम घर की दीवारों में लगने वाला चूना प्राप्त करते हैं। एक बार चट्टानों में बदल जाने पर समुद्र का लवण फिर समुद्र के पानी को खारा नहीं बना सकता, इसलिए समुद्र का खारापन करोड़ों वर्षों से एक-सा ही बना हुआ है।समुद्र के जल में औसतन 3.5 प्रतिशत लवणांश होता है। इसका मतलब यह हुआ कि हर 100 ग्राम समुद्र जल में 3.5 ग्राम लवण होता है। इस लवण में मुख्यतः क्लोरीन के लवण होते हैं, जैसे खाने वाला नमक समुद्र के जिन स्थलों पर नदियां आकर विलय होती हैं, वहां समुद्र जल का खारापन कम होता है। मृत सागर ऐसा समुद्र है, जिसका खारापन सामान्य समुद्रों से दस गुना अधिक होता है यानी करीब 33.7 प्रतिशत, इसका कारण यह है कि वह अन्य समुद्रों से अलग-थलग है। इसमें अन्य समुद्रों की तरह नदियां आकर मिलती नहीं हैं। इस सागर में वाष्पीकरण बहुत अधिक होता है। इसलिए लवणों का सांद्रीकारण भी अधिक होता है। इस उच्च लवणीयता के कारण मृत सागर में सूक्ष्म जीवी भी अधिक नहीं पनपते हैं। इसलिए सूक्ष्म जीवधारियों को खाकर जिंदा रहने वाली मछलियां और अन्य जीव-जंतु भी इसमें कम ही होते हैं। शायद इसी कारण इस सागर को मृत सागर कहा जाता है।
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