पृथ्वी का 70 प्रतिशत से अधिक भूभाग पानी से घिरा है, जहां विभिन्न छोटी नदियां और करोड़ों जल स्रोत नदियों के प्रवाह को प्राण देते हैं और नदियां धरती को सींचती हुई समुद्र में मिल जाती हैं। इन्हीं नदियों और प्राकृतिक जलस्रोतों को पृथ्वी की रक्तवाहिनियां कहा जाता है, लेकिन अधिकांश नदियां और जलस्रोत प्रदूषित हो चुके हैं, जबकि लाखों की संख्या में सूख भी चुके हैं। कई तो सूखने की कगार पर हैं। मानवीय गतिविधियों के कारण जल के यूं समाप्त होने का जैव विविधता पर बड़े स्तर पर प्रभाव पड़ा है। हम ये भी कह सकते हैं कि जैव विविधता के नष्ट होने के कारण जल भी समाप्त होता जा रहा है। हालांकि प्रदूषण की समस्या केवल नदियों तक ही सीमित नहीं है। हमने समुद्र को प्रदूषित कर दिया है। इससे समुद्री जीवन प्रभावित हो रहा है और ये इंसानों के लिए भी काफी घातक है।
समुद्री प्रदूषण के कई कारण हैं। ऑयल स्पिल (तेल गिरने) के कारण समुद्र में बड़े पैमाने पर प्रदूषण फैलता है, लेकिन समुद्रों में तेल केवल 12 प्रतिशत ही है। इससे तीन गुना ज्यादा तेल सड़कों, नालों और नदियों के माध्यम से समुद्र में मिलता है। हाल ही में रूस की नदी में 21 हजार टन से अधिक तेल रिसाव हो गया, जो नदी की धारा में लगातार फैलता जा रहा है। इसका प्रभाव मानव और जलीय जीवन पर भी पड़ेगा। इसी कारण वहां राज्य आपातकाल लगाया गया है। डाउन टू अर्थ में प्रकाशित एक लेख के मुताबिक इंसान हर साल महासागरों में 80 लाख मीट्रिक टन प्लास्टिक फेंकते हैं, जो लगभग 57 हजार ब्लू व्हेल के वजन के बराबर है। कुछ विशेषज्ञों का ऐसा भी मानना है कि 2050 समुद्र में प्लास्टिक मछलियों से ज्यादा हो जाएगा। इसी लेख में ये भी बताया गया है कि समुद्र में कचरे के पांच पैच हैं। इसमें सबसे बड़ा पैच ग्रेट पैसिफिक गार्बेज है, जहां कचरे के करीब 1.8 लाख करोड़ टुकड़े हैं। इसका आकार टेक्सस से दोगुना है।
समुद्र में जमा प्लास्टिक कचरा सूरज की किरणों और समुद्री लहरों के दबाव से छोटे टुकड़ों में टूट जाता है। प्लास्टिक के इन महीन या बारीक टुकड़ों को ‘माइक्रो-प्लास्टिक’ कहते हैं। जब भी हम किसी भी प्रकार का समुद्री भोजन ग्रहण करते हैं, तो ये माइक्रो-प्लास्टिक हमारे शरीर में भी पहुंच जाता है। स्पष्ट कहूं तो, माइक्रो-प्लास्टिक हमारी फूड चेन का हिस्सा बन चुका है, क्योंकि इसे नष्ट होने से 400 साल से ज्यादा का समय लगता है। ये जानकर हैरानी होगी कि माइक्रो-प्लास्टिक हर खाने को स्वाद देने वाले ‘नमक’ में भी पाया जा सकता है। साथ ही अन्य जहरीले तत्व भी इनमें पाए जाते हैं। हाल ही में फ्लोरिडा इंटरनेशनल यूनिवर्सिटी के समुद्री जीवविज्ञान के शोध छात्र लाॅरा गार्सिया की टीम ने अमेरिका और हांगकांग की एक टीम के साथ मिलकर एक अध्ययन किया। अध्ययन को मरीन पाॅल्यूशन बुलेटिन में भी प्रकाशित किया गया है। अध्ययन एशियाई देशों के बाजारों में बिकने वाली शार्क मछली के पंखों पर किया गया।
अध्ययन के लिए चीन और जापान के बाजारों में शार्क प्रजातियों के 267 शार्क फिन ट्रिमिंग्स की जांच की। जांच के सामने आया कि शार्क के पंखों में पारा, मिथाइल-पारा और आर्सेनिक का स्तर काफी खतरनाक था। इस दौरान एक शार्क फिन के नमूने की सांद्रता 0.5 प्रति दस लाखवां भाग (पार्ट पर मिलियन) मिला। ग्रेट हैमरहेड शाक में पारे की सांद्रता 55.52 पार्ट पर मिलियन पाई गई। यही एक नीली शार्क में 0.02 पार्ट पर मिलियन था। हालांकि पारे की अधिक मात्रा शार्कों को कितना नुकसान पहुंचाएगी, ये तो नहीं पता, लेकिन इंसानों पर इसका घातक असर पड़ता है। लंबे समय तक पारे के संपर्क में रहने से दिमाग और केंद्रीय तंत्रिका तंत्र (Central nervous system) को नुकसान पहुंच सकता है। साथ ही ये भ्रूण के विकास को भी प्रभावित कर सकता है। तो वहीं आर्सेनिक से त्वचा संबंधी बीमारियां और कैंसर तक हो सकता है।
ये शोध फिलहाल केवल शार्क पर किया गया है, लेकिन अन्य समुद्री जीवों में भी पारा सहित अन्य धातु पाए जाने की संभावना है। ऐसे में जीवों को खाने की इंसान की आदत समुद्री प्रदूषण के कारण उनमें विभिन्न बीमारियों को जन्म दे रही हैं, लेकिन फिलहाल ये बीमारियां प्रत्यक्ष तौर पर दिखाई नहीं दे रही हैं और यदि दिखती भी हैं, तो इनका वास्तविक कारण स्वीकार करने के लिए कोई राज़ी नहीं होता। नजीजतन, समुद्री प्रदूषण हर साल बढ़ता जा रहा है और ये इंसानों के लिए खतरनाक स्तर पर पहुंच ही गया है, लेकिन हम केवल हर साल 8 जून को विश्व महासागर दिवस मनाने तक ही सीमित हैं।
हिमांशु भट्ट (8057170025)
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