पिछले 25 सालों से ‘सी-बर्ड’ विस्थापितों का संघर्ष चल रहा है। शुरू में राज्य सरकार ने केंद्र से मुआवजे के लिए 26 करोड़ रुपए मांगे थे। आज यह मांग बढ़ कर सवा सौ करोड़ से अधिक हो गई है। विस्थापितों के नेता उनकी सभी जरूरतों को पूरा करने के लिए 250 करोड़ चाहते हैं। इसके लिए धरने-प्रदर्शनों के दौर चल रहे हैं। विस्थापितों के संगठन भेदभाव का आरोप लगाते हुए बताते हैं कि कडरा और कोडासेल्ली हाइडल प्रोजेक्टों में विस्थापितों को पांच से 10 लाख रुपए तक का मुआवजा मिला था। देश की सुरक्षा के नाम पर उन्हें ऐसा उजाड़ा कि वे फिर बस नहीं पाए। अब तो दूसरी पीढ़ी भी बेरोजगार, लाचार, नाउम्मीद सी शरणार्थी बन कर पलायन कर गई है। कई पुश्तों से उनके जीवनयापन का जरिया केवल समुद्र रहा है। कुछ लोग खेती कर लेते थे। बीते 25 सालों से उन्हें अपने खेतों में हल चलाने की अनुमति नहीं है समुद्र में उनकी नौकाएं जा नहीं सकती। 1986 में वहां एशिया के सबसे विशाल नौसैनिक अड्डे की आधारशिला रखी गई थी। इसका पहला चरण 2005 में पूरा हो गया। अब सरकार उसके दूसरे चरण को 2018 तक पूरा करने के लिए जुट गई है। ग्रामीणों से जल जंगल-जमीन छीनना जारी है, लेकिन पुनर्वास की कोई नहीं सोच रहा। इसे योजनाकार नहीं समझ पा रहे हैं कि आंतकवाद के खतरे से कहीं ज्यादा खतरनाक है पर्यावरणीय खतरा। ‘सी बर्ड’ योजना का पहला चरण गवाह है कि इससे न केवल नैसर्गिक, वरन सामाजिक प्रदूषण भी सहन सीमा को लांघ चुका है।
नौसेना का सबसे बड़ा अड्डा बनाने के लिए 1986 में तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने कारवाड़ के विशाल समुद्री तट पर ‘सी-बर्ड’ का शिलान्यास किया था। कारवाड़ के लिए बिनगा गांव से अंकोला तक के 28 किलोमीटर समुद्र तट पर बसे 13 गाँवों को इसके लिए हटाया गया। इसकी चपेट में कुल 4779 परिवारों के घर-खेत आए। लगभग 8423 एकड़ जमीन का अधिग्रहण किया गया। इसमें 2500 एकड़ निजी जमीन थी। दस लाख से ज्यादा नारियल के हरे पेड़ काट गिराए गए। जैवविविधता के लिए विश्व प्रसिद्ध ‘वेस्टर्न’ घाट की चार हजार हेक्टेयर उर्वर जमीन को भी कंक्रीट के जंगल में बदल दिया गया।
अब दूसरे फेज के लिए जैव विविधता के लिए संरक्षित घोषित ‘नेतरानी’ द्वीप को भी मटियामेट किया जाएगा। इसके अलावा दस हजार हेक्टेयर हरी-भरी जमीन से लोगों को खदेड़ा जा रहा है। विडंबना यह है कि अभी तक पुनर्वास, मुआवजे के 25 साल पुराने मामलों का फैसला नहीं हो पाया है। उत्तर कन्नड़ जिला तो ‘सी-बर्ड’ के कारण उजड़े लोगों के शरण-स्थल के रूप में मशहूर हो गया है। वहां घर में काम करने वाले नौकर, मजदूर, भिखारी सभी कोई कारवाड़ के उन गाँवों से हैं जिन्हें नौसेना अड्डे के लिए बेघर किया गया था। यहां से उजड़े लोगों के लिए नौ स्थानों पर पुनर्वास बस्तियां बनाई गई हैं। वहां कोई जाने को राजी नहीं था,कारण बगैर रोज़गार के मकान की दीवारों में बंध कर कौन रहना चाहता। फलस्वरूप इन कालोनियों के मकान खंडहर हो गए।
शिलान्यास के बाद ही परियोजना ठंडे बस्ते में चली गई थी। 1995 में केंद्र सरकार को फिर इसकी याद आई। 1997 में नए सिरे से काम शुरू हुआ और 2005 में पहला चरण पूरा हुआ। लगातार वायदे होते रहे, इसके विपरीत गांव-खेतों को उजाड़ा जाना यथावत जारी है। अपनी माटी से उजड़े लोग न तो पुनर्वास से खुश हैं न ही मुआवजे से। कभी जिनके खुद के खेत हुआ करते थे, वे कुलीगिरी करने को मजबूर हैं। सालाना दो-तीन फसलें लेने वाला किसान मछली नौकाओं पर मजदूरी कर रहा है।
अरगा ग्राम पंचायत के प्रधान पांडु आर हरिकांत इससे गुस्सा हैं कि उनके इलाके में 12 सालों में नारियल का एक भी पेड़ नहीं लगाने दिया गया। वे पुनर्वास कालोनियों को मजाक बताते हैं। जनम जिंदगी समुद्र के किनारे रहने वाले मछुआरों को मजाली, मुडगा, हारवाड़ जैसी जगहों पर खदेड़ा जा रहा है, जहां दूर-दूर तक सागर तट है ही नहीं। जो पुनर्वास बस्तियां तथाकथित रूप से समुद्र तट पर हैं भी तो वहां पानी घर से तीन किमी दूर है। उनकी आदत है आंख खोलते ही सामने समुद्र देखने की। इन कालोनियों में नाव, जाल आदि रखने के लिए अस्थायी शेड बनाने पर भी पाबंदी है सो मछुआरे किसी भी सूरत में सरकारी कालोनियों में जाने को राजी नहीं हैं।
पेशे से मछुआरे बिनगा गांव के सरपंच गणपति मांगरे बताते हैं कि ‘सी-बर्ड’ के कारण मछुआरों की एक गुंता से एक एकड़ तक जमीन जब्त हुई है। बदले में अधिकतम दो गुंता (एक गुंता में एक एकड़ का 40वां हिस्सा होता है) जमीन दी जा रही है। पांच-छह परिवारों का इतनी सी जमीन पर रहना संभव नहीं है। आरंभ में रक्षा मंत्रालय ने महज रुपए 150 प्रति गुंता की दर से मुआवजा तय किया था। उस समय करीबी केरल राज्य में यह रुपए 2500 तक थी। विस्थापित लोग आदलत गए और उन्हें रुपए 11,500 प्रति गुंता का मुआवजा चुकाने का आदेश हुआ। इसके खिलाफ रक्षा मंत्रालय हाईकोर्ट चला गया। अब बेंगलुरु जाकर कोर्ट कचहरी करने का दम तो गांव वालों में था नहीं सो वहां से रुपए 1500 का मुआवजे के भुगतान का फैसला हुआ। अभी भी सारा मसला कागजी दौड़भाग में अटका है। सिर पर दूसरे चरण की तलवार लटक गई है। बेलेकेरी गांव के बुजुर्ग सुमतीन्द्र कुरगी कहते हैं कि वे अपने हिस्से की करोड़ों रुपए की जमीन और मछली देश के लिए दान कर रहे हैं। इसके एवज में सरकार उनकी बात सहानुभूति से सुन भी नहीं रही है। पहाड़ी काट कर किसानों को जमीन बांट दी गई। एक तो वह जमीन खेती के लिए उपयुक्त नहीं है, फिर वहां सिंचाई का जरिया नहीं है।
पिछले 25 सालों से ‘सी-बर्ड’ विस्थापितों का संघर्ष चल रहा है। शुरू में राज्य सरकार ने केंद्र से मुआवजे के लिए 26 करोड़ रुपए मांगे थे। आज यह मांग बढ़ कर सवा सौ करोड़ से अधिक हो गई है। विस्थापितों के नेता उनकी सभी जरूरतों को पूरा करने के लिए 250 करोड़ चाहते हैं। इसके लिए धरने-प्रदर्शनों के दौर चल रहे हैं। विस्थापितों के संगठन भेदभाव का आरोप लगाते हुए बताते हैं कि कडरा और कोडासेल्ली हाइडल प्रोजेक्टों में विस्थापितों को पांच से 10 लाख रुपए तक का मुआवजा मिला था।
‘सी-बर्ड’ का कुल खर्च 2500 करोड़ से अधिक है, जबकि पुनर्वास के लिए मांगा जा रहा धन बहुत थोड़ा सा है। इन लोगों की मांगों में पुनर्वास कालोनियों को फिर से बसाना मछुआरों को समुद्र तट के पास जमीन देना, किसानों के लिए उपजाऊ जमीन और हर परिवार से एक को प्रोजेक्ट या अन्य कोई सरकारी नौकरी देना मुख्य है। इसके अलावा 18 साल से अधिक उम्र के बच्चों को 15 हजार से एक लाख तक मुआवजा व हरेक परिवार को पचास हजार की विशेष सहायता भी मांगी जा रही है।
समुद्री चिड़िया के शिकार लोगों के प्रति सांत्वना के शब्द तो सभी देते रहे, इस दौरान सभी दलों की सरकारें राज्य में बन गईं। कुछ समय के लिए राज्य के एक नेता प्रधानमंत्री भी रहे। एक बार मेधा पाटकर वहां आम सभा कर आई हैं। पर कहीं कोई उम्मीद की किरण नहीं दिख रही हैं। उलटे हाल ही में कुछ गाँवों के 500 घर बगैर किसी पूर्व सूचना के ढहा दिए गए। ग्रामीण निराश हैं कि आखिर वे अपनी व्यथा कहें किससे?
नौसेना का सबसे बड़ा अड्डा बनाने के लिए 1986 में तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने कारवाड़ के विशाल समुद्री तट पर ‘सी-बर्ड’ का शिलान्यास किया था। कारवाड़ के लिए बिनगा गांव से अंकोला तक के 28 किलोमीटर समुद्र तट पर बसे 13 गाँवों को इसके लिए हटाया गया। इसकी चपेट में कुल 4779 परिवारों के घर-खेत आए। लगभग 8423 एकड़ जमीन का अधिग्रहण किया गया। इसमें 2500 एकड़ निजी जमीन थी। दस लाख से ज्यादा नारियल के हरे पेड़ काट गिराए गए। जैवविविधता के लिए विश्व प्रसिद्ध ‘वेस्टर्न’ घाट की चार हजार हेक्टेयर उर्वर जमीन को भी कंक्रीट के जंगल में बदल दिया गया।
अब दूसरे फेज के लिए जैव विविधता के लिए संरक्षित घोषित ‘नेतरानी’ द्वीप को भी मटियामेट किया जाएगा। इसके अलावा दस हजार हेक्टेयर हरी-भरी जमीन से लोगों को खदेड़ा जा रहा है। विडंबना यह है कि अभी तक पुनर्वास, मुआवजे के 25 साल पुराने मामलों का फैसला नहीं हो पाया है। उत्तर कन्नड़ जिला तो ‘सी-बर्ड’ के कारण उजड़े लोगों के शरण-स्थल के रूप में मशहूर हो गया है। वहां घर में काम करने वाले नौकर, मजदूर, भिखारी सभी कोई कारवाड़ के उन गाँवों से हैं जिन्हें नौसेना अड्डे के लिए बेघर किया गया था। यहां से उजड़े लोगों के लिए नौ स्थानों पर पुनर्वास बस्तियां बनाई गई हैं। वहां कोई जाने को राजी नहीं था,कारण बगैर रोज़गार के मकान की दीवारों में बंध कर कौन रहना चाहता। फलस्वरूप इन कालोनियों के मकान खंडहर हो गए।
शिलान्यास के बाद ही परियोजना ठंडे बस्ते में चली गई थी। 1995 में केंद्र सरकार को फिर इसकी याद आई। 1997 में नए सिरे से काम शुरू हुआ और 2005 में पहला चरण पूरा हुआ। लगातार वायदे होते रहे, इसके विपरीत गांव-खेतों को उजाड़ा जाना यथावत जारी है। अपनी माटी से उजड़े लोग न तो पुनर्वास से खुश हैं न ही मुआवजे से। कभी जिनके खुद के खेत हुआ करते थे, वे कुलीगिरी करने को मजबूर हैं। सालाना दो-तीन फसलें लेने वाला किसान मछली नौकाओं पर मजदूरी कर रहा है।
अरगा ग्राम पंचायत के प्रधान पांडु आर हरिकांत इससे गुस्सा हैं कि उनके इलाके में 12 सालों में नारियल का एक भी पेड़ नहीं लगाने दिया गया। वे पुनर्वास कालोनियों को मजाक बताते हैं। जनम जिंदगी समुद्र के किनारे रहने वाले मछुआरों को मजाली, मुडगा, हारवाड़ जैसी जगहों पर खदेड़ा जा रहा है, जहां दूर-दूर तक सागर तट है ही नहीं। जो पुनर्वास बस्तियां तथाकथित रूप से समुद्र तट पर हैं भी तो वहां पानी घर से तीन किमी दूर है। उनकी आदत है आंख खोलते ही सामने समुद्र देखने की। इन कालोनियों में नाव, जाल आदि रखने के लिए अस्थायी शेड बनाने पर भी पाबंदी है सो मछुआरे किसी भी सूरत में सरकारी कालोनियों में जाने को राजी नहीं हैं।
पेशे से मछुआरे बिनगा गांव के सरपंच गणपति मांगरे बताते हैं कि ‘सी-बर्ड’ के कारण मछुआरों की एक गुंता से एक एकड़ तक जमीन जब्त हुई है। बदले में अधिकतम दो गुंता (एक गुंता में एक एकड़ का 40वां हिस्सा होता है) जमीन दी जा रही है। पांच-छह परिवारों का इतनी सी जमीन पर रहना संभव नहीं है। आरंभ में रक्षा मंत्रालय ने महज रुपए 150 प्रति गुंता की दर से मुआवजा तय किया था। उस समय करीबी केरल राज्य में यह रुपए 2500 तक थी। विस्थापित लोग आदलत गए और उन्हें रुपए 11,500 प्रति गुंता का मुआवजा चुकाने का आदेश हुआ। इसके खिलाफ रक्षा मंत्रालय हाईकोर्ट चला गया। अब बेंगलुरु जाकर कोर्ट कचहरी करने का दम तो गांव वालों में था नहीं सो वहां से रुपए 1500 का मुआवजे के भुगतान का फैसला हुआ। अभी भी सारा मसला कागजी दौड़भाग में अटका है। सिर पर दूसरे चरण की तलवार लटक गई है। बेलेकेरी गांव के बुजुर्ग सुमतीन्द्र कुरगी कहते हैं कि वे अपने हिस्से की करोड़ों रुपए की जमीन और मछली देश के लिए दान कर रहे हैं। इसके एवज में सरकार उनकी बात सहानुभूति से सुन भी नहीं रही है। पहाड़ी काट कर किसानों को जमीन बांट दी गई। एक तो वह जमीन खेती के लिए उपयुक्त नहीं है, फिर वहां सिंचाई का जरिया नहीं है।
पिछले 25 सालों से ‘सी-बर्ड’ विस्थापितों का संघर्ष चल रहा है। शुरू में राज्य सरकार ने केंद्र से मुआवजे के लिए 26 करोड़ रुपए मांगे थे। आज यह मांग बढ़ कर सवा सौ करोड़ से अधिक हो गई है। विस्थापितों के नेता उनकी सभी जरूरतों को पूरा करने के लिए 250 करोड़ चाहते हैं। इसके लिए धरने-प्रदर्शनों के दौर चल रहे हैं। विस्थापितों के संगठन भेदभाव का आरोप लगाते हुए बताते हैं कि कडरा और कोडासेल्ली हाइडल प्रोजेक्टों में विस्थापितों को पांच से 10 लाख रुपए तक का मुआवजा मिला था।
‘सी-बर्ड’ का कुल खर्च 2500 करोड़ से अधिक है, जबकि पुनर्वास के लिए मांगा जा रहा धन बहुत थोड़ा सा है। इन लोगों की मांगों में पुनर्वास कालोनियों को फिर से बसाना मछुआरों को समुद्र तट के पास जमीन देना, किसानों के लिए उपजाऊ जमीन और हर परिवार से एक को प्रोजेक्ट या अन्य कोई सरकारी नौकरी देना मुख्य है। इसके अलावा 18 साल से अधिक उम्र के बच्चों को 15 हजार से एक लाख तक मुआवजा व हरेक परिवार को पचास हजार की विशेष सहायता भी मांगी जा रही है।
समुद्री चिड़िया के शिकार लोगों के प्रति सांत्वना के शब्द तो सभी देते रहे, इस दौरान सभी दलों की सरकारें राज्य में बन गईं। कुछ समय के लिए राज्य के एक नेता प्रधानमंत्री भी रहे। एक बार मेधा पाटकर वहां आम सभा कर आई हैं। पर कहीं कोई उम्मीद की किरण नहीं दिख रही हैं। उलटे हाल ही में कुछ गाँवों के 500 घर बगैर किसी पूर्व सूचना के ढहा दिए गए। ग्रामीण निराश हैं कि आखिर वे अपनी व्यथा कहें किससे?
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