समुद्र और जलाशयों में प्लास्टिक कचरे को रोकने के लिए बन रही हैं प्लास्टिक की रोड 

प्लास्टिक कचरे का उचित प्रबंधन जरूरी
प्लास्टिक कचरे का उचित प्रबंधन जरूरी

संयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट के मुताबिक भारत में बहने वाली दो बड़ी नदियों पर प्लास्टिक कचरे के इस्तेमाल का असर साफ-साफ दिखाई देता है। संयुक्त राष्ट्र के मुताबिक सिंध नदी से समुद्र में लगभग 164,332 टन और मेघना-ब्रह्मपुत्र से 72,845 टन प्लास्टिक कचरा समुद्र में पहुँचता है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 2022 तक देश में सिंगल-यूज़ प्लास्टिक का इस्तेमाल बंद करने का लक्ष्य तय किया है। 130 करोड़ आबादी वाले भारत जैसे देश में प्लास्टिक का बहुत ही ज्यादा इस्तेमाल होता रहा है। भारत में प्रति व्यक्ति औसतन 11 किलोग्राम सिंगल-यूज़ प्लास्टिक का इस्तेमाल होता है, अमेरिका में यह आंकड़ा 109 किलोग्राम है। यह जानकारी फिक्की के आंकड़ों पर आधारित है। फिक्की ने 2017 में इस तरह के आंकड़े जारी किए थे। एक अनुमान के मुताबिक सरकार का मानना है कि भारत में 2022 तक प्लास्टिक की प्रति व्यक्ति औसत उपयोग बढ़कर 20 किलोग्राम तक पहुंच सकता है। भारत में सालाना लगभग छप्पन लाख टन सिंगल-यूज़ प्लास्टिक का इस्तेमाल होता है। प्लास्टिक बैग, बोतल, प्लास्टिक की पैकेजिंग सामग्री इत्यादि उचित कचरा प्रबंधन न होने के कारण धीरे-धीरे नदियों तालाबों और समुद्र में बारिश के पानी के साथ चला जाता है। समुद्र और जलाशयों में प्लास्टिक कचरे के बोझ को कम करने के लिए हमें ऐसे तरीके खोजने होंगे दिन में प्लास्टिक के कचरे का इस्तेमाल हो जाए और पर्यावरण को भी नुकसान ना पहुंचे। इन्हीं तरीकों में से आजकल प्लास्टिक अपशिष्ट का इस्तेमाल सड़कों के निर्माण में किया जा रहा है - सम्पादक।

भारत सरकार राजमार्गों समेत सभी तरह की सड़कों के निर्माण में प्लास्टिक कचरे के इस्तेमाल को बढ़ावा दे रही है। खासतौर पर पांच लाख या इससे ज्यादा की आबादी वाले शहरी इलाकों के 50 किलोमीटर के दायरे में होने वाले निर्माण में इस तरह के अपशिष्ट के इस्तेमाल पर जोर दिया जा रहा है। प्लास्टिक अपशिष्ट प्रबंधन के बारे में जागरूकता फैलाने के लिए ‘सड़क परिवहन और राजमार्ग मंत्रालय’ ने देश भर से तकरीबन 26,000 लोगों को तैयार किया है। प्लास्टिक अपशिष्ट को इकट्ठा करने के लिए कुल 61,000 से भी ज्यादा घंटों के श्रमदान की पहल की गई है। इन प्रयासों के कारण देश भर में तकरीबन 18,000 किलो प्लास्टिक अपशिष्ट इकट्ठा किया जा सका है। तकरीबन 10 टन डामर तैयार करने में 71,432 प्लास्टिक बोतल या 4,35,592 प्लास्टिक बैग का इस्तेमाल किया जाता है। डामर (अलकतरा-बालू आदि का मिश्रण) का इस्तेमाल सड़कों के निर्माण में किया जाता है। प्लास्टिक अपशिष्ट का प्रबंधन नहीं किए जाने पर इससे पर्यावरण पर बुरा असर पड़ता है। यह पेड़-पौधों वन्यजीवों और इंसानों के लिए दिक्कत पैदा करता है। प्लास्टिक उपयोगी सामग्री है, लेकिन इसे नुकसानदेह यौगिक से तैयार किया जाता है। जाहिर तौर पर इसका स्वास्थ्य पर भी बुरा असर पड़ता है। साथ ही यह स्वाभाविक रूप से नष्ट भी नहीं होता। इसे नष्ट होने में सैकड़ों या हजारों साल लगते हैं। प्लास्टिक इकट्ठा होने से न सिर्फ पर्यावरण को नुकसान पहुँचता है, बल्कि इसके जहरीले असर के कारण भारी मात्रा में हमारी मिट्टी और पानी भी प्रदूषित होते हैं।

दुनिया की आबादी में लगातार बढ़ोतरी हो रही है और इसी अनुपात में कचरे का उत्पादन भी बढ़ रहा है। बदलती जीवनशैली में इस्तेमाल कर फेंक दिए जाने वाले उत्पादों की मात्रा भी बढ़ी है। लेकिन इन उत्पादों के कचरे में शामिल होने के कारण पूरी दुनिया में प्लास्टिक प्रदूषण में बड़े पैमाने पर बढ़ोतरी हुई है। 

समुद्र और अन्य जगहों पर अपशिष्ट का बोझ कम करने के लिए पुराने प्लास्टिक अपशिष्ट से नई चीजें भी तैयार की जा रही हैं। इस अपशिष्ट का इस्तेमाल सड़कों के निर्माण में भी किया जा रहा है। री-साइकिल किए गए अपशिष्ट का इस्तेमाल सड़क बनाने में किया जाता है। इस तरह के अपशिष्ट में तैयार सड़कें गाड़ियों का बोझ और मौसम की मार सहनी में ज्यादा सक्षम हैं। नीदरलैंड में एक सड़क परियोजना में समुद्र से प्राप्त प्लास्टिक अपशिष्ट का इस्तेमाल किया गया। इन सड़कों के 50 साल तक टिकाऊ बने रहने का दावा किया जा रहा है। सामान्य सड़कों के मुकाबले इन सड़कों की अवधि 3 गुना ज्यादा होती है। और भयंकर सर्दी या काफी गर्मी की स्थिति में भी ऐसी सड़कों को नुकसान नहीं होगा। ब्रिटेन में प्लास्टिक अपशिष्ट से डामर तैयार करने के लिए खास तौर पर एक फैक्ट्री स्थापित की गई है, ताकि डामर का इस्तेमाल सड़क निर्माण में किया जा सके। केंद्र सरकार के ‘ग्रामीण विकास मंत्रालय’ से जुड़ी ‘राष्ट्रीय ग्रामीण सड़क विकास एजेंसी’ ने ग्रामीण सड़कों के निर्माण में प्लास्टिक अपशिष्ट के इस्तेमाल के लिए दिशानिर्देश जारी किए हैं।

ग्रामीण इलाके की सड़कों के निर्माण में इन प्लास्टिक अपशिष्टों का इस्तेमाल किया जा सकता है - 

  1. 60 माइक्रोन तक की मोटाई वाले (पीई, पीपी और पीएस) फिल्म (कैरी बैग, कप)

  2. किसी भी मोटाई वाला हार्ड फोम

  3. किसी भी मिठाई वाला साफ फोम ( पीई, पीपी) और 

  4. 60 माइक्रोन वाले लेमिनेशन युक्त प्लास्टिक पैकिंग मेटेरियल, जिसका इस्तेमाल बिस्किट, चॉकलेट आदि के पैकिंग में किया जाता है।


‘पॉली विनाइल क्लोराइड (पीवीसी)’ शीट या फलेक्स शीट का इस्तेमाल किसी भी स्थिति में नहीं किया जाना चाहिए। इसके अलावा अपशिष्ट प्लास्टिक मोडीफायर को धूल से मुक्त होना चाहिए। और टुकड़ों में (दो-तीन मिलीमीटर) में होना चाहिए। ‘केंद्रीय सड़क शोध संस्थान’ (सीआरआरआई) के मुताबिक सड़क निर्माण में इस्तेमाल किए जाने वाले अपशिष्ट प्लास्टिक का टुकड़ा 3 मिलीमीटर का होना चाहिए। एक विशेषज्ञ ने इसे 4.75 मिलीमीटर तक रखने का सुझाव दिया और इसे एक मिली मीटर पर रखा गया। इससे यह संकेत मिलता है कि डामर का टुकड़ा औसतन दो-तीन मिलीमीटर होना चाहिए। 

सड़कों पर प्लास्टिक अपशिष्ट बिछाने का तरीका

छिटपुट कार्यों के लिए सूखे डामर का प्रयोग करने का सुझाव दिया जाता है। सीआरआरआई के अनुसार संबंधित सामग्री में अलकतरा के अलावा प्लास्टिक अपशिष्ट के टुकड़े 8 फीसदी होंगे। 60/70 या 80/100 ग्रेड वाले अलकतरे का इस्तेमाल किया जा सकता है। स्टोन एग्रीगेट मिक्स को मिक्स सिलेंडर पर स्थानांतरित किया जाता है। जहां इसे 165 डिग्री सेंटीग्रेड (आईआरसी के निर्देशों के मुताबिक) पर गर्म किया जाता है और इसके बाद मिक्सिंग पडलर में ले जाने की प्रक्रिया होती है। 

इसी तरह अलकतरा को अलग चेंबर में 160 डिग्री पर गर्म तैयार रखा जाता है। (बेहतर नतीजों के लिए तापमान पर निगरानी रखनी चाहिए)। मिक्सिंग पडलर पर गर्म अलकतरे और प्लास्टिक कोट वाली सामग्री को मिलाया जाता है। और मिश्रित सामग्री का इस्तेमाल सड़क निर्माण में किया जाता है। सामग्री का तापमान 110 डिग्री सेंटीग्रेड से 120 सेंटीग्रेड तक भी रखा जाता है। आमतौर पर इस प्रक्रिया में 8 टन की क्षमता वाला रोलर इस्तेमाल किया जाता है बड़े कार्यो के लिए सेंट्रल मिक्सिंग प्लांट का भी इस्तेमाल किया जा सकता है।


प्रमुख निष्कर्ष

सड़कों के निर्माण में अलकतरे के साथ प्लास्टिक का इस्तेमाल होने पर न सिर्फ सड़कें ज्यादा ज्यादा टिकाऊ और चिकनी बनती हैं, बल्कि वे किफायती और पर्यावरण के अनुकूल भी होती हैं। प्लास्टिक अपशिष्ट का इस्तेमाल अलकतरा के मोडीफायर के तौर पर किए जाने से अलकतरे की गुणवत्ता भी बेहतर हो जाती है। साथ ही ऐसी सड़कों को पानी से भी नुकसान नहीं पहुँचता। प्लास्टिक अपशिष्ट के इस्तेमाल के कारण अलकतरे की आवश्यकता 10 फीसदी तक कम हो जाती है। इससे सड़कों की मजबूती मिलती है। कई अध्ययनों के बाद यह साबित हुई है कि प्लास्टिक और रबड़ की कोटिंग से सड़कों में पानी घुसने की संभावना कम होती है। आने वाले वक्त में प्लास्टिक का इस्तेमाल पूरी तरह से बंद होने के आसार भी नहीं दिख रहे हैं। लिहाजा प्लास्टिक अपशिष्ट के उचित प्रबंधन की आवश्यकता है। साथ ही  इससे अक्षय ऊर्जा से संबंधित उपयोगी सामग्री भी तैयार की जा सकती है, जिससे कार्बन उत्सर्जन में कमी लाने में मदद मिलेगी। 

भारत सरकार के स्वच्छता ही सेवा कार्यक्रम के तहत इस सिलसिले में जागरूकता अभियान चलाए जा रहे हैं। स्थानीय सामुदायिक केंद्रों एफएम रेडियो आदि के जरिए से अभियान चलाए जा रहे हैं। साथ ही राष्ट्रीय राजमार्गों की सफाई और प्लास्टिक अपशिष्ट/ पॉलिथीन बैग/ प्लास्टिक बोतल को इकट्ठा करने का काम किया जा रहा है। इसके अलावा सरकार पानी के लिए प्लास्टिक बोतलों का कम से कम इस्तेमाल करने की अपील कर रही है। साथ ही प्लास्टिक अपशिष्ट इकट्ठा करने के लिए जगह-जगह पर डस्टबिन लगाए जा रहे हैं, कपड़े/जूट के बैग आदि भी बांटे जा रहे हैं। हाल ही में दिल्ली के धौलाकुआं के पास राष्ट्रीय राजमार्ग-48 पर प्लास्टिक अपशिष्ट का इस्तेमाल कर सड़क का निर्माण किया गया है। दिल्ली मेरठ एक्सप्रेसवे और गुरुग्राम-सोहना रोड के कुछ हिस्सों के निर्माण में भी प्लास्टिक अपशिष्ट का इस्तेमाल करने की योजना है।

प्लास्टिक इस्तेमाल करने का हमारा मौजूदा तरीका टिकाऊ नहीं है, साथ ही यह वन्यजीवों और मानव के स्वास्थ्य के लिहाज से नुकसानदेह है। हमें अच्छी तरह से पता है कि पर्यावरण से जुड़े खतरे लगातार बढ़ रहे हैं। साथ ही मानव स्वास्थ्य पर इससे होने वाले दुष्प्रभावों के बारे में काफी चीजें सामने आ रही हैं। ऐसे माहौल में आम आदमी भी प्लास्टिक के उचित इस्तेमाल और निपटान में अपनी भूमिका निभा सकता है। ताकि यह सामग्री री-साइकिल की प्रक्रिया में शामिल हो जाए। इसी तरह उद्योग जगत भी अलग-अलग उपायों के जरिए पानी-पर्यावरण के अनुकूल समाज बनाने में योगदान कर सकता है। और सरकार और नीति निर्माताओं को इस दिशा में मानक और लक्ष्य तय करना चाहिए। साथ ही जरूरी शोध और तकनीकी विकास के लिए फंड मुहैया कराने जाने की भी जरूरत है। 

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