वन प्रबंध में जन भागीदारी के डेढ़ दशक के अनुभव ने कई सबक सिखाये और मध्यप्रदेश के वनों को बचाने के लिए एक व्यापक जन आधार बनाने में सहयोग भी दिया परन्तु इस प्रयोग में वन विभाग के अन्दर तथा गाँव के स्तर पर सत्ता के विकेन्द्रीकरण से जुड़े कई प्रकार के उतार-चढ़ाव भरे निर्णय भी हुए, जिनके दूरगामी परिणाम होने वाले हैं।
वन प्रबंध में जन भागीदारी का संस्थागत प्रयास प्रारम्भ हुए लगभग दो दशक व्यतीत हो चुके हैं। इस दौरान प्राप्त अनुभवों ने कम से कम कुछ क्षेत्रों में तो बड़ी उम्मीदें भी जगाई हैं। इस अवधि में गाँव-गाँव के स्तर पर वन समितियों के रूप में एक विकेन्द्रीकृत संस्थागत ढाँचा विकसित हुआ है जिसके अन्तर्गत जल-जंगल-जमीन जैसे महत्त्वपूर्ण मुद्दों पर निर्णय लेने में स्थानीय ग्रामीणों को भी अपनी बात रखने का अवसर मिलना शुरू हो गया है।वानिकी में जन भागीदारी की यह व्यवस्था जिसे मध्यप्रदेश में ‘संयुक्त वन प्रबंध’ का नाम दिया गया है, अनेक कठिनाईयों के बावजूद धीरे-धीरे जड़ें जमाती जा रही है। इसके अंतर्गत वनों के 5 कि.मी. की परिधि में आने वाले गाँवों में वन समितियाँ गठित की जाती हैं। सघन वनों की सुरक्षा के उद्देश्य से गठित समितियों को ‘वन सुरक्षा समिति’, बिगड़े वनों के सुधार तथा विकास के उद्देश्य से गठित समितियों को ‘ग्राम वन समिति’ तथा वन्यप्राणी संरक्षण क्षेत्रों के समीप बसी समितियों को ‘इको विकास समिति’ का नाम दिया जाता है। वन समितियों के गठन व संचालन की पूरी प्रक्रिया राज्य शासन के संकल्प से नियंत्रित होती है जिसमें समिति के दायित्व व उन्हें मिलने वाले लाभों का विवरण दिया रहता है।
1990 के दशक के प्रारम्भ में हरदा वनमण्डल से शुरू हुआ यह प्रयोग आज पूरे मध्यप्रदेश में लागू है और राज्य शासन शनै:शनै: वन समितियों को अधिक साधन सम्पन्न व अधिकार सम्पन्न बनाने की ओर अग्रसर है। वानिकी में जन भागीदारी के इन प्रयासों के आलोचक कुछ अपवादों को बढ़ा-चढ़ाकर भले ही इसमें अनेक खामियाँ गिनाते रहें परन्तु इस बात से कोई भी इन्कार नहीं कर सकता कि संयुक्त वन प्रबंध की कोशिशों ने वन कर्मियों और ग्रामीणों के बीच व्याप्त गहरी खाई को बहुत हद तक पाटा है और संवाद व सहयोग का एक नया रास्ता दिखाया है जिसमें वन संरक्षण और जन कल्याण दोनों की अपार सम्भावनाएँ निहित हैं। यह विषय बहुआयामी और व्यापक विस्तार वाला है अत: इसके सभी पहलुओं पर चर्चा यहाँ सम्भव नहीं है। इस अध्ययन में उन पहलुओं पर ही ध्यान देने की चेष्टा की जाएगी जो पानी के लिए वन प्रबंधन की दृष्टि से अधिक उपयोगी सिद्ध हो सकते हैं।
संयुक्त वन प्रबंध के अन्तर्गत वर्ष 2008 तक मध्यप्रदेश में कुल 14428 वन समितियाँ गठित की जा चुकी हैं जिनमें से 4470 वन सुरक्षा समितियाँ, 9137 ग्राम वन समितियाँ और 821 इको विकास समितियाँ हैं। ये वन समितियाँ उन्हें आवंटित किए गए 69468 वर्ग कि.मी. वनक्षेत्र के संरक्षण-संवर्धन में भूमिका भी निभा रहीं हैं। इनमें से वे समितियाँ अधिक सक्रिय दिखाई देती हैं जिनके वनक्षेत्र में कुछ वानिकी कार्य चलने से ग्रामीणों को रोजगार मिलता रहता है। विभिन्न शासकीय योजनाओं से लाभान्वित होने वाली वन समितियों में भी सहभागिता और समिति की सक्रियता का स्तर बेहतर दिखाई देता है।
संयुक्त वन प्रबन्ध के इस नए दौर में मध्यप्रदेश में वानिकी क्षेत्र के तौर-तरीकों में अनेक क्रान्तिकारी बदलाव आए जिनके फलस्वरूप पहली बार ग्रामीण समुदाय की भागीदारी से वनों को बचाने की नई परिपाटी संस्थागत रूप से स्थापित हुई। संयुक्त वन प्रबंध की इस नई परिपाटी ने भारत में लगभग सवा सौ वर्षों से अधिक के वानिकी के इतिहास को बदल दिया। टीका टिप्पणी करने वाले कुछ भी कहें, परन्तु इस क्रान्तिकारी परिवर्तन के इतने तेजी से लागू होने और पूरे प्रदेश में फैलाव का श्रेय ग्रामीणों के साथ-साथ अन्तत: म.प्र. शासन और प्रदेश के वन अधिकारियों/कर्मचारियों को भी जाता है। इस दौर में राज और समाज की भूमिकाओं में आ रहे बदलाव को देखते हुए वन विभाग के अधिकारियों/कर्मचारियों की मानसिकता में बदलाव लाने व लोगों के साथ मिलकर काम करने की कार्य क्षमता को बढ़ाने की दिशा में ठोस प्रयास किए गए।
वन प्रबंध में जन भागीदारी के डेढ़ दशक के अनुभव ने कई सबक सिखाये और मध्यप्रदेश के वनों को बचाने के लिए एक व्यापक जन आधार बनाने में सहयोग भी दिया परन्तु इस प्रयोग में वन विभाग के अन्दर तथा गाँव के स्तर पर सत्ता के विकेन्द्रीकरण से जुड़े कई प्रकार के उतार-चढ़ाव भरे निर्णय भी हुए, जिनके दूरगामी परिणाम होने वाले हैं। इन सब नीतिगत, संस्थागत और व्यवस्थागत बदलावों के कारण आज प्रदेश में वन प्रबंध की कोई भी योजना वन समितियों को अनदेखा नहीं कर सकती, अत: पानी को ध्यान में रखकर किए जाने वाले वन प्रबंध में भी वन समितियों की सक्रिय सहभागिता महत्त्वपूर्ण रहेगी।
पानी के लिए वन प्रबंध में जन भागीदारी : कुछ जरूरी बातें
पानी के लिए वन प्रबंध में वन समितियों की भागीदारी की रणनीति हर गाँव, हर जंगल के लिए स्थानीय भौगोलिक, प्राकृतिक और सामाजिक परिस्थितियों के अनुरूप अलग-अलग होगी अत: इसके लिए सबको मान्य कोई एक नुस्खा दिया जाना सम्भव नहीं है परन्तु इस सम्बन्ध में जिन खास बातों को ध्यान रखना जरूरी होगा वे निम्नानुसार हो सकती हैं :-
1. वन प्रबंध की परम्परागत कार्यप्रणाली जो मुख्यत: लकड़ी के उत्पादन पर आधारित थी उसे अब स्थानीय निवासियों की वनोपज सम्बन्धी आवश्यकताओं के साथ-साथ पानी की ओर झुकाना होगा और उसे एक आयामी से बहुआयामी बनाना होगा।
2. उन वन समितियों व पंचायतों की विशेष रूप से पहचान की जाए जो जलधारा/जलाशय को सीधे प्रभावित करने की स्थिति में हैं। जो वन समितियाँ जलधारा/जलाशय के जल से सीधे लाभान्वित और पानी की कमी से सीधे दुष्प्रभावित होती हैं, उनकी भूमिका अन्य समितियों की तुलना में अधिक स्पष्ट व सक्रिय होनी चाहिए।
3. ग्रामीण परिवारों में पानी भरने का काम अक्सर महिलाओं के जिम्मे ही रहता है और जलस्रोतों के सूखने से सबसे पहले उन्हीं की कठिनाइयाँ बढ़ती हैं। पानी भरने के लिए दूर तक जाने की नौबत आने पर महिलाओं का कष्ट उसी अनुपात में बढ़ता जाता है और उनका अधिक समय पानी की व्यवस्था में खर्च होने लगता है। अत: पानी के नजरिए से वन प्रबंध में महिलाओं की अग्रणी भूमिका रहनी चाहिए। महिला स्व-सहायता समूह आदि भी पानी के लिए किए जाने वाले वन प्रबंध में सक्रिय भूमिका निभा सकते हैं।
4. जंगल और पानी के सम्बन्ध में गाँव के बुजुर्गों का परम्परागत ज्ञान स्थानीय परिवेश में वैज्ञानिक जानकारी जितना ही और कई बार तो उससे कहीं अधिक महत्त्वपूर्ण होता है इसका ध्यान रखा जाना चाहिए और यथासम्भव उपयोग किया जाना चाहिए।
5. नदियाँ और जलाशय पानी का स्रोत होने के अतिरिक्त ग्रामीण जीवन में आस्था और सामाजिक संस्कारों के केन्द्र भी होते हैं अत: इस पक्ष को और सशक्त करने की सुविचारित रणनीति विकसित करके उस पर अमल करना चाहिए।
6. पानी के लिए वन प्रबंध सम्बन्धी मैदानी कार्यों के बारे में निर्णय लेते समय यह ध्यान रखना पड़ेगा कि प्रस्तावित की जानेवाली गतिविधियों से गाँव के भीतर किसी वर्ग या समुदाय विशेष अथवा पड़ोसी गाँवों के साथ झगड़ों की स्थिति निर्मित न हो। विवादास्पद मुद्दों पर सामूहिक चर्चा व आम सहमति से स्वीकार्य विकल्प खोजे जाने चाहिए।
7. पानी से जुड़ी आजीविका वाले समुदायों जैसे मछुआरों, किसानों आदि को पानी के लिए वन प्रबंध की रणनीति विकसित करने में उचित भूमिका और जिम्मेदारी दी जानी चाहिए और उनके ज्ञान व अनुभवों का लाभ लिया जाना चाहिए।
8. पानी के लिए वन प्रबंध मैदानी वनकर्मियों के लिए भी नया विषय होने से इसके अनेक तकनीकी पहलुओं पर उनकी अनभिज्ञता बड़ी बाधा बनकर उभर सकती है अत: इस विषय की गहरी समझ पैदा करने के लिए मैदानी वनकर्मियों के लिए बड़े पैमाने पर प्रशिक्षण और अध्ययन प्रवास आदि की व्यवस्था करनी चाहिए।
-वन संरक्षक, खण्डवा (म.प्र.)
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