प्राकृतिक आपदाएँ जहाँ दशकों तक चलाए गए विकास प्रयासों के लाभों को एक झटके में खत्म कर देती हैं, वहीं समुदाय आधारित आपदा प्रबन्धन इस नुकसान को भूलने में सहायक है और सतत विकास को जारी रखने में मदद करता है।पिछले वर्षों के दौरान एशियाई उपमहाद्वीप में हर प्रकार की प्राकृतिक आपदाएँ आती रही हैं। अनेक अध्ययनों, अनुसंधानों और आँकड़ों से पता चलता है कि पिछले 15 वर्षों की अवधि में एशियाई देशों को अनेक आपदाओं का सामना करना पड़ा। आँकड़ों के हिसाब से देखा जाए तो यहाँ के हर 10 लाख लोगों के पीछे (1991 से 2005 के बीच) 57,342 (यूएनआई एसडीआर) लोगों को ये विपत्तियाँ झेलनी पड़ीं। जिन आपदाओं का व्यापक असर रहा, उनमें जल और मौसम से सम्बन्धित, भौगोलिक एवं जैविक किस्म की विपत्तियाँ शामिल हैं। इनके कारण 577.44 अरब अमेरिकी डॉलर के बराबर आर्थिक हानि हुई। जो देश इनसे प्रभावित हुए उनमें विकसित और विकासशील दोनों तरह के राष्ट्र आते हैं। इन देशों में आपदा पीड़ित होने की सम्भावना और खतरा अधिक है। इनमें कई देश ऐसे हैं जहाँ के लोग भोजन, वस्त्र और मकान का भी मुश्किल से जुगाड़ कर पाते हैं। इनके आपदाग्रस्त होने की सम्भावना भौगोलिक-राजनीतिक कारणों से भी अधिक है।
इनमें से भारत, अफगानिस्तान, मालदीव, श्रीलंका आदि जैसे कई देशों ने आपदा प्रबन्धन की रूपरेखा बनाई हुई है। लेकिन चुनौती यह है कि खतरे वाले क्षेत्र के निवासियों को इन आपदाओं के प्रतिरोध में कैसे सक्षम बनाया जाए? इसलिए अनेक देशों ने इसके लिए निर्देश एवं नियन्त्रण केन्द्रों को शीर्षस्थ की जगह विकेन्द्रीकृत और समुदाय-आधारित बनाने की पहल की है।
समुदाय आधारित आपदा प्रबन्धन अब आपदा की सम्भावना वाले क्षेत्रों में लोकप्रिय हो गया है। वास्तव में इसके अन्तर्गत आपदा प्रबन्धन के स्थानीय उपायों में समुदाय को प्रमुख केन्द्र बनाया जाता है। बाहरी एजेंसियाँ स्थानीय प्रयासों को सुकर बनाने की भूमिका में आ जाती हैं। समुदाय आधारित आपदा प्रबन्धन के जरिये लोगों के संसाधनों और बुनियादी सामाजिक सेवाओं का नियन्त्रण दिया जाता है जिससे इन आपदाओं के समय उपयुक्त कदम उठाने की उनकी क्षमता बढ़ जाती है। आपदा प्रबन्धन में समुदाय आधारित रवैया अपनाने के निश्चित रूप से अपने फायदे हैं।
समुदाय आधारित आपदा प्रबन्धन दृष्टिकोण से स्थानीय समुदाय को अपने पहले के अनुभवों के आधार पर अपनी स्थानीय स्थिति के मूल्यांकन के अवसर मिलते हैं। इसके तहत स्थानीय समुदाय योजनाएँ बनाने और फैसले करने में न सिर्फ भागीदारी करते हैं बल्कि उनको लागू करने में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। कार्यान्वयन प्रक्रिया में समुदाय को बेहतर भूमिका दी जाती है, फिर भी समुदाय आधारित आपदा प्रबन्धन जोखिम के वस्तुपरक आकलन और नियोजन की वैज्ञानिक प्रक्रिया की अनदेखी नहीं करता। (पाण्डे, ओकजकी, 2005)
स्थानीय लोगों को खतरों का शिकार बनने से बचाने और उनकी क्षमता बढ़ा कर उनमें सुरक्षा की भावना के संचार के उद्देश्य से समुदाय आधारित दृष्टिकोण के महत्व को मान्यता काफी पहले मिल चुकी है। अनेक सामुदायिक समूह इन दृष्टिकोणों के अनुरूप काम करते रहे हैं। इनमें राष्ट्रीय, अन्तरराष्ट्रीय संगठन और सरकारी विभाग शामिल हैं।
इस लेख में समुदाय आधारित आपदा प्रबन्धन की कुछ उन प्रमुख बातों पर प्रकाश डाला गया है जो लेखकों के देश के अनेक भागों और पड़ोसी देशों में भी चल रही सीड्स की परियोजनाओं में काम करते हुए अर्जित अनुभवों पर आधारित हैं।
समुदाय आधारित आपदा प्रबन्धन के बारे में कोई चर्चा शुरू करने के लिए यह जान लेना जरूरी होगा कि जोखिम कहाँ है और इससे किसके प्रभावित होने की सम्भावना है। ये जोखिम सामाजिक, पर्यावरण सम्बन्धी, भौतिक अथवा आर्थिक हो सकते हैं। इस बात पर प्रकाश डालना अति महत्वपूर्ण होगा कि जहाँ कुछ प्रकार के जोखिम अवश्यम्भावी हैं और उनका निवारण सम्भव नहीं है वहीं इनसे प्रभावित होने की सम्भावना कम की जा सकती है और क्षमता बढ़ाई जा सकती है। दुर्बलता परम्परागत कमजोरियों का रूप है। उदाहरण के लिए, छात्रों को शिक्षा प्रदान नहीं की जा सकती क्योंकि स्कूल नहीं हैं या फिर अच्छे स्कूल नहीं हैं। समाज के स्वास्थ्य की दशा इसलिए अच्छी नहीं है क्योंकि डॉक्टर उपलब्ध नहीं हैं अथवा दवाएँ नहीं मिलतीं। सामान्य दशाओं में भी इस प्रकार की दुर्बलताएँ बनी रहती हैं। यदि कोई आपदा आई तो ये दुर्बलताएँ और भी बढ़ जाती हैं। साथ ही, किसी पूरे समुदाय को अन्यत्र इसलिए नहीं विस्थापित किया जा सकता कि वहाँ पर कोई जोखिम नहीं है। समुदायों को विस्थापित करने के सामाजिक एवं मनोवैज्ञानिक प्रभाव होते हैं अतः जिस तत्व को दूर करने पर ध्यान दिया जा सकता है वह है दुर्बलता।
आपदाओं से सबसे ज्यादा प्रभावित गरीब परिवार होते हैं। भारत के गरीब लोग खाना, पीना, कपड़ा, शिक्षा, स्वास्थ्य सेवा जैसी बुनियादी सुविधाओं से भी वंचित हैं। आपदाएँ एक झटके में उनकी गाढ़ी कमाई बर्बाद कर देती हैं। इससे वे फिर से गरीबी के दुष्चक्र में फंस जाते हैं।खतरों से प्रभावित होने की दुर्बलता को मापने की हालाँकि तकनीकें और तरीके उपलब्ध हैं और वे उपाय भी मालूम हैं जिनके जरिये खतरा कम करने के कदम उठाए जा सकते हैं मगर इससे भी ज्यादा महत्वपूर्ण यह है कि समुदाय को इन खतरों की जानकारी दी जाए। महत्वपूर्ण सवाल यह है कि जब बाहर से खतरा जानने के वैज्ञानिक तरीकों से काम लिया जा सकता है और समुचित उपायों के द्वारा खतरे के प्रभाव कम किए जा सकते हैं तो इसमें समुदाय को शामिल करने की क्या जरूरत है। इसका उत्तर यह है कि थोपी गई कार्यनीति हमेशा विफल रहती है। कारण यह है कि समुदाय उन तथ्यों को मान्यता नहीं देता जिनके सहारे ज्ञान सशक्त बना रहता है।
सीड्स अपना समुदाय आधारित आपदा प्रबन्धन कार्यक्रम लागू करते समय उस स्थानीय समुदाय को इसमें शामिल कर लेता है जो इस खतरे की चपेट में आ सकता है। इसके साधन और तौर-तरीकों में सामूहिक चर्चा करके खतरे का आकलन करना, विभिन्न समूहों एवं हितधारकों के साथ भेंटवार्ताएँ, कार्यशालाएँ और अवलोकन के जरिये खतरे की पहचान शामिल है। इस प्रक्रिया ने समुदाय को अपने खतरों को पहचानने में मदद की है। शुरू में खतरे का अनुमान कर लेने पर समुदाय के लिए जरूरी समाधान सोचना आसान हो जाता है जिससे खतरा दूर करने में मदद मिलती है। उदाहरणार्थ, हाल ही में सीड्स की मशोब्रा, हिमाचल प्रदेश में चल रही एक योजना के दौरान दूर-दूर बसे पुरवों में रहने वाले लोगों को सुरक्षित स्थानों पर जाने के लिए स्थानीय नाले पार करने में काफी कठिनाई महसूस हुई। चट्टानें टूट कर गिरने अथवा भारी वर्षा के दौरान उनके सम्मुख यह समस्या पेश आई। इस प्रकार जिस खतरे की पहचान की गई वह थी पहुँच की समस्या।
बाद में समुदाय द्वारा तय खतरे के आधार पर स्थानीय पंचायत ने पहल की और एक पुल का निर्माण किया गया। समुदाय के जरिये खतरे की पहचान करने की कवायद से जरूरत का बेहतर अनुमान लगाया जा सका और इसका वस्तुपरक समाधान खोजा जा सका।
स्कूल किसी समुदाय के भरोसे के प्रतीक होते हैं। आपदा के समय अक्सर स्कूलों को शरण स्थली बना दिया जाता है। यहीं से स्वास्थ्य सेवाएँ और खाने-पीने की चीजें भी प्रायः पीड़ित समुदाय को बाँटी जाती हैं। इसीलिए स्कूलों को ‘सुरक्षित स्थल’ की संज्ञा दी जाती है। स्कूल संस्थाओं के साथ घनिष्ठ सम्बन्ध रखते हैं। स्कूल जोखिम शिक्षा के लिए माकूल माहौल बनाते हैं। समुदाय को सुशिक्षित करने का एक अच्छा तरीका है स्कूली बच्चों को शिक्षित करना। यही बच्चे बाद में भविष्य के नागरिक बनते हैं। ज्ञान को व्यवहार में वही लाते हैं। इनके जरिये आपदा निवारण शिक्षा माता-पिता तक पहुँच जाती है और फिर पूरा समुदाय और समाज उससे लाभान्वित होता है।
समुदाय आधारित आपदा प्रबन्धन प्रक्रिया स्थानीय लोच निर्मित करती है, वर्तमान कार्यनीतियों को मजबूत बनाती है और जीवन तथा जीविका की सुरक्षा बढ़ाती है। सीड्स अपने समुदाय आधारित आपदा प्रबन्धन कार्यक्रमों के जरिये, ‘सुरक्षित स्कूल, सुरक्षित समुदाय’ के विचार का सक्रियता से प्रचार करता है। इसे हाल ही में हिमाचल प्रदेश में अन्तरराष्ट्रीय एजेंसियों के सहयोग से कार्यान्वित किया गया। इसे क्रिश्चियन एड और यूरोपीयन कमीशन का भी सहयोग था जिन्होंने राज्य सरकार के साथ सहभागिता की। इसका उद्देश्य था स्कूली बच्चों, शिक्षकों और अन्य मौजूद लोगों को आपदा जोखिम कमी के बारे में शिक्षित करना तथा आसपास के लोगों को भी इसकी जानकारी देना। स्थानीय स्कूल में पढ़ने वाले बच्चों के माता-पिता को आपदा प्रबन्धन समिति का सदस्य बनाया जाता है। स्कूल के स्थानीय अधिकारी, गाँव के नेता और स्थानीय सरकारी अधिकारी भी इस कमेटी में सदस्य होते हैं। इसमें स्कूली बच्चों और शिक्षकों को आपदा के समय क्या करना चाहिए— यह बताया जाता है। वहीं बाहरी समुदाय को आपदा का सामना करने की शिक्षा दी जाती है। अगर जरूरत पड़े तो स्कूली बच्चों को स्कूल से बाहर किसी निर्धारित सुरक्षित स्थान पर पहुँचा दिया जाता है। इस काम में समुदाय का कार्यबल सहायता करता है। दूसरी ओर अगर स्कूल को सुरक्षित शरण स्थली घोषित किया जाता है तो स्कूल को राहत और बचाव कार्य का प्रशिक्षण दिया जाता है। स्कूल और आसपास के लोग उनकी इस काम में मदद करते हैं और वे सब मिल कर प्राकृतिक आपदा की चुनौती का सामना करने की तैयारी करते हैं।
समुदाय आधारित आपदा प्रबन्धन संस्थानीकरण के जरिये ही जारी रखा जा सकता है। इसके लिए विकास प्रयासों को यह मानना पड़ेगा कि समुदायों को खतरा है। अगर जोखिम घटाने के तरीकों को नियमित विकास कार्यक्रमों से समन्वित कर दिया जाए तो इससे सतत विकास में सहायता मिलेगी। इसी सन्दर्भ में आपदा प्रबन्धकों, शिक्षाविदों और अनुसन्धानकर्ताओं ने आपदामुक्त विकास की वकालत की है। उदाहरण के लिए, उड़ीसा में राज्य परिवर्तन में सुधार के लिए भूतल स्तर से ऊपर एक राजमार्ग का निर्माण किया गया। इसके कारण सड़क के दोनों तरफ के क्षेत्र निचले इलाके बन गए। भारी वर्षा के समय अब राजमार्ग का पानी भी इन निचले इलाकों की ओर बहता है जिससे गाँव में बाढ़ आ जाती है। यहाँ विकास के कारण आपदा पैदा हुई। यह स्थिति इस कारण पैदा हुई क्योंकि विकास और आपदा को अलग-अलग माना गया। यही कारण है कि संस्थानीकरण के जरिये अलग-थलग किए जाने वाले प्रयासों को समन्वित करके संसाधनों को समुचित रूप से जोखिम घटाने के उद्देश्य में लगाया जाता है।
भारत में समुदाय आधारित आपदा प्रबन्धन को मान्यता मिल चुकी है भले ही इसका संस्थानीकरण नहीं हो पाया है। आपदा प्रबन्धन खण्ड को अधिनियम में राष्ट्रीय, राज्य और स्थानीय आधार पर आपदा प्रबन्धन की जरूरत को मान्यता दी गई है भले ही इसको कार्यरूप देने की ऐसी प्रक्रिया अभी न तय हो पाई हो जिसके जरिये समुदाय के प्रयासों को मान्यता दी जाए और विकास एवं आपदा प्रबन्धन के नियोजन में उन्हें शामिल किया जाए।
सीड्स ने हाल ही के अपने हिमाचल प्रदेश के प्रयासों में संस्थानीकरण का एक मॉडल पेश किया है जिसके जरिये समुदाय आधारित आपदा प्रबन्धन दृष्टिकोण में क्षैतिज एवं ऊर्ध्व सम्पर्क सृजित किए गए हैं (देखे चित्र-1)।
भारत में बड़े पैमाने पर समुदाय आधारित आपदा प्रबन्धन के विस्तार के लिए पंचायतीराज संस्थानों की भूमिका और कार्य विस्तृत करने होंगे। उन्हें प्रशिक्षण और संसाधनों से लैस करने की भी जरूरत पड़ेगी। अब तक भारत के अनेक भागों में लोकप्रिय बन चुके ग्राम ज्ञान केन्द्र के मॉडल के सक्षम बनने की सम्भावना है और ये स्थानीय समुदाय को स्थानीय खतरों और प्राकृतिक आपदा की चुनौतियों के बारे में लोगों को शिक्षित कर सकने की क्षमता रखते हैं।
समुदाय आधारित आपदा प्रबन्धन के लिए संस्थानीकरण के अलावा अन्य महत्वपूर्ण आवश्यकता है कोष जुटाना। भारत में समुदाय आधारित आपदा प्रबन्धन गतिविधियों के संचालन के लिए नेशनल अलायंस फॉर डिजास्टर रिडक्शन का प्रवर्तन किया गया है। यह समुदाय आधारित आपदा प्रबन्धन के लिए स्थानीय समुदाय के नियन्त्रण में कोष रखने का हिमायती है। इस उद्देश्य से घर-घर से चन्दा जुटा कर सामुदायिक आपदा प्रबन्धन कोष का सह-वित्तपोषण किया जा रहा है। इसमें लोग अपनी आय का एक अंश अपनी सुरक्षा के लिए देते हैं। इन निधियों का इस्तेमाल आपदाओं का बुरा असर कम करने में किया जा सकता है। ग्राम विकास समिति समुदाय के लिए इस प्रकार का कोष सम्भालती है।
इस प्रकार की जुटाई रकम के सहारे सरकार प्रायोजित ग्राम विकास स्कीमों से भी निधियाँ प्राप्त की जा सकती हैं। आगे चल कर समुदाय स्तर पर आपदा कोष सृजन सतत समुदाय आधारित आपदा प्रबन्धन प्रयासों के एक महत्वपूर्ण भाग बन जाएँगे।
ग्लोबल वार्मिंग के कारण हो रहे पर्यावरण सम्बन्धी परिवर्तनों ने समुदायों के समक्ष नयी चुनौती पेश कर दी है। मौसम सम्बन्धी परिवर्तनों के चलते लोगों की रोजी-रोटी के लिए बड़ा संकट पैदा हो गया है। जलवायु परिवर्तन के कारण अब क्षेत्रों में एकाएक बाढ़ की आपदा आ सकती है जहाँ पहले कभी बाढ़ नहीं आती थी और सूखा पड़ता था। इसी प्रकार कई ऐसे इलाके हैं जहाँ पहले भारी वर्षा के कारण पानी की कभी कमी नहीं होती थी लेकिन वे अब सूखे का सामना कर रहे हैं। समुदाय आधारित आपदा प्रबन्धन से ऐसे क्षेत्रों को इन चुनौतियों से निपटने में मदद मिलेगी।
‘ग्रामवासी दुर्बलों’ से ‘जलवायु परिवर्तन से प्रभावित’ तक जो परिवर्तन देखने को मिला है इससे आपदा प्रबन्धनों को अलग प्रकार से जोखिम घटाने को मजबूर होना पड़ा है। इसी प्रकार तटवर्ती पर्यावरण में परिवर्तन के कारण आसपास के समुदायों में भी बदलाव देखे जा सकते हैं। समुद्र द्वारा मिट्टी के कटाव के कारण भी समुदायों को विस्थापित होना पड़ा है। साथ ही ऊँची लहरों से बचाने वाले कच्छीय वनस्पति वाले वनों के सूख जाने से भी समुदायों को हटने पर मजबूर होना पड़ा है साथ ही सुनामी जैसी आपदाएँ आने लगी हैं। पर्यावरण की गुणवत्ता में इस गिरावट के कारण तमिलनाडु के तटीय इलाकों में रहने वाले समुदाय सबसे ज्यादा प्रभावित हुए हैं। अब इन समुदायों को कच्छीय वनस्पति वाले वनों को फिर से उगाने का प्रशिक्षण दिया जा रहा है ताकि ये वन उन्हें ऊँची लहरों से बचा सकें। स्पष्ट है कि समुदाय आधारित आपदा प्रबन्धन दृष्टिकोण के साथ जलवायु परिवर्तन के चलते हो रहे पर्यावरण सम्बन्धी परिवर्तनों को समन्वित किए जाने की जरूरत है।
आपदा प्रबन्धन को अक्सर एक अलग-थलग प्रक्रिया समझा जाता है। लेकिन यह गरीबी हटाने का भी एक साधन बन सकता है। आपदाओं से सबसे ज्यादा प्रभावित गरीब परिवार होते हैं। भारत के गरीब लोग खाना, पीना, कपड़ा, शिक्षा, स्वास्थ्य सेवा जैसी बुनियादी सुविधाओं से भी वंचित हैं। आपदाएँ एक झटके में उनकी गाढ़ी कमाई बर्बाद कर देती हैं। इससे वे फिर से गरीबी के दुष्चक्र में फंस जाते हैं।
समुदाय आधारित आपदा प्रबन्धन प्रक्रिया स्थानीय लोच निर्मित करती है, वर्तमान कार्यनीतियों को मजबूत बनाती है और जीवन तथा जीविका की सुरक्षा बढ़ाती है। इस प्रकार की क्षमताओं का निर्माण करके स्थानीय समुदायों को उन आघातों और आफतों से बचाया जा सकता है जो ये आपदाएँ अपने साथ लाती हैं।
अन्त में कहा जा सकता है कि यह एक सर्वमान्य बात है कि प्राकृतिक आपदाएँ जहाँ दशकों तक चलाए गए विकास प्रयासों के लाभों को एक झटके में खत्म कर देती हैं, वहीं समुदाय आधारित आपदा प्रबन्धन इस नुकसान को भूलने में सहायक है और सतत विकास को जारी रखने में मदद करता है। अब जबकि ह्यूगो फ्रेमवर्क ऑफ ऐक्शन (2005-2015) पर हस्ताक्षर किए जा चुके हैं और आपदा प्रबन्धन अधिनियम बन चुका है तथा इसके लिए जरूरी संस्थागत रूपरेखा तैयार कर ली गई है, समय आ गया है जब समुदाय आधारित आपदा प्रबन्धन बड़े पैमाने पर शुरू किया जाए और आपदाओं के कारण जिन समुदायों को ज्यादा जोखिम का सामना करना पड़ता है, उनको बचाया जाए।
(लेखकद्वय सीड्स इण्डिया, नई दिल्ली के क्रमशः निदेशक और राष्ट्रीय समन्वयक (कार्यक्रम) हैं।
ई-मेल : manu@seedindia.org, shivangi@seedindia.org
इनमें से भारत, अफगानिस्तान, मालदीव, श्रीलंका आदि जैसे कई देशों ने आपदा प्रबन्धन की रूपरेखा बनाई हुई है। लेकिन चुनौती यह है कि खतरे वाले क्षेत्र के निवासियों को इन आपदाओं के प्रतिरोध में कैसे सक्षम बनाया जाए? इसलिए अनेक देशों ने इसके लिए निर्देश एवं नियन्त्रण केन्द्रों को शीर्षस्थ की जगह विकेन्द्रीकृत और समुदाय-आधारित बनाने की पहल की है।
समुदाय आधारित आपदा प्रबन्धन अब आपदा की सम्भावना वाले क्षेत्रों में लोकप्रिय हो गया है। वास्तव में इसके अन्तर्गत आपदा प्रबन्धन के स्थानीय उपायों में समुदाय को प्रमुख केन्द्र बनाया जाता है। बाहरी एजेंसियाँ स्थानीय प्रयासों को सुकर बनाने की भूमिका में आ जाती हैं। समुदाय आधारित आपदा प्रबन्धन के जरिये लोगों के संसाधनों और बुनियादी सामाजिक सेवाओं का नियन्त्रण दिया जाता है जिससे इन आपदाओं के समय उपयुक्त कदम उठाने की उनकी क्षमता बढ़ जाती है। आपदा प्रबन्धन में समुदाय आधारित रवैया अपनाने के निश्चित रूप से अपने फायदे हैं।
समुदाय आधारित आपदा प्रबन्धन दृष्टिकोण से स्थानीय समुदाय को अपने पहले के अनुभवों के आधार पर अपनी स्थानीय स्थिति के मूल्यांकन के अवसर मिलते हैं। इसके तहत स्थानीय समुदाय योजनाएँ बनाने और फैसले करने में न सिर्फ भागीदारी करते हैं बल्कि उनको लागू करने में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। कार्यान्वयन प्रक्रिया में समुदाय को बेहतर भूमिका दी जाती है, फिर भी समुदाय आधारित आपदा प्रबन्धन जोखिम के वस्तुपरक आकलन और नियोजन की वैज्ञानिक प्रक्रिया की अनदेखी नहीं करता। (पाण्डे, ओकजकी, 2005)
स्थानीय लोगों को खतरों का शिकार बनने से बचाने और उनकी क्षमता बढ़ा कर उनमें सुरक्षा की भावना के संचार के उद्देश्य से समुदाय आधारित दृष्टिकोण के महत्व को मान्यता काफी पहले मिल चुकी है। अनेक सामुदायिक समूह इन दृष्टिकोणों के अनुरूप काम करते रहे हैं। इनमें राष्ट्रीय, अन्तरराष्ट्रीय संगठन और सरकारी विभाग शामिल हैं।
इस लेख में समुदाय आधारित आपदा प्रबन्धन की कुछ उन प्रमुख बातों पर प्रकाश डाला गया है जो लेखकों के देश के अनेक भागों और पड़ोसी देशों में भी चल रही सीड्स की परियोजनाओं में काम करते हुए अर्जित अनुभवों पर आधारित हैं।
जोखिम की जानकारी
समुदाय आधारित आपदा प्रबन्धन के बारे में कोई चर्चा शुरू करने के लिए यह जान लेना जरूरी होगा कि जोखिम कहाँ है और इससे किसके प्रभावित होने की सम्भावना है। ये जोखिम सामाजिक, पर्यावरण सम्बन्धी, भौतिक अथवा आर्थिक हो सकते हैं। इस बात पर प्रकाश डालना अति महत्वपूर्ण होगा कि जहाँ कुछ प्रकार के जोखिम अवश्यम्भावी हैं और उनका निवारण सम्भव नहीं है वहीं इनसे प्रभावित होने की सम्भावना कम की जा सकती है और क्षमता बढ़ाई जा सकती है। दुर्बलता परम्परागत कमजोरियों का रूप है। उदाहरण के लिए, छात्रों को शिक्षा प्रदान नहीं की जा सकती क्योंकि स्कूल नहीं हैं या फिर अच्छे स्कूल नहीं हैं। समाज के स्वास्थ्य की दशा इसलिए अच्छी नहीं है क्योंकि डॉक्टर उपलब्ध नहीं हैं अथवा दवाएँ नहीं मिलतीं। सामान्य दशाओं में भी इस प्रकार की दुर्बलताएँ बनी रहती हैं। यदि कोई आपदा आई तो ये दुर्बलताएँ और भी बढ़ जाती हैं। साथ ही, किसी पूरे समुदाय को अन्यत्र इसलिए नहीं विस्थापित किया जा सकता कि वहाँ पर कोई जोखिम नहीं है। समुदायों को विस्थापित करने के सामाजिक एवं मनोवैज्ञानिक प्रभाव होते हैं अतः जिस तत्व को दूर करने पर ध्यान दिया जा सकता है वह है दुर्बलता।
आपदाओं से सबसे ज्यादा प्रभावित गरीब परिवार होते हैं। भारत के गरीब लोग खाना, पीना, कपड़ा, शिक्षा, स्वास्थ्य सेवा जैसी बुनियादी सुविधाओं से भी वंचित हैं। आपदाएँ एक झटके में उनकी गाढ़ी कमाई बर्बाद कर देती हैं। इससे वे फिर से गरीबी के दुष्चक्र में फंस जाते हैं।खतरों से प्रभावित होने की दुर्बलता को मापने की हालाँकि तकनीकें और तरीके उपलब्ध हैं और वे उपाय भी मालूम हैं जिनके जरिये खतरा कम करने के कदम उठाए जा सकते हैं मगर इससे भी ज्यादा महत्वपूर्ण यह है कि समुदाय को इन खतरों की जानकारी दी जाए। महत्वपूर्ण सवाल यह है कि जब बाहर से खतरा जानने के वैज्ञानिक तरीकों से काम लिया जा सकता है और समुचित उपायों के द्वारा खतरे के प्रभाव कम किए जा सकते हैं तो इसमें समुदाय को शामिल करने की क्या जरूरत है। इसका उत्तर यह है कि थोपी गई कार्यनीति हमेशा विफल रहती है। कारण यह है कि समुदाय उन तथ्यों को मान्यता नहीं देता जिनके सहारे ज्ञान सशक्त बना रहता है।
सीड्स अपना समुदाय आधारित आपदा प्रबन्धन कार्यक्रम लागू करते समय उस स्थानीय समुदाय को इसमें शामिल कर लेता है जो इस खतरे की चपेट में आ सकता है। इसके साधन और तौर-तरीकों में सामूहिक चर्चा करके खतरे का आकलन करना, विभिन्न समूहों एवं हितधारकों के साथ भेंटवार्ताएँ, कार्यशालाएँ और अवलोकन के जरिये खतरे की पहचान शामिल है। इस प्रक्रिया ने समुदाय को अपने खतरों को पहचानने में मदद की है। शुरू में खतरे का अनुमान कर लेने पर समुदाय के लिए जरूरी समाधान सोचना आसान हो जाता है जिससे खतरा दूर करने में मदद मिलती है। उदाहरणार्थ, हाल ही में सीड्स की मशोब्रा, हिमाचल प्रदेश में चल रही एक योजना के दौरान दूर-दूर बसे पुरवों में रहने वाले लोगों को सुरक्षित स्थानों पर जाने के लिए स्थानीय नाले पार करने में काफी कठिनाई महसूस हुई। चट्टानें टूट कर गिरने अथवा भारी वर्षा के दौरान उनके सम्मुख यह समस्या पेश आई। इस प्रकार जिस खतरे की पहचान की गई वह थी पहुँच की समस्या।
बाद में समुदाय द्वारा तय खतरे के आधार पर स्थानीय पंचायत ने पहल की और एक पुल का निर्माण किया गया। समुदाय के जरिये खतरे की पहचान करने की कवायद से जरूरत का बेहतर अनुमान लगाया जा सका और इसका वस्तुपरक समाधान खोजा जा सका।
समुदाय आधारित आपदा प्रबन्धन के प्रवेश द्वार : स्कूल
स्कूल किसी समुदाय के भरोसे के प्रतीक होते हैं। आपदा के समय अक्सर स्कूलों को शरण स्थली बना दिया जाता है। यहीं से स्वास्थ्य सेवाएँ और खाने-पीने की चीजें भी प्रायः पीड़ित समुदाय को बाँटी जाती हैं। इसीलिए स्कूलों को ‘सुरक्षित स्थल’ की संज्ञा दी जाती है। स्कूल संस्थाओं के साथ घनिष्ठ सम्बन्ध रखते हैं। स्कूल जोखिम शिक्षा के लिए माकूल माहौल बनाते हैं। समुदाय को सुशिक्षित करने का एक अच्छा तरीका है स्कूली बच्चों को शिक्षित करना। यही बच्चे बाद में भविष्य के नागरिक बनते हैं। ज्ञान को व्यवहार में वही लाते हैं। इनके जरिये आपदा निवारण शिक्षा माता-पिता तक पहुँच जाती है और फिर पूरा समुदाय और समाज उससे लाभान्वित होता है।
समुदाय आधारित आपदा प्रबन्धन प्रक्रिया स्थानीय लोच निर्मित करती है, वर्तमान कार्यनीतियों को मजबूत बनाती है और जीवन तथा जीविका की सुरक्षा बढ़ाती है। सीड्स अपने समुदाय आधारित आपदा प्रबन्धन कार्यक्रमों के जरिये, ‘सुरक्षित स्कूल, सुरक्षित समुदाय’ के विचार का सक्रियता से प्रचार करता है। इसे हाल ही में हिमाचल प्रदेश में अन्तरराष्ट्रीय एजेंसियों के सहयोग से कार्यान्वित किया गया। इसे क्रिश्चियन एड और यूरोपीयन कमीशन का भी सहयोग था जिन्होंने राज्य सरकार के साथ सहभागिता की। इसका उद्देश्य था स्कूली बच्चों, शिक्षकों और अन्य मौजूद लोगों को आपदा जोखिम कमी के बारे में शिक्षित करना तथा आसपास के लोगों को भी इसकी जानकारी देना। स्थानीय स्कूल में पढ़ने वाले बच्चों के माता-पिता को आपदा प्रबन्धन समिति का सदस्य बनाया जाता है। स्कूल के स्थानीय अधिकारी, गाँव के नेता और स्थानीय सरकारी अधिकारी भी इस कमेटी में सदस्य होते हैं। इसमें स्कूली बच्चों और शिक्षकों को आपदा के समय क्या करना चाहिए— यह बताया जाता है। वहीं बाहरी समुदाय को आपदा का सामना करने की शिक्षा दी जाती है। अगर जरूरत पड़े तो स्कूली बच्चों को स्कूल से बाहर किसी निर्धारित सुरक्षित स्थान पर पहुँचा दिया जाता है। इस काम में समुदाय का कार्यबल सहायता करता है। दूसरी ओर अगर स्कूल को सुरक्षित शरण स्थली घोषित किया जाता है तो स्कूल को राहत और बचाव कार्य का प्रशिक्षण दिया जाता है। स्कूल और आसपास के लोग उनकी इस काम में मदद करते हैं और वे सब मिल कर प्राकृतिक आपदा की चुनौती का सामना करने की तैयारी करते हैं।
समुदाय आधारित प्रबन्धन : सतत विकास का संस्थानीकरण
समुदाय आधारित आपदा प्रबन्धन संस्थानीकरण के जरिये ही जारी रखा जा सकता है। इसके लिए विकास प्रयासों को यह मानना पड़ेगा कि समुदायों को खतरा है। अगर जोखिम घटाने के तरीकों को नियमित विकास कार्यक्रमों से समन्वित कर दिया जाए तो इससे सतत विकास में सहायता मिलेगी। इसी सन्दर्भ में आपदा प्रबन्धकों, शिक्षाविदों और अनुसन्धानकर्ताओं ने आपदामुक्त विकास की वकालत की है। उदाहरण के लिए, उड़ीसा में राज्य परिवर्तन में सुधार के लिए भूतल स्तर से ऊपर एक राजमार्ग का निर्माण किया गया। इसके कारण सड़क के दोनों तरफ के क्षेत्र निचले इलाके बन गए। भारी वर्षा के समय अब राजमार्ग का पानी भी इन निचले इलाकों की ओर बहता है जिससे गाँव में बाढ़ आ जाती है। यहाँ विकास के कारण आपदा पैदा हुई। यह स्थिति इस कारण पैदा हुई क्योंकि विकास और आपदा को अलग-अलग माना गया। यही कारण है कि संस्थानीकरण के जरिये अलग-थलग किए जाने वाले प्रयासों को समन्वित करके संसाधनों को समुचित रूप से जोखिम घटाने के उद्देश्य में लगाया जाता है।
भारत में समुदाय आधारित आपदा प्रबन्धन को मान्यता मिल चुकी है भले ही इसका संस्थानीकरण नहीं हो पाया है। आपदा प्रबन्धन खण्ड को अधिनियम में राष्ट्रीय, राज्य और स्थानीय आधार पर आपदा प्रबन्धन की जरूरत को मान्यता दी गई है भले ही इसको कार्यरूप देने की ऐसी प्रक्रिया अभी न तय हो पाई हो जिसके जरिये समुदाय के प्रयासों को मान्यता दी जाए और विकास एवं आपदा प्रबन्धन के नियोजन में उन्हें शामिल किया जाए।
सीड्स ने हाल ही के अपने हिमाचल प्रदेश के प्रयासों में संस्थानीकरण का एक मॉडल पेश किया है जिसके जरिये समुदाय आधारित आपदा प्रबन्धन दृष्टिकोण में क्षैतिज एवं ऊर्ध्व सम्पर्क सृजित किए गए हैं (देखे चित्र-1)।
भारत में बड़े पैमाने पर समुदाय आधारित आपदा प्रबन्धन के विस्तार के लिए पंचायतीराज संस्थानों की भूमिका और कार्य विस्तृत करने होंगे। उन्हें प्रशिक्षण और संसाधनों से लैस करने की भी जरूरत पड़ेगी। अब तक भारत के अनेक भागों में लोकप्रिय बन चुके ग्राम ज्ञान केन्द्र के मॉडल के सक्षम बनने की सम्भावना है और ये स्थानीय समुदाय को स्थानीय खतरों और प्राकृतिक आपदा की चुनौतियों के बारे में लोगों को शिक्षित कर सकने की क्षमता रखते हैं।
सामुदायिक आपदा प्रबन्धन कोष
समुदाय आधारित आपदा प्रबन्धन के लिए संस्थानीकरण के अलावा अन्य महत्वपूर्ण आवश्यकता है कोष जुटाना। भारत में समुदाय आधारित आपदा प्रबन्धन गतिविधियों के संचालन के लिए नेशनल अलायंस फॉर डिजास्टर रिडक्शन का प्रवर्तन किया गया है। यह समुदाय आधारित आपदा प्रबन्धन के लिए स्थानीय समुदाय के नियन्त्रण में कोष रखने का हिमायती है। इस उद्देश्य से घर-घर से चन्दा जुटा कर सामुदायिक आपदा प्रबन्धन कोष का सह-वित्तपोषण किया जा रहा है। इसमें लोग अपनी आय का एक अंश अपनी सुरक्षा के लिए देते हैं। इन निधियों का इस्तेमाल आपदाओं का बुरा असर कम करने में किया जा सकता है। ग्राम विकास समिति समुदाय के लिए इस प्रकार का कोष सम्भालती है।
इस प्रकार की जुटाई रकम के सहारे सरकार प्रायोजित ग्राम विकास स्कीमों से भी निधियाँ प्राप्त की जा सकती हैं। आगे चल कर समुदाय स्तर पर आपदा कोष सृजन सतत समुदाय आधारित आपदा प्रबन्धन प्रयासों के एक महत्वपूर्ण भाग बन जाएँगे।
समुदाय आधारित आपदा प्रबन्धन : उभरती चुनौतियाँ
ग्लोबल वार्मिंग के कारण हो रहे पर्यावरण सम्बन्धी परिवर्तनों ने समुदायों के समक्ष नयी चुनौती पेश कर दी है। मौसम सम्बन्धी परिवर्तनों के चलते लोगों की रोजी-रोटी के लिए बड़ा संकट पैदा हो गया है। जलवायु परिवर्तन के कारण अब क्षेत्रों में एकाएक बाढ़ की आपदा आ सकती है जहाँ पहले कभी बाढ़ नहीं आती थी और सूखा पड़ता था। इसी प्रकार कई ऐसे इलाके हैं जहाँ पहले भारी वर्षा के कारण पानी की कभी कमी नहीं होती थी लेकिन वे अब सूखे का सामना कर रहे हैं। समुदाय आधारित आपदा प्रबन्धन से ऐसे क्षेत्रों को इन चुनौतियों से निपटने में मदद मिलेगी।
‘ग्रामवासी दुर्बलों’ से ‘जलवायु परिवर्तन से प्रभावित’ तक जो परिवर्तन देखने को मिला है इससे आपदा प्रबन्धनों को अलग प्रकार से जोखिम घटाने को मजबूर होना पड़ा है। इसी प्रकार तटवर्ती पर्यावरण में परिवर्तन के कारण आसपास के समुदायों में भी बदलाव देखे जा सकते हैं। समुद्र द्वारा मिट्टी के कटाव के कारण भी समुदायों को विस्थापित होना पड़ा है। साथ ही ऊँची लहरों से बचाने वाले कच्छीय वनस्पति वाले वनों के सूख जाने से भी समुदायों को हटने पर मजबूर होना पड़ा है साथ ही सुनामी जैसी आपदाएँ आने लगी हैं। पर्यावरण की गुणवत्ता में इस गिरावट के कारण तमिलनाडु के तटीय इलाकों में रहने वाले समुदाय सबसे ज्यादा प्रभावित हुए हैं। अब इन समुदायों को कच्छीय वनस्पति वाले वनों को फिर से उगाने का प्रशिक्षण दिया जा रहा है ताकि ये वन उन्हें ऊँची लहरों से बचा सकें। स्पष्ट है कि समुदाय आधारित आपदा प्रबन्धन दृष्टिकोण के साथ जलवायु परिवर्तन के चलते हो रहे पर्यावरण सम्बन्धी परिवर्तनों को समन्वित किए जाने की जरूरत है।
समुदाय आधारित आपदा प्रबन्धन : गरीबी मिटाने का एक साधन
आपदा प्रबन्धन को अक्सर एक अलग-थलग प्रक्रिया समझा जाता है। लेकिन यह गरीबी हटाने का भी एक साधन बन सकता है। आपदाओं से सबसे ज्यादा प्रभावित गरीब परिवार होते हैं। भारत के गरीब लोग खाना, पीना, कपड़ा, शिक्षा, स्वास्थ्य सेवा जैसी बुनियादी सुविधाओं से भी वंचित हैं। आपदाएँ एक झटके में उनकी गाढ़ी कमाई बर्बाद कर देती हैं। इससे वे फिर से गरीबी के दुष्चक्र में फंस जाते हैं।
समुदाय आधारित आपदा प्रबन्धन प्रक्रिया स्थानीय लोच निर्मित करती है, वर्तमान कार्यनीतियों को मजबूत बनाती है और जीवन तथा जीविका की सुरक्षा बढ़ाती है। इस प्रकार की क्षमताओं का निर्माण करके स्थानीय समुदायों को उन आघातों और आफतों से बचाया जा सकता है जो ये आपदाएँ अपने साथ लाती हैं।
अन्त में कहा जा सकता है कि यह एक सर्वमान्य बात है कि प्राकृतिक आपदाएँ जहाँ दशकों तक चलाए गए विकास प्रयासों के लाभों को एक झटके में खत्म कर देती हैं, वहीं समुदाय आधारित आपदा प्रबन्धन इस नुकसान को भूलने में सहायक है और सतत विकास को जारी रखने में मदद करता है। अब जबकि ह्यूगो फ्रेमवर्क ऑफ ऐक्शन (2005-2015) पर हस्ताक्षर किए जा चुके हैं और आपदा प्रबन्धन अधिनियम बन चुका है तथा इसके लिए जरूरी संस्थागत रूपरेखा तैयार कर ली गई है, समय आ गया है जब समुदाय आधारित आपदा प्रबन्धन बड़े पैमाने पर शुरू किया जाए और आपदाओं के कारण जिन समुदायों को ज्यादा जोखिम का सामना करना पड़ता है, उनको बचाया जाए।
(लेखकद्वय सीड्स इण्डिया, नई दिल्ली के क्रमशः निदेशक और राष्ट्रीय समन्वयक (कार्यक्रम) हैं।
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Post By: birendrakrgupta