देश की बढ़ती जनसंख्या की जरूरतों को पूरा करने के लिए लवणीय व क्षारीय भूमियों को सुधार कर खेती योग्य बनाने की नितांत आवश्यकता है। इन समस्याग्रस्त भूमियों को सुधार कर फसलोत्पादन के अंतर्गत लाने से जहां एक ओर अतिरिक्त खाद्य व खाद्य पदार्थों की मांग पूरी करने में मदद मिलेगी, वहीं दूसरी तरफ क्षारीय भूमियों के सुधार से गांवों में प्राकृतिक संसाधनों जैसे भूमि, जल, वातावरण व अनेक अनुकूल परिस्थितियों के निर्माण के फलस्वरूप बेहतर पर्यावरण प्रदान किया जा सकता है। लवणीय व क्षारीय भूमियां प्रमुख रूप से उत्तर प्रदेश, पंजाब, हरियाणा व राजस्थान इत्यादि राज्यों में फैली हुई हैं। इस प्रकार की भूमियों में फसल उत्पादन न के बराबर होता है।हमारे देश का कुल भौगोलिक क्षेत्रफल 329 मिलियन हेक्टेयर है जिसमें से लगभग 143 मिलियन हेक्टेयर पर खेती की जाती है जबकि लगभग 117 मिलियन हेक्टेयर परती एवं बंजर भूमि है। देश के विभिन्न भागों में 6.7 मिलियन हेक्टेयर से भी अधिक भूमि लवण प्रभावित है जिसमें से लगभग 56 प्रतिशत भाग क्षारीय है। अभी तक लगभग 1.74 मिलियन हेक्टेयर ऊसर भूमि का ही सुधार किया जा सका है। इन मृदाओं की ऊपरी सतह पर सफेद लवणों की परत फैली रहती है। जल निकास का उचित प्रबंध न होने से वर्षा ऋतु में इन भूमियों में पानी भर जाता है। परिणामस्वरूप अवांछित खरपतवारों, घासों व हानिकारक झाड़ियों के फैलाव को बढ़ावा मिलता है। सूखने पर इन भूमियों की सतह बहुत कठोर हो जाती है जिसके कारण पौधों की जड़ों का विकास व वृद्धि नहीं हो पाती है। इस तरह की भूमियां छोटे किसानों के पास हैं जो समाज के अनुसूचित जाति, जनजाति के हैं या आर्थिक रूप से पिछड़े हैं। लवणीय व क्षारीय भूमि सुधार कार्यक्रम से गरीबी उन्मूलन के साथ-साथ समाज में समानता की भावना भी पैदा होती है।
इन भूमियों की सतह पर कैल्शियम, मैग्नीशियम व पोटेशियम के क्लोराइड एवं सल्फेट आयन अपेक्षाकृत अधिक मात्रा में पाए जाते हैं। इन भूमियों का जलस्तर ऊंचा होता है। लवणीय भूमि की विद्युत चालकता 4 मिलीम्होज प्रति सेमी से अधिक, विनिमय योग्य सोडियम 15 प्रतिशत से कम तथा पीएच मान 8.5 से कम होता है। भूमि पर सफेद लवण प्रचुर मात्रा में फैले रहते हैं इसलिए आम बोलचाल की भाषा में इन भूमियों को रेह भूमि भी कहते हैं। इस भूमियों की भौतिक दशा सामान्य तौर पर ठीक रहती है। यदि इन मृदाओं में जल निकास की पर्याप्त व्यवस्था कर दी जाए तो अधिकांश घुलनशील लवण पानी के साथ बह जाते हैं। इन भूमियों का भू-जल स्तर यदि सीमित गहराई से ऊपर न आए तो ये भूमियां फिर से सामान्य बन जाती हैं। इन भूमियों में पानी का अवशोषण बहुत ही धीरे-धीरे होता है। बीजों का जमाव भी देरी से होता है। पौधों की बढ़वार और जड़ों का विकास ठीक तरह से नहीं हो पाता है। अंततः पौधे लवणों की अधिकता के कारण नष्ट हो जाते हैं।
इन भूमियों में सोडियम कार्बोनेट व बाइकार्बोनेट लवणों की अधिक मात्रा पाई जाती है। भूमि की विद्युत चालकता 4 मिलीम्होज से कम, विनिमय योग्य सोडियम 15 प्रतिशत से अधिक व पीएच मान 8.5 से अधिक होता है। इन भूमियों की ऊपरी सतह पर राख व काले रंग के धब्बे दिखाई पड़ते हैं। इन भूमियों में 40-50 सेमी की गहराई पर सोडियम युक्त कठोर परतें पाई जाती हैं। इन भूमियों को ऊसर भूमि भी कहा जाता है। क्षारीय भूमियों की भौतिक दशा बहुत ही खराब होती है। इस प्रकार की भूमियों में सोडियम लवणों की अधिकता व जलभराव होने से बोई गई फसलों की वृद्धि सामान्य रूप से नहीं हो पाती है। भूमि की भौतिक व रासायनिक दशा खराब होने के कारण उपजाऊ व उर्वराशक्ति का ह्रास हो जाता है। इस तरह की भूमि का निर्माण प्रायः शुष्क, अर्द्ध-शुष्क व अपर्याप्त जल निकास वाले क्षेत्रों में होता है।
1. शुष्क जलवायु।
2. सिंचाई स्रोतों जैसे ट्यूबवैल व नहरों के पानी की प्रकृति लवणीय व क्षारीय होना।
3. दोषपूर्ण सिंचाई पद्धतियों को अपनाना।
4. क्षारीय प्रकृति के रासायनिक उर्वरकों का बार-बार प्रयेाग करना।
5. जल निकास की उचित व्यवस्था न होना।
6. बार-बार एक ही गहराई पर खेतों की जुताई करना।
7. नहरी क्षेत्रों में जल स्तर का ऊंचा उठना।
8. मृदा प्रबंधन में लापरवाही बरतना व दोषपूर्ण कृषि क्रियाओं को अपनाना।
लवणीय भूमियों के सुधार के लिए निम्नलिखित भौतिक विधियों को अपनाकर फसल उत्पादन के योग्य बनाया जा सकता है।
निक्षालन (लीचिंग)
इस विधि के अंतर्गत सर्वप्रथम खेत को छोटे-छोटे टुकड़ों में बाँटकर मेड़बंदी कर लेते हैं। इसके बाद खेत में 10-15 सेमी तक पानी भर देते हैं जिससे घुलनशील लवण जल में घुलकर पादप जड़ क्षेत्र से नीचे चले जाते हैं। यह विधि उन क्षेत्रों में अपनानी चाहिए जिनका जल स्तर नीचा हो। इस क्रिया के लिए गर्मी का मौसम उत्तम माना जाता है। जिन मृदाओं की निचली सतहों में कठोर परत होती है, वहां इस विधि को नहीं अपनाना चाहिए।
जल निकास द्वारा
जिन क्षेत्रों में जल निकास की उचित व्यवस्था नहीं होती है वहां पर लवणीय मृदाओं का निर्माण हो जाता है। अतः इन क्षेत्रों में आवश्यकता से अधिक पानी को नालियां व नाले बनाकर खेतों से बाहर निकाल देना चाहिए। जहां पर भूमि में सख्त परतें हो या भूमिगत जलस्तर ऊंचा हो तो वहां पर इस विधि का प्रयोग करना चाहिए।
खुरचना
जब खेतों में हानिकारक लवण छोटे-छोटे टुकड़ों में परत के रूप में एकत्रित हो जाएं तो उन्हें खुर्पी या कसोले की मदद से खुरच कर खेतों से बाहर फेंक देना चाहिए।
खाई खोदकर
इस विधि में संपूर्ण खेत में एक निश्चित अंतराल पर खाइयां खोदते हैं। खेत के एक किनारे पर पहली खाई खोदते हैं। इस खाई की मिट्टी को मेड़ के रूप में खेत के चारों ओर डाल देते हैं। फिर दूसरी खाई की मिट्टी को पहली खाई में डालते हैं। इस प्रकार ऊपर की लवणयुक्त मिट्टी खाई के नीचे और नीचे की मिट्टी ऊपर आ जाती है। जहां पर मजदूर सस्ते व आसानी से उपलब्ध हो उन क्षेत्रों में यह विधि अपनानी चाहिए।
घुलनशील लवणों को ऊपरी सतह से बहाना
इस विधि में खेतों में पर्याप्त पानी भर दिया जाता है जिससे ऊपरी सतह में मौजूद लवण पानी में घुल जाते हैं। यह विधि उन क्षेत्रों के लिए उपयुक्त है जहां मृदा के नीचे अधिक गहराई पर कठोर परत होती है। इस प्रकार खेतों में पानी कुछ दिनों तक भरकर रखने से अधिकांश लवण पानी में घुल जाते हैं। इसके बाद इस गंदले पानी को नालियों के द्वारा खेतों से दूर नदी-नालों में निकाल दिया जाता है।
अद्योभूमि की कठोर परतों को तोड़ना
जिन भूमियों में बहुत ही कम गहराई पर सख्त परतें हो तो वहां पर आधुनिक कृषि यंत्रों जैसे डिस्क प्लो व सब सॉयलर की मदद से परतों को तोड़कर लवणीय भूमियों को सुधारकर खेती योग्य बनाया जा सकता है। यह कार्य मई के महीने में करना उत्तम रहता है।
जिप्सम का प्रयोग
क्षारीय भूमियों के सुधार हेतु जिप्सम का प्रयोग अत्यधिक लाभदायक पाया गया है। इन भूमियों में विनिमयशील सोडियम की अधिकता होती है। सर्वप्रथम भूमि की जिप्सम मांग की जांच के बाद अच्छी गुणवत्तायुक्त बारीक जिप्सम को मृदा में छिटककर सतह से 10 सेमी गहराई तक जुताई करके मिट्टी में मिला देना चाहिए। जिप्सम का प्रयोग मिट्टी परीक्षण के आधार पर ही करें। जहां मिट्टी में कैल्शियम की मात्रा कम हो, वहां ऊसर भूमि का सुधार जिप्सम से करें। इसके लिए मृदा परीक्षण विभिन्न राज्यों में स्थित कृषि विश्वविद्यालयों की मृदा परीक्षण प्रयोगशालाओं में मुफ्त कराया जा सकता है। इसके अलावा भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान स्थित मृदा परीक्षण प्रयोगशाला में भी यह सुविधा उपलब्ध है। राजस्थान राज्य में जिप्सम के विशाल भंडार होने के कारण इसकी उपलब्धि बहुत आसान है। साथ ही यह बहुत सस्ता भी है।
पायराइट का प्रयोग
क्षारीय भूमि सुधारने के लिए पायराइट का भी प्रयोग किया जाता है। इसकी मात्रा मृदा के पीएच एवं उसकी सघनता पर निर्भर करती है। सामान्यतः 10 से 15 टन पायराइट प्रति हेक्टेयर प्रयोग करना चाहिए। जिन भूमियों में कैल्शियम क्लोराइड लवणों की अधिक मात्रा पाई जाती है, उन मृदाओं के सुधार हेतु पायराइट का प्रयोग उपयोगी सिद्ध हुआ है।
लवणीय व क्षारीय भूमियों की उत्पादकता व उर्वराशक्ति को बनाए रखने हेतु कुछ सस्य कृषि-क्रियाओं को अपनाना अति आवश्यक है। तभी हम इन समस्याग्रस्त भूमियों को फसलोत्पादन हेतु उपयोगी बना सकते हैं।
किसान भाई निम्नलिखित भूमि प्रबंधन एवं कृषण क्रियाओं को अपनाकर लवणीय एवं क्षारीय भूमियों से अधिकाधिक पैदावार ले सकते हैं।
1. भूमि सुधार के लिए सर्वप्रथम खेत को अच्छी तरह समतल करके मेड़बंदी करनी चाहिए। इसके लिए लेजर लैंड लेवलर का प्रयोग किया जा सकता है। जून-जुलाई में खेत की 10 सेमी की गहराई तक जुताई करके 10-15 दिनों तक खेत में पानी भरकर धान की रोपाई कर देनी चाहिए। किसान भाई ध्यान रखें कि धान की पौध लगभग 32-35 दिन पुरानी हो जिससे पौध आसानी से स्थापित हो सके। एक स्थान पर 3-4 पौधों की रोपाई करें। धान की कटाई के बाद गेहूं की फसल बोनी चाहिए। इसके बाद गर्मियों में ढैंचा उगाकर हरी खाद के रूप में प्रयोग करना चाहिए। यह फसल-चक्र तीन वर्षों तक चलाना चाहिए। संस्तुत कृषि-क्रियाओं को अपनाने से लवणीय व क्षारीय भूमियों का 3 से 4 वर्षों में सुधार हो जाता है। भूमि सुधार के आरंभिक वर्षों में धान व गेहूं की लवणीय व क्षारीय भूमि के प्रति काफी सहनशील प्रजातियों को ही बोना चाहिए।
2. खेतों की जुताई अलग-अलग गहराई पर करनी चाहिए। इसके लिए आधुनिक कृषि यन्त्रों जैसे डिस्क प्लो, सब सॉयलर या चीजल हल का प्रयोग 2-3 वर्षों में एक बार अवश्य करें। जिसके परिणामस्वरूप मृदा में वायु और पानी के आवागमन में आसानी रहती है। साथ ही पौधों की जड़ों का विकास व वृद्धि भी ठीक तरह से हो जाती है।
3. उपयुक्त फसल-चक्र अपनाना चाहिए। अधिक गहरी जड़ों वाली फसलों के बाद कम गहरी जड़ों वाली फसलों को उगाना चाहिए। फसल-चक्र में खाद्यान्न फसलों के साथ दलहनी फसलों को उगाना चाहिए। परंतु ध्यान रहे कि शुरू के 3-4 वर्षों तक दलहनी फसल न उगाएं। उचित फसल-चक्र अपनाने से भूमि की जलधारण क्षमता तथा फसलों में जल की उपलब्धता को भी बढ़ाया जा सकता है।
4. ऊसर भूमि को उपजाऊ बनाए रखने हेतु गोबर की खाद, कम्पोस्ट, मुर्गी खाद, हरी खाद, फसल अवशेषों इत्यादि का समय-समय पर प्रयोग करते रहना चाहिए। जहां पर शीरा या प्रेसमड उपलब्ध हो, उसका प्रयोग करें। कुछ अम्लीय प्रकृति के उर्वरकों जैसे अमोनियम सल्फेट, सिंगल सुपर फास्फेट व अमोनियम नाइट्रेट आदि का अधिक प्रयोग करें।
5. जिन क्षेत्रों का पानी लवणीय व क्षारीय स्वभाव का हो, वहां पर सिंचाई की ड्रिप अथवा फव्वारा विधि का प्रयोग करना चाहिए। सिंचाई हमेशा हल्की व थोड़े अंतराल पर करनी चाहिए क्योंकि भूमि की ऊपरी सतह लवणता के कारण जल्दी सूख जाती है। ऐसी भूमियों में फसलों के अंतर्गत अंधाधुंध सिंचाई व सिंचाई संख्या बढ़ाने से न केवल जल का अपव्यय होता है बल्कि मृदा स्वास्थ्य भी खराब होता है।
6. लवणीयता व क्षारीयता सहन करने वाली फसलों को उगाना चाहिए जिनका विवरण सारणी-2 में दिया गया है। इसके साथ-साथ फसलों की लवणीय व क्षारीयरोधक किस्मों का चयन करना चाहिए। कुछ फसलें लवणों को अल्पमात्रा में भी सहन नहीं कर पाती हैं जबकि कुछ मध्यम वर्ग की सहनशीलता दर्शाती हैं। इसके अतिरिक्त कुछ फसलें बहुत ही सहनशील होती हैं जो अधिक लवणीय भूमियों में भी उग सकती हैं।
7. फसलों की बुवाई करते समय बीज दर सामान्य से थोड़ी ज्यादा रखें क्योंकि लवणीय एवं क्षारीय भूमि में सामान्यतः बीजों का कम जमाव व पौधें की शुरुआती बढ़वार कम होती है। बुवाई/रोपाई करते समय पंक्तियों एवं पौधों की दूरी को सामान्य से थोड़ा कम कर लेना चाहिए।
8. जहां तक हो सके फसलों की बुवाई मेड़ों पर करनी चाहिए। मेड़ें पूरब से पश्चिम दिशा की ओर बनानी चाहिए। पौधों की बुवाई/रोपाई उत्तर दिशा में मेड़ के मध्य में करें। यदि मेड़ बनाना सम्भव न हो तो बुवाई छोटी-छोटी समतल क्यारी बनाकर करें। क्यारियों का एक किनारा सिंचाई नाली से जुड़ा हो तथा दूसरा किनारा जल-निकास नाली से जुड़ा होना चाहिए। जिससे आवश्यकता से अधिक पानी खेत से जल-निकास नाली द्वारा बाहर निकाला जा सके। मेड़ों पर बुवाई करने से पौधों की जड़ें कम से कम हानिकारक लवणों के संपर्क में आती हैं।
9. फसलों में नाइट्रोजन की मात्रा को सामान्य मृदा से 20 प्रतिशत अधिक देना चाहिए। फास्फोरस एवं पोटाश की मात्रा मिट्टी परीक्षण के आधार पर देनी चाहिए। इसके अलावा 25 किग्रा जिंक सल्फेट प्रति हेक्टेयर की दर से अवश्य प्रयोग करना चाहिए। नाइट्रोजन की आधी मात्रा तथा फास्फोरस व पोटाश की संपूर्ण मात्रा बुवाई के समय प्रयोग करनी चाहिए। नाइट्रोजन की शेष आधी मात्रा को दो बराबर भागों में खड़ी फसल में पौधों में फूल आने से पूर्व देना चाहिए।
10. लवणीय भूमि में उगाई गई फसलों में निराई-गुड़ाई व खरपतवार नियंत्रण अति आवश्यक है। सिंचाई के बाद ऊसर भूमि की ऊपरी सतह कड़ी हो जाती है जिससे वायु के आवागमन में बाधा पहुंचती है। अतः सिंचाई के बाद निराई-गुड़ाई आवश्यक है जो पौधों की जड़ों के उचित बढ़वार व विकास में सहायक है।
तेजी से बढ़ते शहरीकरण, औद्योगिकीकरण व आधुनिकीकरण की वजह से खेती योग्य भूमि का क्षेत्रफल दिनोंदिन घटता जा रहा है। भविष्य में इसके बढ़ने की संभावना नगण्य है। इस संबंध में लवणीय एवं क्षारीय भूमियों को सुधार कर खेती योग्य भूमि का क्षेत्रफल बढ़ाने में मदद मिल सकती है। लवणीय व क्षारीय भूमि में वर्षा जल भरा रहता है जिसके परिणामस्वरूप मच्छरों व अन्य बीमारियों के फैलने की आशंका रहती है। इनके सुधार से इन दुष्प्रभावों को कम किया जा सकता है। लवणीय व क्षारीय भूमि सुधार ग्रामीण क्षेत्रों के सर्वांगीण विकास के लिए एक अनुपम तकनीक है जिसके द्वारा बेहतर खाद्यान्न उत्पादन, अधिक कृषि आय और ग्रामीण क्षेत्रों में रोजगार के अधिक अवसर पैदाकर सामाजिक-आर्थिक उन्नति सुनिश्चित की जा सकती है।
(लेखक भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान, नई दिल्ली में तकनीकी अधिकारी हैं। ई-मेल: v.kumarmovod@yahoo.com)
लवणीय भूमि
इन भूमियों की सतह पर कैल्शियम, मैग्नीशियम व पोटेशियम के क्लोराइड एवं सल्फेट आयन अपेक्षाकृत अधिक मात्रा में पाए जाते हैं। इन भूमियों का जलस्तर ऊंचा होता है। लवणीय भूमि की विद्युत चालकता 4 मिलीम्होज प्रति सेमी से अधिक, विनिमय योग्य सोडियम 15 प्रतिशत से कम तथा पीएच मान 8.5 से कम होता है। भूमि पर सफेद लवण प्रचुर मात्रा में फैले रहते हैं इसलिए आम बोलचाल की भाषा में इन भूमियों को रेह भूमि भी कहते हैं। इस भूमियों की भौतिक दशा सामान्य तौर पर ठीक रहती है। यदि इन मृदाओं में जल निकास की पर्याप्त व्यवस्था कर दी जाए तो अधिकांश घुलनशील लवण पानी के साथ बह जाते हैं। इन भूमियों का भू-जल स्तर यदि सीमित गहराई से ऊपर न आए तो ये भूमियां फिर से सामान्य बन जाती हैं। इन भूमियों में पानी का अवशोषण बहुत ही धीरे-धीरे होता है। बीजों का जमाव भी देरी से होता है। पौधों की बढ़वार और जड़ों का विकास ठीक तरह से नहीं हो पाता है। अंततः पौधे लवणों की अधिकता के कारण नष्ट हो जाते हैं।
सारणी-1: लवणीय व क्षारीय भूमियों का तुलनात्मक अध्ययन | |||
क्र.सं. | विशेषताएं | लवणीय भूमि | क्षारीय भूमि |
1. | सोडियम लवणों की मात्रा | विनिमयशील सोडियम 15 प्रतिशत से कम | विनिमयशील सोडियम 15 प्रतिशत से अधिक |
2. | वि़द्युत चालकता | 4.0 मिलीम्होज से अधिक | 4.0 मिलीम्होज से कम |
3. | पीएच मान | 8.5 से कम | 8.5 से अधिक |
4. | संरचना | हल्की धूल की तरह | कठोर व भौतिक संरचना क्षीण |
5. | ऊपरी सतह का रंग | सफेद रेह की तरह | राख व काला रंग की तरह |
6. | सुधार के तरीके | लीचिंग व उचित जल निकास | पायराइट एवं जिप्सम का प्रयोग |
7. | फसलें | लवण सहनशील फसलें उगाना | प्रायः फसलों के लिए अयोग्य |
8. | सुधार | आसानी से | कठिनाई से |
क्षारीय भूमि
इन भूमियों में सोडियम कार्बोनेट व बाइकार्बोनेट लवणों की अधिक मात्रा पाई जाती है। भूमि की विद्युत चालकता 4 मिलीम्होज से कम, विनिमय योग्य सोडियम 15 प्रतिशत से अधिक व पीएच मान 8.5 से अधिक होता है। इन भूमियों की ऊपरी सतह पर राख व काले रंग के धब्बे दिखाई पड़ते हैं। इन भूमियों में 40-50 सेमी की गहराई पर सोडियम युक्त कठोर परतें पाई जाती हैं। इन भूमियों को ऊसर भूमि भी कहा जाता है। क्षारीय भूमियों की भौतिक दशा बहुत ही खराब होती है। इस प्रकार की भूमियों में सोडियम लवणों की अधिकता व जलभराव होने से बोई गई फसलों की वृद्धि सामान्य रूप से नहीं हो पाती है। भूमि की भौतिक व रासायनिक दशा खराब होने के कारण उपजाऊ व उर्वराशक्ति का ह्रास हो जाता है। इस तरह की भूमि का निर्माण प्रायः शुष्क, अर्द्ध-शुष्क व अपर्याप्त जल निकास वाले क्षेत्रों में होता है।
लवणीय एवं क्षारीय भूमि निर्माण के प्रमुख कारण
1. शुष्क जलवायु।
2. सिंचाई स्रोतों जैसे ट्यूबवैल व नहरों के पानी की प्रकृति लवणीय व क्षारीय होना।
3. दोषपूर्ण सिंचाई पद्धतियों को अपनाना।
4. क्षारीय प्रकृति के रासायनिक उर्वरकों का बार-बार प्रयेाग करना।
5. जल निकास की उचित व्यवस्था न होना।
6. बार-बार एक ही गहराई पर खेतों की जुताई करना।
7. नहरी क्षेत्रों में जल स्तर का ऊंचा उठना।
8. मृदा प्रबंधन में लापरवाही बरतना व दोषपूर्ण कृषि क्रियाओं को अपनाना।
लवणीय भूमि का सुधार
लवणीय भूमियों के सुधार के लिए निम्नलिखित भौतिक विधियों को अपनाकर फसल उत्पादन के योग्य बनाया जा सकता है।
निक्षालन (लीचिंग)
इस विधि के अंतर्गत सर्वप्रथम खेत को छोटे-छोटे टुकड़ों में बाँटकर मेड़बंदी कर लेते हैं। इसके बाद खेत में 10-15 सेमी तक पानी भर देते हैं जिससे घुलनशील लवण जल में घुलकर पादप जड़ क्षेत्र से नीचे चले जाते हैं। यह विधि उन क्षेत्रों में अपनानी चाहिए जिनका जल स्तर नीचा हो। इस क्रिया के लिए गर्मी का मौसम उत्तम माना जाता है। जिन मृदाओं की निचली सतहों में कठोर परत होती है, वहां इस विधि को नहीं अपनाना चाहिए।
जल निकास द्वारा
जिन क्षेत्रों में जल निकास की उचित व्यवस्था नहीं होती है वहां पर लवणीय मृदाओं का निर्माण हो जाता है। अतः इन क्षेत्रों में आवश्यकता से अधिक पानी को नालियां व नाले बनाकर खेतों से बाहर निकाल देना चाहिए। जहां पर भूमि में सख्त परतें हो या भूमिगत जलस्तर ऊंचा हो तो वहां पर इस विधि का प्रयोग करना चाहिए।
खुरचना
जब खेतों में हानिकारक लवण छोटे-छोटे टुकड़ों में परत के रूप में एकत्रित हो जाएं तो उन्हें खुर्पी या कसोले की मदद से खुरच कर खेतों से बाहर फेंक देना चाहिए।
खाई खोदकर
इस विधि में संपूर्ण खेत में एक निश्चित अंतराल पर खाइयां खोदते हैं। खेत के एक किनारे पर पहली खाई खोदते हैं। इस खाई की मिट्टी को मेड़ के रूप में खेत के चारों ओर डाल देते हैं। फिर दूसरी खाई की मिट्टी को पहली खाई में डालते हैं। इस प्रकार ऊपर की लवणयुक्त मिट्टी खाई के नीचे और नीचे की मिट्टी ऊपर आ जाती है। जहां पर मजदूर सस्ते व आसानी से उपलब्ध हो उन क्षेत्रों में यह विधि अपनानी चाहिए।
घुलनशील लवणों को ऊपरी सतह से बहाना
इस विधि में खेतों में पर्याप्त पानी भर दिया जाता है जिससे ऊपरी सतह में मौजूद लवण पानी में घुल जाते हैं। यह विधि उन क्षेत्रों के लिए उपयुक्त है जहां मृदा के नीचे अधिक गहराई पर कठोर परत होती है। इस प्रकार खेतों में पानी कुछ दिनों तक भरकर रखने से अधिकांश लवण पानी में घुल जाते हैं। इसके बाद इस गंदले पानी को नालियों के द्वारा खेतों से दूर नदी-नालों में निकाल दिया जाता है।
अद्योभूमि की कठोर परतों को तोड़ना
जिन भूमियों में बहुत ही कम गहराई पर सख्त परतें हो तो वहां पर आधुनिक कृषि यंत्रों जैसे डिस्क प्लो व सब सॉयलर की मदद से परतों को तोड़कर लवणीय भूमियों को सुधारकर खेती योग्य बनाया जा सकता है। यह कार्य मई के महीने में करना उत्तम रहता है।
क्षारीय भूमियों का सुधार
जिप्सम का प्रयोग
क्षारीय भूमियों के सुधार हेतु जिप्सम का प्रयोग अत्यधिक लाभदायक पाया गया है। इन भूमियों में विनिमयशील सोडियम की अधिकता होती है। सर्वप्रथम भूमि की जिप्सम मांग की जांच के बाद अच्छी गुणवत्तायुक्त बारीक जिप्सम को मृदा में छिटककर सतह से 10 सेमी गहराई तक जुताई करके मिट्टी में मिला देना चाहिए। जिप्सम का प्रयोग मिट्टी परीक्षण के आधार पर ही करें। जहां मिट्टी में कैल्शियम की मात्रा कम हो, वहां ऊसर भूमि का सुधार जिप्सम से करें। इसके लिए मृदा परीक्षण विभिन्न राज्यों में स्थित कृषि विश्वविद्यालयों की मृदा परीक्षण प्रयोगशालाओं में मुफ्त कराया जा सकता है। इसके अलावा भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान स्थित मृदा परीक्षण प्रयोगशाला में भी यह सुविधा उपलब्ध है। राजस्थान राज्य में जिप्सम के विशाल भंडार होने के कारण इसकी उपलब्धि बहुत आसान है। साथ ही यह बहुत सस्ता भी है।
पायराइट का प्रयोग
क्षारीय भूमि सुधारने के लिए पायराइट का भी प्रयोग किया जाता है। इसकी मात्रा मृदा के पीएच एवं उसकी सघनता पर निर्भर करती है। सामान्यतः 10 से 15 टन पायराइट प्रति हेक्टेयर प्रयोग करना चाहिए। जिन भूमियों में कैल्शियम क्लोराइड लवणों की अधिक मात्रा पाई जाती है, उन मृदाओं के सुधार हेतु पायराइट का प्रयोग उपयोगी सिद्ध हुआ है।
लवणीय व क्षारीय भूमियों में फसल प्रबंधन
लवणीय व क्षारीय भूमियों की उत्पादकता व उर्वराशक्ति को बनाए रखने हेतु कुछ सस्य कृषि-क्रियाओं को अपनाना अति आवश्यक है। तभी हम इन समस्याग्रस्त भूमियों को फसलोत्पादन हेतु उपयोगी बना सकते हैं।
किसान भाई निम्नलिखित भूमि प्रबंधन एवं कृषण क्रियाओं को अपनाकर लवणीय एवं क्षारीय भूमियों से अधिकाधिक पैदावार ले सकते हैं।
1. भूमि सुधार के लिए सर्वप्रथम खेत को अच्छी तरह समतल करके मेड़बंदी करनी चाहिए। इसके लिए लेजर लैंड लेवलर का प्रयोग किया जा सकता है। जून-जुलाई में खेत की 10 सेमी की गहराई तक जुताई करके 10-15 दिनों तक खेत में पानी भरकर धान की रोपाई कर देनी चाहिए। किसान भाई ध्यान रखें कि धान की पौध लगभग 32-35 दिन पुरानी हो जिससे पौध आसानी से स्थापित हो सके। एक स्थान पर 3-4 पौधों की रोपाई करें। धान की कटाई के बाद गेहूं की फसल बोनी चाहिए। इसके बाद गर्मियों में ढैंचा उगाकर हरी खाद के रूप में प्रयोग करना चाहिए। यह फसल-चक्र तीन वर्षों तक चलाना चाहिए। संस्तुत कृषि-क्रियाओं को अपनाने से लवणीय व क्षारीय भूमियों का 3 से 4 वर्षों में सुधार हो जाता है। भूमि सुधार के आरंभिक वर्षों में धान व गेहूं की लवणीय व क्षारीय भूमि के प्रति काफी सहनशील प्रजातियों को ही बोना चाहिए।
2. खेतों की जुताई अलग-अलग गहराई पर करनी चाहिए। इसके लिए आधुनिक कृषि यन्त्रों जैसे डिस्क प्लो, सब सॉयलर या चीजल हल का प्रयोग 2-3 वर्षों में एक बार अवश्य करें। जिसके परिणामस्वरूप मृदा में वायु और पानी के आवागमन में आसानी रहती है। साथ ही पौधों की जड़ों का विकास व वृद्धि भी ठीक तरह से हो जाती है।
3. उपयुक्त फसल-चक्र अपनाना चाहिए। अधिक गहरी जड़ों वाली फसलों के बाद कम गहरी जड़ों वाली फसलों को उगाना चाहिए। फसल-चक्र में खाद्यान्न फसलों के साथ दलहनी फसलों को उगाना चाहिए। परंतु ध्यान रहे कि शुरू के 3-4 वर्षों तक दलहनी फसल न उगाएं। उचित फसल-चक्र अपनाने से भूमि की जलधारण क्षमता तथा फसलों में जल की उपलब्धता को भी बढ़ाया जा सकता है।
4. ऊसर भूमि को उपजाऊ बनाए रखने हेतु गोबर की खाद, कम्पोस्ट, मुर्गी खाद, हरी खाद, फसल अवशेषों इत्यादि का समय-समय पर प्रयोग करते रहना चाहिए। जहां पर शीरा या प्रेसमड उपलब्ध हो, उसका प्रयोग करें। कुछ अम्लीय प्रकृति के उर्वरकों जैसे अमोनियम सल्फेट, सिंगल सुपर फास्फेट व अमोनियम नाइट्रेट आदि का अधिक प्रयोग करें।
5. जिन क्षेत्रों का पानी लवणीय व क्षारीय स्वभाव का हो, वहां पर सिंचाई की ड्रिप अथवा फव्वारा विधि का प्रयोग करना चाहिए। सिंचाई हमेशा हल्की व थोड़े अंतराल पर करनी चाहिए क्योंकि भूमि की ऊपरी सतह लवणता के कारण जल्दी सूख जाती है। ऐसी भूमियों में फसलों के अंतर्गत अंधाधुंध सिंचाई व सिंचाई संख्या बढ़ाने से न केवल जल का अपव्यय होता है बल्कि मृदा स्वास्थ्य भी खराब होता है।
6. लवणीयता व क्षारीयता सहन करने वाली फसलों को उगाना चाहिए जिनका विवरण सारणी-2 में दिया गया है। इसके साथ-साथ फसलों की लवणीय व क्षारीयरोधक किस्मों का चयन करना चाहिए। कुछ फसलें लवणों को अल्पमात्रा में भी सहन नहीं कर पाती हैं जबकि कुछ मध्यम वर्ग की सहनशीलता दर्शाती हैं। इसके अतिरिक्त कुछ फसलें बहुत ही सहनशील होती हैं जो अधिक लवणीय भूमियों में भी उग सकती हैं।
सारणी-2: लवणीय व क्षारीय भूमियों के लिए सहनशील फसलें | ||
कम सहनशीलता | मध्यम सहनशीलता | उच्च सहनशीलता |
सेम, क्लोवर, नाशपाती, सेब, संतरा, ग्रेपफ्रूट, बेर, मूली, सेलेरी, नींबू | गेहूं, धान, मक्का, ज्वार, सूरजमुखी, स्वीट क्लोवर (सफेद), रिजका, अनार, अंगूर, खरबूजा, टमाटर, बंद गोभी, फूल गोभी, सलाद, गाजर, प्याज, मटर, खीरा | जौ, चुकंदर, कपास, खजूर, पालक व मैथी |
7. फसलों की बुवाई करते समय बीज दर सामान्य से थोड़ी ज्यादा रखें क्योंकि लवणीय एवं क्षारीय भूमि में सामान्यतः बीजों का कम जमाव व पौधें की शुरुआती बढ़वार कम होती है। बुवाई/रोपाई करते समय पंक्तियों एवं पौधों की दूरी को सामान्य से थोड़ा कम कर लेना चाहिए।
8. जहां तक हो सके फसलों की बुवाई मेड़ों पर करनी चाहिए। मेड़ें पूरब से पश्चिम दिशा की ओर बनानी चाहिए। पौधों की बुवाई/रोपाई उत्तर दिशा में मेड़ के मध्य में करें। यदि मेड़ बनाना सम्भव न हो तो बुवाई छोटी-छोटी समतल क्यारी बनाकर करें। क्यारियों का एक किनारा सिंचाई नाली से जुड़ा हो तथा दूसरा किनारा जल-निकास नाली से जुड़ा होना चाहिए। जिससे आवश्यकता से अधिक पानी खेत से जल-निकास नाली द्वारा बाहर निकाला जा सके। मेड़ों पर बुवाई करने से पौधों की जड़ें कम से कम हानिकारक लवणों के संपर्क में आती हैं।
9. फसलों में नाइट्रोजन की मात्रा को सामान्य मृदा से 20 प्रतिशत अधिक देना चाहिए। फास्फोरस एवं पोटाश की मात्रा मिट्टी परीक्षण के आधार पर देनी चाहिए। इसके अलावा 25 किग्रा जिंक सल्फेट प्रति हेक्टेयर की दर से अवश्य प्रयोग करना चाहिए। नाइट्रोजन की आधी मात्रा तथा फास्फोरस व पोटाश की संपूर्ण मात्रा बुवाई के समय प्रयोग करनी चाहिए। नाइट्रोजन की शेष आधी मात्रा को दो बराबर भागों में खड़ी फसल में पौधों में फूल आने से पूर्व देना चाहिए।
10. लवणीय भूमि में उगाई गई फसलों में निराई-गुड़ाई व खरपतवार नियंत्रण अति आवश्यक है। सिंचाई के बाद ऊसर भूमि की ऊपरी सतह कड़ी हो जाती है जिससे वायु के आवागमन में बाधा पहुंचती है। अतः सिंचाई के बाद निराई-गुड़ाई आवश्यक है जो पौधों की जड़ों के उचित बढ़वार व विकास में सहायक है।
निष्कर्ष
तेजी से बढ़ते शहरीकरण, औद्योगिकीकरण व आधुनिकीकरण की वजह से खेती योग्य भूमि का क्षेत्रफल दिनोंदिन घटता जा रहा है। भविष्य में इसके बढ़ने की संभावना नगण्य है। इस संबंध में लवणीय एवं क्षारीय भूमियों को सुधार कर खेती योग्य भूमि का क्षेत्रफल बढ़ाने में मदद मिल सकती है। लवणीय व क्षारीय भूमि में वर्षा जल भरा रहता है जिसके परिणामस्वरूप मच्छरों व अन्य बीमारियों के फैलने की आशंका रहती है। इनके सुधार से इन दुष्प्रभावों को कम किया जा सकता है। लवणीय व क्षारीय भूमि सुधार ग्रामीण क्षेत्रों के सर्वांगीण विकास के लिए एक अनुपम तकनीक है जिसके द्वारा बेहतर खाद्यान्न उत्पादन, अधिक कृषि आय और ग्रामीण क्षेत्रों में रोजगार के अधिक अवसर पैदाकर सामाजिक-आर्थिक उन्नति सुनिश्चित की जा सकती है।
(लेखक भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान, नई दिल्ली में तकनीकी अधिकारी हैं। ई-मेल: v.kumarmovod@yahoo.com)
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Post By: pankajbagwan