धरती पर गिरने वाले वर्षा जल की प्रत्येक बूंद को रोका जा सकता है। बशर्ते इसके लिए संरचनाओं की ऐसी श्रृंखला तैयार कर दी जायें कि पानी की एक भी बूँद 10 मीटर से अधिक दूरी पर न बहने पायें। इसे कोई जल संरचना रोक ले और धरती में अवशोषित कर ले यही संपूर्ण जल प्रबंधन है। जलग्रहण का सिद्धांत है कि ‘पानी दौड़े नहीं, चले’ है, जबकि संपूर्ण जल प्रबंधन का सिद्धान्त है कि ‘पानी न दौड़े न चले, बल्कि रेंगे और अंततः रुक जाये, और जमीन की गहराईयों में ऐसा समा जाये कि उसे सूरज की रोशनी भी उड़ा के न ले जाये।‘ वह जमीन के अंदर धीरे-धीरे चलता हुआ वहां निकले जहां हम चाहते हैं (कुओं में, तालाबों में, हेंडपंपों में, ट्यूबवेल में, नदी-नालों में)। इस प्रकार से प्राप्त जल स्वच्छ एंव सुरक्षित होता है और लंबे समय तक मिलता/बहता रहता है।
इन संरचनाओं में 5 से 10 सें. मी. वर्षा जल एक बार में रोका जा सकता है। इससे अधिक वर्षा यदा-कदा ही दो-तीन वर्षों में एक बार होती है, और इतनी साल में तीन-चार बार। इस प्रकार संपूर्ण वर्षा में 100 सें. मी. तक की योग वर्षा को भूमि में अवशोषित किया जा सकता है। यह जल भूमि में अवशोषित होकर धीमी गति से कुंए, ट्यूबवेल, हेंडपंप व तालाबों में आगामी 6 माह से 12 माह तक प्राप्त होता रहता है। इससे हमारी खरीफ की फसल सुनिश्चित होती है, सुखे से मुक्ति मिलती है, रबी की फसल भी पर्याप्त होती है गर्मी में पेयजल संकट नहीं होता है।
जिले में इस सिद्धांत पर 200 से अधिक ग्रामों एवं 30हजार हेक्टेयर से अधिक भूमि पर कार्य किया जा रहा है। इसका लाभ 50हजार हेक्टेयर क्षेत्रफल में सूखे से मुक्ति के रूप में व 25 हजार हेक्टेयर अतिरिक्त रबी की फसलों के रूप में प्राप्त होगा।
जलग्रहणः
परिवर्तन प्रकृति का नियम है। मानव के द्वारा किया गया परिवर्तन छेड़खानी है, बदलाव है, प्रकृति नियम विरुद्ध है, तथा भटकाव है। जब से मानव ने इसकी दिशा, रफ्तार में अधिक रुचि दिखाई तब से समस्या जटिल हो गयी है। जब से धरती ठंडी हुई है तभी से होने वाली भौगोलिक उथल-पुथल शुरू हुई। नदी-नाले, समुद्र, पहाड़ बनें और फिर पैदा हुआ जीवन, वन, मिट्टी, लाखों करोडों वर्षो से यह प्रक्रिया भली भांति चल रही है। धीरे-धीरे इसमें एक संतुलन स्थापित हो गया है। जब से वानर उत्पाती हुए तब से परिवर्तन दिशाहीन हो गया। सैकड़ों साल पहले तक आज जहाँ रेगिस्तान, दलदल बंजर जमीन दिखती है, वहां ऐसा नहीं था। गत 100 वर्षों में जनसंख्या अनियंत्रित रुप से बढ़ी है, और उससे अधिक रफ्तार से बढ़ा है हमारा लालच। शनैः-शनैः हम जंदल काटते चले गये। प्रकृति की जो क्रिया-प्रतिक्रिया थी इसका संतुलन बिगड़ा है। वैसे भी जहाँ क्रिया होती है वहीं प्रतिक्रिया भी होती है। यह प्रतिक्रिया कितनी व्यापक और भयानक हो सकती है इसका अंदाज भी हमें अपने करनी के समय नही था। आज इसका एहसास हो रहा है।
धरती पर गिरने वाले वर्षा जल की प्रत्येक बूँद को रोकने का साहस म.प्र. के खण्डवा जिले ने कर दिखाया है। इसके लिए जिले में संरचनाओं की ऐसी श्रृंखला तैयार की है कि – पानी की एक भी बूँद 10 मीटर से अधिक दूरी पर न बहने पाये। इसे कोई जल संरचना रोक ले और धरती में अवशोषित कर लें। यही संपूर्ण जल प्रबंधन है। जिसके उदाहरण है – ग्राम डंठा, धनगाँव, तोरनी व रोशनपुरा। इसके अलावा जिले में दो सौ से अधिक ग्रामों में संपूर्ण जल प्रबंधन के उल्लेखनीय परिणाम प्राप्त हुए हैं। नेशनल वाटरशेड कमीशन ने तो 21वीं सदी में पानी को लेकर दंगों की आशंका व्यक्त की है। पानी की ओर उपलब्धता इस साल हमें अच्छी तरह समझ में आ गयी है। मानसून से पहले इस देश में एक घूंट पीने के पानी की समस्या हो जाती है। जब सभी तरफ अच्छे वन हुआ करते थे तब 90 प्रतिशत वर्षा का जल नहीं बहता था वहीं जमीन में समा जाता था। समान्य वनों में 20 प्रतिशत तथा अच्छे वनों में 90 प्रतिशत पानी बारिश में जमीन में समा जाता है। अब हम वहां खेती करते हैं। खेती भी 20%- 50% पानी सोख लेती है, एवं जहां खेती नहीं होती वहां न पानी रुकता है, न मिट्टी। इसी कारण से टनों मिट्टी सालाना बह जाती है जबकि एक सेंमी. मिट्टी बनने में हजार साल लगते हैं। यह बात और है कि अधिकांश हिस्सों में या तो मिट्टी बनना बंद हो गयी है या उसकी रफ्तार धीमी हो गयी है। यही कारण है कि आज पेड़-पौधे व चारे, वनोपज की उपलब्धता कम हो गई है। शेष वनों पर भी दबाव बढ़ रहा है। इस स्थिति में मिट्टी बही तो वह तालाबों व नालों को पाटने लगी है। नदियों-नालों की चौड़ाई बढ़ी है। बाढों की भयानकता इसी से बढ़ी है। इससे मौसम भी बदल गया है। पहले की तुलना में मानसून का असंतूलन बढ़ने लगा है। बस इसी समय से कृषि वैज्ञानिकों की चिन्नताएं बढ़ी कि किस तरह बारिश का पानी जमीन के अंदर पहुंचाया जाए। वन लगाना कठिन काम है। जून माह में पहले प्राथमिक रुप से पेड़-पौधे लग जाया करते हैं, अब वहां वृछारोपण के लिए गड्ढे खोदकर पहले अच्छी मिट्टी भरनी पड़ती है। चारागाह में वृद्धि करें, कृषि उत्पादकता बढ़ाएं एवं पानी को जमीन में पहुंचाएं, यह लक्ष्य वैज्ञानिकों ने निर्धारित किया। इससे अतिरिक्त भूमि की मांग कम होगी। लोगों की हालत सुधरेगी विकास की धाराओं पर असर पड़ेगा। इसी आधार पर उन्होंने बड़ी नदियों को बोसिन में बांटा। फिर छोटी नदियों को बेसिन में बांटा और फिर मिली-वॉटरशेड एवं माइक्रो-वाटरशेड। वाटरशेड वह काल्पनिक रेखा है, जो यह तय करती है कि उसके किस तरफ आया पानी किस तरफ बहे, वह गिरने वाले पानी की दिशा तय करती है। मगर जलग्रहण क्षेत्र मिशन के संदर्भ में वाटरशेड वह एरिया है, जहां पर हुई बारिश एक बिन्दु पर पहुंचती है। इसे कैचमेंच एरिया भी कहते हैं। अंतर्राष्ट्रीय वाटरशेड का रिजलाईन अथवा वेलीलाईन पूर्व समय में दो देशों – राज्यों की सीमा निर्धारण का सिद्धांत भी रहा है।
जलग्रहण का सिद्धांत बहुत साधारण है पानी जहां गिरता है, उसे आगे बढ़ने से रोकना है। जैसे-जैसे वह आगे बढ़ेगा उसकी मात्रा बढ़ेगी। आस-पास का पानी उसमें आकर मिलेगा, उसकी रफ्तार बढ़ेगी, वह मिट्टी काटेगा। हमें उसे संगठित नहीं होने देना है। संगठन में ही शक्ति है, उसकी शक्ति कम करना है, वह बढ़कर नासूर बने उसके पहले ही उसका इलाज करना है। वैसे पानी हम बड़ी-बड़ी संरचनाएं बनाकर भी रोक सकते हैं मगर वहां पर पानी की रोकने की कीमत बढ़ जाती है। ऐसी बड़ी संरचनाओं की संभावनायें भी पहले तो सीमित ही होती हैं और उनसे होने वाले लाभ-हानि तो अपने आप में विश्लेषण का विषय है। इस माध्यम से सिंचाई के लिए भी पानी की कीमत एक लाख रुपए प्रति हेक्टेयर से अधिक की होती है। वैसे यह एक विडम्बना है, कि पहले हम बिखरे हुए पानी को एक जगह एकत्रित कर लें और फिर उसे सिंचाई के लिए वापस बिखेर दें। जहां से शुरू हुए थे वहीं पर आये। उदाहरणार्थ-सूर्य की रोशनी को ही लें। सूर्य की रोशनी से पौधा बना। हजारों वर्षों पहले इससे कोयला निर्मित हुआ।
कोयले को जलाकर ऊर्जा निकाली, उसकी भांप से टरबाइनें घूमीं और फिर बिज़ली बनी। इसी गर्मी से पानी भाप बनता है। मतलब ऊर्जा ने 7 बार अपना स्वरूप बदला और इस प्रक्रिया में ऊर्जा 50 प्रतिशत ही शेष रह जाती है। इस प्रक्रिया में प्रत्येक चरण में ऊर्जा 90 प्रतिशत ही काम की रह जाती है। अन्ततः इसी बादल से हम गर्मी पैदा करते हैं, हीटर जलाकर। इस बार ऊर्जा ने 7 बार अपना स्वरूप बदला। परिवर्तन में 80 से 90 प्रतिशत इसमें ऊर्जा रह जाती है और अंततः 40 से 50 प्रतिशत पानी की भी बार-बार की बर्बादियों को रोकना ही जलग्रहण का सिद्धांत है। यदि वर्षा का पानी गिरने पर हम उसे रोक दें, जमीन के अंदर या जमीन के ऊपर तो पानी के उपयोग में आने वाली अनेक अव्यवस्थाओं व नुकसानों से हम निश्चित ही बच जायेंगें। उदाहरण के लिये खंडवा जिले की आबादी लगभग 18 लाख है। पशुओं की आबादी लगभग 22 लाख है। बढ़ोत्तरी के मान से यह 2010 तक क्रमशः 20 एंव 25 लाख हो जायेगी। इसकी तुलना में खंडवा जिले का रकबा 11 लाख हेक्टेयर है। इसमें से यह एक लाख हेक्टेयर वह क्षेत्र घटा दें जो नदी नालों का है, शेष 10 लाख हेक्टेयर रह जाता है। इस 10 लाख हेक्टेयर क्षेत्र में खंडवा जिले की औसत वर्षा लगभग 90 सेंमी. के मान से 9 लाख हेक्टेयर मीटर वर्षा हमें उपलब्ध होगी। इसी प्रकार 40 लीटर प्रति व्यक्ति, प्रति पशु, प्रतिदिन के आवश्यकता के हिसाब से हमें 7000 हेक्टेयर लीटर पानी की वार्षिक आवश्यकता हमें है।
इसी प्रकार जिले के अंदर चार लाख हेक्टेयर में खरीफ की और लगभग एक लाख हेक्टेयर में रबी की फसल लगायी जाती है। यदि हम सम्पूर्ण 400 लाख हेक्टेयर में दोनों फसलों का सपना देखें एवं रबी में इससे पानी के मान एवं खरीफ में वर्षा से अतिरिक्त पानी की मांग से लगभग 30 सेमी. प्रति हेक्टेयर पानी की आवश्यकता पड़ेगी जो 1.2 लाख हेक्टेयर होता है जो केवल उपलब्ध वर्षा का 13 प्रतिशत है, और पशु एवं आदमी को पीने की आवश्यकता है, वह कुल उपलब्ध वर्षा का 0.77 प्रतिशत है। यह सब कुछ मिला लें तो वर्षा के 15 प्रतिशत पानी की आवश्यकता है, यानि कि 90 सेमी. में वर्षा के हिसाब से मात्र 13-14 सेमी. पानी ही पर्याप्त है। अगर हम सम्पूर्ण जिले में जलग्रहण के मान से संरचनाओं का निर्माण करें तो 40-50 सेमी. वर्षा भी, जो गत वर्ष की वर्षा है एवं पिछले 50 सालों की सबसे कम वर्षा है, इसे रोक लेते हैं तो सूखे की स्थिति निर्मित नहीं होगी।
अतः एक हेक्टेयर में खंडवा जिले में 90 सेमी. पानी गिरता है। 90 सेमी. पानी में हमारी आवश्यकता देखी जाये तो 40 सेमी. की आवश्यकता है। 50 सेमी. पर हेक्टेयर हमारे पास पानी अधिक है। इस अतिरिक्त पानी को हम स्थायी रुप से धरती के ऊपर तालाब आदि संरचनाओं में भरकर रख सकते हैं, और इससे अधिक जमीन के अंदर भंडारण कर सकते हैं। पानी जहां गिरा है, उसे वहीं रोक दें तो इसमें महत्वपूर्ण बात यह होगी कि न तो इसमें हमें भंडार के लिए जगह बर्बाद करना पड़ेगी और न ही पानी के वितरण में जगह बर्बाद करना पड़ेगी। जितना ज्यादा फैलाव होगा पानी उतनी ही रफ्तार से जमीन पर समायेगा।
यदि हम ऊंचे क्षेत्रों में गिरने वाले पानी को वहीं रोक दें तो ऊंचे क्षेत्र (पहाड़ आदि को) जो स्पंज के समान होते है, पानी सोख लेते हैं। पहाड़ियों में बहुत विशाल मात्रा में पानी रोका जा सकता है। पहाड़ों के नीचे की ओर मैदानी क्षेत्र में जो गांव बसे हैं, इनमें पानी सालभर रिस-रिसकर आता है। नीचे से फिर पहाड़ों को देखने पर ऐसा लगता है जैसे ओव्हर टैंक हो, जिसकी भंडार क्षमता बहुत अधिक है, बल्कि पानी भी दूर-दूर रिस कर जाता है। जितनी हमें पानी की आवश्यकता है, उस रफ्तार से पानी रिसेगा। इसका विशेष महत्व तब है, जब अल्प वर्षा की स्थिति निर्मित होती है तब यही भूमि का जल हमें मिलता रहेगा और हमें पानी की समस्या नहीं होगी। वैसे भी जमीन और पहाड़ो को फिर से पूर्ण रूप से तृप्त करने के लिए अनेक वर्ष लगते हैं।
जलग्रहण की सबसे बड़ी उपयोगिता तब है, जब इसे बहुत ही सूक्ष्मता, धैर्य और विवेक के साथ इसे लागू किया जाए तो नतीजा यह निकलना चाहिए कि बरसात में नदी नाले या तो बहें ही नहीं या बहुत धीमें बहें। (सालभर याने कि भीषण गर्मी में) जल की उपलब्धता बनी रहे। पानी के अलावा जलग्रहण में वहां के व्यक्तियों को संगठित करना एक महत्वपूर्ण कार्य है। एक अच्छे जलग्रहण में सीमेन्ट और लोहे का कोई काम नहीं है, सिर्फ श्रम ही पर्याप्त है। अर्थात “हर्र लगे न फिटकरी रंग दिखे चोखा” । सामाजिक एवं आर्थिक रुप से एक अच्छे जलग्रहण का मापदंड है, संगठित एवं सहयोगी समाज का उद्भव व औसत आय में कम से कम सौ प्रतिशत की वृद्धि। यह आदर्श जलग्रहण कार्य की पराकाष्ठा है, यही उसकी परिणति है।
कुछ उदाहरणः
ग्राम डंठाः-
1. गत वर्ष 12 अगस्त के बाद वर्षा नहीं- परंतु माह अक्टूबर से कुएं एवं तालाब के जलस्तर में अद्भूत जलवृद्धि -संपूर्ण खरीफ के पश्चात संपूर्ण रकबे में रबी की फसल – 10% रकबे में तीसरी फसल भी।
2. इस वर्ष 28 सें. मी. वर्षा के पश्चात् भी एक बूंद पानी भी नहीं बहा- अब ग्रामवासियों को पानी की आवश्यकता नहीं।
ग्राम धनगांवः-
1. सूखे के प्रथम वर्ष में 37 प्रतिशत से कम आनावारी-रबी मात्र 25 हेक्टेयर।
2. सूखे के द्वितीय वर्ष में शत-प्रतिशत क्षेत्र में खरीफ व 250 हेक्टेयर क्षेत्र में रबी – गर्मी के मौसम में कपास की हेक्टेयर में अग्रिम वोनी व 250 हेक्टेयर क्षेत्र के लिए मिर्ची की पौध तैयारी।
3. इस वर्ष 15 सें मी. वर्षा के पश्चात 250 कुओं में 5 से 10 फिट का जलस्तर – 150 से अधिक कुओं में 3 से 5 फिट जल स्तर।
4. मात्र 12 खंडवा हाइड्रोलिक स्ट्रक्चर से 12,525 कुंडियॉ, 2400 रनिंग कंटूर ट्रेंच, पोखर, अर्दनचेक व 460 कुओं के पुनर्भरण पर कुल 5 लाख रुपया व्यय कर दो वर्षों में डेढ़ करोड़ रुपये क फसल बचाई।
5. पिछले 22 दिनों के अवर्षो के अंतराल में ग्रामीणो ने रोके गये पानी से 20 लाख रुपये के मिर्ची के रोपों को बचाया।
ग्राम तोरनीः-
1. 15 मिनट की प्रथम वर्षा पश्चात ही ग्राम में पेयजल परिवहन बंद- अगले वर्ष से परिवहन नहीं होगा।
2. क्षेत्र में 25 जून के बाद वर्षा नहीं, परन्तु अब वर्षा न होने पर ग्राम में जल संकट नहीं होगा।
3. तीन कुंओं में प्रथम वर्षा के पश्चात ऊपर से पानी बहा- जिनसे नाली द्वारा सीधे खेत में सिंचाई।
4. 30 हेक्टेयर क्षेत्र में कई वर्षो पश्चात प्रथम बार फसल ली जायेगी – इस वर्ष 2हजार हेक्टेयर क्षेत्र में गेंहू का उत्पादन होगा – गत वर्ष एक दाना भी नहीं प्राप्त किया जा सका था।
ग्राम रोशनपुराः
गत वर्ष अल्पवर्षा के पश्चात भी रबी फसल की सिंचाई के बाद 16 कुओं में अभूतपूर्व जल स्तर- फलस्वरुप कपास की बोनी दो माह पूर्व।
इस प्रकार जिले 200 से अधिक ग्रामों से संपूर्ण जल प्रबंधन के परिणाम प्राप्त हो रहे है।
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