सभी ग्रहों में, हमारा ग्रह पृथ्वी ही जीवन समर्थक है, क्योंकि यहां की प्रकृति जीवन के अनुकूल है। हमें सदा ही प्रकृति, पर्यावरण और जलवायु का ऋणी रहना चाहिए क्योंकि हमारा अस्तित्व इसी पर अवलम्बित है। उगता हुआ सूर्य, बहती हुई पवन, चहचहाती हुई चिड़िया, पशु-पक्षी, पेड़-पौधे, सुन्दर सुन्दर फूल, जीव जगत आदि सभी, हमारी अनभिज्ञता के बावजूद, न केवल हमारे साथ रहते हैं बल्कि इनका होना हमारे लिए अत्यंत महत्वपूर्ण भी है।
रोजमर्रा के व्यस्त जीवन में यद्यपि हम प्रकृति से निरपेक्ष रहते हैं तथापि, ऐसा शायद ही कोई हो, जिसे प्रकृति ने आमंत्रण देते हुए अपनी ओर आकर्षित न किया हो। यह वही आकर्षण है जिससे खिंचे हुए हम कभी पहाड़ों में, कभी मैदानों में, कभी सागर तट पर या कभी विदेश में सैर-सपाटे के लिए जाते हैं और ताजा होकर लौटते हैं। इस समय हम प्रकृति के अत्यधिक निकट रहते हैं और पूरा आनंद उठाते हैं। कभी फूल, कभी बर्फ, कभी लहरें, कभी वन किसी न किसी रुप में प्रकृति हमें अपने समीप बुलाती है और हम चुम्बकीय आकर्षण से खिंचे चले जाते हैं।
मार्च का महीना, जब बच्चों की परीक्षाएं समाप्त हो जाती हैं और अगली कक्षा शुरू होने में समय होता है, यही उत्तम समय होता है कहीं घूमने के लिए। मौसम भी इस समय अनुकूल होता है। सर्दियों को हम विदा कर चुके होते हैं और गर्मियां अभी उठने से पूर्व की अंगड़ाई ले रही होती है। बच्चों के स्कूल की तरफ से भी हम बेफिक्र होते हैं क्योंकि, न तो कोई क्लास छूटने का भय, मार्च का महीना, जब बच्चों की परीक्षाएं समाप्त हो जाती हैं और अगली कक्षा शुरू होने में समय होता है, यही उत्तम समय होता है कहीं घूमने के लिए। मौसम भी इस समय अनुकूल होता है।
सर्दियों को हम विदा कर चुके होते हैं और गर्मियां अभी उठने से पूर्व की अंगड़ाई ले रही होती है। बच्चों के स्कूल की तरफ से भी हम बेफिक्र होते हैं क्योंकि, न तो कोई क्लास छूटने का भय और न ही होमवर्क की चिंता रहती है। ऐसे ही समय में अक्सर हमारा पंजाब का दौरा लगता है। पंजाब जाने का मुख्य कारण बच्चों का दादा-दादी के प्रति प्यार है जो उन्हें कहीं और छुट्टियां बिताने का विकल्प ही नहीं देता । आज कल की एकल परिवार व्यवस्था में संयुक्त परिवार से दूर रहने वाले बच्चे जब दादा-दादी, बुआ, चाचा, ताऊजी व कजिन्स से मिलते हैं तो उनमें संपूर्णता का एहसास आता है। शहरीकरण, एकाकीपन और पढ़ाई के बोझ तले दबा बचपन रिश्तों के बीच पहुँच कर खिल जाता है और इसी मेल मिलाप के बीच हमारा घूमना फिरना भी हो जाता है।
बात वर्ष 2005 की है। ऐसे ही हल्के क्षणों में, मौज-मस्ती की मनःस्थिति में हम फिरोजपुर पहुँचे। रिश्तों की गर्माहट एवं औपचारिकता के बीच बच्चों ने बॉर्डर देखने की मांग रखी। फिरोजपुर में हुसैनी वाला बॉर्डर पड़ता है, जहां रोज शाम को रिट्रीट समारोह होता है, जिसे देखने के लिए इस ओर भारत और दूसरी ओर पाकिस्तान के पर्यटक पर्याप्त संख्या में एकत्रित होते हैं। पास में ही, सतलुज नदी के तट पर राष्ट्रीय शहीद स्मारक है जहां देशभक्त भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु का अंतिम संस्कार किया गया था। हम लोग वहां भी पहुँचे। शायद ही कोई ऐसा हो जो ऐसे स्थान पर जाकर राष्ट्रभक्ति की भावना से भर न जाए या अपने जवानों को देखकर और उनसे मिलकर जिसका सीना गर्व से चौड़ा न हो जाए। राष्ट्रीय स्मारक भी शहीदों की अदम्य क्रांतिकारी भावना को जीवंत कर देते हैं।
रिट्रीट समारोह देखकर और शहीदी स्मारक के दर्शन करने के पश्चात भी अभी पर्याप्त उजाला था। हवा ठंडी चल रही थी, रात्रिभोज में समय था। बच्चे पूरे आनन्द के मनोभाव में थे और घर लौटने को तैयार न थे। ऐसे में कैन्ट क्षेत्र में ही सारागढ़ी पार्क जाने का निश्चय किया। सारागढ़ी पार्क में बच्चों के विभिन्न झूले, ट्रेन आदि की व्यवस्था है। इसके साथ ही कैंटीन और स्नैक्स भी टाईमपास विकल्प हैं। वहां जाते ही बच्चे तो झूलों में व्यस्त हो गए और हम लोग उनके पर्यवेक्षण में सूर्य की रोशनी शनैः शनैः कम होने लगी थी। हमारा उद्देश्य समय से निकल कर अंधेरा होने से पूर्व घर पहुँचने का था। अतः हमने अपनी ओर से बच्चों के लिए 'चलो चलो' का अलार्म बजा दिया था किन्तु बच्चे अभी और मस्ती के मूड में थे। हवा थोड़ी सी तेज हो गई थी । मार्च-अप्रैल के माह में तेज़ हवा का चलना आम है। सर्दियों की विदाई एवं गर्मियों का स्वागत प्रायः तेज हवाओं से ही होता है।
बच्चों ने आखिरी झूला कह कर पेंग पढ़ाने वाले झूले में सीट अपनाई । बच्चे झूले पर बैठे थे और हम उनके पीछे खड़े हो कर उन्हें झुला रहे थे। एक ही झटके में हवा इतनी तेज़ हो गई कि अचानक से अंधेरा हो गया और सारे में धूल ही धूल फैल गई। दृश्यता बिल्कुल ही समाप्त हो गई। मैं तो बस झूले को पकड़ कर खड़ी हो गई और बच्चों से कहा कि मुझे कस कर पकड़ लो।
बच्चे दृश्य की भयावहता को देख कर डर गए और चिल्लाने लगे। जाने कहां से तीव्रता से इतनी धूल आ गई कि आंखे खोलना भी नामुमकिन हो गया। ऐसा लग रहा था कि बस हमारे पांव भी हवा के बहाव से उखड़ जाएंगे। गिरने, टकराने और लोगों के चिल्लाने की आवाजें आ रही थी। धूल का बस एक समुद्र सा लग रहा था कि उमड़ कर आ गया हो। कुछ महीने पहले ही भारतीय तटों पर सुनामी ने अपनी दस्तक दी थी। बस वही आशंका ह्रदय में घर कर रही थी। बच्चों को हमने निर्देश दिया कि जो भी जैसे हैं बस झूले आदि को पकड़े और आंखे बंद करके खड़े रहें। अन्य कोई विकल्प हमारे पास नहीं था। सब कुछ इतनी तीव्रता से हुआ था कि किसी सुरक्षित स्थान पर जाने का मौका ही नहीं मिला था।
जब भी कोई कष्ट आता है तो सच्चे मन से भगवान याद आते हैं। बस भगवान का नाम लेते हु और बच्चों की सलामती की प्रार्थना करते हुए वह समय बीता । हल्की-हल्की बारिश शुरु हो गई। बारिश होने से इतनी तसल्ली हो गई कि हवा रुक जाएगी। या तो हवा बारिश के बादलों को उड़ा कर ले जाती है या फिर बारिश हवा को रोक देती है। हमारे प्रकरण में दूसरा विकल्प प्रभावी हुआ । बारिश ने हवा को रोक दिया। जब आंधी रुकी और दृश्यता आई तो घबराए हुए बच्चे दिखे जो झूलों को पकड़े, सहारा लिए हुए थे। सारा पार्क अस्त-व्यस्त हो चुका था। कई पेड़ गिरे पड़े थे, कई विज्ञापन पट्ट उड़ चुके थे। विद्युत प्रवाह फेल हो चुका था।'जान बची और लाखों पाएं की तर्ज पर हमने वापिस घर चलने का निश्चय किया।
जब बाहर आए तो पाया कि एक पेड़ हमारी कार पर गिरा पड़ा था। कार को ऐसी हालत में निकालना हमारे लिए संभव नहीं था। लेकिन, कई स्थानीय लोगों ने सहयोग दिया और कई लोगों ने हाथ लगाकर कार को पेड़ के नीचे से निकाल दिया। प्रकृति ने उस दिन हमारा साथ दिया था। पेड़ का जो भाग हमारी कार पर था उसमें केवल आगे की कोमल टहनियां और पत्ते ही थे। हालांकि पेड़ की पूरी कैनोपी हमारी कार पर गिरी थी, पर कार को खरोंच भी न आई थी। हम सकुशल घर पहुँच गए।
प्रकृति और मनुष्य, सामंजस्य से ही साथ रहते हैं। जब तक प्रकृति विनीत है, हम सकुशल हैं और प्रकृति के क्षणिक रुष्ट होते ही हमारे अस्तित्व की लड़ाई शुरु हो जाती है। प्रकृति, पर्यावरण और जलवायु की अनुकूलता से ही हमारा अस्तित्व है। प्रकृति ही हमारी जीवन शैली को संचालित करती है। लगभग पांच मिनट की एक छोटी सी घटना ही हमें प्रकृति की ताकत समझाने के लिए पर्याप्त थी। अतः प्रकृति जो हमारे लिए माँ तुल्य है, उसका सम्मान भी हमें माँ सदृश ही करना चाहिए ताकि वह भी हम पर कृपालु बनी रहे। आखिर सब सामंजस्य की ही तो बात है।
स्रोत:-हिंदी पर्यावरण पत्रिका,भारतीय वन सर्वेक्षण कौलागढ़, देहरादून
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