ज्यादातर परिवारों में पवित्र गंगाजल को अनमोल बताकर पानी की फिजूलखर्ची नहीं करने का संस्कार देने वाले हमारे बुजुर्ग ही होते हैं। पर हम कहाँ समझ पाये थे गंगाजल की ही तरह पानी का भी मितव्ययिता से उपयोग करने का यह सन्देश।
कोई गाय मौत के लिये छटपटा रही हो या मोहल्ले में किसी के यहाँ अन्तिम साँसें गिन रहे किसी परिजन को गीता का अठारहवाँ अध्याय सुनाने के हालात बन रहे हों, तो उस समय उनके परिवार का कोई सदस्य कटोरी या भगोनी लेकर चला आता था। वह दरवाजा खटखटाने के साथ ही कौशल्या नानी कहकर आवाज लगाता और सारे हालात को बताकर गंगाजल और तुलसी के पत्ते देने का अनुरोध करता। नानी बड़बड़ाती हुई पूजाघर में जाती, चन्दन-कुमकुम के छीटों से रंग-बिरंगी हुई काँच की बोतल, चम्मच, गमले के आस-पास गिरे तुलसी के पत्ते लेकर उतरती और कटोरी में दो चम्मच गंगाजल डालकर तुलसी के पत्ते थमाकर दरवाजा बन्द कर लेती।
कटोरी में रखा गंगाजल वे अपने ही हाथों से गाय के मुँह में डालते हुए हमें सीख देती थी कि तुम्हें गंगाजल की कीमत का पता नहीं है, नीचे गिरा दोगे। उसके उपरान्त गाय की परिक्रमा लगाती थी और साथ ही प्रार्थना भी करती थी कि हे दीनानाथ, मत तड़पाओ इस जीव को, अपने पास बुला लो। तड़पती गाय के लिये दयामृत्यु की प्रार्थना स्वीकारे जाने के बदले नानी दो या पाँच ग्यारस के व्रत कबूलना नहीं भूलती थी। हमें आश्चर्य होता था कि दीनानाथ प्रार्थना तत्काल कैसे स्वीकार कर लेते हैं? हम भी गाय की आत्मा की शान्ति के लिये निर्जला एकादशी का व्रत उत्साह से करते थे। इस एकादशी पर पानी वर्जित होने से आम खूब खाने को मिलते थे। घर पर जब कोई रात-बिरात गंगाजल माँगने आता था तो नानी की खटर-पटर से कई बार हमारी आँखें खुल जाती थी। दो चम्मच गंगाजल देने के उनके नियम में बदलाव हमें कभी नजर नहीं आया। हम कहते थे कि गंगाजल देने में भी मितव्ययिता कैसी? तो उनके उपदेश शुरू हो जाते थे कि तुम्हें तो पानी की ही कद्र नहीं पता, तो गंगाजल का मोल क्या समझोगे? तुम्हें कंजूसी तो नजर आई, पर यह थोड़ी पता है कि 20-25 साल पहले कितने संकट उठाकर लाई हूँ हरिद्वार से।
ज्यादातर परिवारों में गंगाजल को अनमोल बताकर पानी की फिजूलखर्ची नहीं करने का संस्कार देने वाले हमारे बुजुर्ग ही होते हैं। पर हम कहाँ समझ पाये थे गंगाजल की ही तरह पानी का भी मितव्ययिता से उपयोग करने का यह सन्देश। दशकों पूर्व तब हर घर में निजी नल कनेक्शन भी नहीं होते थे। पूरे प्रेशर के साथ सरकारी नल सुबह-शाम आधे घंटे तो चलते ही थे। हम भी स्टील का डिब्बा या पीतल का घड़ा लेकर पहुँच जाते थे। नल से घर तक की दूरी तय करने में दो-तीन जगह तो सुस्ताते, उसके बाद भी घर तक पहुँचते-पहुँचते बर्तन में पानी आधा ही रह जाता था। पूरे रास्ते पानी गिरने के कारण गीली हुई मिट्टी की मोटी लकीर बन जाती थी। पानी का मोल ना समझने को लेकर फिर से नानी के उपदेश शुरू हो जाया करते थे।
पूरे मोहल्ले में जब बच्चे अपनी साइकिल, खिलौने देखकर फूले नहीं समाते थे, तब हम अपनी छोटी बाल्टियों पर इतराते थे। मोहल्ले के बड़े-बूढ़े जब तीर्थयात्रा से आते थे तो गंगाजल, अमृत, आब-ए-जमजम व खजूर प्रसाद के रूप में घर-घर बाँटे जाते थे। नजदीकी रिश्तेदारों को तांबे के छोटे-छोटे पात्रों में लाया गया गंगाजल दिया जाता था। जिन घरों में ये पात्र दिये जाते थे, वे तब तक इन्हें पूजाघर में रखते थे, जब तक कि शुभ अवसर पर उद्यापन न किया जाये। अभी भी विवाह पत्रिकाओं में गंगापूजन का उल्लेख होता है। गंगापूजन के लिये जब नदी पर जल भरने महिलाएँ जाती हैं तो गन्दगी का नाला देखकर उनका मन दुःखी होता है। ज्यादातर परिवार तो साथ में कुएँ से मिट्टी के कलश भरकर उनमें थोड़ा-थोड़ा गंगाजल इस आस्था के साथ डालते हैं कि सारे कलशों का पानी गंगाजल हो गया है।
अक्सर यह सोचकर आश्चर्य होता है कि गंगाजल, अमृत, आब-ए-जमजम के प्रति इतनी आस्था के बाद भी हम पानी का मोल क्यों नहीं समझ पा रहे हैं? हम स्वयं तो पानी का अपव्यय कर रहे हैं और इसे बचाने की अपेक्षा पड़ोसी से ही क्यों करते है?
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योगेश चन्द्र जोशी, रुड़की
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