40-50 साल पहले बिना किसी फंडिंग, प्रोजेक्ट या एक्शन प्लान के हमारी नदियां साफ थीं, निर्मल थीं, अविरल थीं और हमारे गांव के लाखों किसान अपनी जिम्मेदारी को अपने कंधो पर लेकर पानी का काम करते रहे। विकास ने हमारी पारंपरिक समझ और हिस्सेदारी को चुनौती दी और आज हम सब नदियों में साफ पानी के लिए तरस रहे हैं। नदी, नाव और गांव की संस्कृति की समझ पर विश्वास कर हम अगर जन भागीदारी से योजना बनाएं और सामाजिक जागरूकता से लोगों को जोड़े तो हम काफी हद तक गंगा नदी को अविरल, निर्मल और नैसर्गिक बना सकते हैं। नदियों को पहले बेजान कर उन्हें पुनर्जीवित करने की कोशिश के बजाय, हमें उन्हें शुरू से ही स्वस्थ रखना होगा। नदियों की रक्षा अपने बच्चों की रक्षा करने जैसी है। हम सबको स्वस्थ रहने के लिए, हमारी नदियों का स्वस्थ रहना बहुत जरूरी है।
भारत की अधिकांश नदियां मृत हो रही है, यह हमारे अस्तित्व के लिए एक बुरा संकेत है। एक नदी की स्थिति पारिस्थितिक तंत्र की स्थिति को प्रतिबिंबित करती है, जिसका हम एक अविभाज्य हिस्सा है और यह वास्तविकता है कि यदि हमारी नदियां मृत होती रही तो हम भी अधिक काल तक जीवित नहीं रहेंगे।
एक नदी कैसे मृत हो जाती है? अत्यधिक जल के दोहन से नदियां सूख रही हैं अथवा सूखाग्रस्त होने के कगार पर हैं , नदियों में अपशिष्ट एवं विषाक्त जल प्रवाहित करने से नदियों में हर प्रकार का जीवन नष्ट हो रहा है , इसके जल को हमने इतना गंदा कर दिया है की हम अब इनके किनारों पर स्नान-ध्यान, मनोरंजन, तथा धार्मिक अनुष्ठान को करना बंद कर दिया है।वर्तमान में यह न तो पीने योग्य रह गया है और न ही हम इसका उपयोग नहाने के लिए ही कर सकते हैं।
एक स्वस्थ नदी का पहला संकेत है कि ये हर मौसम में प्रवाहमान रहती है और एक मृतप्राय नदी में निरंतर प्रवाह कम होता रहता है, यदि प्रवाह नहीं है तो वह नदी नहीं है। नदियों का प्रवाह प्रदुषण को अत्यधिक कम करता है और उन्हें स्वच्छ रखता है। नदी की यह क्षमता उसके पर्याप्त प्रवाह पर निर्भर करती है।
नदियों का प्रवाह कई कारणों से कम हो गया है। सबसे महत्वपूर्ण, ये कि हमने सभ्य और विकसित बनने के प्रक्रिया में नदी के जलक्षेत्र या फ्लड प्लेन को ही चुरा लिया है, जिसे नदियां अधिक जल को पुनर्भंडारण एवं भूजल को रिचार्ज करने में प्रयुक्त करती है। स्वस्थ बने रहने के लिए नदी को पर्याप्त स्थान की आवश्यकता होती है।
यह स्थान हमें अनुपयोगी प्रतीत हो सकता है परंतु बारिश के समय ये नदियों तथा पारिस्थितिक तंत्र के कायाकल्प के लिए महत्वपूर्ण है। नदी का जलक्षेत्र नदी का एक अभिन्न हिस्सा है और इसका दुरुपयोग, अतिक्रमण, अथवा नगरीय आवासों में नहीं परिवर्तित करना चाहिए। प्रवाह के कमी में दूसरा सबसे महत्वपूर्ण कारण भूगर्भीय जल के अत्यधिक दोहन का है।
आज हजारों-लाखों की संख्या में बोरवेल द्वारा भूजल का दोहन किया जा रहा है। इससे नदी का प्रवाह काफी कम हुआ है। नदियां भूजल के साथ हाइड्रोलॉजिकल एकता में हमेशा होते हैं। अब स्थिति यह है कि नदी का बिस्तर ऊपर है और भूजल का स्तर नीचे है।
इससे हमारी नदियां कई जगहों पर सूख गई हैं। हालांकि नदी के पारिस्थितिकी तंत्र स्वाभाविक रूप से परिवर्तनशील प्रवाह के साथ विकसित हुए हैं, लेकिन अत्यधिक पानी के दोहन एवं फ्लड प्लेन के अतिक्रमण से आज हमारी नदियां संकटग्रस्त हैं।
1. नदियां हमारे प्राकृतिक विरासत का हिस्सा हैं।
2. जल, भू-आकृतियों और कुदरती-निवास प्रशासनिक सीमा का पालन नहीं करते।
3. नदियां प्राकृतिक घटनाएं हैं। वे पाइपलाइनों या नहरों से अलग-अलग दिशाओं में काटे नहीं जा सकते हैं।
4.नदी एक नाली नहीं है। नदियों को नालों से अलग करना ही होगा।
5. फ्लडप्लेन्स पारिस्थितिकी प्रणालियों हजारों-हजार सालों के बाद विकसित हुई हैं।
6. एक नदी, नदी बेसिन के हाइड्रोलॉजिकल एकता का एक अविभाज्य अंग है; और लैंडस्केप घटक पानी और बाढ़ के मैदानों के प्रवाह के साथ जुड़े हुए हैं।
7. भूजल गैर-मानसून मौसम में नदी के प्रवाह को विशेष रूप से बनाए रखता है ।
8. स्वस्थ सहायक नदियां एवं झील एक नदी के जीवन कार्यों को बनाए रखते हैं।
9.नदियों की पारिस्थितिकी प्रणालियां मीठे पानी में से सबसे अधिक उत्पादक पारिस्थितिकी प्रणालियों में से एक हैं - जीवों का उत्पादन और रक्षा करता है।
10. नदियों का प्रवाह उन्हें जीवंत रखता है। यदि प्रवाह नहीं होता है, तो यह एक नदी नहीं है। प्रवाह नदी को स्वच्छ बनाता है।
11. नदी की प्राकृतिक बाढ़ मैदान (फ्लडप्लेन) नदी का एक अभिन्न हिस्सा है और नदी से चोरी नहीं की जानी चाहिए। बाढ़ आने पर गाद को फैलाने एवं और मिट्टी के लिए जगह की जरूरत होती है।
12. नदी बिस्तर (रिवरबेड) नदी का एक अभिन्न हिस्सा है और उसके साथ दुर्व्यवहार नहीं किया जाना चाहिए।
13. एक नदी का स्वास्थ्य पारिस्थितिकी तंत्र के स्वास्थ्य पर निर्भर करेगा। इसलिए, नदी के संरक्षण के रूप में एक पूरी प्रणाली (पारिस्थितिकी तंत्र) की सुरक्षा की व्यवस्था करनी होगी।
14. भारत में नदियों और आध्यात्म के बीच सार्वभौमिक संबंध है। नदी प्रबंधन एवं संरक्षण योजनाओं मे आध्यात्मिक पहलुओं पर विशेष रूप से ध्यान देना होगा।
एक नदी का स्वास्थ्य पारिस्थितिकी तंत्र के स्वास्थ्य पर निर्भर करेगा। इसलिए, नदी के संरक्षण के रूप में एक पूरी प्रणाली (पारिस्थितिकी तंत्र) की सुरक्षा की व्यवस्था करनी होगी। बुरे अभियांत्रिकी प्रथाओं के कारण हम शनै: शनै: नदी एवं उसकी सहयोगी नदियों को अपमार्जित पदार्थ, अपशिष्ट ढोने वाली नाले में परिवर्तित कर रहे हैं।
एक स्वस्थ नदी एक नाला नहीं है। ये ऐसी स्थिति को नहीं सह सकती जहां एक ओर इसके प्रवाह को नष्ट कर दिया जाए और साथ ही इसमें अपशिष्ट भी भर दिया जाए। एक नदी और उसकी सहायक नदी एक विशाल नदी बेसिन के रूप में प्रकृति की जल निकास की व्यवस्था है और इस प्राकृतिक जल निकास को हमारा अपशिष्ट ग्रहण करने वाली अथवा मैला ढोने वाली मालगाड़ी समझना एक महान भूल है।
समाज का एक विशाल वर्ग गंगा एवं उसकी सहायक नदियों के जल को स्पर्श, स्नान करने और यहां तक कि पीना चाहता है और ये उनके हृदय से स्पंदित होने वाली एक महान अभिलाषा है। वस्तुत: गंगा नदी एक नदी ही नहीं, भारतीय संस्कृति की संवाहिका भी है। हमें आज पता नहीं कि कितनी मछलियों, कछुओं और मगरमच्छों ने इससे जीवन पाया है, न जाने कितनी नौकाएं इसके किनारों से होकर गुजरी हैं और इसके घाटों पर बने कई प्राचीन मंदिरों में कितने वेद मंत्र गुंजित हुए होंगे, इसका हिसाब लगा पाना मुश्किल है।
अब हमारी सरकार ने गंगा नदी को एक जीवनदान देने हेतु इसके पुनर्जीवन की योजना बनाई हैI मुझे लगता है कि गंगा नदी के किनारे बसे गाँव का समाज अपने सामुदायिक जल प्रबंधन पर उतर आए तो इस नदी की भविष्य बेहतर हो सकता है। अभी भी गांव के लोगों में नदियों के प्रति अपनी जिम्मेदारी और हकदारी का एहसास है, लेकिन ज्यादातर लोग सोच रहे हैं कि ये सरकार का काम है।
हमें नदी संरक्षण के लिए एक ऐसे जल संस्कृति को रचना करना होगा जो जनता की जिम्मेदारी और हकदारी को समझ सके और साथ ही आम लोगों को जल और जंगल को बचाने के लिए प्रेरित करे। गंगा एक्शन प्लान इसलिए सफल नहीं हो सका क्योंकि इसमें लोगों की हिस्सेदारी या भागीदारी नहीं थी और सबको लगा की ये तो सरकार का काम है।
नदी संस्कृति और इससे जुड़ी परंपरा को जानने और समझने की कोशिश में हमें एक और बात समझ में आई – 40-50 साल पहले बिना किसी फंडिंग, प्रोजेक्ट या एक्शन प्लान के हमारी नदियां साफ थीं, निर्मल थीं, अविरल थीं और हमारे गांव के लाखों किसान अपनी जिम्मेदारी को अपने कंधो पर लेकर पानी का काम करते रहे।
विकास ने हमारी पारंपरिक समझ और हिस्सेदारी को चुनौती दी और आज हम सब नदियों में साफ पानी के लिए तरस रहे हैं। नदी, नाव और गांव की संस्कृति की समझ पर विश्वास कर हम अगर जन भागीदारी से योजना बनाएं और सामाजिक जागरूकता से लोगों को जोड़े तो हम काफी हद तक गंगा नदी को अविरल, निर्मल और नैसर्गिक बना सकते हैं।
गांव की संस्कृति को बिना सोचे समझे नदी और प्रकृति के विकास का समीकरण हम ज्यादा दिन तक नहीं चला पाएंगे। कई गांव में नदी पर पुल बने और छोटी-बड़ी नदियों से नाव की संस्कृति गायब हो गई। यहां तक कि मछली और कछुए भी गायब हो गए। और इन सभी के साथ नदियों की निर्मल चादर भी मैली होती गई।
जीवनदायिनी नदियों की रक्षा के लिए अब भी हम नहीं चेते तो हमारे जीवन पर संकट पैदा हो जाएगा। एक ऐसे एक्शन प्लान की जरुरत है जिसमें गरीब-से-गरीब लोग भी यह महसूस कर सकें कि नदी के काम में उनकी आवाज का महत्व है, जिसमें ऊंचे और नीचले वर्गों का भेद नहीं है और जिससे विविध संप्रदायों में पूरा मेल-जोल हो सके।
एक्शन प्लान किन्हीं एकाध-दो व्यक्तियों के निजी चिंतन पर आधारित नहीं हो, बल्कि सामूहिक सोच-चिंतन का परिणाम हो। अगर सुझाओं में कोई कमी या कठिनाई हो तो सबके सामने उसकी खुली बहस चले या फिर इन पर अमल करने की दिशा में कदम बढ़ाया जाए।
सरकार ऐसा नहीं कर पाती हैं तो हमारा कर्त्तव्य है कि सरकार पर तमाम शांतिपूर्ण तरीकों से, आवश्यक हो तो सत्याग्रह से और असहयोग से, इन्हें क्रियान्वित करने के लिए दबाब डाला जाए। नदी संस्कृति के प्रति समग्र सोच हो, स्पष्ट चिंतन हो जिसमे सबके सर्वांगीण विकास की प्रचुर संभावनाएं और अवसर हो।
हमारी नदियां प्राकृतिक प्रक्रिया हैं ना की मानवीय। ये एक नहर से बढ़कर हैं। इन्हें ना तो परिवर्तित किया जाए ना ही अपनी इच्छा से नियंत्रित, ना ही विभिन्न दिशाओं में मोड़ा जाए ना ही छिन्न-भिन्न किया जाए और पारिस्थितिक जुडाव को ध्यान में रखे बिना ना जोड़ा जाए। नदी हाइड्रोलॉजिकल इकाई का एक अविभाज्य अंग है और नदी बेसिन समग्र है।
एक तार्किक दृष्टिकोण ये है कि अच्छा विज्ञान लागू किया जाए ना की अच्छा अभियांत्रिक प्रक्रिया। स्वस्थ सिद्धांतों पर आधारित नदी प्रबंधन हमारी नदियों को अच्छा स्वास्थ्य देंगी। नदियों को पहले बेजान कर उन्हें पुनर्जीवित करने की कोशिश के बजाय, हमें उन्हें शुरू से ही स्वस्थ रखना होगा। नदियों की रक्षा अपने बच्चों की रक्षा करने जैसी है। हम सबको स्वस्थ रहने के लिए, हमारी नदियों का स्वस्थ रहना बहुत जरुरी है।
डॉ. वेंकटेश दत्ता
असिस्टेंट प्रोफेसर, पर्यावरण विज्ञान पीठ, बाबासाहेब भीमराव अंबेडकर केन्द्रीय विश्वविद्यालय
समन्वयक, गोमती अध्यन दल, लोकभारती, उत्तर प्रदेश
भारत की अधिकांश नदियां मृत हो रही है, यह हमारे अस्तित्व के लिए एक बुरा संकेत है। एक नदी की स्थिति पारिस्थितिक तंत्र की स्थिति को प्रतिबिंबित करती है, जिसका हम एक अविभाज्य हिस्सा है और यह वास्तविकता है कि यदि हमारी नदियां मृत होती रही तो हम भी अधिक काल तक जीवित नहीं रहेंगे।
एक नदी कैसे मृत हो जाती है? अत्यधिक जल के दोहन से नदियां सूख रही हैं अथवा सूखाग्रस्त होने के कगार पर हैं , नदियों में अपशिष्ट एवं विषाक्त जल प्रवाहित करने से नदियों में हर प्रकार का जीवन नष्ट हो रहा है , इसके जल को हमने इतना गंदा कर दिया है की हम अब इनके किनारों पर स्नान-ध्यान, मनोरंजन, तथा धार्मिक अनुष्ठान को करना बंद कर दिया है।वर्तमान में यह न तो पीने योग्य रह गया है और न ही हम इसका उपयोग नहाने के लिए ही कर सकते हैं।
एक स्वस्थ नदी का पहला संकेत है कि ये हर मौसम में प्रवाहमान रहती है और एक मृतप्राय नदी में निरंतर प्रवाह कम होता रहता है, यदि प्रवाह नहीं है तो वह नदी नहीं है। नदियों का प्रवाह प्रदुषण को अत्यधिक कम करता है और उन्हें स्वच्छ रखता है। नदी की यह क्षमता उसके पर्याप्त प्रवाह पर निर्भर करती है।
नदियों का प्रवाह कई कारणों से कम हो गया है। सबसे महत्वपूर्ण, ये कि हमने सभ्य और विकसित बनने के प्रक्रिया में नदी के जलक्षेत्र या फ्लड प्लेन को ही चुरा लिया है, जिसे नदियां अधिक जल को पुनर्भंडारण एवं भूजल को रिचार्ज करने में प्रयुक्त करती है। स्वस्थ बने रहने के लिए नदी को पर्याप्त स्थान की आवश्यकता होती है।
यह स्थान हमें अनुपयोगी प्रतीत हो सकता है परंतु बारिश के समय ये नदियों तथा पारिस्थितिक तंत्र के कायाकल्प के लिए महत्वपूर्ण है। नदी का जलक्षेत्र नदी का एक अभिन्न हिस्सा है और इसका दुरुपयोग, अतिक्रमण, अथवा नगरीय आवासों में नहीं परिवर्तित करना चाहिए। प्रवाह के कमी में दूसरा सबसे महत्वपूर्ण कारण भूगर्भीय जल के अत्यधिक दोहन का है।
आज हजारों-लाखों की संख्या में बोरवेल द्वारा भूजल का दोहन किया जा रहा है। इससे नदी का प्रवाह काफी कम हुआ है। नदियां भूजल के साथ हाइड्रोलॉजिकल एकता में हमेशा होते हैं। अब स्थिति यह है कि नदी का बिस्तर ऊपर है और भूजल का स्तर नीचे है।
इससे हमारी नदियां कई जगहों पर सूख गई हैं। हालांकि नदी के पारिस्थितिकी तंत्र स्वाभाविक रूप से परिवर्तनशील प्रवाह के साथ विकसित हुए हैं, लेकिन अत्यधिक पानी के दोहन एवं फ्लड प्लेन के अतिक्रमण से आज हमारी नदियां संकटग्रस्त हैं।
समग्र नदी-संस्कृति एवं पारिस्थितिकी तंत्र प्रबंधन के लिए 14 नदी सूत्र
1. नदियां हमारे प्राकृतिक विरासत का हिस्सा हैं।
2. जल, भू-आकृतियों और कुदरती-निवास प्रशासनिक सीमा का पालन नहीं करते।
3. नदियां प्राकृतिक घटनाएं हैं। वे पाइपलाइनों या नहरों से अलग-अलग दिशाओं में काटे नहीं जा सकते हैं।
4.नदी एक नाली नहीं है। नदियों को नालों से अलग करना ही होगा।
5. फ्लडप्लेन्स पारिस्थितिकी प्रणालियों हजारों-हजार सालों के बाद विकसित हुई हैं।
6. एक नदी, नदी बेसिन के हाइड्रोलॉजिकल एकता का एक अविभाज्य अंग है; और लैंडस्केप घटक पानी और बाढ़ के मैदानों के प्रवाह के साथ जुड़े हुए हैं।
7. भूजल गैर-मानसून मौसम में नदी के प्रवाह को विशेष रूप से बनाए रखता है ।
8. स्वस्थ सहायक नदियां एवं झील एक नदी के जीवन कार्यों को बनाए रखते हैं।
9.नदियों की पारिस्थितिकी प्रणालियां मीठे पानी में से सबसे अधिक उत्पादक पारिस्थितिकी प्रणालियों में से एक हैं - जीवों का उत्पादन और रक्षा करता है।
10. नदियों का प्रवाह उन्हें जीवंत रखता है। यदि प्रवाह नहीं होता है, तो यह एक नदी नहीं है। प्रवाह नदी को स्वच्छ बनाता है।
11. नदी की प्राकृतिक बाढ़ मैदान (फ्लडप्लेन) नदी का एक अभिन्न हिस्सा है और नदी से चोरी नहीं की जानी चाहिए। बाढ़ आने पर गाद को फैलाने एवं और मिट्टी के लिए जगह की जरूरत होती है।
12. नदी बिस्तर (रिवरबेड) नदी का एक अभिन्न हिस्सा है और उसके साथ दुर्व्यवहार नहीं किया जाना चाहिए।
13. एक नदी का स्वास्थ्य पारिस्थितिकी तंत्र के स्वास्थ्य पर निर्भर करेगा। इसलिए, नदी के संरक्षण के रूप में एक पूरी प्रणाली (पारिस्थितिकी तंत्र) की सुरक्षा की व्यवस्था करनी होगी।
14. भारत में नदियों और आध्यात्म के बीच सार्वभौमिक संबंध है। नदी प्रबंधन एवं संरक्षण योजनाओं मे आध्यात्मिक पहलुओं पर विशेष रूप से ध्यान देना होगा।
स्वस्थ सिद्धांतों पर आधारित नदी प्रबंधन हमारी नदियों को अच्छा स्वास्थ्य देंगी
एक नदी का स्वास्थ्य पारिस्थितिकी तंत्र के स्वास्थ्य पर निर्भर करेगा। इसलिए, नदी के संरक्षण के रूप में एक पूरी प्रणाली (पारिस्थितिकी तंत्र) की सुरक्षा की व्यवस्था करनी होगी। बुरे अभियांत्रिकी प्रथाओं के कारण हम शनै: शनै: नदी एवं उसकी सहयोगी नदियों को अपमार्जित पदार्थ, अपशिष्ट ढोने वाली नाले में परिवर्तित कर रहे हैं।
एक स्वस्थ नदी एक नाला नहीं है। ये ऐसी स्थिति को नहीं सह सकती जहां एक ओर इसके प्रवाह को नष्ट कर दिया जाए और साथ ही इसमें अपशिष्ट भी भर दिया जाए। एक नदी और उसकी सहायक नदी एक विशाल नदी बेसिन के रूप में प्रकृति की जल निकास की व्यवस्था है और इस प्राकृतिक जल निकास को हमारा अपशिष्ट ग्रहण करने वाली अथवा मैला ढोने वाली मालगाड़ी समझना एक महान भूल है।
समाज का एक विशाल वर्ग गंगा एवं उसकी सहायक नदियों के जल को स्पर्श, स्नान करने और यहां तक कि पीना चाहता है और ये उनके हृदय से स्पंदित होने वाली एक महान अभिलाषा है। वस्तुत: गंगा नदी एक नदी ही नहीं, भारतीय संस्कृति की संवाहिका भी है। हमें आज पता नहीं कि कितनी मछलियों, कछुओं और मगरमच्छों ने इससे जीवन पाया है, न जाने कितनी नौकाएं इसके किनारों से होकर गुजरी हैं और इसके घाटों पर बने कई प्राचीन मंदिरों में कितने वेद मंत्र गुंजित हुए होंगे, इसका हिसाब लगा पाना मुश्किल है।
अब हमारी सरकार ने गंगा नदी को एक जीवनदान देने हेतु इसके पुनर्जीवन की योजना बनाई हैI मुझे लगता है कि गंगा नदी के किनारे बसे गाँव का समाज अपने सामुदायिक जल प्रबंधन पर उतर आए तो इस नदी की भविष्य बेहतर हो सकता है। अभी भी गांव के लोगों में नदियों के प्रति अपनी जिम्मेदारी और हकदारी का एहसास है, लेकिन ज्यादातर लोग सोच रहे हैं कि ये सरकार का काम है।
हमें नदी संरक्षण के लिए एक ऐसे जल संस्कृति को रचना करना होगा जो जनता की जिम्मेदारी और हकदारी को समझ सके और साथ ही आम लोगों को जल और जंगल को बचाने के लिए प्रेरित करे। गंगा एक्शन प्लान इसलिए सफल नहीं हो सका क्योंकि इसमें लोगों की हिस्सेदारी या भागीदारी नहीं थी और सबको लगा की ये तो सरकार का काम है।
नदी संस्कृति और इससे जुड़ी परंपरा को जानने और समझने की कोशिश में हमें एक और बात समझ में आई – 40-50 साल पहले बिना किसी फंडिंग, प्रोजेक्ट या एक्शन प्लान के हमारी नदियां साफ थीं, निर्मल थीं, अविरल थीं और हमारे गांव के लाखों किसान अपनी जिम्मेदारी को अपने कंधो पर लेकर पानी का काम करते रहे।
विकास ने हमारी पारंपरिक समझ और हिस्सेदारी को चुनौती दी और आज हम सब नदियों में साफ पानी के लिए तरस रहे हैं। नदी, नाव और गांव की संस्कृति की समझ पर विश्वास कर हम अगर जन भागीदारी से योजना बनाएं और सामाजिक जागरूकता से लोगों को जोड़े तो हम काफी हद तक गंगा नदी को अविरल, निर्मल और नैसर्गिक बना सकते हैं।
गांव की संस्कृति को बिना सोचे समझे नदी और प्रकृति के विकास का समीकरण हम ज्यादा दिन तक नहीं चला पाएंगे। कई गांव में नदी पर पुल बने और छोटी-बड़ी नदियों से नाव की संस्कृति गायब हो गई। यहां तक कि मछली और कछुए भी गायब हो गए। और इन सभी के साथ नदियों की निर्मल चादर भी मैली होती गई।
जीवनदायिनी नदियों की रक्षा के लिए अब भी हम नहीं चेते तो हमारे जीवन पर संकट पैदा हो जाएगा। एक ऐसे एक्शन प्लान की जरुरत है जिसमें गरीब-से-गरीब लोग भी यह महसूस कर सकें कि नदी के काम में उनकी आवाज का महत्व है, जिसमें ऊंचे और नीचले वर्गों का भेद नहीं है और जिससे विविध संप्रदायों में पूरा मेल-जोल हो सके।
एक्शन प्लान किन्हीं एकाध-दो व्यक्तियों के निजी चिंतन पर आधारित नहीं हो, बल्कि सामूहिक सोच-चिंतन का परिणाम हो। अगर सुझाओं में कोई कमी या कठिनाई हो तो सबके सामने उसकी खुली बहस चले या फिर इन पर अमल करने की दिशा में कदम बढ़ाया जाए।
सरकार ऐसा नहीं कर पाती हैं तो हमारा कर्त्तव्य है कि सरकार पर तमाम शांतिपूर्ण तरीकों से, आवश्यक हो तो सत्याग्रह से और असहयोग से, इन्हें क्रियान्वित करने के लिए दबाब डाला जाए। नदी संस्कृति के प्रति समग्र सोच हो, स्पष्ट चिंतन हो जिसमे सबके सर्वांगीण विकास की प्रचुर संभावनाएं और अवसर हो।
हमारी नदियां प्राकृतिक प्रक्रिया हैं ना की मानवीय। ये एक नहर से बढ़कर हैं। इन्हें ना तो परिवर्तित किया जाए ना ही अपनी इच्छा से नियंत्रित, ना ही विभिन्न दिशाओं में मोड़ा जाए ना ही छिन्न-भिन्न किया जाए और पारिस्थितिक जुडाव को ध्यान में रखे बिना ना जोड़ा जाए। नदी हाइड्रोलॉजिकल इकाई का एक अविभाज्य अंग है और नदी बेसिन समग्र है।
एक तार्किक दृष्टिकोण ये है कि अच्छा विज्ञान लागू किया जाए ना की अच्छा अभियांत्रिक प्रक्रिया। स्वस्थ सिद्धांतों पर आधारित नदी प्रबंधन हमारी नदियों को अच्छा स्वास्थ्य देंगी। नदियों को पहले बेजान कर उन्हें पुनर्जीवित करने की कोशिश के बजाय, हमें उन्हें शुरू से ही स्वस्थ रखना होगा। नदियों की रक्षा अपने बच्चों की रक्षा करने जैसी है। हम सबको स्वस्थ रहने के लिए, हमारी नदियों का स्वस्थ रहना बहुत जरुरी है।
डॉ. वेंकटेश दत्ता
असिस्टेंट प्रोफेसर, पर्यावरण विज्ञान पीठ, बाबासाहेब भीमराव अंबेडकर केन्द्रीय विश्वविद्यालय
समन्वयक, गोमती अध्यन दल, लोकभारती, उत्तर प्रदेश
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