अमर उजाला अखबार में प्रकाशित खबर के मुताबिक नीति आयोग की गवर्निंग काउसिंल की दिनांक 15 जून 2019 को होने वाली बैठक में नीति आयोग, भूजल की स्थिति पर अपनी रिपोर्ट पेश करेगा। अखबार आगे लिखता है कि नीति आयोग की उपर्युक्त बैठक में प्रधानमंत्री मोदी के सामने भूजल की स्थिति पर सभी मुख्यमंत्री 5-5 मिनट बोलेंगे। यह विरला मौका है जब देश के प्रधानमंत्री के सामने नीति आयोग और राज्यों के मुख्यमंत्रियों के द्वारा भू-जल की स्थिति का लेखा-जोखा पेश किया जायेगा। अखबार में छपी खबर से यह स्पष्ट नही है कि नीति आयोग, भूजल संकट के समाधान के लिए रोडमेप पेश करेगा या भू-जल संसाधन की बिगड़ती स्थिति पर ही अपनी राय रखेगा।
यही बात मौटे तौर पर मुख्यमंत्रियों द्वारा पेश की जाने वाली रिपोर्ट पर भी लागू होती है। 15 जून 2019 को होने वाली उपर्युक्त बैठक का उजला पक्ष यह है कि भूजल की बिगड़ती स्थिति का मुद्दा जो सालों से जल संसाधन विभागों के हाशिए पर है। इसको देश के प्रधानमंत्री के सामने प्रस्तुत होने के कारण, मुख्य धारा में आने का अवसर मिलेगा। यह बैठक उस समय हो रही है जब देश के अनेक हिस्से जल स्रोतों और नदियों के सूखने की अकल्पनीय त्रासदी भोग रहे हैं। मीडिया के माध्यम से रेखांकित हो रहा है कि पिछले अनेक सालों में बनी जल संरचनायें एक के बाद एक दम तोड़ रही हैं और बांध धीरे-धीरे जबाव दे रहे हैं। समस्या के आयाम अपेक्षा करते हैं कि प्रधानमंत्री के सामने होने वाली इस चर्चा का फोकस भूजल की बिगडती स्थिति के चित्रण के स्थान पर समस्या समाधान के तौर-तरीकों, उसमें लगने वाले समय तथा अपेक्षित मानवीय, तकनीकी और वित्तीय संसाधनों को उपलब्ध कराने पर हो। कौन करेगा यह भी तय हो। कितने समय में करेगा, यह भी तय हो। जिम्मेदार विभाग कौन होगा, यह तय हो।
बरसात के बाद के सभी जलस्रोत भूजल पर निर्भर होते हैं। हम यह भी जानते हैं कि धरती में भूजल का संचय स्थानीय भूगोल और धरती की परतों की पानी सहेजने की क्षमता पर निर्भर होता है। बरसात भले ही धरती की गागर भर दे पर जब भूजल का दोहन प्रारंभ होता है तो सारा गणित धरा का धरा रह जाता है। भूजल स्तर के घटने के कारण धरती की उथली परतों का पानी खत्म हो जाता है। उस पर निर्भर झरने और जल स्रोत सूख जाते हैं। चूँकि भूजल का दोहन हर साल लगातार बढ़ रहा है इस कारण धीरे-धीरे गहरी परतें भी रीतने लगी हैं।
संविधान के अनुसार संकट से निपटने की जिम्मेदारी राज्य के जल संसाधन विभाग की है पर पिछले अनेक सालों से यह जिम्मेदारी गोष्ठियों में, संकट के विभिन्न पक्षों पर घडियाली आँसू बहाने के बाद सम्पन्न हो जाती है। गोष्ठियों में, सुझाव अवश्य पेश किए जाते हैं पर उन सुझावों के अमल नहीं होता। अमल के अभाव में संकट पनपता रहता है। सभी जानते हैं कि मराठवाड़ा या बुन्देलखंड शून्य में पैदा नहीं हुए हैं। उनके पीछे हमारी असंवेदनशीलता और तकनीकी बौनापन है। गौरतलब है कि मीडिया द्वारा देश के अनेक भागों से आ रही जल संकट सम्बन्धी खबरों का संज्ञान लिया जा रहा है। समाधान के अभाव या प्रयासों की अपर्याप्त या विकल्पों के बौनेपन के कारण, अनेक अंचलों में मामला आईसीयू में पहुँचता दिख रहा है। महानगरों में पानी के खत्म होने के और जीरो-डे पर पहुँचने की चेतावनी आम हो रही है। पानी के मामले में समृद्ध भारत देश की यह बदहाली गलत प्राथमिकताओं के कारण है। यही अगर कुछ साल और चलता रहा तो बरसात के बाद देश के अनेक भागों में पानी की आपूर्ति नही हो सकेगी।
मेरा मानना है कि समस्या बरसात की मात्रा या उसके वितरण में नहीं है। बरसात की मात्रा तथा वितरण की कमी-वेशी तो सनातन है। मामला कुछ और है। बरसात के बाद के सभी जलस्रोत (कुएं, तालाब और नदी) भूजल पर निर्भर होते हैं। हम यह भी जानते हैं कि धरती में भूजल का संचय स्थानीय भूगोल और धरती की परतों की पानी सहेजने की क्षमता पर निर्भर होता है। बरसात भले ही धरती की गागर भर दे पर जब भूजल का दोहन प्रारंभ होता है तो सारा गणित धरा का धरा रह जाता है। भूजल स्तर के घटने के कारण धरती की उथली परतों का पानी खत्म हो जाता है। उस पर निर्भर झरने और जल स्रोत सूख जाते हैं। चूँकि भूजल का दोहन हर साल लगातार बढ़ रहा है इस कारण धीरे-धीरे गहरी परतें भी रीतने लगी हैं। उसके कारण मध्यम गहराई के नलकूप सूखने लगे हैं। यह सिलसिला बरसों से अबाध गति से जारी है। इस कारण गर्मी आते-आते कुछ इलाकों में भूजल पाताल में पहुँच जाता है। उथली परतों के जल स्रोत दम तोड़ने लगते हैं।
पानी के बढ़ते संकट के दौर में उसकी तह में जाना उपयोगी है। आम तौर पर घटती बरसात, ग्लोबल वार्मिग, आधुनिक जीवनशैली, सही प्रबन्ध के अभाव, उन्नत एवं रासायनिक खेती, पानी का अविवेकी उपयोग, जागरूकता की कमी, अपर्याप्त भूजल रीचार्ज जैसे अनेक कारणों को मौजूदा संकट के लिए जिम्मेदार माना जाता है। किसी हद तक यह सही भी है। लेकिन यह भी सही है कि आपूर्ति को बढ़ा कर ही जल संकट को कम किया जा सकता है। मुझे लगता है एक और कारण है जिसकी आम तौर पर चर्चा नहीं होती। वह है घटे भूजल स्तर की पर्याप्त बहाली की कमी या अनदेखी की। इस बिन्दु पर गंभीर चर्चा होना चाहिए। पहला बिन्दु है बरसात में धरती की गागर के भरने का।
सभी जानते हैं कि बरसात के मौसम में भूजल भंडार भरते हैं। वे कितना भरते हैं, कितना खाली रहते हैं, सरकारी विभाग इसका लेखा-जोखा रखता है। उसकी गिरावट का भी लेखा-जोखा रखता है। इसके अलावा, यह भी हकीकत है कि तकनीकी अमला देश के बहुत बडे़ हिस्से में कुदरती रीचार्ज को पर्याप्त मानता है। इस बिन्दु पर आम लोगों का अनुभव कुछ जुदा है। बरसात के मौसम में छोटी नदियों के प्रवाह का अवलोकन करने से पता चलता है कि बाढ़ के कुछ ही समय बाद नदी का प्रवाह टूट जाता है। लगता है धरती ने सारा पानी सोख लिया है। बरसात के मौसम में प्रवाह की यही सत्यता दिखती है। यह सत्यता भूजल की माप रखने वाले अमले के अवलोकनों में भले ही नहीं दिखाई देती पर गर्मी में उसकी विभीशिका सबको नजर आती है।
दूसरा बिन्दु नदी तंत्र और कछार से सम्बन्धित है। इस सम्बन्ध के कारण सम्पूर्ण कछार में कहीं भी होने वाला भूजल दोहन। यह दोहन सबसे पहले नदियों के प्रवाह को मारता है उसके बाद कुओं और उथले जलकूपों को। खेतों की नमी को कम करने तथा प्रदूषण को आश्रय प्रदान करने में उसकी भूमिका है। यदि आज हम 1980 के आसपास का भूजल स्तर जो नदियों और कुओं को जिन्दा रखता था, को हासिल करना चाहें तो उसके लिए काम करना लगभग असंभव हो रहा हैं। कछारों में जल संकट को गंभीर बनाता यह टारगेट हर साल और दूर जा रहा है। उसके लिए संसाधन, धरती और सही मानव संसाधन की गंभीर कमी है। सही तकनीकों का अभाव है। सही हाथों में जिम्मेदारी का न होना हकीकत है। उम्मीद है, नीति आयोग की प्रधानमंत्री की अध्यक्षता में होने वाली बैठक से समाधान का रास्ता निकलेगा।
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