समादेश क्षेत्र विकास योजना

कमान क्षेत्र विकास कार्यक्रम के अन्तर्गत कृषि एवं सिंचाई हेतु आधारित संरचना के सृजन के रूप में महत्त्वपूर्ण उपलब्धि हासिल हुई है। विकासात्मक आयोजना के इतिहास में इस कार्यक्रम द्वारा कृषि विकास के लिए बहु-प्रशासनिक ध्यान केन्द्रित करने की आवश्यकता को समझा जा सका। कृषि उत्पादन में वृद्धि करने के परम्परागत दृष्टिकोण पर ध्यान देने के साथ-साथ कमान क्षेत्र विकास कार्यक्रम के अन्तर्गत कमान क्षेत्र में समन्वित क्षेत्र विकास दृष्टिकोण को अपनाकर समग्र सामाजिक-आर्थिक विकास लाने पर जोर दिया जाता है।

आर्थिक नियोजन के 45 वर्ष व्यतीत हो जाने के बावजूद भारतीय कृषि को ‘मानसून पर निर्भर रहने वाला जुआ’ कहा जाता है, क्योंकि भारत में निवल बोए गए क्षेत्रफल का लगभग 33 प्रतिशत क्षेत्रफल ही सिंचित है। शेष 66 प्रतिशत बोया गया क्षेत्रफल आज भी वर्षा पर निर्भर है। इसमें कोई सन्देह नहीं कि असिंचित या वर्षाधीन खेती की उत्पादकता सिंचित खेती की तुलना में काफी कम होती है। इसी को ध्यान में रखते हुए केन्द्रीय एवं राज्य सरकारों ने पहली पंचवर्षीय योजना से ही सिंचाई सुविधाओं का विकास करने के लिए अनेक नीतिगत उपाय किए तथा सिंचाई विकास के अनेक कार्यक्रम चलाए। भारत की सिंचाई विकास योजनाओं की प्रमुख विडम्बना यह रही है कि विभिन्न योजनाओं के दौरान जितनी सिंचित क्षमता का सृजन हो पाया है उसका पूरा उपयोग नहीं हो सकता है। स्थापित क्षमता तथा उसके उपयोग के बीच अन्तराल काफी बड़ा है जैसा कि तालिका-1 से ज्ञात होता है सातवीं योजना तक देश में बड़ी तथा मध्यम सिंचाई परियोजनाओं की स्थापित क्षमता 315.2 लाख हेक्टेयर की, जिसमें से 277.7 लाख हेक्टेयर क्षमता का ही उपयोग हो पा रहा था। इसमें एक विशेष बात यह कि पहली पंचवर्षीय योजना से पूर्व स्थापित क्षमता का जहाँ 100 प्रतिशत उपयोग हो रहा था, वहीं सातवीं योजना में यह लगातार कम होते हुए 84.7 प्रतिशत रह गया। बड़ी तथा मध्यम सिंचाई परियोजनाओं पर आठवीं योजना सम्बन्धी कार्यदल ने अपने अध्ययन में पाया कि छठे दशक में क्षमता में वृद्धि के साथ वस्तुतः सिंचित क्षेत्र में बढ़ोत्तरी के अनुसार उपयोग दर लगभग 78 प्रतिशत थी जो अगले दशक में 92 प्रतिशत हो गई। किन्तु आठवें दशक के दौरान वस्तुतः सिंचित क्षेत्र में बढ़ोत्तरी अतिरिक्त क्षमता की केवल 69 प्रतिशत थी। इसके नौवें दशक में बढ़कर 80 प्रतिशत हो जाने का अनुमान है।

भारत जैसे देश के लिए तो कम से कम यह स्थिति ठीक नहीं है। यदि उपर्युक्त आँकड़ों पर ही विश्वास कर लिया जाए तो सातवीं योजना के अन्त में 37.5 लाख हेक्टेयर क्षेत्रफल ऐसा था जिस पर स्थापित सिंचाई क्षमता का शत प्रतिशत उपयोग करके कृषि उत्पादकता तथा उत्पादन में वृद्धि की जा सकती थी।

उत्तरदायी कारक


भारत में स्थापित सिंचाई क्षमता तथा उसके उपयोग के बीच लगातार बढ़ते अन्तराल का मोटे तौर पर एक कारण यह प्रतीत होता है कि बड़ी तथा मध्यम सिंचाई परियोजनाओं का मूल्यांकन करते समय स्थापित क्षमता को काफी बढ़ा-चढ़ाकर प्रदर्शित किया जाता है। जब ये परियोजनाएँ पूरी होकर वास्तविकता का स्वरूप धारण करती हैं तो ज्ञात होता है कि इनसे उतने क्षेत्रफल की सिंचाई नहीं की जा सकती जितनी अपेक्षित थी।

सिंचाई की शुरुआत और इसके पूर्ण उपयोग के बीच कुछ वर्षों का अन्तराल अपरिहार्य होता है क्योंकि खेतों में नालियाँ बनाने और सिंचित खेती के लिए भूमि को तैयार करने में कृषकों को काफी समय लगता है। साथ ही वर्षा पर आधारित कृषि से बदलकर सिंचित खेती अपनाने में वृद्धि तकनीकों का बड़ा परिवर्तन भी शामिल होता है जिसमें महारत हासिल करने में कृषकों को काफी समय लगता है। लेकिन इन सारे स्पष्टीकरणों को स्वीकार कर भी लिया जाए तो भी उपयोग दर बहुत कम है और सरकारी तौर पर इसके लिए सामान्यतः वितरण नेटवर्क (विशेष रूप से खेतों की नालियाँ) के निर्माण में तथा जल के प्रभावी प्रयोग के लिए समादेश (कमान) क्षेत्रों को उचित रूप से तैयार करने में होने वाले विलम्बों को उत्तरदायी ठहराया जाता है।

समादेश क्षेत्र विकास कार्यक्रम


सिंचित भूमि की कृषि उत्पादकता को अनुकूलतम स्तर पर लाने के लिए स्थापित सिंचित क्षमता तथा उसके उपयोग के बीच अन्तराल को कम करने के उद्देश्य से समादेश क्षेत्र विकास कार्यक्रम वर्ष 1974-75 में केन्द्र द्वारा प्रायोजित स्कीम के रूप में प्रारम्भ किया गया। इस कार्यक्रम के अन्तर्गत जल वितरण प्रणाली के आधुनिकीकरण, जल निकासी के बेहतर प्रावधान तथा वितरण एवं निकासी प्रणालियों के अनुरक्षण एवं परिचालन में सुधार के द्वारा सिंचाई समादेश (इरिगेशन कमान) में समन्वित क्षेत्र विकास के लक्ष्य को प्राप्त करने का प्रयास किया जाता है। इस कार्यक्रम में सामान्य तौर पर निम्नलिखित घटकों को शामिल किया जाता है:

(i) खेत विकास सम्बन्धी (क) प्रत्येक कमान के अन्तर्गत खेतों में नालियों और सारणियों (चैनलों) का विकास; (ख) कमान क्षेत्र की इकाई के आधार पर भूमि को समतल करना; (ग) जहाँ आवश्यक हो, खेतों की हदों का पुनर्निर्धारण (जिसके साथ खेतों की सम्भावित चकबंदी को भी जोड़ा जा सकता है; (घ) प्रत्येक खेत में सिंचाई के पानी की समान और सुनिश्चित आपूर्ति हेतु बाड़ाबन्दी शुरू करना; (ङ) कृषकों को साख सहित अन्य सभी सेवाएँ उपलब्ध कराना तथा प्रसार सेवाओं का सुदृढ़ीकरण करना;

(ii) उपयुक्त फसल पद्धतियों का चयन करना एवं उन्हें अमल में लाना;

(iii) सिंचाई के लिए सतह जल के पूरक के रूप में भूमिगत जल संसाधनों का विकास करना;

(iv) मुख्य और मध्यवर्ती नाली-प्रणालियों का विकास, रख-रखाव तथा आधुनिकीकरण;

(v) एक क्यूसेक क्षमता के निकास पर सिंचाई प्रणाली का आधुनिकीकरण, अनुरक्षण एवं दक्ष परिचालन सुनिश्चित करना;

(vi) प्रत्येक कमान क्षेत्र के लिए उपयुक्त फैसल पैटर्न और जल प्रबन्ध प्रणालियाँ तैयार करना तथा उनका प्रचार करना;

(vii) राज्य की योजना में प्रासंगिक क्षेत्रफल कार्यक्रमों के भाग के तौर पर सम्पर्क मार्गों का निर्माण, गोदामों और बाजार केन्द्रों का निर्माण, निविष्टियों तथा कर्ज का प्रबन्ध, कृषि विस्तार तथा संयुक्त प्रयोग के लिए भूमिगत जल में वृद्धि जैसे अन्य सहायक कार्यकलाप।

प्रारम्भ में इस कार्यक्रम में कृषकों के खेतों तक पानी पहुँचाने के लिए आवश्यकता आधारित संरचना के विकास पर बल दिया गया था। छठी पंचवर्षीय योजना तैयार करते समय खेत पर समग्र विकास को कार्यान्वित करने की प्रगति बहुत कम पाई गई। इस सम्बन्ध में कई प्रकार की बाधाओं का भी पता चला जैसेः-

(i) पूर्ण तथा समुचित भू-विलेखों का अभाव;

तालिका-1
बड़ी तथा मध्यम परियोजनाओं की स्थापित सिंचित क्षमता तथा उसका उपयोग

 

स्थापित सिंचित क्षमता

सिंचित क्षमता का उपयोग

(लाख हेक्टेयर)

उपयोग का प्रतिशत

योजना से पूर्व

97.0

97.0

100.00

पहली योजना

121.9

110.0

90.2

दूसरी योजना

143.3

133.0

92.8

तीसरी योजना

165.7

152.0

91.7

वार्षिक योजनाएँ

181.0

168.0

92.8

चौथी योजना

207.1

187.0

90.3

पाँचवी योजना

247.2

212.0

85.8

वार्षिक योजनाएँ

266.1

227.0

85.3

छठी योजना

300.1

253.3

84.4

सातवीं योजना

315.2

277.7

84.7

स्रोतः आठवीं योजना, 1992-97

 


(ii) जमीन की चकबन्दी हेतु कृषकों का सहयोग प्राप्त न होना;
(iii) खेती एवं जल प्रबन्धन प्रणालियों को कार्यान्वित करने के लिए कृषकों को पर्याप्त कर्ज न मिल पाना; एवं
(iv) संगठनात्मक कमजोरियाँ।

इन बाधाओं को छठी तथा सातवीं पंचवर्षीय योजनाओं में काफी हद तक दूर कर लिया गया।

संगठनात्मक ढाँचा


कमान क्षेत्र विकास कार्यक्रम के संगठनात्मक ढाँचे में राज्य स्तर पर एक समिति तथा प्रत्येक परियोजना कमान के लिए एक ही छत के नीचे बहु-विभागीय संरचना से युक्त एक प्राधिकरण होता है। परिचालनात्मक दृष्टि से कमान क्षेत्र विकास कार्यक्रम या तो कृषि विभाग के अधीन आते हैं या फिर सिंचाई विभाग के अधीन। राजस्थान एक ऐसा राज्य है जहाँ कमान क्षेत्र विकास कार्यक्रमों के परिचालन हेतु एक पृथक विभाग स्थापित किया गया है।

केन्द्रीय सरकार ने इस कार्यक्रम के लिए एक परामर्शदात्री समिति की स्थापना भी की है जो इस कार्यक्रम को अधिक प्रभावी ढँग से चलाने के लिए सुझाव देगी तथा कमान क्षेत्र विकास परियोजनाओं के अन्तर्गत आच्छादित क्षेत्रों में ‘राष्ट्रीय सिंचाई नीति’ के कार्यान्वयन के मार्ग एवं साधन सुझाएगी। यह समिति लघु एवं वितरण स्तर पर सिंचाई प्रणाली के प्रबन्धन एवं अनुरक्षण कार्यजल प्रयोगकर्ताओं की समितियों को सौंपे जाने के बारे में भी सुझाव देगी ताकि सिंचाई क्षेत्र में सहभागी प्रबन्धन को प्रोन्नत किया जा सके।

प्रगति एवं मूल्यांकन


वर्ष 1974-75 में कमान क्षेत्र विकास कार्यक्रम प्रायोगिक तौर पर देश में 60 सिंचाई परियोजनाओं के रूप में प्रारम्भ किया गया था तथा इसके अन्तर्गत 150 लाख हेक्टेयर खेती योग्य भूमि शामिल थी। वर्तमान में देश के 22 राज्यों तथा 2 केन्द्रशासित क्षेत्रों में 54 कमान क्षेत्र विकास प्राधिकरणों के माध्यम से 189 सिंचाई परियोजनाएँ इस कार्यक्रम के अन्तर्गत संचालित हो रही हैं। इसके अन्तर्गत अब 213.4 लाख हेक्टेयर खेती योग्य भूमि आच्छादित है। सातवीं योजना के अन्त तक (मार्च 1990) इस कार्यक्रम के माध्यम से 49.60 लाख हेक्टेयर भूमि की बाड़ाबन्दी की जा चुकी थी, 19.2 लाख हेक्टेयर भूमि समतल बनाई जा चुकी थी, 111 लाख हेक्टेयर भूमि पर खेतों में पानी की नालियाँ बनाई जा चुकी थीं। इस कार्यक्रम की भौतिक उपलब्धियों का विवरण तालिक-2 में दिया गया है।

तालिका-2
कमान क्षेत्र विकास कार्यक्रम की भौतिक उपलब्धियाँ

क्र.स.

मद

31 मार्च 1990 तक

31 मार्च 1994 तक

(लाख हेक्टेयर)

 

 

 

 

वर्ष 1994-95 (लक्ष्य)

आठवीं योजना (लक्ष्य)

1.

पानी की नालियों का निर्माण (क्षेत्रान्तर्गत)

111

129

5.1

15.3

2.

बाड़ाबन्दी

49.60

73

10.3

33.3

3.

भूमि समतलीकरण

19.20

21

0.8

4.0

4.

निकास नालियों का निर्माण

अनु.

7.0

1.1

3.0

स्रोतः वार्षिक रिपोर्ट, जल संसाधन विकास, 1994-95

 


मार्च 1994 के अन्त तक कमान क्षेत्र विकास कार्यक्रम पर केन्द्र एवं राज्य क्षेत्र में सम्मिलित रूप से 3881.6 करोड़ रुपये व्यय किए जा चुके हैं। इसमें से 1302 करोड़ रुपये केन्द्रीय सहायता के रूप में दिए गए हैं। आठवीं योजना में इस कार्यक्रम के लिए 830 करोड़ रुपए का परिव्यय निर्धारित किया गया।

कमान क्षेत्र विकास कार्यक्रम के अन्तर्गत कृषि एवं सिंचाई हेतु आधारित संरचना के सृजन के रूप में महत्त्वपूर्ण उपलब्धि हासिल हुई है। विकासात्मक आयोजना के इतिहास में इस कार्यक्रम द्वारा कृषि विकास के लिए बहु-प्रशासनिक ध्यान केन्द्रित करने की आवश्यकता को समझा जा सका। कृषि उत्पादन में वृद्धि करने के परम्परागत दृष्टिकोण पर ध्यान देने के साथ-साथ कमान क्षेत्र विकास कार्यक्रम के अन्तर्गत कमान क्षेत्र में समन्वित क्षेत्र विकास दृष्टिकोण को अपनाकर समग्र सामाजिक-आर्थिक विकास लाने पर जोर दिया जाता है।

इस कार्यक्रम का एक मुख्य पहलू यह है कि इसमें लघु एवं सीमान्त कृषकों पर विशेष ध्यान देते हुए कृषकों के प्रत्येक कृषि कार्य के वित्तीयन हेतु प्रसार स्कीमों को बनाने पर ध्यान केन्द्रित किया जाता है। इसके परिणामस्वरूप जल वितरण एवं जल उपयोग की दशाओं में कमान क्षेत्रों में उल्लेखनीय रूप से सुधार हुआ है। देश के कतिपय चुने हुए कमान क्षेत्रों में स्थापित सिंचित क्षमता का उपयोग प्रतिशत वर्ष 1979-80 में 70 प्रतिशत था जो वर्ष 1988-89 में बढ़कर 78 प्रतिशत हो गया। कमान क्षेत्रों में कृषि उत्पादकता में भी सुधार हुआ है। कमान क्षेत्र विकास कार्यक्रम के अध्ययनों से पता चला है कि कृषक एक बार जल की पर्याप्त और समय पर आपूर्ति होने के बारे में आश्वस्त हो जाने के बाद कुछ अन्य खेत विकास कार्य भी शुरू कर देते हैं।

दुर्बलताएँ


सैद्धान्तिक रूप से एक अच्छा कार्यक्रम होने के बावजूद इस कार्यक्रम से वे लाभ प्राप्त नहीं हो पाए जिनकी परिकल्पना कार्यक्रम प्रारम्भ करते समय की गई थी। इस कार्यक्रम के मूल्यांकन हेतु समय-समय पर गठित समितियों तथा विभिन्न अध्ययन दलों ने इस कार्यक्रम की विफलता के लिए निम्नलिखित कारणों को उत्तरदायी ठहराया है:

(i) संगठनात्मक कमजोरियाँ
(ii) सिंचित कृषि के कार्यान्वयन में लगे विभिन्न विभागों एवं संगठनों में प्रभावी सम्पर्क का अभाव;
(iii) यद्यपि इस कार्यक्रम का उद्देश्य पुरानी सिंचाई कृषि के साथ नए कार्यक्रम को समन्वित करना था, तथापि तात्कालिक महत्त्वपूर्ण एवं मुख्य लक्ष्यों को सुस्पष्ट तौर पर परिमाणमूलक नहीं किया गया;
(iv) समुचित नियोजन प्रणाली के अभाव में कमान क्षेत्र विकास कार्यक्रमों को लागू करने में कठिनाई हुई;
(v) कमान क्षेत्र विकास कार्यक्रम में प्रारम्भ की गई परियोजनाओं में कार्यों की आयोजना एवं उन्हें लागू करने में समुचित प्रबन्धकीय एवं प्रशासनिक मानव शक्ति की कमी की वजह से भी इस कार्यक्रम को वांछित सफलता प्राप्त नहीं हो पाई;
(vi) कमान क्षेत्र विकास परियोजनाओं को प्रारम्भ करने से पूर्व किए गए सर्वेक्षणों एवं कार्य आयोजना स्तरों पर कृषकों को इस कार्यक्रम के सम्भावित लाभों के बारे में समुचित जानकारी देकर उन्हें विश्वास में नहीं लिया गया और न ही उन्हें संगठित करने के कोई व्यावहारिक प्रयास ही किए गए।

कमान क्षेत्र विकास कार्यक्रम के बारे में योजना आयोग का दृष्टिकोण निराशाजनक है। आठवीं योजना के प्रारूप में कहा गया है कि, ‘‘कुल मिलाकर कमान क्षेत्र विकास कार्यक्रमों का विस्तार मूलतः परिकल्पित कार्यक्षेत्र की तुलना में बहुत सीमित रहा है। भूमि सुधार एवं जल निकासी सुविधाओं के सम्बन्ध में बहुत मामूली प्रगति हुई है और प्रत्येक सिंचाई क्षेत्र में व्याप्त परिस्थितियों में जल के अनुकूलतम प्रयोग के लिए फसल पैटर्न और कृषि पद्धतियाँ तैयार करने और उनका प्रसार करने के लिए किए गए प्रयासों तथा अनुसंधानों का भी यही हाल है।’’

सुधार हेतु उपाय


कमान क्षेत्र विकास कार्यक्रम की कमियों के निराकरण हेतु सरकारी स्तर पर कई उपाय किए गए हैं जिनका संक्षिप्त विवरण निम्न प्रकार है:

1. कमान क्षेत्र विकास कार्यक्रम तथा कृषि विकास से जुड़े कृषकों एवं अन्य सरकारी कर्मचारियों और अधिकारियों को सिंचित कृषि के बारे में समुचित प्रशिक्षण प्रदान करने के लिए राज्यों में भूमि एवं जल प्रबन्धन संस्थानों की स्थापना की गई है।

2. विश्व बैंक की सहायता से राष्ट्रीय जल प्रबन्धन परियोजना प्रारम्भ की गई है। इसके अन्तर्गत सभी सरकारी जल-अवमुक्त बिन्दुओं पर पानी की विश्वसनीय एवं सामयिक आपूर्ति सुनिश्चित करने के लिए पुरानी परियोजनाओं की मुख्य सिंचाई वितरण प्रणाली का आधुनिकीकरण एवं पुनर्स्थापना का कार्य किया जा रहा है। इस परियोजना के अन्तर्गत सहभागी राज्यों में 30 लाख हेक्टेयर क्षेत्रफल पर फैली 98 स्कीमों का चयन किया गया है।

4. जल वितरण प्रणाली के परिचालन, अनुरक्षण एवं वितरण में कृषकों की सहभागिता बढ़ाने के दिशा-निर्देश जारी कर दिए गए हैं।

5. चुने हुए कमान क्षेत्रों में राष्ट्रीय दूरस्थ संवेदन एजेन्सी, हैदराबाद की सहायता से कार्यक्रम के प्रभाव के अध्ययन का कार्य प्रारम्भ किया गया है। इस अध्ययन के द्वारा सिंचित क्षेत्रों में प्रसार का झुकाव, कृषि उत्पादकता में आए सुधार, जलभराव क्षारीयता आदि के रूप में सिंचाई के प्रतिकूल प्रभावों एवं स्तरों आदि का पता लगाया जा रहा है। दूरस्थ संवेदन तकनीक से कमान क्षेत्र विकास परियोजनाओं के मूल्यांकन को धीरे-धीरे अन्य क्षेत्रों में भी लागू किए जाने का प्रस्ताव है।

6. कमान क्षेत्र विकास कार्यक्रम के लिए गठित केन्द्रीय परामर्शदात्री समिति की एक बैठक में दिए गए सुझाव को स्वीकार करते हुए राज्यों में कमान क्षेत्र विकास परिषद तथा कमान क्षेत्र विकास प्राधिकरण स्तर पर कमान क्षेत्र विकास बोर्ड गठित किए जाने पर विचार किया जा रहा है। राज्य स्तरीय समितियों तथा कमान क्षेत्र विकास बोर्डों में संसद सदस्यों, विधानसभा सदस्यों, राज्य कृषि विश्वविद्यालयों तथा कृषि विकास संस्थानों, स्थानीय स्वैच्छिक संगठनों एवं कृषकों को भी समुचित प्रतिनिधित्व देने की बात कही गयी है। राज्य-स्तरीय कमान क्षेत्र परिषद नीतिगत मसलों पर विचार करेगी जबकि कमान क्षेत्र विकास बोर्ड कार्यक्रम के वास्तविक क्रियान्वयन के मामले देखेगा।

नई दिशा


आठवीं पंचवर्षीय योजना में पूर्व में प्राप्त किए गए अनुभवों के आधार पर कमान क्षेत्र विकास कार्यक्रम को नई दिशा देने की बात की गयी। इसमें कहा गया कि ‘‘अब तक प्राप्त किए गए अनुभवों को देखते हुए कमान क्षेत्र के उपाय पर पुनर्विचार करने की आवश्यकता है। यह निर्णय लेना होगा कि कमान क्षेत्र विकास कार्यकलापों का निर्माण, प्रचालन और रख-रखाव परियोजना के अभिन्न अंग के रूप में शामिल किया जाए। दूसरे, संगठनात्मक तथा कार्मिकों की तैनाती सम्बन्धी प्रबन्धों पर भी और ध्यानपूर्वक विचार करने की आवश्यकता है। प्रारम्भ में खेत पर विकल्प कार्य करने के लिए कमान क्षेत्र विकास की व्यवस्था पर विचार किया जा सकता है, किन्तु इसमें कृषकों से पूर्ण परामर्श तथा सहयोग लेना होगा। अंततः वे स्वयं अनुरक्षण और कार्यप्रणाली को ही अपने हाथ में ले सकते हैं।’’

आठवीं योजना में मौजूदा सिंचाई प्रणालियों में सुधार पर जोर देते हुए कहा गया कि पूरी की गयी सिंचाई प्रणालियों में पानी के अधिक तेजी से और कुशलतापूर्वक प्रयोग को बढ़ावा देने के लिए संगठनों में सुधार के अतिरिक्त मौजूदा प्रणालियों में भी सुधार करने की गुंजाइश तथा आवश्यकता है। पुनर्वास तथा आधुनिकीकरण (नालियों को पंक्तिबद्ध करना, अधिक और बेहतर नियंत्रक संरचनाएँ) में काफी निवेश करके पानी का वितरण विनियमित करने वाले पहलू पर पिछले दशक में अधिक ध्यान दिया जाने लगा है। चुनिंदा पुरानी प्रणालियों के आधुनिकीकरण के लिए राष्ट्रीय जल प्रबन्धन परियोजनाएँ प्रारम्भ की गई हैं।

वास्तविक सुविधाओं में सुधार स्पष्टतः ऐसे कार्यक्रम का एक अनिवार्य तथा महत्त्वपूर्ण अंग है। स्कीम तैयार करते समय प्रणाली के लिए अपनाए गए आयोजना और अभिकल्पना सम्बन्धी मानदण्ड अब उपयोगी नहीं रहे हैं। शुरू किए गए आधुनिकीकरण कार्यक्रम ने अभी पर्याप्त गति नहीं पकड़ी है। मौजूदा प्रणालियों के संशोधन और वैज्ञानिक विश्लेषण के लिए और इंजीनियरी, कृषि विज्ञान सम्बन्धी तथा प्रशासनिक एवं विधिक उपाय अपनाए जाने के लिए मानदण्ड तैयार किए जाने की आवश्यकता है। कमियों का पता लगाने तथा प्रत्येक परियोजना की आवश्यकताओं के अनुरूप विशिष्ट पैकेज तैयार करने के वास्ते मौजूदा प्रणालियों का उचित अध्ययन करने के लिए राज्यों को स्वयं का संगठन स्थापित करना चाहिए।

निष्कर्ष


भारतीय अर्थव्यवस्था में कृषि के व्यापक एवं बहुस्तरीय महत्व को देखते हुए कृषि उत्पादकता तथा उत्पादन में वृद्धि किए जाने की आवश्यकता और सम्भाव्यता काफी बड़ी सीमा तक विद्यमान है लेकिन यह तभी सम्भव है जबकि सिंचाई सुविधाओं का विकास करके सिंचित कृषि को अधिकाधिक मात्रा में अपनाया जाए। इसके लिए दोतरफा नीति अपनाए जाने की जरूरत है। एक ओर बड़ी, मध्यम तथा लघु सिंचाई परियोजनाओं के विस्तार द्वारा सिंचाई की स्थापित क्षमता में वृद्धि करने की आवश्यकता है तो दूसरी ओर स्थापित क्षमता का शत प्रतिशत उपयोग करने की भी सख्त जरूरत है। ऐसे समय में, जबकि देश की दो-तिहाई के लगभग खेती वर्षा पर निर्भर है, स्थापित सिंचाई क्षमता का 15 प्रतिशत के लगभग प्रयोग न कर पाना राष्ट्रीय संसाधनों का अपव्यय ही माना जाएगा तथा इसे किसी भी दृष्टि से उचित नहीं माना जाना चाहिए।

भारत की भौगोलिक विभिन्नताओं को देखते हुए यहाँ के सारे क्षेत्रों के लिए एक जैसी सिंचाई नीति एवं प्रणाली न तो व्यावहारिक है और न तर्कसंगत। ऐसे में क्षेत्रफल आवश्यकताओं के आधार पर तैयार की गई कमान क्षेत्र विकास परियोजनाएँ ही अधिक कारगर हो सकती हैं। आवश्यकता केवल इस बात की है कि इस प्रकार की परियोजनाओं को प्रारम्भ करने से पूर्व कृषकों की आवश्यकताओं का विधिवत अध्ययन करके उन्हें विश्वास में लिया जाए तथा सिंचाई प्रणाली के प्रबन्धन एवं रख-रखाव में उनकी सक्रिय भागीदारी सुनिश्चित की जाए।

(डॉ. श्याम सिंह राजकीय महिला महाविद्यालय, झांसी के अर्थशात्र विभाग में अध्यक्ष हैं; डाॅ. रविकान्त आर.बी.एस. काॅलेज, आगरा के अर्थशास्त्र विभाग में रीडर हैं।)

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