सीवेज का पानी और कोलार की प्यासी धरती

लक्ष्मीसागर झील
लक्ष्मीसागर झील

इसी वर्ष जून में कोलार के किसानों का खुशी का ठिकाना नहीं रहा जब के. सी. वैली प्रोजेक्ट द्वारा बंगलुरु शहर के गन्दे नालों के पानी को साफ कर उसकी आपूर्ति की जाने लगी। लेकिन इस खुशी की मियाद बड़ी छोटी रही। हुआ यूँ कि एक महीने बाद ही पाइप लाइन में गड़बड़ी आ गई और उससे गन्दे पानी का रिसाव होने लगा। स्थिति और भी भयावह तब हो गई जब पाइप लाइन से निकलने वाले अपशिष्ट ने झीलों के साथ ही भूजल को भी दूषित कर दिया।

लक्ष्मीसागर झील में लगा ट्रीटमेंट प्लांटलक्ष्मीसागर झील में लगा ट्रीटमेंट प्लांट (फोटो साभार - द हिन्दू)जब 31 वर्षीय मुरली ने अपने घर में बने पीने के पानी के टैंक का ढक्कन उठाया तो वहीं खड़ा उसका बड़ा भाई, 33 वर्षीय मंजुनाथ एन. उसे देखता ही रह गया। टैंक के ढक्कन के खुलते ही हवा में तेज दुर्गन्ध फैल गई और काला गन्दा पानी नजर आने लगा। यही उनके पीने के पानी का जरिया था जिसका स्रोत उनके घर से ठीक 50 मीटर की दूरी पर बना सामुदायिक बोरिंग था। मुरली के अनुसार के. सी वैली प्रोजेक्ट के शुरू होने के पहले उसका परिवार इसी पानी का इस्तेमाल पीने के लिये करता था।

बंगलुरु से केवल 70 किलोमीटर की दूरी पर कोलार जिले के बेल्लूर गाँव में काले घने बादल ने अपना डेरा जमा लिया। फुहारों की लम्बी अवधि के बाद तेज बारिश होने लगी और पानी का रुख नारासापुरा झील की तरफ हो गया। झील मुरली के घर के सामने ही स्थित है। दुखी मुरली ने बताया कि उसके परिवार ने इस घर के निर्माण में जीवन भर की कमाई झोंक दिया था। उसका सवाल कि क्या पूरे झील का पानी बदबूदार हो जाएगा? उसका जवाब फिलहाल किसी के पास नहीं था।

जब मुरली इस सवाल से जूझ रहा था ठीक उसी समय उसके बड़े भाई मंजुनाथ के दिमाग में दूसरी बात कौंध रही थी। वह अपने गाँव में देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के आगमन की बाट जोह रहा था। उसे इस बात से कोई खास सरोकार नहीं था कि उसका जिला लगातार सातवीं बार सूखा प्रभावित घोषित किया जा चुका है।

दरअसल, दिसम्बर के मध्य में प्रधानमंत्री का लगभग एक शताब्दी पूर्व बेल्लूर में ही जन्में योग गुरु बी.के.एस. आयंगर को श्रद्धांजलि देने आने का कार्यक्रम है।

वह कहता है कि प्रधानमंत्री के आगमन पर वह उन्हें उसके गाँव में पानी की स्थिति के बारे में बताएगा। जब उसके इस प्लान के बारे में हो रही बात-चीत के क्रम में यह सवाल आया कि मजबूत सुरक्षा घेरे में वह प्रधानमंत्री से कैसे मिल पाएगा? उसने तपाक से कहा कि कार्यक्रम स्थल पर वह सबसे पहले पहुँच जाएगा ताकि प्रधानमंत्री से मिलने का समय उसे सबसे पहले मिल सके। मंजुनाथ ने कहा, “मैं हिन्दी नहीं बोल पाता इसीलिये उन्हें अंग्रेजी में लिखा हुआ पत्र दूँगा ताकि आसानी से वे हमारी समस्या को समझ सकें। हम उनसे आग्रह करेंगे कि वे अपने भाषण में हमारी बातों को शामिल करें। हमें यह करना ही होगा नहीं तो पूरी जिन्दगी हमें बंगलुरु के नाले का पानी पीने के लिये मजबूर होना पड़ेगा।”

बंगलुरु शहर के पूर्वी बाहरी किनारे से 60 किलोमीटर से कुछ अधिक दूरी पर कई सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट बने हैं जिनमें शहर से निकलने वाले लाखों-करोड़ों लीटर गन्दे पानी का शुद्धिकरण किया जाता है। शहर के वर्थुर झील से जो पास में ही स्थित बेलंदूर झील की तरह है, शहर का शोधित मलजल एक विशालकाय पाइप के सहारे गुजरता है। 55 किलोमीटर की दूरी भूमिगत रूप से तय करते हुए मुरली और मंजुनाथ के घर की दिशा में जाता है। उनके घर से सात किलोमीटर पहले पाइप का पानी एक कंक्रीट चैनल में गिरने लगता है और सूखे की मार से प्यासे कोलार जिले के लक्ष्मीनगर झील में मिल जाता है।

अनूठा प्रयोग

के.सी. वैली प्रोजेक्ट का पूरा नाम कोरामंगला- चल्लाघट्टा वैली ड्रेनेज सिस्टम है। बंगलुरु स्थित सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट से निकलने वाले पानी के सहारे पाइप के माध्यम से चलाई जा रही यह एक अनूठी सिंचाई योजना है। विवादों से घिरी देश की इस पहली प्रायोगिक योजना पर 1400 करोड़ रुपए की लागत आई है। इसकी शुरुआत 2 जून 2018 को हुई। इस अवसर पर सैकड़ों की संख्या में लोग लक्ष्मीनगर झील के सटे बने आउटलेट के पास इकठ्ठा हुए। एक खास गंध लिये हल्के हरे रंग का पानी पाइप से निकलने के बाद एक टैंक में जमा हुआ फिर धीरे-धीरे झील में गिरने लगा। झील के लबालब हो जाने के बाद पानी खुले नहर नुमा नाले के माध्यम से पास के चार अन्य झीलों में जमा होने लगा। पानी को लबालब भरे झील से पास के अन्य झीलों में जाते देख लोग खुशी से झूम उठे और सेल्फी भी खिंचवाया।

नालासापुरा झील में मिलता नाले का पानीनालासापुरा झील में मिलता नाले का पानी (फोटो साभार - द हिन्दू)इस तरह पहाड़ों से निकलने वाली जलधाराओं की ही तरह पाइपलाइन भी मानव निर्मित सदानीरा नदी का स्रोत बन गया। आने वाले समय में कोलार के आस-पास के इलाकों में स्थित 126 झीलों को शोधित सीवेज के पानी से भरे जाने की योजना है। इस योजना के तहत 400 मिलियन लीटर प्रतिदिन (एमएलडी) पानी इन झीलों में छोड़ा जाएगा। मई 2018 में प्रस्तावित चुनाव को देखते हुए पिछली सरकार ने इस काम को दो साल के समय में ही पूरा कर दिया। दरअसल, कोलार, बड़ी योजना का एक हिस्सा है। इस प्रोजेक्ट को बंगलुरु के आस-पास के समतल भूमि वाले कृषि क्षेत्रों में भी विस्तारित किया जाना है। इस योजना के तहत आधे बंगलुरु शहर से निकले लगभग 1500 एमएलडी पानी को शोधित करने के बाद इन इलाकों में पाइप के माध्यम से सिंचाई के लिये पहुँचाया जाएगा।

इसी वृहद योजना के तहत 950 करोड़ रुपए की लागत से 210 एमएलडी की क्षमता वाले एक अन्य प्रोजेक्ट का विकास किया जा रहा है। इससे बंगलुरु शहर के ग्रामीण क्षेत्र और चिकाबल्लापुर जिले के कृषि क्षेत्र को पानी की आपूर्ति की जाएगी। इसके अतिरिक्त 400 करोड़ रुपए की लागत से 120 एमएलडी की क्षमता वाले प्रोजेक्ट का निर्माण किया जा रहा है जिससे शहर के दक्षिणी इलाके में स्थित झीलों को भरा जाएगा जो शुष्क इलाका है। इनफोसिस एवं विप्रो के कैंपस भी इसी क्षेत्र में स्थित हैं।

के. सी. वैली प्रोजेक्ट के शुरू होने के महज 43 दिन बाद यानि 16 जून को परिस्थितियाँ बदलने लगीं। पाइप के सहारे बनी नदी का पानी हरे से काला होने लगा। दो दिन बाद ही यानि 18 जुलाई को पानी से उजले रंग का फेन भी निकलने लगा। इसके बाद प्रोजेक्ट के शुरू होने के मात्र 46 दिन बाद ही पाइप से बनी नदी में पानी के बहाव रोक दिया गया।

लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी थी। बंगलुरु शहर के सैकड़ों मिलियन लीटर गन्दे अपशिष्ट से भरे पानी को दुर्भाग्यवश इस क्षेत्र में छोड़ा जा चुका था। इसके कारण आस-पास के कई नलकूपों में काले सीवेज के पानी का रिसाव हो चुका था। मुरली और मंजुनाथ के घर में बना टैंक भी इससे बच नहीं सका उसका पानी भी गन्दा हो गया था। इनके गाँव बेल्लूर के कई अन्य नलकूपों का भी यही हाल था। लक्ष्मीसागर झील में रहने वाले जीव जैसे मछलियाँ, साँप आदि मर कर पानी की सतह पर आ गए थे।

नारासापुरा झील जो आस-पास के लोगों को पीने का पानी उपलब्ध कराने का एकमात्र जरिया था वह भी सीवेज के पानी से प्रभावित हुआ। अभी भी इस झील के किनारों का पानी काला है। पानी के प्रदूषण का प्रभाव यह हुआ कि झील की तली में पैदा हुए सभी पौधे मर गए और पानी के ऊपर तैरने लगे। 60 वर्षीय लक्ष्मण ने कहा, “पिछले एक दशक से यह झील छोटे-छोटे पोखरों का एक समूह जैसी दिखती थी। पिछले साल जब झील में बरसात का पानी भरा तो हम सभी बहुत खुश हुए थे।”

लक्ष्मण एक एकड़ जमीन का मालिक थे जिसमें वह गाजर और बीन्स उगाया करता थे। लेकिन जैसे-जैसे भूजल का स्तर गिरता गया उनके कुएँ ने उनका साथ छोड़ दिया और वह खेती का पेशा छोड़ने को मजबूर हो गए। अब वह अपना जीवनयापन सब्जी बेचकर करते हैं। लक्ष्मण के जैसे ही बेल्लूर के बहुत सारे लोगों के लिये नारासापुरा झील जीवन का अभिन्न हिस्सा था। इसके प्रभाव क्षेत्र में स्थित नौ नलकूप, पीने के पानी का मुख्य जरिया थे। इतना ही नहीं झील से निकले नालों का इस्तेमाल लोग कपड़े धोने के साथ ही मलमूत्र त्याग के लिये करने के लिये भी करते थे।

लोगों में उस समय दहशत फैल गया जब 30 जुलाई के बाद झील के किनारे स्थित नलकूपों के पानी से बदबू आने लगी। इसके बाद नारासापुरा ग्राम पंचायत द्वारा एक पम्पलेट छपवाकर वहाँ के 6000 निवासियों के बीच वितरित किया गया। इस पम्पलेट में कहा गया था कि पानी की जाँच के बाद पाया गया है कि वह पीने योग्य नहीं है इसीलिये लोग फ़िल्टर यूनिट द्वारा निकाले गए पानी का ही इस्तेमाल करें। गाँव के लोगों को यह भी हिदायत दी गई थी कि वे अपने मवेशियों को भी झील का पानी नहीं पीने दें। स्थानीय दुग्ध समिति के सचिव जनार्दन राव ने बताया कि इसके बाद कुछ किसान अपने मवेशियों को भी फिल्टर किया हुआ पानी ही पिलाने लगे।

एक विभाजित जिला

के. बी. होसाहल्ली के पचास एकड़ के पुश्तैनी जोत वाले 23 वर्षीय सैयद सद्दाम का इलाका पत्थर के व्यापार युकेलिप्टस के लिये जाना जाता है। सूखा के कारण उसके 11 डीप बोरिंग बेकार हो गए। लेकिन सद्दाम के परिवार ने आस नहीं छोड़ी। उन्होंने ड्रिप सिंचाई को अपनाया और अपनी आधी जमीन पर गोभी, टमाटर जैसे फसलों को लगाया। सद्दाम ने आत्मविश्वास के साथ इस योजना पर अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए कहा, “इसमें कोई शक नहीं की यह प्रोजेक्ट काफी अच्छा है। क्या हुआ जब पानी में अपशिष्ट मलजल मिला हुआ है? यह किसानों की खाद पर निर्भरता को ही कम करेगा।”

उद्दप्पनाहल्ली गाँव, जो के. सी. वैली प्रोजेक्ट के अन्तर्गत आता है वहाँ के किसानों का इस योजना के बारे में मत भिन्न-भिन्न हैं। इसी गाँव के 52 वर्षीय किसान कोडनडप्पा और 34 वर्षीय उदय कुमार के विचार बिल्कुल अलग हैं। हालांकि, दोनों का मानना है कि योजना के बारे में लोगों की जानकारी बहुत कम है। उदय छह एकड़ जमीन का मालिक है। उसकी जमीन में चार नलकूप हैं जो कुछ महीनों पहले तक लगभग सूखे थे। इस योजना के शुरुआत के कारण नलकूपों में पानी की मात्रा में इजाफा हो रहा है। इन्हीं नलकूपों की सहायता से वह रागी, टमाटर और सब्जियों की खेती कर रहा है। वह मानता है कि प्रोजेक्ट सूखा की मार झेल रहे इलाके के लिये एक वरदान है।

कोडनडप्पा का मत उदय से बिल्कुल भिन्न है। ढाई एकड़ जमीन के मालिक कोडनडप्पा का कहना है कि इस प्रोजेक्ट ने नई समस्या खड़ी कर दी है। वह कहता है कि यह भी कोई जिन्दगी है जब लोग झील का पानी नहीं पी सकते। पीने के लिये उसे फिल्टर करना जरूरी है। जानवर भी यदि इस पानी का प्रयोग लगातार करें तो वे भी बीमार हो जाएँगे। हालांकि, कोडनडप्पा को सूखे के कारण खेती छोड़कर ड्राइवर का पेशा अपनाना पड़ा है।

कोलार में पानी का संकट

इस प्रोजेक्ट को शुरू करने के पीछे के कारण को समझने के लिये हमें कोलार में पानी की किल्लत के स्तर को भी समझना जरूरी है। नहरों की गैर मौजूदगी, मानसून की अनिश्चितता के साथ ही दक्षिणा पिनकिनी नदी के भी लगभग सूख जाने के कारण लोगों के पास सिंचाई और पीने के पानी के लिये भूजल के इस्तेमाल के अलावा और कोई चारा नहीं था। फलस्वरूप जिले में वर्ष 2002 में नलकूपों की संख्या जो 12,670 थी वह 2014 तक बढ़कर 85,000 हो गई। जिले के किसान वर्षाजल से पोषित होने वाले फसल रागी के बदले टमाटर, बीन्स के साथ ही अन्य प्रकार की सब्जियाँ उगाने लगे जिनमें पानी की ज्यादा जरूरत होती है।

सेंट्रल ग्राउंड वाटर बोर्ड द्वारा तैयार की गई रिपोर्ट ‘डाइनेमिक ग्राउंड वाटर रिसोर्स ऑफ इण्डिया रिपोर्ट 2017’ के अनुसार कोलार जिले में 2013 के आते-आते भूजल की उपलब्धता 32,746 हेक्टयेर मीटर रह गई। वहीं, जिले में प्रतिवर्ष 62,359 हेक्टेयर मीटर पानी का दोहन होता है जिसका 95 प्रतिशत हिस्सा कृषि कार्य में प्रयोग किया जाता है। रिपोर्ट के अनुसार जिले में भूजल के दोहन का दर 190 प्रतिशत है जो सामान्य से बहुत ही ज्यादा है। इसके अलावा हर वर्ष पड़ने वाले सूखे ने इस परिस्थिति को और भी विकराल बना दिया है।

भूजल के गिरते स्तर और लगातार पड़ रहे सूखे के कारण ही राज्य सरकार ने जिले में 2014 के लोकसभा के चुनाव के पूर्व ही इस प्रोजेक्ट पर काम आगे बढ़ाया। इसी के तहत पश्चिमी घाट की नदी नेत्रावती की सहायक नदियों का रुख कोलार जिले की तरफ मोड़े जाने की योजना थी। जंगल के हाथियों के संचरण क्षेत्र के बीच स्थित इस प्रोजेक्ट को येटीनाहोले का नाम दिया गया।

पाइपलाइन बिछाने के अलावा पम्पिंग स्टेशन बनाए जाने की योजना थी जिससे 24 टीएमसी पानी छोड़ा जाना था। पानी की कुल मात्रा में से 10 टीएमसी पानी कोलार और चिक्कबल्लापुर जिलों में सप्लाई किया जाना था। लेकिन इससे जुड़े कई अध्ययनों में पानी की आपूर्ति से जुड़े अनुमानों पर सन्देह व्यक्त किया गया। इस योजना की अनुमानित लागत 13,000 करोड़ रुपए थी।

पर्यावरण अनुमति नहीं मिलने और राष्ट्रीय हरित न्यायालय में मुकदमे के लम्बित हो जाने के कारण यह योजना शुरू नहीं हो सकी। वर्ष 2016 में किसानों का सब्र का बाँध टूटा और 10,000 से अधिक पुलिस की बैरिकेडिंग तोड़ते हुए मुख्यमंत्री आवास तक पहुँच गए। उन पर पुलिस ने लाठियाँ बरसाईं और 35 लोगों पर आपराधिक मुकदमा भी दायर किया गया। इसी के बाद राज्य में इस योजना को लेकर जबरदस्त राजनीति शुरू हो गई और सरकार को मजबूर होकर के. सी. वैली प्रोजेक्ट की घोषणा करनी पड़ी।

38 वर्षीय अंजनेय रेड्डी ने कहा, “क्या हम तीसरे दर्जे के नागरिक हैं कि हमें अपशिष्ट जल वाला दूषित पानी पीना पड़ेगा जबकि बंगलुरु में स्थापित उद्योगों को कावेरी के साफ़ पानी की आपूर्ति की जाती है।” अंजनेय रेड्डी 2016 में इस प्रोजेक्ट के विरुद्ध हाईकोर्ट में दायर की गई जनहित याचिका के बाद इसका पुरजोर विरोध किया था। ये 30 एकड़ जमीन के मालिक हैं जो चिक्कबल्लापुर जिले में स्थित है। इनकी जमीन में 30 नलकूप हैं जिनमें से कुछ 1500 फीट तक गहरे हैं। लेकिन भूजल के नीचे चले जाने के कारण फिलहाल इनमें से तीन से ही पानी निकल रहा है।

अंजनेय रेड्डी ने कहा कि हम इस प्रोजेक्ट के विरोध में नहीं हैं लेकिन सरकार को अपशिष्ट जल की सफाई के लिये सेकेंडरी ट्रीटमेंट के बजाय टर्शियरी ट्रीटमेंट को प्राथमिकता देनी चाहिए। सरकार को पानी की गुणवत्ता में सुधार के लिये उच्च तकनीक का इस्तेमाल करना चाहिए।”

अपशिष्ट जल को साफ करने के लिये कई स्तर की तकनीक मौजूद हैं। प्राइमरी ट्रीटमेंट में पानी में तैरने वाले कणों के साथ प्लास्टिक और ठोस तलछट को ही अलग किया जाता है। सेकेंडरी ट्रीटमेंट में सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट द्वारा जैविक तत्व, कीचड़ आदि को पानी से अलग किया जाता है जबकि अधिकांश रासायनिक तत्व पानी में ही घुले रह जाते हैं। वहीं, टर्शियरी ट्रीटमेंट प्लांट द्वारा नाइट्रेट, फॉस्फेट आदि रासायनिक तत्वों को भी आसानी से निकाल दिया जाता है। सिंगापुर में इस तरह के प्लांट से शोधित पानी का इस्तेमाल पीने के लिये भी किया जाता है लेकिन भारत में इसकी संख्या काफी कम है।

अंजनेय रेड्डी के कहा कि भारत में सेकेंडरी ट्रीटमेंट प्लांट से निकले जल का भूजल के साथ ही मनुष्य पर क्या प्रभाव पड़ता है इस दिशा में शोध किये जाने की जरुरत है। भारत में शोध की स्थिति पर टिप्पणी करते हुए उन्होंने कहा कि शोध के मामले में हमारी गति चूहों के सामान है। उनके अनुसार कर्नाटक हाईकोर्ट में दायर की गई जनहित याचिका में इस बात को गम्भीरता से उठाया गया था। कोर्ट ने कोलार में पाइप द्वारा अपशिष्ट मलजल की आपूर्ति के एक हफ्ते बाद 24 जुलाई को पानी की आपूर्ति रोकने का आदेश जारी किया था। कोर्ट ने इस घटना पर मौखिक टिप्पणी करते हुए कहा था, “योजना में कोई बुराई नहीं है। उचित कार्यान्वयन के न होने और पानी की गुणवत्ता से सम्बन्धित महज कुछ आश्वासन के कारण इसके परिणाम विनाशकारी हुए।”

अनुसन्धान से प्राप्त निष्कर्ष और बाधाएँ

राज्य सरकार से सम्बन्धित एजेंसियों ने अपना पक्ष रखते हुए कहा कि पानी का 36 प्रकार के विभिन्न मापदण्डों पर परीक्षण किया गया और इतेमाल के लिये सुरक्षित पाया गया। परीक्षण में नाइट्रेट नाइट्रोजन की मात्रा को तयशुदा मानक से अधिक पाया गया था। कर्नाटक स्टेट प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड की माने तो पानी खेती के लिये एकदम उपयुक्त था।

उसके अनुसार पानी में घरों से निकलने वाले अपशिष्ट के कारण मलयुक्त कोलीफॉर्म की मात्रा अधिक थी। परन्तु विभिन्न झीलों से होकर गुजरने के कारण मलयुक्त कोलीफॉर्म की मात्रा में लगातार कमी आती गई। खास बात यह है कि पानी की गुणवत्ता से सम्बन्धित ये सभी परीक्षण अपशिष्ट जल के लिये थे न कि पीने में प्रयोग लाये जाने वाले पानी के लिये।

लघु सिंचाई विभाग के एक अफसर ने बताया कि इस प्रोजेक्ट का मूल उद्देश्य इलाके में भूजल के स्तर को बढ़ाना था न कि पीने का पानी उपलब्ध करने का। जब पानी जमीन के अन्दर जाता है उसे दूषित करने वाले तत्त्व ऊपर ही रह जाते हैं। इस तरह नलकूपों से निकलने वाला पानी बिल्कुल सुरक्षित और इस्तेमाल योग्य होता है। इस योजना के कार्यान्वयन का जिम्मा सरकार ने लघु सिंचाई विभाग को ही सौंपा था।

हालांकि, शोधकर्ताओं की एक टीम ने स्वतंत्र रूप से पानी की जाँच की और वे लघु सिंचाई विभाग के अफसर के मत से सहमत नहीं हुए। टीम ने परीक्षण के दौरान पानी में क्रोमियम, कोबाल्ट, कॉपर, जिंक, कैडमियम और लेड जैसे भारी धातुओं की मात्रा पीने योग्य पानी के लिये तय किये गए मानक से काफी अधिक पाया।

इस तथ्य के सामने आने के बाद के कुछ सवाल उभर कर सामने आते हैं। पहला, क्या यह विचार सही है कि जिले के लोग टैंक और पम्प से निकलने वाले नहीं पीने योग्य पानी पर पूरी तरह निर्भर रहें और उनसे ये आशा की जाये कि वे फिल्टर का इस्तेमाल करें? दूसरा, क्या इस पानी के इस्तेमाल से स्वास्थ्य से जुड़ी परेशानियाँ पैदा नहीं होंगी?

बंगलुरु से निकलने वाला अपशिष्ट जल भी अन्य भारतीय शहरों की तरह ही है। यहाँ भी केवल शौचालयों से पैदा हुआ मलजल ही नहीं बल्कि विभिन्न उद्योगों से निकलने वाला औद्योगिक कचरा भी इसमें मिला होता है। सेकेंडरी सीवेज ट्रीटमेंट द्वारा अपशिष्ट जल में घुले-मिले धातुओं को साफ नहीं किया जाना है। साफ है कि सरकार का अनुमान पूर्णतः मिट्टी की शोधन क्षमता पर आधारित था।

रिपोर्ट तैयार करने वाली टीम के एक शोधकर्ता ने नाम न छापे जाने की शर्त पर बताया कि मिट्टी की भी अपनी सीमा है खासकर तब जब दशकों तक 400 एमएलडी पानी को पम्प किया जाता रहे। बंगलुरु के वर्थुर झील के आस-पास के इलाकों के नलकूपों से लिये गए पानी के नमूनों में रिसाव के कारण भारी धातुओं की मात्रा पाई गई। वहीं, धीमे जहर के रूप में कई बीमारियों को पैदा करने वाली कोलार के नलकूपों में भारी धातुओं की उपस्थिति ने पानी को विषाक्त बना दिया था।

कर्नाटककर्नाटक (फोटो साभार - द हिन्दू)इस स्थिति से निपटने के लिये शोधकर्ताओं ने टर्शियरी ट्रीटमेंट प्लांट के साथ ही दलदली भूमि के निर्माण का प्रस्ताव दिया है। दलदली भूमि जलीय पौधों को पनपने का अवसर देती है। इन पौधों में पानी में अधिक मात्रा में उपस्थित पोषक तत्वों के साथ ही भारी धातुओं जैसे नाइट्रेट और फॉस्फेट आदि को भी सोखने की क्षमता होती है। कावेरी नदी क्षेत्र में दलदली भूमि के उपस्थित होने के कारण ही उसमें अपशिष्ट जल के बहाव के बाद भी पानी खेती में इस्तेमाल किये जाने के योग्य है। वहीं कोलार में पाइप के माध्यम से बनाई गई नदी में इसकी कमी है।

शहरों के मलजल में केवल रासायनिक तत्त्व ही नहीं रहते बल्कि बड़ी मात्रा में एंटीबायोटिक्स की भी मौजूदगी होती है। अपशिष्ट जल में एंटीबायोटिक्स की मौजूदगी का बड़ा कारण हैं रोज लाखों लोगों द्वारा इसका इस्तेमाल किया जाना। वर्ष 2017 में अशोका ट्रस्ट फॉर इकोलॉजी एंड एन्वायरनमेंट, बंगलुरु (एट्री) द्वारा बेलंदूर झील पर किये गए एक अध्ययन में यह पाया गया कि अपशिष्ट जल में एंटीबायोटिक्स की उपस्थिति के कारण बैक्टीरिया के प्रतिरोधक क्षमता में वृद्धि हो गई है। एट्री की शोधकर्ता प्रियंका जमवाल ने कहा, “एसटीपी द्वारा बैक्टीरिया के एंटीबायोटिक प्रतिरोधी नस्लों को नहीं अलग किया जाता इसीलिये यह जरूरी है कि कोलार की स्थिति के बारे में बारीकी से अध्ययन किया जाये।”

फिर लौटा जीवन

सितम्बर के अन्त में कर्नाटक हाईकोर्ट ने इस शर्त पर विभिन्न एसटीपी से पानी छोड़ने का आदेश दिया कि पानी की गुणवत्ता की जाँच हो और रिपोर्ट कोर्ट में दाखिल किया जाये। इस आदेश के अनुसार 6 अक्टूबर को ढाई महीनों के अन्तराल के बाद कोलार की मानव निर्मित नदी फिर से जीवन्त हो उठी।

लक्ष्मीसागर झील के किनारे फिर पानी से लबालब हो गए। मुख्य पाइप के मुहाने पर स्थित टैंक को फिर से पेंट किया गया ताकि पिछली गलती की यादों को भुलाया जा सके। जो किसान वहाँ स्थिति का जायजा लेने आये थे वे एक बार फिर खुश थे। राजनीतिक पहल के साथ ही कोर्ट के आदेश ने उनके विश्वास को फिर से वापस लौटा दिया था। उनमें से कुछ तो पम्प स्टेशन के पास चाय की दुकान लगाने की भी योजना बनाने लगे। उनका मत था कि इस व्यवस्था को देखने पर्यटक आएँगे तो उनकी आमदनी में इजाफा होगा।

डोड्डाययुर गाँव के 70 वर्षीय शंकरप्पा ने कहा, “यह जानकर थोड़ी राहत महसूस हो रही है कि हमें इस्तेमाल के लिये पानी तो मिलेगा चाहे वह सीवेज का शोधित जल ही क्यों न हो।” इनका गाँव कोलार के ऊपरी बहाव क्षेत्र में स्थित है जिसे इस योजना के तहत पानी मिलना अभी बाकी है। इलाके में गिरते भूजल के स्तर के कारण इनका कुआँ भी दो दशक से सूखा पड़ा है। उनका मानना है कि इस योजना के बाद उनके कुएँ में पानी फिर लौट आएगा।

38 वर्षीय किसान मुरुगेश राजन्ना, मलजल के प्रभाव में दो एकड़ की मूली की खेती के नष्ट हो जाने के बाद इस प्रोजेक्ट के घोर विरोधी बन गए थे। इस योजना के दोबारा जीवन्त होने के बाद उन्होंने कहा, “मुझे आशा है कि बंगलुरु यह याद रखेगा कि यहाँ सारी सब्जियाँ इसी पानी में उगाई और धोई जाती हैं। वे अपनी खातिर ही हमें साफ जल तो उपलब्ध कराएँ।”

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