इस साल प्रकृति ने भारत के अधिकांश हिस्से में और दुनिया के कुछ हिस्सों में जो नजारा पेश किया है, वह हैरान करने वाला है। इतनी बारिश हो रही है कि हर कोई चकित है।
शायद ही किसी की स्मृति में इस तरह की अतिवर्षा के दृश्य टंगे हों। कम से कम दिल्ली में तो कोई ऐसा आदमी नहीं मिला। क्या इससे मौसम विज्ञान के सामने एक नयी चुनौती खड़ी हो गयी है। मौसम की भविष्यवाणी का शुरू से ही मजाक उड़ाया जाता रहा है। कहा जाता था कि जब मौसम विभाग यह कहे कि आज दिन भर धूप खिली रहेगी तो आदमी को छाता ले कर ही घर से निकलना चाहिए। लेकिन यह पुरानी बात है। मौसम का हाल जानने की प्रणाली में विकास हुआ है।
अब कभी-कभी ही उलटी भविष्यवाणी की जाती है। लेकिन इस बार कोई माई का लाल यह पूर्वानुमान नहीं कर सका कि इतनी बारिश होगी कि धरती का आंचल ही भीग जाएगा। मानसून का पूर्वानुमान लगाना हमारे लिए बहुत महत्वपूर्ण रहा है क्योंकि हमारी अर्थव्यवस्था कई तरह से इस बात पर निर्भर रहती है कि वर्षा कितनी हुई। इस साल हमें बताया गया था कि मानसून कमजोर रहेगा। फिर कहा गया कि नहीं, वह सामान्य होगा। लेकिन मौसम विज्ञानियों को एहसास तक नहीं हो सका कि वर्षा रानी सभी भविष्यवाणी करने वालों को चकित कर देगी। क्या यह जलवायु परिवर्तन का नतीजा है, क्या वर्षा के चक्र को कोई नया फैक्टर प्रभावित कर रहा है, क्या अब हमें इस प्रकार के अप्रत्याशित परिवर्तनों के लिए तैयार रहना चाहिए! इन सवालों का जवाब किसी के पास नहीं है। शायद आगे जवाब मिले। अभी तो हम एक रहस्यमय, धूप-छांही दुनिया में चक्कर काट रहे हैं।
इसका मतलब यह नहीं है कि वैज्ञानिक प्रगति का कोई अर्थ नहीं है। कुछ लोग सोचते हैं कि ईश्वर हमारे साथ ऐसे-ऐसे खेल-खेल रहा है, जिनके बारे में हम कभी जान नहीं सकते। इसलिए इस दिशा में प्रयास करने का कोई मतलब नहीं है। तुम जितना जानोगे, रहस्य उतना ही गहरा होता जाएगा। इस दृष्टिकोण को धार्मिक नहीं कहा जा सकता, क्योंकि धर्म का सृष्टि-विज्ञान अटकल से ज्यादा कुछ नहीं है। हम धर्म के पास यह जानने के लिए नहीं जाते कि इस सृष्टि का प्रारंभ कब हुआ या इसकी आयु कितनी है, या सृष्टि की संरचना किन-किन तत्वों से हुई है। धर्म के पास हम यह जानने के लिए जाते हैं कि क्या अच्छा है और क्या बुरा। क्या करने से ईश्वर प्रसन्न होगा और क्या करने से वह नाराज होगा। दूसरी दुनिया कैसी है, इस पर धार्मिक लोगों में मतैक्य नहीं है, यह भी विवाद का विषय है कि कोई दूसरी दुनिया है भी या नहीं, लेकिन इस मामले में कोई मतभेद नहीं है कि इस दुनिया में हमें क्या करना चाहिए और क्या नहीं। जिनकी आस्था धर्म में नहीं है, उनके लिए यह काम नैतिकता करती है।
विज्ञान ने सृष्टि की भौतिकी को समझने की जिम्मेदारी अपने कंधों पर ली थी। जिन्हें हर चीज में संदेह होता है, वे कहेंगे, विज्ञान इस काम में पूरी तरह विफल रहा है। अधिकतर मामलों में वह भी अटकल लगाता है। उदाहरण के लिए, ब्राह्मांड विज्ञान अब भी अटकल के सिवाय कुछ नहीं है। लेकिन ऐसा सोचना पूर्वाग्रह है या फिर निराशावाद। कुछ सौ वर्षों में ही वैज्ञानिक शोध ने इतने रहस्य अनुवाद किये हैं कि दांतों तले उंगली दबानी पड़ती है। सच तो यह है कि प्रकृति के रहस्य अब जा कर खुलना शुरू हुए हैं। इसके पहले जो कुछ हुआ, वह तैयारी मात्र थी। तब उतने साधन भी नहीं थे जितने आज वैज्ञानिकों के पास हैं। पृथ्वी गोल है, यह बहुत पहले पता लगाया जा चुका था, पर पिछली शताब्दी के उत्तराद्र्ध में ही अंतरिक्ष में जाकर यह देखना संभव हुआ कि वह सचमुच गोल है। हम मान कर चल सकते हैं कि आगामी दशकों में हमारी वैज्ञानिक नजर साफ तथा बहुत दूर तक देख सकने वाली बन जाएगी।
इसके साथ ही यह भी स्वीकार करना होगा कि सृष्टि का आयतन इतना बड़ा है और उसकी कार्य प्रणाली इतनी जटिल कि उसे पूरी तरह समझ पाना मानव मेधा के लिए संभव नहीं जान पड़ता। हमने अपनी इंद्रियों की सीमा रेखा का लगभग असंभव विस्तार कर लिया है-चलने की रफ्तार, देखना, महसूस करना आदि हमारी प्राकृतिक सीमाओं तक सीमित नहीं रह गये हैं। फिर भी इन सब की सीमा है, जिसके पार जाना मुश्किल है। इसी तरह, हमने अपने दिमाग से बहुत काम लिया है, पर क्या उसकी भी कोई सीमा नहीं होगी। आखिरकार मनुष्य मंझोले आकार का जीव है। उसके विजन का दायरा कितना बड़ा हो सकता है। अब भी हालत यह है कि हमने भूकंप की प्रक्रिया को समझ तो लिया है, पर हम पहले से यह नहीं बता सकते कि अमुक क्षेत्र में इतने बजे भूकंप आ सकता है। हम ईश्वर बनने का अभिनय कर सकते हैं, पर ईश्वर बन कर दिखा देना शायद-और एक बहुत बड़ा शायद है-आदमी की किस्मत में नहीं है।
तो क्या हमें संधान की अपनी स्वाभाविक वृत्ति को स्थगित कर देना चाहिए। ऐसी सलाह देना पाप से कम नहीं होगा। सृष्टि अनंत है तो मनुष्य की विकास यात्रा को भी अनंत होना होगा। मंजिल बहुत दूर है, इसलिए हम धीरे-धीरे चलना गवारा नहीं कर सकते। पर इतना ही महत्वपूर्ण यह भी है कि जितनी जानकारी हम इकट्ठी कर चुके हैं, उसका इस्तेमाल सभी मनुष्यों और इतर प्राणियों के जीवन को अधिक से अधिक सुखमय बनाने के लिए हो। बाढ़ को हम रोक नहीं सकते पर मानव जीवन को बाढ़ से प्रभावित होने को तो कम से कम कर सकते हैं। जहां सूखा पड़ा हुआ है, वहां बारिश करवाना हमारे हाथ में नहीं है, पर सूखा-क्षेत्र में आदमी और मवेशी कष्ट क्यों पाएं! यह विज्ञान से अधिक राजनीति का मामला है। क्या यह मनुष्य के विकास पर एक कठोर टिप्पणी नहीं है कि जैसे-जैसे हम जीवन और दुनिया को अधिक से अधिक समझ रहे हैं, हमारी राजनीतिक और आर्थिक व्यवस्था में इस समझ की कम से कम अभिव्यक्ति दिखायी दे रही है।
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