मिथिला के उत्तरी सीमांत की तरफ एक ‘नद’ है - बुढ़नद। कथा है कि सांवली-सलोनी कोसी पर आसक्त हो गया था बुढ़नद। वह कोसी से ब्याह करना चाहता था। कहां तो सांवली मदमाती कोसी, कहां बूढ़ा नद। कोसी ने बूढ़नद से कहा - सावन भादों में विवाह का लग्न तो होता नहीं। वैशाख-जेठ में बारात लेकर आना, मैं प्रस्तुत रहूंगी। लेकिन बैशाख-जेठ में तो सूख जाता है नद। ब्याह होगा कैसे? बुढ़नद आज भी अपनी किस्मत पर रो रहा है। बाढ़... जल विभीषिका... प्रलय... महाप्रलय? कभी-कभी मैं भूमंडल के मानचित्र को देख हैरत में पड़ जाता हूं कि चार भागों में तीन भाग पानी और एक भाग में हमारी निरीह-सी धरती। पानी के हिंडोले पर हिलकोरे खाती हमारी धरती माता! कबीर ने हालांकि दूसरे प्रसंग में कहा था लेकिन मुझे उनकी साखी की याद हो आती है - रहिबे को आचरज है...। सोचते हुए दुर्निवार आशंका होती है कि क्या फिर पृथ्वी पर जल प्रलय होगा। खड़ी बोली हिंदी के महाकाव्य कामायनी का आरंभ ही महाप्रलय के दृश्य से होता हैः
हिमगिरि के उत्तुंग शिखर पर बैठ शिला की शीतल छांह।
एक पुरुष भीगे नयनों से देख रहा था प्रलय-प्रवाह।
महानगरों के लोग बड़े कौतुक से टी वी पर देखते हैं, बाढ़ में डूबे गांवों के दृश्य। चेहरों पर मुस्कान की हल्की-सी रेखा फैल जाती है। पानी ही पानी। डूबी सड़कें, डूबे घर, पेड़-पौधे... कोसों कोस जलमग्न धरती। बाढ़ में डूबकर मरने वालों की रोज-रोज बढ़ती संख्या। विनाश का ऊंचा उठता ग्राफ। छतों पर, टूटे तटबंधों - टीलों पर भूखे-प्यासे लोग। स्त्रियां, बच्चे। अखबारों में हम फोटो देखते हैं।
अखबार मेरे सामने है। गंगा उस पार दरभंगा, मधुबनी, समस्तीपुर, रोसड़ा, बेगूसराय, खगड़िया, कटिहार, पूर्णिया, सीतामढ़ी में बाढ़ की विभीषिका की खबरें हैं। पिछले दस-बारह दिनों से लगातार छप रही हैं ये खबरें। बाढ़ के पानी के साथ खबरों का दायरा भी बढ़ता गया है, बढ़ता जा रहा है।
दिल दहलाने वाली बाढ़ की खबरें। सोचता हूं, गाय, बैल, भैंस... भेड़ों, बकरियों, कुत्तों, बिल्लियों की खबरें तो कहीं नहीं हैं। शायद मुख्य है आदमी। पशुओं की क्या अहमियत! लेकिन ये पशु भी तो मनुष्यों के परिवारों के मूक सदस्य हैं। इनका तो कोई जिक्र नहीं मिलता। क्या हुआ होगा इनका? सांप, छछुंदर, चूहे...।
सारी प्राकृतिक आपदाएं, गांवों, कस्बों, छोटे शहरों में ही क्यों कहर ढाती हैं? क्यों महानगरों के लिए कौतुक के विषय बनते हैं हाशिये के लोग? अखबार में छपे एक कार्टून पर नजर गई है, जिसमें हेलीकाॅप्टर से कोई मंत्री बाढ़ का मुआयना कर रहे हैं। मंत्री जी हेलीकाॅप्टर से नीचे देखते हैं। कुछ लोग अपनी जान बचाने के लिए पेड़ों से लटके हैं, कुछ घरों की मुंडेरों पर बैठै हैं, कुछ प्रवाह में दह-धंस रहे हैं, डूब रहे हैं। बड़ा मनोरम दृश्य है। मंत्री जी कह रहे हैं - आ हा हा! कितना सुंदर दृश्य है। वाइफ को भी साथ लाना चाहिए था। यह व्यंगचित्र है। साल-दर-साल डूबते गांवों की प्रलय-लीला। गांवों की नियति पर व्यंग्यचित्र। मीठा परिहास। विख्यात कथाकार फणीश्वरनाथ रेणु ने कोसी पर आजादी के पहले ही एक रिपोर्ताज लिखा था - डायन कोसी! डायन भी कोसी नदी।
कोसी डैम बन गया। भीमनगर बराज। कोसी अंचल में नहरों का जाल बिछ गया। लेकिन हुआ क्या। मेरा गांव उसी कोसी अंचल में है। नहरें फेल हो गईं। बेकाम। डिस्ट्रीब्यूटरी नहरों में बालू ही बालू। ‘भथ’ गई नहरें। लाखों एकड़ जमीन नहरों की खुदाई में बर्बाद हुई सो अलग। और बाढ़ साल-दर-साल बढ़ती रही। एक कोसी नदी पर डैम बनाने से क्या होगा। कमला-बलान, बूढ़ी गंडक, बागमती, महानंदा, बलुआही, बैती, नून, अधवारा समूह की नदियां। और सबसे बड़ी गंगा नदी।
जबसे होश हुआ, देखता ही आ रहा हूं क्रमशः बढ़ती हुई बाढ़ की विभीषिका। टूटते जाते हैं तटबंध - नदियों के भी, परिवार-समाज के भी। सब तरफ सिर्फ टूटन ही टूटन, बनते हैं, फिर टूटते हैं। शायद टूटने के लिए ही बनते हैं तटबंध। सन सत्तासी की बाढ़ की याद है। दरभंगा के सीएम काॅलेज से सटकर बहने वाली बागमती के उस पार का अपना टीचर्स फ्लैट। बाजितपुर मोहल्ले और गांव में ऊब-डूब पानी। ग्राउंड फ्लोर के मेरे फ्लैट में खिड़की तक डूबी हुई। हफ्तेभर परिवार के साथ बिल्डिंग की छत पर। पहली बार मैंने देखा कि उस भयंकर बाढ़ में नदी में प्रवाह नहीं था। पानी स्थिर-सा जैसे तालाब या सरोवर हो। प्रवाह तो तब होता न जब पानी का निकास होता।
आधी रात में मलाहटोली में किसी घर की छत पर अकेला छूट गया कुत्ता रोता है- हू....ऊ...ऊ...। कुत्ते के रोने की आवाज। करुण-क्रंदन! सन्नाटे से भरी रात। मैं कांप गया था। कुत्ते का रोना सुनकर। तीसरे या चौथे दिन छत से उतरकर अपना कमरा देखने गया। पेट तक पानी- एकदम स्थिर, जैसे बाढ़ का पानी न हो किसी बर्तन में रखा हो। छिपकलियां एक जगह सिमट, डरी-सहमी दीवार के एक कोने से चिपकी थीं, मकड़ों की जालों के पास। लेकिन मेरे आश्चर्य का ठिकाना न रहा जब बरामदे के बाहर बड़े-से तैरते हुए लकड़ी के कूडे़दान में झांककर देखा। भींगे हुए छछुंदर, चूहे... थर-थर कांपते हुए और उसी कूड़ेदान में एक सांप। सांप-छछुंदर के विषय में सुनी गई सारी कहावतें, जनश्रुतियां इस वक्त अर्थहीन हो गई थीं। क्या प्राण-रक्षा की कोशिश में जीव-जंतु भी अपनी शत्रुता भूल जाते हैं। ... मैं डर गया था देखकर। बरामदे के नीचे ऊब-डूब पानी। बचपन का खेल याद आया: घोघे रानी, कितना पानी?... इतना पानी... इतना पानी।...
वैसे तो हर साल ‘पावन तिरहुत देस’ में बाढ़ आती है। हर साल डूबते हैं गांव के गांव, कस्बे, शहर। हर साल बहती हैं रेल पटरियां, सड़कें-पगडंडियां। अकाल मृत्यु। पशुओं की संख्या बहुत घट जाती है। सत्तासी के बाद दूसरी बार ऐसी भीषण बाढ़ आई है। पहले से बहुत ज्यादा विनाशकारी। महाकवि विद्यापति के समय शायद नहीं आती होगी ऐसी बाढ़, अन्यथा शृंगार और भक्ति के बीच बाढ़ की विभीषिका के भी पद जरूर होते। कोसी, कमला-बलान, गंडक, बागमती और गंगा तो उनके समय में भी थीं।
मेरे एक मित्र ने कोसी अंचल की नदियों से जुड़ी लोकगाथाओं पर एक किताब लिखी है - नदियां गाती हैं। बाढ़ की हर साल बढ़ रही विभीषिका देखकर मन में आता है, एक और किताब लिखी जाए - नदियां रोती हैं। नदियों को लेकर जाने कितनी लोककथाएं, लोकगाथाएं और लोकगीत बिखरे हुए हैं कोसी अंचल में। नदियों के प्रवाह में डूबे गांव-घर के दुखों को लेकर न जाने कितने गीत हैं मिथिलांचल में। माटी के लोग सोने की नैया वाली गीत-कथाओं में नदी-माताओं से रक्षा की मनौतियां ही तो हैं। सौ मन सेनुरा चढै़बो मैया कोसिका।... सोचता हूं, सारी नदियां नारियां ही क्यों हैं? फिर मन में आता है, अंततः सारी नदियां सागर में ही समाहित होती हैं। फिर वही नारी-पुरुष प्रतीक-कथा की आदिम ग्रंथि।...
मिथिला के उत्तरी सीमांत की तरफ एक ‘नद’ है - बुढ़नद। कथा है कि सांवली-सलोनी कोसी पर आसक्त हो गया था बुढ़नद। वह कोसी से ब्याह करना चाहता था। कहां तो सांवली मदमाती कोसी, कहां बूढ़ा नद। कोसी ने बूढ़नद से कहा - सावन भादों में विवाह का लग्न तो होता नहीं। वैशाख-जेठ में बारात लेकर आना, मैं प्रस्तुत रहूंगी। लेकिन बैशाख-जेठ में तो सूख जाता है नद। ब्याह होगा कैसे? बुढ़नद आज भी अपनी किस्मत पर रो रहा है।
लेकिन इस वक्त जब सारा मिथिलांचल बाढ़ में डूबा है, लोग बेहाल-हताश हैं, मृत्यु का ग्राफ बढ़ रहा है, मैं पटना के अपने आरामदेह कमरे में बैठकर यह आलेख लिख रहा हूं। सोच-सोचकर बेचैन हूं कि मेरा वह टीचर्स फ्लैट जिसमें सन सत्तासी की बाढ़ में पेट तक पानी था, इस बाढ़ में पानी कहां तक पहुंचा होगा। मेरी किताबें, पांडुलिपियां, पत्र-पत्रिकाएं, माल-असबाब सब जल-देवता को समर्पित हो चुके होंगे। फोन से संपर्क नहीं, मोबाइल भी फेल।...
जुलाई: 2004
हिमगिरि के उत्तुंग शिखर पर बैठ शिला की शीतल छांह।
एक पुरुष भीगे नयनों से देख रहा था प्रलय-प्रवाह।
महानगरों के लोग बड़े कौतुक से टी वी पर देखते हैं, बाढ़ में डूबे गांवों के दृश्य। चेहरों पर मुस्कान की हल्की-सी रेखा फैल जाती है। पानी ही पानी। डूबी सड़कें, डूबे घर, पेड़-पौधे... कोसों कोस जलमग्न धरती। बाढ़ में डूबकर मरने वालों की रोज-रोज बढ़ती संख्या। विनाश का ऊंचा उठता ग्राफ। छतों पर, टूटे तटबंधों - टीलों पर भूखे-प्यासे लोग। स्त्रियां, बच्चे। अखबारों में हम फोटो देखते हैं।
अखबार मेरे सामने है। गंगा उस पार दरभंगा, मधुबनी, समस्तीपुर, रोसड़ा, बेगूसराय, खगड़िया, कटिहार, पूर्णिया, सीतामढ़ी में बाढ़ की विभीषिका की खबरें हैं। पिछले दस-बारह दिनों से लगातार छप रही हैं ये खबरें। बाढ़ के पानी के साथ खबरों का दायरा भी बढ़ता गया है, बढ़ता जा रहा है।
दिल दहलाने वाली बाढ़ की खबरें। सोचता हूं, गाय, बैल, भैंस... भेड़ों, बकरियों, कुत्तों, बिल्लियों की खबरें तो कहीं नहीं हैं। शायद मुख्य है आदमी। पशुओं की क्या अहमियत! लेकिन ये पशु भी तो मनुष्यों के परिवारों के मूक सदस्य हैं। इनका तो कोई जिक्र नहीं मिलता। क्या हुआ होगा इनका? सांप, छछुंदर, चूहे...।
सारी प्राकृतिक आपदाएं, गांवों, कस्बों, छोटे शहरों में ही क्यों कहर ढाती हैं? क्यों महानगरों के लिए कौतुक के विषय बनते हैं हाशिये के लोग? अखबार में छपे एक कार्टून पर नजर गई है, जिसमें हेलीकाॅप्टर से कोई मंत्री बाढ़ का मुआयना कर रहे हैं। मंत्री जी हेलीकाॅप्टर से नीचे देखते हैं। कुछ लोग अपनी जान बचाने के लिए पेड़ों से लटके हैं, कुछ घरों की मुंडेरों पर बैठै हैं, कुछ प्रवाह में दह-धंस रहे हैं, डूब रहे हैं। बड़ा मनोरम दृश्य है। मंत्री जी कह रहे हैं - आ हा हा! कितना सुंदर दृश्य है। वाइफ को भी साथ लाना चाहिए था। यह व्यंगचित्र है। साल-दर-साल डूबते गांवों की प्रलय-लीला। गांवों की नियति पर व्यंग्यचित्र। मीठा परिहास। विख्यात कथाकार फणीश्वरनाथ रेणु ने कोसी पर आजादी के पहले ही एक रिपोर्ताज लिखा था - डायन कोसी! डायन भी कोसी नदी।
कोसी डैम बन गया। भीमनगर बराज। कोसी अंचल में नहरों का जाल बिछ गया। लेकिन हुआ क्या। मेरा गांव उसी कोसी अंचल में है। नहरें फेल हो गईं। बेकाम। डिस्ट्रीब्यूटरी नहरों में बालू ही बालू। ‘भथ’ गई नहरें। लाखों एकड़ जमीन नहरों की खुदाई में बर्बाद हुई सो अलग। और बाढ़ साल-दर-साल बढ़ती रही। एक कोसी नदी पर डैम बनाने से क्या होगा। कमला-बलान, बूढ़ी गंडक, बागमती, महानंदा, बलुआही, बैती, नून, अधवारा समूह की नदियां। और सबसे बड़ी गंगा नदी।
जबसे होश हुआ, देखता ही आ रहा हूं क्रमशः बढ़ती हुई बाढ़ की विभीषिका। टूटते जाते हैं तटबंध - नदियों के भी, परिवार-समाज के भी। सब तरफ सिर्फ टूटन ही टूटन, बनते हैं, फिर टूटते हैं। शायद टूटने के लिए ही बनते हैं तटबंध। सन सत्तासी की बाढ़ की याद है। दरभंगा के सीएम काॅलेज से सटकर बहने वाली बागमती के उस पार का अपना टीचर्स फ्लैट। बाजितपुर मोहल्ले और गांव में ऊब-डूब पानी। ग्राउंड फ्लोर के मेरे फ्लैट में खिड़की तक डूबी हुई। हफ्तेभर परिवार के साथ बिल्डिंग की छत पर। पहली बार मैंने देखा कि उस भयंकर बाढ़ में नदी में प्रवाह नहीं था। पानी स्थिर-सा जैसे तालाब या सरोवर हो। प्रवाह तो तब होता न जब पानी का निकास होता।
आधी रात में मलाहटोली में किसी घर की छत पर अकेला छूट गया कुत्ता रोता है- हू....ऊ...ऊ...। कुत्ते के रोने की आवाज। करुण-क्रंदन! सन्नाटे से भरी रात। मैं कांप गया था। कुत्ते का रोना सुनकर। तीसरे या चौथे दिन छत से उतरकर अपना कमरा देखने गया। पेट तक पानी- एकदम स्थिर, जैसे बाढ़ का पानी न हो किसी बर्तन में रखा हो। छिपकलियां एक जगह सिमट, डरी-सहमी दीवार के एक कोने से चिपकी थीं, मकड़ों की जालों के पास। लेकिन मेरे आश्चर्य का ठिकाना न रहा जब बरामदे के बाहर बड़े-से तैरते हुए लकड़ी के कूडे़दान में झांककर देखा। भींगे हुए छछुंदर, चूहे... थर-थर कांपते हुए और उसी कूड़ेदान में एक सांप। सांप-छछुंदर के विषय में सुनी गई सारी कहावतें, जनश्रुतियां इस वक्त अर्थहीन हो गई थीं। क्या प्राण-रक्षा की कोशिश में जीव-जंतु भी अपनी शत्रुता भूल जाते हैं। ... मैं डर गया था देखकर। बरामदे के नीचे ऊब-डूब पानी। बचपन का खेल याद आया: घोघे रानी, कितना पानी?... इतना पानी... इतना पानी।...
वैसे तो हर साल ‘पावन तिरहुत देस’ में बाढ़ आती है। हर साल डूबते हैं गांव के गांव, कस्बे, शहर। हर साल बहती हैं रेल पटरियां, सड़कें-पगडंडियां। अकाल मृत्यु। पशुओं की संख्या बहुत घट जाती है। सत्तासी के बाद दूसरी बार ऐसी भीषण बाढ़ आई है। पहले से बहुत ज्यादा विनाशकारी। महाकवि विद्यापति के समय शायद नहीं आती होगी ऐसी बाढ़, अन्यथा शृंगार और भक्ति के बीच बाढ़ की विभीषिका के भी पद जरूर होते। कोसी, कमला-बलान, गंडक, बागमती और गंगा तो उनके समय में भी थीं।
मेरे एक मित्र ने कोसी अंचल की नदियों से जुड़ी लोकगाथाओं पर एक किताब लिखी है - नदियां गाती हैं। बाढ़ की हर साल बढ़ रही विभीषिका देखकर मन में आता है, एक और किताब लिखी जाए - नदियां रोती हैं। नदियों को लेकर जाने कितनी लोककथाएं, लोकगाथाएं और लोकगीत बिखरे हुए हैं कोसी अंचल में। नदियों के प्रवाह में डूबे गांव-घर के दुखों को लेकर न जाने कितने गीत हैं मिथिलांचल में। माटी के लोग सोने की नैया वाली गीत-कथाओं में नदी-माताओं से रक्षा की मनौतियां ही तो हैं। सौ मन सेनुरा चढै़बो मैया कोसिका।... सोचता हूं, सारी नदियां नारियां ही क्यों हैं? फिर मन में आता है, अंततः सारी नदियां सागर में ही समाहित होती हैं। फिर वही नारी-पुरुष प्रतीक-कथा की आदिम ग्रंथि।...
मिथिला के उत्तरी सीमांत की तरफ एक ‘नद’ है - बुढ़नद। कथा है कि सांवली-सलोनी कोसी पर आसक्त हो गया था बुढ़नद। वह कोसी से ब्याह करना चाहता था। कहां तो सांवली मदमाती कोसी, कहां बूढ़ा नद। कोसी ने बूढ़नद से कहा - सावन भादों में विवाह का लग्न तो होता नहीं। वैशाख-जेठ में बारात लेकर आना, मैं प्रस्तुत रहूंगी। लेकिन बैशाख-जेठ में तो सूख जाता है नद। ब्याह होगा कैसे? बुढ़नद आज भी अपनी किस्मत पर रो रहा है।
लेकिन इस वक्त जब सारा मिथिलांचल बाढ़ में डूबा है, लोग बेहाल-हताश हैं, मृत्यु का ग्राफ बढ़ रहा है, मैं पटना के अपने आरामदेह कमरे में बैठकर यह आलेख लिख रहा हूं। सोच-सोचकर बेचैन हूं कि मेरा वह टीचर्स फ्लैट जिसमें सन सत्तासी की बाढ़ में पेट तक पानी था, इस बाढ़ में पानी कहां तक पहुंचा होगा। मेरी किताबें, पांडुलिपियां, पत्र-पत्रिकाएं, माल-असबाब सब जल-देवता को समर्पित हो चुके होंगे। फोन से संपर्क नहीं, मोबाइल भी फेल।...
जुलाई: 2004
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Post By: Shivendra