प्रकृति हमें वह सबकुछ प्रदान करने में समर्थ है, जिसकी हमें सामान्य तौर पर आवश्यकता पड़ती है। अनादिकाल से प्रकृति पर विजय पा लेने की आकांक्षा आधुनिक विज्ञान युग में हमें फलीभूत होते दिखाई पडने लगी है। हमारे इस घमंड ने ही हमें विनाश के कगार पर ला खड़ा किया है। यह तो आने वाला समय ही बताएगा कि हम अपनी इस जिद को छोड़कर प्रकृति की छाया में मानवता को बचाना चाहते हैं या नहीं।स्तुशिल्पी प्रकृति से अत्यधिक प्रेरणा लेते हैं। उन्हें लम्बे पेडों से ऊँचे भवनों के बारे में सोचने में मदद मिली और उड़ने वाले चिडरा (डेगन लाय) से हेलिकॉप्टर बनाने की प्रेरणा मिली थी। हमारी अधिकांश उपलब्धियाँ प्रकृति से हैं परंतु हम यह समझ ही नहीं पाते। सक्रिय कार्यकर्ता, दार्शनिक और रचनाशील जेनी बेनीयस ने यह अपना मिशन ही बना लिया है कि बताया जाए कि हम प्रकृति से क्या-क्या लेते हैं। उन्होंने तथा अन्य वैज्ञानिकों ने अमेरिका के मोन्टाना में ‘बायो मिमिकरी इंस्टिट्यूट‘ (जैव नकल संस्थान) के माध्यम से प्रकृति के सिद्धान्त पर आधारित बनी वस्तुओं के बारे में पुनः सीखने का उपक्रम प्रारंभ भी कर दिया है। बेनीयस का विचार है कि प्रकृति के अवलोकन तथा उन्हें समझने और इन प्रक्रियाओं और डिजाइनों की नकल करने से मनुष्यों की बहुत सारी समस्याएं हमेशा के लिए दूर हो जाएगीं। वे इसे ‘जैविक नकल‘ का नाम देती हैं।
जैविक नकल का सार भी जीवन की नकल और उसका प्रदर्शन ही है। सूर्य का उदय होना शुरुआत को दर्शाता है और फूल का खिलना, जीवन का प्रारंभ है। तितलियाँ और चिड़ियाएं अपने पंखों को धीमे-धीमे से हिलाकर उसे चरम पर पहुंचाकर आकाश में उड़ जाती हैं, हमने इन्हीं प्राणियों से सीखकर हवाई जहाज बनाया है। जैव नकल के मूल में कुछ सिद्धान्त हैं और ये सिद्धान्त ही सक्रिय हल निकालने को प्रेरित करते हैं। ‘अनुकूलता‘ की असमानता को समझना रुचिकर है। मनुष्य का अनुकूलता से अभिप्राय है बहुत थोड़े से अधिक से अधिक ले लेना। दूसरी तरफ प्रकृति का अनुकूलता का मार्ग है अपर्याप्तता और इन कमियों की प्रतिपूर्ति करना।
प्रकृति में सब कुछ अच्छा ही अच्छा नहीं होता। मृगशावक अपनी मां से बहुत दूर नहीं जाता अन्यथा वह किसी का शिकार बन जाएगा, मांसभक्षी लसदार पौधा अपने शिकार को पत्ती में पकड़ता है और छुई-मुई के पौधे को छूते ही इसकी पत्तियां मुरझाकर और नीचे की तरफ झुक कर बंद हो जाती हैं। इसके बाद इन्हें कितना भी छुएं इनमें कोई हलचल नहीं होती। यही प्रकृति की विविधता है। परंतु यह अत्यंत दुखद है कि 21 वीं सदी का मनुष्य एकरूपता को ही प्रोत्साहित कर रहा है।
जैविक नकल हमें प्रकृति के सबसे प्रभावशील से सीखने का मौका देती है। सोलर पेनल को वृक्ष की एक पत्ती के आधार पर बनाया गया है। इसकी जटिल संरचना सूर्य की ऊर्जा को हमारे कार्य में आने वाली ऊर्जा में परिवर्तित कर देती है। पत्ती में यह ऊर्जा भोजन के रूप में भंडार रहती है। वहीं सोलर पेनल में यह विद्युत ऊर्जा में परिवर्तित हो जाती है। मकड़ी बिना किसी प्रयत्न के अपना जाल बुनती है जो कि पृथ्वी का सबसे कठोर पदार्थ है। यह जाल ही बुलेटप्रूफ जैकेट का आधार है, जो कि ऐसे नकली पदार्थ से तैयार होता है जो कि मकड़ियों द्वारा जाले के रूप में हमारे सामने आए रेशम के धागे के समतुल्य होता है।
जापान की 300 कि.मी. प्रतिघंटे की रतार से चलने वाली शिकानसेन बुलेट ट्रेन अपने प्रांरभिक दौर में जब सुरंग से निकलती थी तो इतनी जोर से आवाज करती थी कि चौथाई मील दूर के निवासी समझ जाते थे कि ट्रेन सुरंग से गुजर रही है। इस शोर को कम करने की प्रक्रिया में एक इंजीनियर ईजिनाकात्सु को एकाएक किंगफिशर नामक पक्षी की याद हो आई, जो कि बिना कोई आवाज करे पानी में गोता लगा लेता है। उन्होंने रेल का अगला हिस्सा किंगफिशर को चोंच की तरह बनाया। इसके परिणामस्वरूप रेल की आवाज कम हो गई और ईंधन की खपत में 15 प्रतिशत की कमी आई बल्कि इसकी रफ्तार भी बढ़ गई।
भारत जैसे देशों में गर्मी के महीने बहुत गरम होते हैं। शहरों में कई लोग इस समस्या के तुरंत समाधान के लिए एयरकंडीशनर लगा लेते हैं। इससे ऊर्जा की खपत बढ़ जाती है। हम सौभाग्यशाली हैं कि प्रकृति ने इस समस्या से निपटने का शानदार तरीका हमें दिया हुआ है। इसका हल अफ्रीका में पाई जाने वाली दीमक की बांबी है। दीमक इसके अंदर का तापमान एक डिग्री सेल्सियस बनाए रखती है, भले ही बाहर का कितना ही तापमान हो। कई बार तापमान दिन में 42 डिग्री सेंटीग्रेड होता है तो रात में 3 डिग्री। लेकिन बांबी के अन्दर तापमान स्थिर बना रहता है। जैविक नकल की वेबसाइट के अनुसार हमारे भवन ही 40 प्रतिशत ऊर्जा का उपभोग कर लेते हैं। अतएव हमें ऐसे भवनों की आवश्यकता है जिनमें ऊर्जा का कम से कम उपयोग हो। जिम्बाब्वे के हरारे में स्थित भवन ईस्टगेट इसका बेहतरीन उदाहरण है। जिसमें इसी क्षेत्रफल के किसी अन्य भवन से 90 प्रतिशत कम ऊर्जा लगती है।
चिम्पांजिंयों का ध्यान से अवलोकन भी स्वास्थ्य के क्षेत्र में कार्य कर रहे समुदाय के लिए बहुत लाभदायक हो सकता है। चिम्पाजियों को स्थानीय पौधों का असाधारण ज्ञान होता है और बीमार पड़ने की स्थिति में वे विशिष्ट पेड़ से अपने लिए दवाई प्राप्त कर लेते हैं। वेरोना-जिनस नामक वृक्षों से चिम्पांजी जो दवाई लेते हैं उसमें वे रसायन होते हैं जो मनुष्य की आंतों में मिलने वाले हुकवर्म व पिनवर्म जैसे परजीवी कीटाणुओं को नष्ट करते हैं। ये घटनाएं हमें बताती हैं कि हम अक्सर यह भूल जाते हैं कि हमने जो भी खोजा है वह प्रकृति के सूक्ष्म अवलोकन का ही परिणाम है। हमारा यह मानना कि, ‘ताकतवर ही जिंदा रह सकता है या ‘जिसकी लाठी उसकी भैंस‘ प्रकृति के संदर्भ में एक गलत व्याख्या है। आज पर्यावरणविदों का कहना है कि प्रकृति में प्रतिस्पर्धा से कहीं अधिक आपसी सहयोग है। प्रकृति के कई पहलू हैं। हमें ताप एवं परमाणु विद्युत परियोजनाओं, तेलशोधक कारखानों और भूमि को एक ही तरह की फसल लगाकर प्रकृति को जीतने का प्रयास करने की बजाए प्रकृति से प्रेरणा लेने को प्रोत्साहित करना चाहिए।
जैविक नकल कोई नया विचार नहीं, बल्कि सिर्फ नई शब्दावली भर है। आवश्यकता इस बात की है कि लाखों-लाख वर्षों के जीवन से जो कुछ हम सीख सकते हैं, हमें सीखना चाहिए। जेनी बेनीयस ने इस संदर्भ बहुत सुंदर शब्द कहे हैं कि, ‘जैसे-जैसे हमारा विश्व व्यापकता से एक प्राकृतिक विश्व की तरह आगे बढ़ेगा। वैसे-वैसे हम हमारे इस ‘घर‘ पर यह मानते हुए और भी निर्भर होते जाएंगे, कि यह घर सिर्फ हमारा ‘नहीं‘ है।‘ (सप्रेस/थर्ड वर्ल्ड नेटवर्क फीचर्स)
जैविक नकल का सार भी जीवन की नकल और उसका प्रदर्शन ही है। सूर्य का उदय होना शुरुआत को दर्शाता है और फूल का खिलना, जीवन का प्रारंभ है। तितलियाँ और चिड़ियाएं अपने पंखों को धीमे-धीमे से हिलाकर उसे चरम पर पहुंचाकर आकाश में उड़ जाती हैं, हमने इन्हीं प्राणियों से सीखकर हवाई जहाज बनाया है। जैव नकल के मूल में कुछ सिद्धान्त हैं और ये सिद्धान्त ही सक्रिय हल निकालने को प्रेरित करते हैं। ‘अनुकूलता‘ की असमानता को समझना रुचिकर है। मनुष्य का अनुकूलता से अभिप्राय है बहुत थोड़े से अधिक से अधिक ले लेना। दूसरी तरफ प्रकृति का अनुकूलता का मार्ग है अपर्याप्तता और इन कमियों की प्रतिपूर्ति करना।
प्रकृति में सब कुछ अच्छा ही अच्छा नहीं होता। मृगशावक अपनी मां से बहुत दूर नहीं जाता अन्यथा वह किसी का शिकार बन जाएगा, मांसभक्षी लसदार पौधा अपने शिकार को पत्ती में पकड़ता है और छुई-मुई के पौधे को छूते ही इसकी पत्तियां मुरझाकर और नीचे की तरफ झुक कर बंद हो जाती हैं। इसके बाद इन्हें कितना भी छुएं इनमें कोई हलचल नहीं होती। यही प्रकृति की विविधता है। परंतु यह अत्यंत दुखद है कि 21 वीं सदी का मनुष्य एकरूपता को ही प्रोत्साहित कर रहा है।
जैविक नकल और वास्तविक जीवन
जैविक नकल हमें प्रकृति के सबसे प्रभावशील से सीखने का मौका देती है। सोलर पेनल को वृक्ष की एक पत्ती के आधार पर बनाया गया है। इसकी जटिल संरचना सूर्य की ऊर्जा को हमारे कार्य में आने वाली ऊर्जा में परिवर्तित कर देती है। पत्ती में यह ऊर्जा भोजन के रूप में भंडार रहती है। वहीं सोलर पेनल में यह विद्युत ऊर्जा में परिवर्तित हो जाती है। मकड़ी बिना किसी प्रयत्न के अपना जाल बुनती है जो कि पृथ्वी का सबसे कठोर पदार्थ है। यह जाल ही बुलेटप्रूफ जैकेट का आधार है, जो कि ऐसे नकली पदार्थ से तैयार होता है जो कि मकड़ियों द्वारा जाले के रूप में हमारे सामने आए रेशम के धागे के समतुल्य होता है।
जापान की 300 कि.मी. प्रतिघंटे की रतार से चलने वाली शिकानसेन बुलेट ट्रेन अपने प्रांरभिक दौर में जब सुरंग से निकलती थी तो इतनी जोर से आवाज करती थी कि चौथाई मील दूर के निवासी समझ जाते थे कि ट्रेन सुरंग से गुजर रही है। इस शोर को कम करने की प्रक्रिया में एक इंजीनियर ईजिनाकात्सु को एकाएक किंगफिशर नामक पक्षी की याद हो आई, जो कि बिना कोई आवाज करे पानी में गोता लगा लेता है। उन्होंने रेल का अगला हिस्सा किंगफिशर को चोंच की तरह बनाया। इसके परिणामस्वरूप रेल की आवाज कम हो गई और ईंधन की खपत में 15 प्रतिशत की कमी आई बल्कि इसकी रफ्तार भी बढ़ गई।
भारत जैसे देशों में गर्मी के महीने बहुत गरम होते हैं। शहरों में कई लोग इस समस्या के तुरंत समाधान के लिए एयरकंडीशनर लगा लेते हैं। इससे ऊर्जा की खपत बढ़ जाती है। हम सौभाग्यशाली हैं कि प्रकृति ने इस समस्या से निपटने का शानदार तरीका हमें दिया हुआ है। इसका हल अफ्रीका में पाई जाने वाली दीमक की बांबी है। दीमक इसके अंदर का तापमान एक डिग्री सेल्सियस बनाए रखती है, भले ही बाहर का कितना ही तापमान हो। कई बार तापमान दिन में 42 डिग्री सेंटीग्रेड होता है तो रात में 3 डिग्री। लेकिन बांबी के अन्दर तापमान स्थिर बना रहता है। जैविक नकल की वेबसाइट के अनुसार हमारे भवन ही 40 प्रतिशत ऊर्जा का उपभोग कर लेते हैं। अतएव हमें ऐसे भवनों की आवश्यकता है जिनमें ऊर्जा का कम से कम उपयोग हो। जिम्बाब्वे के हरारे में स्थित भवन ईस्टगेट इसका बेहतरीन उदाहरण है। जिसमें इसी क्षेत्रफल के किसी अन्य भवन से 90 प्रतिशत कम ऊर्जा लगती है।
चिम्पांजिंयों का ध्यान से अवलोकन भी स्वास्थ्य के क्षेत्र में कार्य कर रहे समुदाय के लिए बहुत लाभदायक हो सकता है। चिम्पाजियों को स्थानीय पौधों का असाधारण ज्ञान होता है और बीमार पड़ने की स्थिति में वे विशिष्ट पेड़ से अपने लिए दवाई प्राप्त कर लेते हैं। वेरोना-जिनस नामक वृक्षों से चिम्पांजी जो दवाई लेते हैं उसमें वे रसायन होते हैं जो मनुष्य की आंतों में मिलने वाले हुकवर्म व पिनवर्म जैसे परजीवी कीटाणुओं को नष्ट करते हैं। ये घटनाएं हमें बताती हैं कि हम अक्सर यह भूल जाते हैं कि हमने जो भी खोजा है वह प्रकृति के सूक्ष्म अवलोकन का ही परिणाम है। हमारा यह मानना कि, ‘ताकतवर ही जिंदा रह सकता है या ‘जिसकी लाठी उसकी भैंस‘ प्रकृति के संदर्भ में एक गलत व्याख्या है। आज पर्यावरणविदों का कहना है कि प्रकृति में प्रतिस्पर्धा से कहीं अधिक आपसी सहयोग है। प्रकृति के कई पहलू हैं। हमें ताप एवं परमाणु विद्युत परियोजनाओं, तेलशोधक कारखानों और भूमि को एक ही तरह की फसल लगाकर प्रकृति को जीतने का प्रयास करने की बजाए प्रकृति से प्रेरणा लेने को प्रोत्साहित करना चाहिए।
जैविक नकल कोई नया विचार नहीं, बल्कि सिर्फ नई शब्दावली भर है। आवश्यकता इस बात की है कि लाखों-लाख वर्षों के जीवन से जो कुछ हम सीख सकते हैं, हमें सीखना चाहिए। जेनी बेनीयस ने इस संदर्भ बहुत सुंदर शब्द कहे हैं कि, ‘जैसे-जैसे हमारा विश्व व्यापकता से एक प्राकृतिक विश्व की तरह आगे बढ़ेगा। वैसे-वैसे हम हमारे इस ‘घर‘ पर यह मानते हुए और भी निर्भर होते जाएंगे, कि यह घर सिर्फ हमारा ‘नहीं‘ है।‘ (सप्रेस/थर्ड वर्ल्ड नेटवर्क फीचर्स)
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