स्वर्णरेखा एवं खड़कई नदी पर बन रहे बांध, बिजलीघर आदि को स्वर्णरेखा बहुउद्देशीय परियोजना का नाम दिया गया है। इसका प्रारंभ 1974 में हुआ था, जबकि इसकी लागत कुल 129 करोड़ ही थी। 81-82 में इसकी लागत 480 करोड़ हो गई और 94-95 तक जबकि इस बांध के पूर्ण होने का दावा किया जा रहा है इसकी लागत 1005 करोड़ तक पहुंच जाएगी। एक नाचता है और बाकी भीड़ होती है या तमाशबीन होते हैं, यह एक संस्कृति है। लेकिन एक-दूसरी संस्कृति है, जो मिटाई जा रही है। उसमें कोई दर्शक नहीं होता, तमाशबीन नहीं होता।
सभी नाचते हैं, स्त्री-पुरुष, बालक-बालिकाएं, युवक-युवतियां सभी। यह दूसरी संस्कृति जो विदेशी सभ्यताओं के आक्रमण के पूर्व हमारी मुख्य-धारा की अंग थी, अभी समाप्त नहीं हुई है।
बड़े बांधों के विरोध में 10 व 11 सितंबर 88 को झारखंड के हृदय-स्थल सिंहभूम के चाईबासा में जब सम्मेलन समाप्त हुआ तो देर अधिक हो जाने के कारण सुदूर ग्रामीण अंचलों के आदिवासी चाईबासा में ही रुक गए थे। जयप्रकाश के विचारों से प्रेरित ‘महिला संघर्ष वाहिनी’ की सुश्री अमरजीत कौर का इशारा पाकर लवे स्वयंस्फूर्त नाचने और गाने लगे और वाहिनी ने किसी को भी दर्शक बने नहीं रहने दिया।
सिंहभूम को कोल्हान क्षेत्र के रूप में भी जाना जाता है। इस क्षेत्र ने अंग्रेजों के खिलाफ ऐतिहासिक संघर्ष किए हैं और अपने स्वयं के प्रशासन की सामाजिक व्यवस्थाएं जिंदा रखी जो ‘मुंडा’, ‘मानकी’ प्रथाओं के नाम से जानी जाती है।
आजादी के बाद भी जब इस प्रथा पर आक्रमण हुआ तो उन्होंने विद्रोह किया और अपनी लोकतांत्रिक सामाजिक व्यवस्थाओं को बरकरार रखा। ऐसे क्षेत्र में सम्मेलन के दौरान जो निर्णय हुए हैं, उनका बड़े बांधों के खिलाफ चल रही लड़ाई में ऐतिहासिक महत्व है, क्योंकि इस क्षेत्र की संस्कृति में अपने हकों के लिए लड़ना एक स्वाभाविक प्रवृति है। सम्मेलन के दौरान पलामू के श्री मेघनाथ जब गा रहे थे-
‘मौत की देहलीज पर,
गाते रहे हैं लोग’
तो यह गीत असंगत नहीं लग रहा था। साफ दिखाई दे रहा था कि यह गीत वही कह रहा था जो इस क्षेत्र का इतिहास कहता आया है या वह जो इस क्षेत्र के गंगाराम कलौंजिया जैसे लोग अपनी शहादत देकर कहते आए हैं।
सम्मेलन में लोगों ने तय किया कि हम उपरोक्त क्षेत्र में स्वर्णरेखा और खड़कई नदियों पर बन रहे बड़े बांधों को किसी भी कीमत पर बंधने नहीं देंगे। इसके लिए कार्यक्रम बनाते हुए मुख्य रूप से यह तय हुआ कि जो इन बांधों को समर्थन करेंगे उन्हें वोट नहीं मिलना चाहिए। गांव-गांव में सभाएं करके एक लाख हस्ताक्षर तथा एक लाख का अनाज या धन एकत्रित किया जाएगा।
इसके अलावा चांडिल में जहां स्वर्णरेखा नदी पर बांध बन रहा है एक माह तक सिंचाई विभाग के समक्ष धरना दिया जाएगा। इन कार्यक्रमों के बाद जनवरी 89 में जिला मुख्यालय चाईबासा में एक विराट प्रदर्शन होगा जिसमें बड़े बांध ही नहीं संपूर्ण विकास-पद्धति को ही बदलने का आग्रह होगा।
ज्ञातव्य है कि बड़े बांधों के विरोध में पिछली जुलाई के प्रथम सप्ताह में देश के जाने-पहचाने वैज्ञानिक, समाजशास्त्री, पत्रकार, मैदानी कार्यकर्ता एवं पर्यावरण शास्त्री बाबा आमटे की कर्मस्थली आनंद वन में एकत्रित हुए थे। अपने नाजुक स्वास्थ्य के बावजूद बाबा आमटे ने बड़े बांधों के विरोध का बीड़ा उठाया है।
चाईबासा में हुआ उपर्युक्त सम्मेलन इसी की एक कड़ी था। जिसमें श्री मोहनकुमार ने केरल में बड़े बांधों के खिलाफ चल रहे संघर्ष का, श्री चंद्रशेखर ने आंध्र प्रदेश के संघर्ष, श्री विकास आमटे ने महाराष्ट्र का और मेधा पाटकर एवं सतीनाथ षंड़गी ने सरदार सरोवर एवं नर्मदा सागर बांध के विरोध में चल रहे संघर्ष का ब्यौरा दिया।
मेधा ने पुनर्स्थापन की खोखली योजनाओं का जिक्र करते हुए बताया कि उनके क्षेत्र में एक एकड़ का मुआवजा कुल 46 रुपए ही मिला है। बिहार के भिन्न-भिन्न हिस्सों से आए कार्यकर्ताओं ने अन्य बड़े बांधों के विरोध में चल रहे संघर्षों का जिक्र किया।
सम्मेलन में हुई चर्चाओं का मुख्य मुद्दा था कि ये बांध सिंचाई के नाम पर बिजली के लिए बनाए जा रहे हैं, ताकि शहरी एवं औद्योगिक आवश्यकताओं की पूर्ति हो सके। स्वर्णरेखा और खड़कई पर बनाए जा रहे बांधों का उदाहरण देते हुए आंकड़ों सहित यह बताया गया कि इससे मुख्य रूप से जमशेदपुर तथा टिस्को औद्योगिक संस्थान एवं शहरों को पीने के पानी का लाभ मिलेगा।
कुल बजट का एक तिहाई हिस्सा केवल बड़े बांधों पर ही खर्च हो जाने से सिंचाई के तथा पानी के उचित प्रबंध के अन्य अधिक उपयोगी कार्यक्रम ठंडे बस्ते में पड़े रहते हैं। सभी वक्ताओं ने अपने-अपने संघर्षों का ब्यौरा देते हुए यही बतलाया कि ‘राष्ट्रहित’ और ‘विकास’ के नाम पर जिन लाखों लोगों की बलि दी जाती है, वे दर-दर ही भटकते रहते हैं और लाभ अन्य लोग उठाते हैं। सम्मेलन में कोल्हान क्षेत्र की स्वायत सभ्यता की चर्चा बार-बार चली और यह कहा गया कि ऐसे क्षेत्र में बिना लोगों की सहमति के बांध कैसे बन सकते हैं?
स्वर्णरेखा एवं खड़कई नदी पर बन रहे बांध, बिजलीघर आदि को स्वर्णरेखा बहुउद्देशीय परियोजना का नाम दिया गया है। इसका प्रारंभ 1974 में हुआ था, जबकि इसकी लागत कुल 129 करोड़ ही थी। 81-82 में इसकी लागत 480 करोड़ हो गई और 94-95 तक जबकि इस बांध के पूर्ण होने का दावा किया जा रहा है इसकी लागत 1005 करोड़ तक पहुंच जाएगी।
सरकार की ओर से यह दावा किया गया है कि इस योजना से बिहार, उड़ीसा और पश्चिमी बंगाल की 2.50 लाख एकड़ भूमि की सिंचाई होगी तथा सिंहभूम जिले के कस्बों तथा शहरों एवं औद्योगिक संस्थानों की पानी की आवश्यकता की पूर्ति होगी।
यह भी कहा गया है कि उड़ीसा और पश्चिमी बंगाल में आने वाली बाढ़ की रोकथाम होगी। केवल स्वर्णरेखा पर बन रहे बांध में ही 43,500 एकड़ जमीन से लोगों को बेदखल किया जाएगा तथा खड़कई पर बंध रहे बांध में 31,500 एकड़ जमीन डूब में आएगी परियोजना से कुल मिलाकर 70.000 लोग विस्थापित होंगे।
उपर्युक्त सम्मेलन का आयोजन ‘झारखंड मुक्ति आंदोलन’, ‘ईचा-खड़काई विस्थापित संघ’, ‘कोल्हान रक्षा संघ’ एवं ‘महिला संघर्ष वाहिनी’ तथा ‘लोकजागृति केंद्र’ ने संयुक्त रूप से किया था।
साभार-सर्वोदय प्रेस सर्विस , प्रस्तुत लेख 03 फरवरी 1995 में छपी स्व. ओमप्रकाश रावल स्मृति निधि पुस्तक से
सभी नाचते हैं, स्त्री-पुरुष, बालक-बालिकाएं, युवक-युवतियां सभी। यह दूसरी संस्कृति जो विदेशी सभ्यताओं के आक्रमण के पूर्व हमारी मुख्य-धारा की अंग थी, अभी समाप्त नहीं हुई है।
बड़े बांधों के विरोध में 10 व 11 सितंबर 88 को झारखंड के हृदय-स्थल सिंहभूम के चाईबासा में जब सम्मेलन समाप्त हुआ तो देर अधिक हो जाने के कारण सुदूर ग्रामीण अंचलों के आदिवासी चाईबासा में ही रुक गए थे। जयप्रकाश के विचारों से प्रेरित ‘महिला संघर्ष वाहिनी’ की सुश्री अमरजीत कौर का इशारा पाकर लवे स्वयंस्फूर्त नाचने और गाने लगे और वाहिनी ने किसी को भी दर्शक बने नहीं रहने दिया।
सिंहभूम को कोल्हान क्षेत्र के रूप में भी जाना जाता है। इस क्षेत्र ने अंग्रेजों के खिलाफ ऐतिहासिक संघर्ष किए हैं और अपने स्वयं के प्रशासन की सामाजिक व्यवस्थाएं जिंदा रखी जो ‘मुंडा’, ‘मानकी’ प्रथाओं के नाम से जानी जाती है।
आजादी के बाद भी जब इस प्रथा पर आक्रमण हुआ तो उन्होंने विद्रोह किया और अपनी लोकतांत्रिक सामाजिक व्यवस्थाओं को बरकरार रखा। ऐसे क्षेत्र में सम्मेलन के दौरान जो निर्णय हुए हैं, उनका बड़े बांधों के खिलाफ चल रही लड़ाई में ऐतिहासिक महत्व है, क्योंकि इस क्षेत्र की संस्कृति में अपने हकों के लिए लड़ना एक स्वाभाविक प्रवृति है। सम्मेलन के दौरान पलामू के श्री मेघनाथ जब गा रहे थे-
‘मौत की देहलीज पर,
गाते रहे हैं लोग’
तो यह गीत असंगत नहीं लग रहा था। साफ दिखाई दे रहा था कि यह गीत वही कह रहा था जो इस क्षेत्र का इतिहास कहता आया है या वह जो इस क्षेत्र के गंगाराम कलौंजिया जैसे लोग अपनी शहादत देकर कहते आए हैं।
सम्मेलन में लोगों ने तय किया कि हम उपरोक्त क्षेत्र में स्वर्णरेखा और खड़कई नदियों पर बन रहे बड़े बांधों को किसी भी कीमत पर बंधने नहीं देंगे। इसके लिए कार्यक्रम बनाते हुए मुख्य रूप से यह तय हुआ कि जो इन बांधों को समर्थन करेंगे उन्हें वोट नहीं मिलना चाहिए। गांव-गांव में सभाएं करके एक लाख हस्ताक्षर तथा एक लाख का अनाज या धन एकत्रित किया जाएगा।
इसके अलावा चांडिल में जहां स्वर्णरेखा नदी पर बांध बन रहा है एक माह तक सिंचाई विभाग के समक्ष धरना दिया जाएगा। इन कार्यक्रमों के बाद जनवरी 89 में जिला मुख्यालय चाईबासा में एक विराट प्रदर्शन होगा जिसमें बड़े बांध ही नहीं संपूर्ण विकास-पद्धति को ही बदलने का आग्रह होगा।
ज्ञातव्य है कि बड़े बांधों के विरोध में पिछली जुलाई के प्रथम सप्ताह में देश के जाने-पहचाने वैज्ञानिक, समाजशास्त्री, पत्रकार, मैदानी कार्यकर्ता एवं पर्यावरण शास्त्री बाबा आमटे की कर्मस्थली आनंद वन में एकत्रित हुए थे। अपने नाजुक स्वास्थ्य के बावजूद बाबा आमटे ने बड़े बांधों के विरोध का बीड़ा उठाया है।
चाईबासा में हुआ उपर्युक्त सम्मेलन इसी की एक कड़ी था। जिसमें श्री मोहनकुमार ने केरल में बड़े बांधों के खिलाफ चल रहे संघर्ष का, श्री चंद्रशेखर ने आंध्र प्रदेश के संघर्ष, श्री विकास आमटे ने महाराष्ट्र का और मेधा पाटकर एवं सतीनाथ षंड़गी ने सरदार सरोवर एवं नर्मदा सागर बांध के विरोध में चल रहे संघर्ष का ब्यौरा दिया।
मेधा ने पुनर्स्थापन की खोखली योजनाओं का जिक्र करते हुए बताया कि उनके क्षेत्र में एक एकड़ का मुआवजा कुल 46 रुपए ही मिला है। बिहार के भिन्न-भिन्न हिस्सों से आए कार्यकर्ताओं ने अन्य बड़े बांधों के विरोध में चल रहे संघर्षों का जिक्र किया।
सम्मेलन में हुई चर्चाओं का मुख्य मुद्दा था कि ये बांध सिंचाई के नाम पर बिजली के लिए बनाए जा रहे हैं, ताकि शहरी एवं औद्योगिक आवश्यकताओं की पूर्ति हो सके। स्वर्णरेखा और खड़कई पर बनाए जा रहे बांधों का उदाहरण देते हुए आंकड़ों सहित यह बताया गया कि इससे मुख्य रूप से जमशेदपुर तथा टिस्को औद्योगिक संस्थान एवं शहरों को पीने के पानी का लाभ मिलेगा।
कुल बजट का एक तिहाई हिस्सा केवल बड़े बांधों पर ही खर्च हो जाने से सिंचाई के तथा पानी के उचित प्रबंध के अन्य अधिक उपयोगी कार्यक्रम ठंडे बस्ते में पड़े रहते हैं। सभी वक्ताओं ने अपने-अपने संघर्षों का ब्यौरा देते हुए यही बतलाया कि ‘राष्ट्रहित’ और ‘विकास’ के नाम पर जिन लाखों लोगों की बलि दी जाती है, वे दर-दर ही भटकते रहते हैं और लाभ अन्य लोग उठाते हैं। सम्मेलन में कोल्हान क्षेत्र की स्वायत सभ्यता की चर्चा बार-बार चली और यह कहा गया कि ऐसे क्षेत्र में बिना लोगों की सहमति के बांध कैसे बन सकते हैं?
स्वर्णरेखा एवं खड़कई नदी पर बन रहे बांध, बिजलीघर आदि को स्वर्णरेखा बहुउद्देशीय परियोजना का नाम दिया गया है। इसका प्रारंभ 1974 में हुआ था, जबकि इसकी लागत कुल 129 करोड़ ही थी। 81-82 में इसकी लागत 480 करोड़ हो गई और 94-95 तक जबकि इस बांध के पूर्ण होने का दावा किया जा रहा है इसकी लागत 1005 करोड़ तक पहुंच जाएगी।
सरकार की ओर से यह दावा किया गया है कि इस योजना से बिहार, उड़ीसा और पश्चिमी बंगाल की 2.50 लाख एकड़ भूमि की सिंचाई होगी तथा सिंहभूम जिले के कस्बों तथा शहरों एवं औद्योगिक संस्थानों की पानी की आवश्यकता की पूर्ति होगी।
यह भी कहा गया है कि उड़ीसा और पश्चिमी बंगाल में आने वाली बाढ़ की रोकथाम होगी। केवल स्वर्णरेखा पर बन रहे बांध में ही 43,500 एकड़ जमीन से लोगों को बेदखल किया जाएगा तथा खड़कई पर बंध रहे बांध में 31,500 एकड़ जमीन डूब में आएगी परियोजना से कुल मिलाकर 70.000 लोग विस्थापित होंगे।
उपर्युक्त सम्मेलन का आयोजन ‘झारखंड मुक्ति आंदोलन’, ‘ईचा-खड़काई विस्थापित संघ’, ‘कोल्हान रक्षा संघ’ एवं ‘महिला संघर्ष वाहिनी’ तथा ‘लोकजागृति केंद्र’ ने संयुक्त रूप से किया था।
साभार-सर्वोदय प्रेस सर्विस , प्रस्तुत लेख 03 फरवरी 1995 में छपी स्व. ओमप्रकाश रावल स्मृति निधि पुस्तक से
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