सिंगापुर: आदर्श देश का जल प्रबंधन

जल प्रबंधन के क्षेत्र में सिंगापुर पूरे विश्व में एक उदाहरण है। इससे भारत भी सबक ले सकता है क्योंकि वह अपने यहां के पानी स्रोतों की सफाई और पानी के भंडारण पर बहुत ही कम ध्यान देता है। इसके बजाय वह दूर स्थित जलाशयों से पानी की आपूर्ति करने में अधिक विश्वास रखता है।

एक शहर- राष्ट्र जिसके पास न तो कोई प्राकृतिक जल इकाई है, बहुत सीमित मात्रा में भूजल उपलब्ध है और इतनी भूमि भी उसके पास नहीं है कि वह बरसात के पानी का भंडारण कर सके, उसके सामने आज यह प्रश्न है कि वह अपनी 50 लाख की आबादी की प्यास को कैसे बुझाएं? दक्षिण पूर्वी एशियाई देश सिंगापुर का जोहार नदी (अब मलेशिया का हिस्सा) से जुड़ा 50 वर्ष पुराना अनुबंध अभी-अभी (सितम्बर में) समाप्त हुआ है। गौरतलब है कि सिंगापुर अपनी कुल जल आपूर्ति का 40 प्रतिशत पड़ोसी देश मलेशिया से आयात करता है। आयातित पानी का मूल्य बहुत ही कम है क्योंकि मलेशिया ने पिछले पांच दशकों में पानी के दाम ही नहीं बढ़ाए। अन्य सभी स्रोतों के मुकाबले यह सबसे सस्ता है और इसका मूल्य प्रति 1000 लीटर पानी के लिए मात्र एक सिंगापुर सेंट के बराबर है। जबकि सिंगापुर इसके बदले अपने नागरिकों से एक डॉलर (भारतीय मुद्रा में रुपए 37.61) से भी अधिक वसूल करता है।

सिंगापुर की राष्ट्रीय जल एजेंसी, पब्लिक यूटिलिटी बोर्ड (पीयूबी) सन् 2060 तक पानी की मांग की स्वयं पूर्ति कर पाने हेतु चौबीसों घंटे कार्य कर रही है। इसका लक्ष्य है कि वह सिंगापुर की मलेशिया पर पानी की निर्भरता को सिर्फ कम ही न करे बल्कि उसे समाप्त भी कर दे। इस हेतु उसने जल प्राप्ति के लिए तीन पद्धतियों पर कार्य करने का निश्चय किया है। ये हैं- गंदे पानी का पुनः शुद्धिकरण, समुद्री जल का खार कम करना और वर्षा जल का अधिकतम संग्रह।

शुद्धिकरण की प्रक्रिया


सिंगापुर में प्रतिवर्ष औसतन 2400 मिलीमीटर वर्षा होती है जो कि कुल वैश्विक औसत से दुगुनी है। इसके बावजूद यहां पानी की कमी का कारण है भंडारण के लिए स्थान की कमी। अतः पीयूबी व्यापक निवेश कर महंगे जलस्रोत विकसित कर रहा है। सन् 1970 के दशक में सिंगापुर ने गंदे जल का पुर्नशोधन प्रारंभ कर दिया था। इस हेतु एक पायलट परियोजना प्रारंभ की गई थी जिसके माध्यम से सीवर के पानी को पुनः पीने योग्य बनाने का कार्य किया जाना था। बाद में सीवर का ऐसा नेटवर्क तैयार किया गया जिससे कि पानी के समुद्र में जाने के बजाए उसका पुनः इस्तेमाल किया जा सके लेकिन अत्यधिक लागत की वजह से तब वह परियोजना आकार नहीं ले सकी। तकनीक के विकास के साथ शोधन की लागत में भी कमी आई। सन् 2002 में एक सीवर शोधन संयंत्र से प्राप्त पानी को 30 सेंट प्रति 1000 लीटर के हिसाब से आधुनिकतम तकनीक के माध्यम से साफ कर लिया गया तथा इसे ‘न्यू वाटर’ नाम दिया गया।

पीयूबी ने 5 संयंत्र स्थापित किए जो कि तकरीबन डिस्टिल वाटर की गुणवत्ता का 53 करोड़ लीटर पानी निर्मित करते हैं। इसका 95 प्रतिशत इस्तेमाल सूचना तकनीक उद्योग करता है जिसे शुद्धतम पानी की आवश्यकता होती है। बचा हुआ पानी जलाशय में मिला दिया जाता है। हालांकि दोनों देश नए समझौते के लिए निरंतर चर्चारत हैं लेकिन पीयूबी ने 2005 में एक नया ‘राष्ट्रीय नल’ समुद्र के खारे पानी की शुद्धिकरण के माध्यम से खोल दिया है। यह सबसे खर्चीला है और इस पर प्रति हजार लीटर 78 सेंट खर्च आता है। परंतु सिंगापुर मलेशिया की राजनीतिक पकड़ से बचे रहने के लिए बड़ी राशि खर्च करने को भी तैयार है।

पीयूबी द्वारा 20 करोड़ अमेरिकी डॉलर की लागत से स्थापित यह संयंत्र एक दिन में 13.50 करोड़ लीटर समुद्री जल का शोधन कर सकता है। सन् 2013 तक और एक नया संयंत्र भी शुरु हो जाएगा जिससे कि 30 करोड़ लीटर पानी मिलने लगेगा। बोर्ड सन् 2060 तक इस क्षमता को बढ़ाकर एक अरब लीटर तक करना चाहता है जो कि सिंगापुर की अनुमानित खपत की करीब 30 प्रतिशत है। पीयूबी के अधिकारी कोह जो टिंग के अनुसार ‘हमारी योजना है कि हम सन् 2060 तक पानी से खार निकालने एवं न्यू वाटर की वर्तमान क्षमता जो क्रमशः 10 और 30 प्रतिशत है, को बढ़ाकर कुल आवश्यकता का क्रमशः 30 और 50 प्रतिशत कर देंगे।’

जलाशय - तीसरा स्रोत


सिंगापुर ने अपना पहला जलाशय 19वीं शताब्दी के मध्य में निर्मित किया था। सन् 2010 तक शहर ने अपने कुल क्षेत्र के दो तिहाई यानि 700 वर्ग किलोमीटर को नालियों और नहरों के विशाल जाल के माध्यम से वर्षा जल के लिए बने 19 जलाशयों से जोड़ दिया है। इससे कुल जल आपूर्ति की 20 प्रतिशत की पूर्ति होती है। कांक्रीट से आच्छादित शहरी बसाहट में भी वर्षा जल का शोधन गंदे पानी को उपचारित करने एवं समुद्री पानी के खारेपन को समाप्त करने से काफी सस्ता है। इन दोनों के मूल्यों के अंतर को गोपनीय रखा गया है। इसका एक कारण यह भी हो सकता है कि मलेशिया के साथ हुए अन्य दो अनुबंध अभी भी वैध है।

वर्षा जल का अधिकतम प्रयोग करने हेतु पीयूबी ने अपनी तरह का पहला संयंत्र समुद्र तट पर लगाया है, जो कि छोटी धाराओं के माध्यम से आने वाले पानी के शोधन में सक्षम है। सिंगापुर में नदी मुहानों पर जलाशय बना दिए गए हैं। इसी के साथ कम वर्षा होने पर जब समुद्र का पानी अधिक क्षारीय होता है, के लिए अलग तरह के संयंत्र स्थापित किए हैं। ये संयंत्र वर्षा के मौसम में जब क्षारीयता कम होती है तब स्वतः कार्य करना प्रारंभ कर देते हैं। इस तकनीक से पीयूबी सतह जल का 90 प्रतिशत उपयोग कर पाने में सक्षम हो गया है।

आत्म निर्भरता क्यों


सिंगापुर का लक्ष्य है कि वह सन् 2060 तक पानी के मामले में आत्मनिर्भर बन जाए। तब तक मलेशिया उसके लिए पानी का मुख्य स्रोत बना रहेगा। दोनों समझौतों से यह सुनिश्चित है कि मलेशिया से सन् 2061 तक पानी का आयात किया जा सकता है। सन् 1965 में जब सिंगापुर मलेशिया से अलग हुआ था तो उस दौरान हुए समझौते में दोनों ही सरकारों ने सन् 1961 और 1962 में हुए समझौतों के प्रति गारंटी दी थी।

वर्तमान में सिंगापुर को तीन विशाल पाइप लाईनों के माध्यम से जल प्रदाय होता है। सन् 1960 की शुरुआत में इस पानी से सिंगापुर की तत्कालीन दैनिक मांग 30 करोड़ लीटर की आपूर्ति हो जाती थी। जनसंख्या के बढ़ने से अब यह मांग बढ़कर 173 करोड़ लीटर तक पहुंच चुकी है और इसके अगले 50 वर्षों में दुगुना हो जाने का अनुमान है। टिंग का कहना है ‘हम लोगों से पानी के संरक्षण, पानी के स्रोतों एवं पानी के रास्तों को साफ रखने एवं पानी के साथ आत्मीय संबंध बनाने को कहते हैं जिससे कि हम अपने स्रोतों का आनंद उठा सकें।’

सन् 2003 में सिंगापुर का एक नागरिक प्रतिदिन 165 लीटर पानी का इस्तेमाल करता था। सन् 2009 में यह घटकर 155 लीटर पर आ गया है। जागरूकता अभियान के माध्यम से पीयूबी चाहता है कि सन् 2020 तक इसमें 8 लीटर की और कमी आ जाए। उनका कहना है ‘पानी के आयात का हमारा दूसरा समझौता जब सन् 2061 में समाप्त होगा ऐसे में यदि अगर आवश्यकता पड़ी तो तब तक हम आत्मनिर्भर हो चुके होंगे। जल प्रबंधन के क्षेत्र में सिंगापुर पूरे विश्व में एक उदाहरण है। इससे भारत भी सबक ले सकता है क्योंकि वह अपने यहां के पानी स्रोतों की सफाई और पानी के भंडारण पर बहुत ही कम ध्यान देता है। इसके बजाय वह दूर स्थित जलाशयों से पानी की आपूर्ति करने में अधिक विश्वास रखता है।

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