सिंधु घाटी सभ्यता की बात करना कोई इस्लाम अथवा मुस्लिम विरोधी बात नहीं है। सिंधु घाटी की सभ्यता दशांश प्रणाली, पंचांग पद्धति, मातृशक्ति पूजा का वर्णन स्वयं मुस्लिम इतिहासकार भी उससे सहमत हैं। विद्रोही कवि शेख अयाज, अब्दुल वाहिद आरेसर, अमर जलील और इमदाद हुसैनी को भला कौन भूल सकता है? नजम अब्बासी ने तो यहाँ तक लिखा है कि अरब सागर नाम ही त्रुटिपूर्ण है वह तो सिंध सागर ही है। लंबी जेल काटने वाले जिए सिंध के नेता जो अंत तक पाकिस्तान की जेल में ही रहे, वे कहते थे हम लाखों वर्ष के हिंदू हैं। 15 हजार वर्षों के सिंधी हैं और असंख्य वर्षों के हिंदू हैं। हमारी आयु को मत नापो तोलो, होश में आकर सिंधु देश का निर्माण करो ताकि हम मानवता के आँसू पोंछ सकें। साज अग्रवाल ने अपने साज से अपनी माता की आवाज में जो भावनाएं व्यक्त की हैं काश उसको कोई समझ सके!
प्राथमिक शाला के एक विद्यार्थी ने अपने शिक्षक से सवाल किया कि विश्व मानचित्र में हिंद महासागर के पश्चिमी भागवाला अरब सागर, अरब प्रदेश के क्षेत्रफल की तुलना में प्राचीन सिंध से अधिक निकट और अधिक विशाल है, फिर भी मानचित्र में इसे सिंध सागर के नाम से क्यों संबोधित नहीं किया जाता है? बड़े लोग कहते हैं नाम में क्या रखा है? तब सवाल खड़ा होता है कि जब विश्व इतिहास में सिंधु घाटी की सभ्यता की ही चर्चा अधिक होती है तो फिर इसका नाम सिंधु सागर रखना अधिक औचित्यपूर्ण है लेकिन उस सभ्यता का पोषण करने वाला सिंध और वहाँ का निवासी सिंधी विश्व में किन परिस्थितियों से संघर्ष कर रहा है, इसकी चर्चा तो होती ही रहती है।हिंदुस्तान का विभाजन प्राकृतिक सीमाओं के आधार पर नहीं था बल्कि पाकिस्तान का निर्माण धर्म आधारित जनसंख्या की बुनियाद पर हुआ इसलिये यहाँ का रहने वाला धर्म के नाम पर स्थाई नागरिक और शरणार्थियों के बीच बँट गया। सांस्कृतिक और प्राकृतिक आधार पर जो सिंधु सागर हो जाना चाहिए था, वह अरब सागर ही रहा। विभाजन की यह लकीर भाग्य के बँटवारे की लकीर बन गई लेकिन इसके उपरांत भी सिंधु के बँटवारे ने सिंधी को हतोत्साहित नहीं किया। जो हिंदुस्तान में आ गए, उन्होंने अपनी नई दुनिया बसा ली। जो धर्म और आस्था के बलबूते पर वहीं रहे उनकी आहें और सिसकियां आज भी इस बात का सबूत हैं कि वे अपने किए पर पछता रहे हैं। ऐसा न होता तो पाकिस्तान में सिंधु देश का आंदोलन ही क्यों चलता? हिंदुस्तान में सिंधी राजनीतिक रूप से अल्पसंख्यक तो बन गए लेकिन आधी सदी में ही अपनी धरती के अतिरिक्त जो कुछ खोया था, उसे अपने हाथ जगन्नाथ के मंत्र से पा लिया।
दुनिया में होने वाली उथल-पुथल को देखें तो सिंधियों जैसी ही स्थिति पारसियों और यहूदियों की भी हुई। यहूदियों ने तो लड़-भिड़कर अपना देश इजराइल बना लिया लेकिन पारसी अपने देश ईरान नहीं लौटे। वे जहाँ रहते थे, वहीं उन्होंने अपनी दुनिया बसा ली। अपने श्रम और मस्तिष्क के बलबूते वे कभी टाटा बन गए तो कभी भाभा। सिंधी, पारसी और यहूदियों ने सिद्ध कर दिया कि सारा विश्व ही हमारा घर है। जहाँ रहेंगे उसके वफादार बन कर मानवता के झंडे को बुलंद करते रहेंगे। इसलिये पाठक इस बात से भली-भाँति परिचित हैं कि जिन्हें दुनिया ने निर्वासित कर दिया, उन्होंने ही दुनिया को सुखी, प्रगतिशील और धनाढ्य बना दिया। सिंध से आए सिंधियों ने हमारे देश में कर्मवादी बनकर वह सब कुछ पा लिया जो सदियों से रहने वाले हिंदुस्तानी प्राप्त नहीं कर सके। सागर को गागर में नहीं भरा जा सकता है लेकिन उनके ललाट पर तिलक लगाकर उनकी प्रशंसा की ही जा सकती है।
सिंधी समाज की गाथा और व्यथा पिछले दिनों किताबों की दुनिया में उस समय चर्चित रही जब साज अग्रवाल नामक लेखिका ने इस विषय में एक चौंका देने वाली पुस्तक लिख कर किताबों की दुनिया में हड़कंप मचा दिया। पिछले दिनों कोलकाता के ऑक्सफोर्ड स्टोर में सिंध और सिंधी नामक पुस्तक का विमोचन समारोह बुद्धिजीवियों की दुनिया में एक यादगार मील का पत्थर बन गया। इस पुस्तक के ऐतिहासिक विमोचन समारोह में बुद्धिजीवियों के बीच अनेक अनकही कहानियाँ सुनने को मिलीं, साज की यह पुस्तक साज और आवाज बन कर साहित्यकारों की दुनिया में गूँजने लगी। पारसी और यहूदियों की गाथा और व्यथा अपने विद्वान पाठकों की दुनिया में फिर कभी प्रस्तुत करूँगा लेकिन आज तो इस पुस्तक के संदर्भ में हम सिंधी विश्व के संबंध में ही अपनी चर्चा को सीमित रखेंगे। विभाजन के तत्काल बाद सिंधियों ने इसी बात का संकल्प किया था कि वे अपनी मातृभूमि सिंध को नहीं छोड़ेंगे लेकिन पाकिस्तान की कुपित दृष्टि ने उन्हें अपनी मातृभूमि जो कल तक उनकी कर्मभूमि भी थी और धर्मभूमि भी, उसे छोड़ने पर मजबूर कर दिया।
लेखिका ने पुस्तक लिखते समय यह भी स्पष्ट कर दिया है कि उन्होंने जो कुछ यहाँ लिखा है वह उनकी माता की आपबीती है जो उस समय केवल 13 वर्ष की थी। लेखिका ने अपनी माता की आँखों से स्वयं की मातृभूमि को देखा था जिसे छोड़ देने के दर्द से आज भी वह अपनी सुध-बुध खो देती हैं।
उन दिनों सरहदी गांधी खान अब्दुल गफ्फार खान और जिये सिंध के नेता जी एम सैयद एवं अब्दुल वाहिद आरेसर की पृष्ठभूमि से जुड़े असंख्य हिंदू अचानक इस नए बदलाव के कारण अपनी मातृभूमि छोड़ने के लिये लाचार हो गए थे। लेखिका ने इन्हीं भावनाओं को अपने शब्दों में पुस्तक के रूप में व्यक्त किए हैं। वे कहती हैं मेरे इन शब्दों में सिंध की सुगंध भी है और सिसकियां भी जिसको कोई भुक्तभोगी ही महसूस कर सकता है। उनका एक ही सवाल बिजली बन कर मन मस्तिष्क को हिला देता है कि क्या मैं अपनी इन आँखों से उस धरती को पुनः देख सकूँगी, कानों से उसकी लोरियाँ सुन सकूँगी और उसकी सुगंध से अपने मन मस्तिष्क को प्रफुल्लित कर सकूँगी? सिंधियों ने तो अपनी मातृभूमि के टुकड़े करने की कभी किसी को आज्ञा नहीं दी थी? बर्लिन की दीवार टूट सकती है तो फिर दुनिया के सिंधी अपनी मातृभूमि के दर्शन करने और वहाँ नियमित रूप से जाकर बसने का अधिकार क्यों नहीं पा सकते?
हजारों वर्षों की प्रतीक्षा के बाद यहूदियों को अपना इजराइल मिल सकता है तो हम सिंधियों को अपना सिंध क्यों नहीं मिल सकता? यहाँ कुछ वर्ष पूर्व पत्रकार सैयद जलालुद्दीन द्वारा लिखित पुस्तक डिवाइड पाकिस्तान टू एलीमिनेट टेररिजम की चर्चा करना भी प्रासंगिक होगा जिसमें लेखक ने लिखा है कि यदि आतंकवाद को समाप्त करना है तो पाकिस्तान को तोड़ना अनिवार्य है। इस पुस्तक में लेखक ने सिंध को अपने पूर्व के अस्तित्व में लौट जाने की हिमायत की है। सैयद जलालुद्दीन की इस पुस्तक ने पाकिस्तान के साथ-साथ नाटो संधि के देशों में भी हलचल मचा दी है। लेखक के मतानुसार इस समस्या के समाधान के लिये पाकिस्तान को 6 देशों में विभाजित कर दिया जाना अनिवार्य है। अन्यथा पाकिस्तानी आतंकवाद प्लेग बनकर इस क्षेत्र में फैलता रहेगा। उक्त पुस्तक अमेजन डॉट कॉम द्वारा उपलब्ध है व यूनिवर्सल इनकॉर्पोरेटेड नामक प्रकाशन संस्था ने प्रकाशित की है।
संक्षेप में यह कि पाकिस्तान का विरोध अब भी जारी है जिसे तोड़ने का प्रयास अनेक ताकतें कर रही हैं। पाठकों को याद दिला दें कि 05 में संजीव भटनागर ने सर्वोच्च न्यायालय में एक जनहित याचिका दायर की थी जिसमें सिंध हिंदुस्तान का प्रदेश न होने के कारण इस शब्द को निकाल देने की मांग की गई थी लेकिन आर सी लाखोटी के नेतृत्व वाली खंडपीठ ने न केवल इसे निरस्त कर दिया था बल्कि इसे निम्न स्तर की बतला कर 10 हजार का दंड भी ठोंक दिया था।
विभाजन के पश्चात सिंधी स्वयं देश में ही निर्वासित बन गए थे। इस बीच आचार्य कृपलानी कांग्रेस के अध्यक्ष थे इसके उपरांत भी वे और चोइथराम गिडवानी सहित सभी नेता नेहरू जी की हाँ में हाँ मिलाने वाले हो गए थे। राम जेठमलानी की इस प्रतिक्रिया को भला कौन भुला सकता है कि सिंध एक भौगोलिक इकाई से परे है। जिसके इतिहास, सभ्यता और संस्कृति का फैलाव जिए सिंध के आंदोलन के रूप में सरहद के उस पार है। पाकिस्तान की सरकार जिसे हमेशा शंका की दृष्टि से देखती चली आई है। स्वतंत्र वीर सावरकर ने अपनी ऐतिहासिक पुस्तक हिंदुत्व में सिंधु, सप्त सिंधु और सिंधु सौ वीर नामक अध्याय में जो कि 1923 में लिखी गई थी, वह आज भी प्रासंगिक है।
सिंधु घाटी सभ्यता की बात करना कोई इस्लाम अथवा मुस्लिम विरोधी बात नहीं है। सिंधु घाटी की सभ्यता दशांश प्रणाली, पंचांग पद्धति, मातृशक्ति पूजा का वर्णन स्वयं मुस्लिम इतिहासकार भी उससे सहमत हैं। विद्रोही कवि शेख अयाज, अब्दुल वाहिद आरेसर, अमर जलील और इमदाद हुसैनी को भला कौन भूल सकता है? नजम अब्बासी ने तो यहाँ तक लिखा है कि अरब सागर नाम ही त्रुटिपूर्ण है वह तो सिंध सागर ही है। लंबी जेल काटने वाले जिए सिंध के नेता जो अंत तक पाकिस्तान की जेल में ही रहे, वे कहते थे हम लाखों वर्ष के हिंदू हैं। 15 हजार वर्षों के सिंधी हैं और असंख्य वर्षों के हिंदू हैं। हमारी आयु को मत नापो तोलो, होश में आकर सिंधु देश का निर्माण करो ताकि हम मानवता के आँसू पोंछ सकें। साज अग्रवाल ने अपने साज से अपनी माता की आवाज में जो भावनाएं व्यक्त की हैं काश उसको कोई समझ सके!
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