गत 18 सितम्बर को उड़ी में हुए आतंकी हमले के पहले तक बहुत सारे लोगों को पता भी नहीं होगा कि भारत और पाकिस्तान के बीच कोई सन्धि भी है। दो पड़ोसी मुल्कों से गुजरने वाली नदी के पानी के बँटवारे को लेकर हुई सन्धि इस आतंकी हमले के बाद अचानक संकट में क्यों पड़ गई जबकि यह सन 1965, 1971 और 1999 की कहीं अधिक गम्भीर लड़ाइयों के दौरान चर्चा तक में नहीं आई थी? अतीत में खून और पानी के साथ बहने का सिलसिला चलता रहा है लेकिन पिछले दिनों भारतीय प्रधानमन्त्री के एक वक्तव्य के बाद संदेह के बादल मँडराने लगे। उन्होंने कहा, ‘रक्त और पानी एक साथ नहीं बह सकते’।
पाकिस्तान के राजनैतिक नेतृत्व ने चेतावनी दी कि भारत अगर सिंधु जलसन्धि के साथ कोई मनमानी छेड़छाड़ करता है तो इसे उकसावे की कार्रवाई माना जाएगा। भारत ने अपने कानूनी दायरे में रहते हुए जल प्रवाह सीमित करने और इस प्रकार पड़ोसी देश को सबक सिखाने की मंशा बनाई। भारत और पाकिस्तान के बीच इन जुबानी तीरों के आदान-प्रदान के बीच नदी जल सन्धि को भंग करने की धमकी उस समय किनारे हो गई जब भारत ने नवम्बर में इस्लामाबाद में होने वाले सार्क शिखर बैठक से अपना नाम वापस ले लिया। उसने ऐसा सीमा पर आतंकवाद के मुद्दे पर जोर देने के लिये किया।
अभी के लिये ठीक है लेकिन इसमें दोराय नहीं कि यह मुद्दा फिर उछलेगा। सीमा पार की गतिविधियों को देखते हुए कहा जा सकता है कि यह सन्धि कभी भी संकट में पड़ सकती है। भविष्य के गर्भ में चाहे जो भी हो लेकिन यह स्पष्ट है कि यह सन्धि निचले स्तर पर स्थित पाकिस्तान के लिये अधिक उपयोगी रही है और इसलिये यह ऊपर स्थित भारत के हाथ में एक मजबूत हथियार की तरह है। ऐसे में यह प्रश्न उठता है कि क्या सिंधु नदी के पानी का बहाव रोकने से सीमा पर बहती आग बुझेगी या कहीं यह युद्ध भड़कने का सबब तो नहीं बनेगा?
सिंधु जल सन्धि को दुनिया की सबसे टिकाऊ जल सन्धि माना जाता है। दोनों देशों के बीच तीन बड़ी लड़ाइयों से भी यह अप्रभावित रही। इस सन्धि पर 19 सितम्बर 1960 को पाकिस्तानी राष्ट्रपति अयूब खान और भारतीय प्रधानमन्त्री जवाहरलाल नेहरू ने हस्ताक्षर किए थे। इसके तहत भारत को सिंधु की तीन पूर्वी सहायक नदियों रावी, व्यास और सतलज के प्रयोग का अधिकार दिया गया और पश्चिम में बहने वाली सिंधु, झेलम और चेनाब का पानी बहकर पाकिस्तान जाता है। भारत में इनके तटीय इलाकों में रहने वाले लोग इनके पानी का प्रयोग कर सकते हैं।
यह अपनी तरह की अनूठी सन्धि है जिसमें व्यापक बहाव वाली नदियाँ दो देशों में बँटी हैं और दोनों देशों के हिस्से तीन-तीन नदियाँ हैं। सात वर्ष की चर्चा के दौरान सबसे व्यावहारिक हल यही निकला था कि उस वक्त के जल संकट को समाप्त करने के लिये तीन-तीन नदियाँ बाँट ली जाएँ। हालाँकि पानी के बँटवारे के मामले में देखें तो तस्वीर थोड़ी उलझी हुई है। करीब 80 फीसदी पानी पश्चिमी बहाव वाली नदियों के जरिए पाकिस्तान चला जाता है जबकि पूर्व का 20 फीसदी पानी भारत की नदियों में बहता है।
भारत हालाँकि भौगोलिक दृष्टि से ऊपर है इसके बावजूद उसने निचले पड़ोसियों के प्रति उदारता ही दिखाई है। सन 1960 में पाकिस्तान के साथ सिंधु जल सन्धि और सन 1996 में बांग्लादेश के साथ गंगा सन्धि के जरिए उसने ऐसा ही किया। देश के भीतर राज्यों के बीच नदी जल बँटवारे को लेकर हमारा रिकॉर्ड हालाँकि काफी खराब रहा है लेकिन उक्त दोनों संधियों के मामले में हालात एकदम उलट हैं। कर्नाटक और तमिलनाडु के बीच कावेरी नदी जल विवाद देश के कई जल विवादों में से एक प्रमुख है।
इस परिदृश्य में प्रश्न उठता है कि क्या एक ऐसा नदी जल समझौता जो दशकों से सीमा पार बहने वाली नदियों के जल बँटवारे में सहयोग का उदाहरण रहा है, उसे सैन्य उपाय के रूप में प्रयोग किया जाना चाहिए? भारत अगर ऐसा करना चाहता है तो उसे जम्मू और कश्मीर में पश्चिमी बहाव वाली नदियों का पानी रोकने के लिये बहुत भारी भरकम ढाँचा तैयार करना होगा। उसका उपयोग पाकिस्तान जाने वाली नदियों का पानी रोकने के लिये किया जा सकता है। लगातार धन सुनिश्चित किया जा सके तो भी पहाड़ी इलाके में ऐसे विशालकाय बाँध बनाने में करीब एक दशक का समय आराम से लगेगा। हालाँकि इस दौरान तमाम समस्याएँ भी आएँगी।
इस दृष्टि से देखा जाए तो सन्धि खत्म करने की राजनीति प्रेरित माँग में कोई दम नहीं है। इसके लिये पहले पानी को एकत्रित करने के लिये भारी भरकम बाँध बनाने होंगे। इतना ही नहीं भारत द्वारा सिंधु नदी के बहाव में किसी भी तरह की छेड़छाड़ के संकेत भर से भारत विरोधी भावना भड़क सकती है और चरमपंथ को बल मिल सकता है। सन्धि को खत्म करने के परिणाम केवल सैन्य निहितार्थ तक सीमित नहीं है। हालाँकि अभी जम्मू और कश्मीर में बड़े बाँध बनाने की कोई योजना नहीं है लेकिन बाँध बनाने से होने वाले विस्थापन और पर्यावरण सम्बन्धी पहलुओं का भी ध्यान रखना होगा। खासतौर पर इसिलये क्योंकि यह इलाका भूकम्प के जोखिम वाला है।
वर्ष 2013 की उत्तराखण्ड त्रासदी और वर्ष 2014 में कश्मीर में आई बाढ़ की याद अभी ताजा है। उससे अन्दाजा लगाया जा सकता है कि अप्रत्याशित मौसमी घटनाएँ किस तरह हिमालय क्षेत्र को और जोखिम भरा बना रही हैं। अब जबकि जलवायु परिवर्तन के चलते मौसम की अप्रत्याशितता बढ़ती जा रही है तो जलवायु परिवर्तन से निपटना एक नई चुनौती के रूप में हमारे सामने है। सच तो यह है कि सिंधु नदी का बेसिन दोनों देशों के लिये अहम संसाधन है। ऐसे में मौजूदा घटनाओं के बीच इन उभरती चिन्ताओं से निपटना भी जरूरी है।
इस सन्धि के विषय पर पर्याप्त समझदारी भरी बहस देखने को नहीं मिल सकी है। हालाँकि इस मसले पर तटस्थता गँवाने और भ्रमित होने की काफी संभावना है परन्तु हकीकत में अनुपूरक प्रोटोकॉल की मदद से सन्धि की शर्तें लगातार बदल गई हैं ताकि तब से अब तक लगातार बढ़ती आबादी की पानी और बिजली की जरूरतों का ध्यान रखा जा सके। अगर सिंधु जल सन्धि के अनुच्छेद 7-8 को लागू किया जाता तो भारत और पाकिस्तान दोनों इस सन्धि के अधीन साझा परियोजनाओं की शुरुआत कर सकते थे जिससे अनुमानतः 20,000 मेगावॉट बिजली उत्पन्न की जा सकती थी।
सिंधु समझौते का दोनों ही देशों में जबरदस्त राजनीतिकरण हो चुका है, ऐसे में नदी बेसिन के विकास का काम उम्मीद से बहुत धीमी गति से चल रहा है। आश्चर्य नहीं कि भारत को बगलिहार और किशनगंगा जलविद्युत परियोजनाओं के मामले में स्थाई मध्यस्थता पंचाट का सामना करना पड़ा। पंचाट ने भारत को आदेश दिया कि वह नदी में नौ घन मीटर प्रति सेकंड का न्यूनतम बहाव सुनिश्चित रखे। भारत द्वारा इसका पालन सन्धि के प्रति उसकी प्रतिबद्धता को जाहिर करता है। सबने यही कहा कि यह पाकिस्तान के हित में है कि वह सिंधु नदी जल सन्धि को बचाकर रखे। ऐसे में उसका यह अलिखित दायित्व रहा है कि वह आतंक का निर्यात करके अपनी ऊपरी पड़ोसी को नुकसान न पहुँचाये। वहीं दूसरी ओर एक क्षेत्रीय नेता होने के नाते भारत को भी इस तथ्य से अवगत होना आवश्यक है कि सिंधु नदी बेसिन चीन, भारत, पाकिस्तान और अफगानिस्तान के बीच साझा है और वहाँ अन्य परियोजनाएँ और सन्धियाँ भी प्रक्रियाधीन हैं। अब एकतरफा फैसलों का वक्त जा चुका है।
अधिकांश सीमापार जल बँटवारा सम्बन्धी चर्चाओं में इस बात की अनदेखी कर दी जाती है कि नदी एक जीवित संस्था है। उसके किनारों पर मानव सभ्यताएँ विकसित हुई हैं। पानी के अधिकाधिक दोहन के क्रम में नदियों के अधिकारों का हनन होता है। अक्सर राज्य और नौकरशाही उसके हितों की अनदेखी करते हैं। नदियों के बहाव के साथ जमकर छेड़-छाड़ की जाती है। अब जबकि सिंधु नदी का स्रोत यानी हिमालय के ग्लेशियर पिघल रहे हैं, तो यह जरूरी है कि नदी को बचाने पर ही सबसे अधिक ध्यान दिया जाए।
नई जल कूटनीति वक्त की जरूरत है और भारत फिलहाल दक्षिण एशियाई क्षेत्र में इसका पूरा लाभ लेने की स्थिति में है। दोनों देशों का यह नैतिक दायित्व है कि वे सिंधु जल समझौते को बरकरार रखें। इस समझौते का उद्देश्य ही दोनों देशों के बीच शत्रुता और तनाव को नियन्त्रित करना था। यहाँ मार्क ट्वैन की रोचक टिप्पणी याद आती है, ‘शराब पीने के लिये है और पानी झगड़ने के लिये’
(लेखक जल मामलों के विशेषज्ञ हैं)
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