गौरतलब है कि बिहार में भूमिगत जल तेजी से नीचे खिसकता चला जा रहा है। ऐसे में आने वाले दिनों में यह समाज की सबसे बड़ी समस्या बनने वाली है। सूखे से निपटने के लिए आहर, पईन जैसे प्राचीन पद्धतियों के संरक्षण व संवर्द्धन के लिए ठोस नीति बनानी होगी ताकि सिंचाई के साथ ही पेयजल की किल्लत झेल रहे दक्षिणी इलाकों के लोगों को जल मिल सके।सदियों पहले वर्तमान बिहार के दक्षिणी व केन्द्रीय हिस्से में स्व-विकसित सिंचाई की व्यवस्था अस्तित्व में आई थी। पूर्वजों ने वहाँ वर्षा जल को संग्रहित करने की व्यवस्था की थी। इस तकनीक में पीढ़ियों के अनुभव एवं स्थानीय परिस्थितियों की समझ सन्निहित थी।
दुनिया की शायद यह अनोखी तकनीक है जिसमें खेती के लिए सिंचाई के साथ ही भू-जल भी स्थिर रहा करता है। भारत में परम्परागत सिंचाई के स्रोतों में कृषि प्रधान बिहार के आहर, पईन जैसे वैज्ञानिक तकनीक जल-संरक्षण के अद्भुत उदाहरण कहे जा सकते हैं। बरसाती नदियों के जल का पईन (टेढ़े-मेढ़े नालों) के माध्यम से आहर (तालाबनुमा स्थान जिसमें पानी संग्रह किया जाता है) में पहुँचाया जाता है और आवश्यकतानुसार किसान उस जल का उपयोग करते हैं। इसके अतिरिक्त वर्षा जल का संचय भी होता रहता है। इस काम में समाज की भागीदारी भी सुनिश्चित थी। समाज श्रमदान के जरिये परम्परागत सिंचाई (आहर-पईन) के स्रोतों की सफाई किया करते थे। बरसाती नदियों में जब अमूमन बरसात के मौसम में पानी पर्याप्त होता है तो स्थानीय किसान एवं मजदूर श्रमदान के जरिये पानी अपने खेतों तक ले जाते हैं और संग्रह करते हैं। आहर-पईन की वैज्ञानिक तकनीक की वजह से खेतों में उर्वरा मिट्टी जाती है और नदी का बालू नदी में ही रहता है। ऐसा इस व्यवस्था के उच्च कोटि की तकनीकी संरचना के कारण होता है।
दूसरी ओर, पईन के दोनों तटों पर वृक्षों की कतारें हरियाली बनाए रखती थीं जो पर्यावरणीय दृष्टिकोण से बेहतर था। साथ ही पईन एवं आहर के किनारे खाली पड़े भू-भाग मवेशियों के लिए चरागाह के काम आता था। ये सारे कार्य ग्रामीणों के आपसी सूझ-बूझ एवं तालमेल से सम्पादित होता था। नदी में अमूमन अगस्त-सितम्बर में जब पानी पर्याप्त हुआ करता है तो स्थानीय किसान आवश्यकतानुसार श्रमदान द्वारा नदी से पानी पईन द्वारा आहर में संग्रह किया करते हैं। इस दौरान कई-कई दिनों तक किसानों को श्रमदान करना होता है।
यद्यपि आज भी बिहार के दक्षिणी हिस्सों में यह पद्धति है लेकिन उपेक्षित होकर रह गई है। कई इलाकों के गाँवों में आज भी आहर एवं पईन के माध्यम से खेती को मदद मिलती है। इस प्रकार आहर में संचित जल से आवश्यकतानुसार आसपास के सूखे इलाकों की भूमि की सिंचाई होती है। आवश्यकतानुसार रबी एवं भदई की फसलें भी उगाई जा रही हैं। लेकिन गाँवों में अब प्रत्येक वर्ष श्रमदान के जरिये पईन एवं आहर की सफाई करने की परिपाटी मृतप्राय हो चुकी है। किसानों की रुचि भी अब इस काम में नहीं रह गई है। पुराने प्रविधियों के विकास में अब किसानों की भागीदारी नहीं रही। फलतः अब मगध प्रमण्डल सहित पूरे दक्षिण बिहार के आहर एवं पईन वाले इलाकों के गाँवों में पईन की चौड़ाई घट गई है और आहर के अस्तित्व पर संकट के बादल मण्डराने लगे हैं।
अब हरियाली भी देखने को नहीं मिल रही है। समाज जाति, धर्म एवं सम्प्रदाय के टुकड़ों में बँट गया है। समाज के बँटने से जन आधारित इस सामाजिक प्रथा का मानो अन्त हो गया है। किसानों ने ताल-तलैयों को मैदान बना डाला। पईन एवं आहर को खेतों में तब्दील कर दिया और सिंचाई एवं पेयजल के लिए भूमिगत जल का अन्धाधुन्ध दोहन कर डाला। एक बड़ी समस्या पारम्परिक सिंचाई के स्रोतों को खेतों में तब्दील किए जाने की है। सदियों से जिस समाज ने एक समृद्ध परम्परा को विकसित किया वही समाज आज अपने हाथों से इसे मिटा देने पर तुला है। पईन के दोनों किनारों (आल) को काटकर खेतों में मिला लिया गया है। दोनों किनारों की चौड़ाई घट गई है। ग्रामीण पईन के पास ही कूड़े-कचरे का अम्बार लगा देते हैं। रास्तों को अवरुद्ध कर दिए जाने से जल की निकास नहीं हो पाता है। जगह-जगह पईन को बन्द कर दिया जाता है और आवागमन के लिए मिट्टी के पगडण्डीनुमा रास्ते तैयार कर दिए जाते हैं। ग्रामीणों द्वारा कभी-कभी पईन के अन्दर मवेशियों के रहने, खाने-पीने आदि की व्यवस्था कर दी जाती है।
यह देखा गया है कि पारम्परिक सिंचाई के स्रोतों वाले इलाकों के विपरीत जिन इलाकों में इन स्रोतों का अस्तित्व मिट गया है उन इलाकों में औसत उपज दर में कमी आ गई है। खेतों की उर्वरा शक्ति घट गई और भूमिगत जल तेजी से नीचे चला गया है। कहीं-कहीं उपजाऊ जमीन बंजर हो गई है। बिहार में बंजर भूमि का विस्तार होता जा रहा है। पईन द्वारा सिंचाई वाले इलाकों में भूमिगत जल की समस्या गम्भीर नहीं है। बिहार में भूमिगत जल तेजी से साल-दर-साल नीचे खिसकता जा रहा है, जो आने वाले समय की सबसे बड़ी चुनौती बन सकती है। बिगड़ी हुई परिस्थितियों का अनुमान इस बात से लगाया जा सकता है कि नदियों के जाल वाले प्रदेश में भी ग्रामीणों को पेयजल टैंकर के जरिये पहुँचाया जाता है।
1. बिहार के इस पुराने प्रविधियों के संरक्षण व संवर्द्धन में सबसे बड़ी भूमिका समाज की है। समाज ने ही इस पद्धति को विकसित किया, लेकिन सामाजिक उपेक्षा के फलस्वरूप आज यह हाशिये पर है। समाज ने श्रमदान को बिसार दिया है। श्रमदान से सामूहिक तौर पर विकास की बात हुआ करती थी। गाँवों में अब श्रमदान के जरिये पईन एवं आहर की सफाई करने की परिपाटी समाप्त हो चुकी है, जिसे पुनर्जीवित करने की जरूरत है। किसानों के बीच जागरुकता अभियान चलाने की सिंचाई के इस पुराने पद्धति के विकास में किसानों की भागीदारी सुनिश्चित करने की जरूरत है।
2. सरकार ने मनरेगा एवं लघु सिंचाई विभाग के जरिये आहर, पईन साफ करने की नीति बनाई है। मनरेगा द्वारा क्रियान्वित योजनाओं में सम्पर्क मार्ग, बाधा, वृक्षारोपण आदि को ही प्राथमिकता दी गई है। मनरेगा एवं सिंचाई की योजनाओं में लगी भ्रष्टाचार के दीमक को साफ करने की जरूरत है।
3. आँकड़े के अनुसार, बिहार में लगभग 21 हजार आहर-पईन हैं लेकिन इन सिंचाई के स्रोतों के अतिक्रमण को लेकर कोई नीति तय नहीं की गई है। अतिक्रमण को दूर करने की दिशा में सरकार को दिशा सुनिश्चित करनी पड़ेगी ताकि अतिक्रमण दूर हो सके और पानी का बहाव अबाध हो सके। इसके लिए ग्रामीणों के बीच जागरुकता पैदा कर उन्हें प्रेरित करने की जरूरत है। किसानों को यह अहसास कराने की जरूरत है कि सिंचाई की इस परम्परागत पद्धतियों के संवर्द्धन व संरक्षण के जरिये ही कृषि का विकास सम्भव है। पूरी व्यवस्था में समाज की भागीदारी सबसे अहम सवाल है।
4. दूसरी महत्वपूर्ण बात सिंचाई विभाग द्वारा तकनीकी गड़बड़ियों को लेकर है। कम खर्च को ध्यान में रखते हुए आरसीसी कलवर्ट के बजाय ह्यूमपाइप कलवर्ट बनाया गया है। इससे बखूबी जल बहाव नहीं हो पाता है। वृद्ध किसानों के अनुसार, पईन के उपेक्षित होने से ही खेतों तक पानी नहीं पहुँच पाता है।
5. ढलान का ध्यान रखे जाने से पानी की मात्रा कम होने पर भी पईनों द्वारा आहर में पानी पहुँचाया जा सकता है। पईन के उथले व संकीर्ण हो जाने की वजह से पानी खेतों तक नहीं पहुँच पाता। किसानों के अनुसार पहले चारों ओर पानी फैल जाया करता था अब पानी खेतों तक नहीं पहुँचता है। आहर के आसपास भी पानी देखने को नहीं मिलता। पहले खरीफ के साथ-साथ रबी की फसल भी आराम से होती थी मगर अब तो खरीफ की खेती भी नहीं हो पाती है। आहर पूरी तरह उथला हो गया है।
6. किसानों के साथ-साथ सड़क निर्माण भी दोनों किनारों का अतिक्रमण किया। किसानों के अनुसार, खेतों तक पानी नहीं पहुँचने के पीछे भी यह एक बड़ी वजह है।
7. सड़क मार्गों में कई जगहों पर पईनों को न सिर्फ बन्द कर दिया जाता है, बल्कि पानी निकासी के लिए बनाए जाने वाले कलवर्ट के लिए “यूम पाइप का इस्तेमाल किया जाता है जिससे पानी का समुचित बहाव नहीं हो पाता है।
ग्रामीण इलाकों में पानी के संकट को देखते हुए यह जरूरी हो गया है कि पुराने पद्धतियों की ओर लौटा जाए। गौरतलब है कि बिहार में भूमिगत जल तेजी से नीचे खिसकता चला जा रहा है। ऐसे में आने वाले दिनों में यह समाज की सबसे बड़ी समस्या बनने वाली है। वर्तमान में इस पद्धति का विस्तार बिहार के 17 जिलों में है। बिहार में जल-संरक्षण का इससे अच्छा दूसरा कोई तरीका नहीं कहा जा सकता है। सूखे से निपटने के लिए आहर, पईन जैसे प्राचीन पद्धतियों के संरक्षण व संवर्द्धन के लिए ठोस नीति बनानी होगी ताकि सिंचाई के साथ ही पेयजल की किल्लत झेल रहे दक्षिणी इलाकों के लोगों को जल मिल सके। मनरेगा एवं सिंचाई विभाग के कार्यक्रमों में शामिल सफाई के साथ ही इसके अतिक्रमण को रोकने के उपायों पर विचार करने की जरूरत है। मामले की गम्भीरता को समझते हुए सरकारी प्रयासों के साथ ही समाज को भी इसके लिए अविलम्ब सोचना होगा।
हालाँकि सरकारी प्रयास भी हो रहे हैं, किन्तु इसमें समाज की भागीदारी नदारद है, जबकि इस पद्धति में सबसे बड़ी भूमिका समाज की ही है। फलतः कहीं-कहीं पर सरकारी कार्यक्रमों से सफाई तो हो रही है लेकिन अतिक्रमण हटाने की दिशा में कोई प्रयास नहीं हो रहा है। दूसरी ओर सिंचाई के परम्परागत पद्धतियों के सफाई के दौरान पानी के बहाव के लिए अपनाए जाने वाले तरीकों में वैज्ञानिक तरीकों की अनदेखी हो रही है।
जानकारों के अनुसार पुनरुद्धार में वैज्ञानिक तरीकों का इस्तेमाल नहीं किया जा रहा है जबकि नदी से जुड़ी पईन की खुदाई में भी निश्चित ढलान का ध्यान रखना होता है। बारिश के दिनों में जब नदियों में पानी पर्याप्त होता है तो श्रमदान से ही किसान पानी पईन में लाने का काम किया करते हैं। पूर्णतः सामाजिक संरचना पर आधारित इस परम्परागत जल-स्रोतों के पुनरुद्धार द्वारा कृषि में आमूल-चूल परिवर्तन लाया जा सकता है। कृषिप्रधान क्षेत्र होने के कारण सिंचाई की समुचित व्यवस्था बनाए रखना समय की माँग है। सूखा के लिए महज प्राकृतिक कारणों को जिम्मेवार मानकर हम अपनी जिम्मेदारियों से बच नहीं सकते।
(लेखक स्वतन्त्र पत्रकार हैं)
दुनिया की शायद यह अनोखी तकनीक है जिसमें खेती के लिए सिंचाई के साथ ही भू-जल भी स्थिर रहा करता है। भारत में परम्परागत सिंचाई के स्रोतों में कृषि प्रधान बिहार के आहर, पईन जैसे वैज्ञानिक तकनीक जल-संरक्षण के अद्भुत उदाहरण कहे जा सकते हैं। बरसाती नदियों के जल का पईन (टेढ़े-मेढ़े नालों) के माध्यम से आहर (तालाबनुमा स्थान जिसमें पानी संग्रह किया जाता है) में पहुँचाया जाता है और आवश्यकतानुसार किसान उस जल का उपयोग करते हैं। इसके अतिरिक्त वर्षा जल का संचय भी होता रहता है। इस काम में समाज की भागीदारी भी सुनिश्चित थी। समाज श्रमदान के जरिये परम्परागत सिंचाई (आहर-पईन) के स्रोतों की सफाई किया करते थे। बरसाती नदियों में जब अमूमन बरसात के मौसम में पानी पर्याप्त होता है तो स्थानीय किसान एवं मजदूर श्रमदान के जरिये पानी अपने खेतों तक ले जाते हैं और संग्रह करते हैं। आहर-पईन की वैज्ञानिक तकनीक की वजह से खेतों में उर्वरा मिट्टी जाती है और नदी का बालू नदी में ही रहता है। ऐसा इस व्यवस्था के उच्च कोटि की तकनीकी संरचना के कारण होता है।
दूसरी ओर, पईन के दोनों तटों पर वृक्षों की कतारें हरियाली बनाए रखती थीं जो पर्यावरणीय दृष्टिकोण से बेहतर था। साथ ही पईन एवं आहर के किनारे खाली पड़े भू-भाग मवेशियों के लिए चरागाह के काम आता था। ये सारे कार्य ग्रामीणों के आपसी सूझ-बूझ एवं तालमेल से सम्पादित होता था। नदी में अमूमन अगस्त-सितम्बर में जब पानी पर्याप्त हुआ करता है तो स्थानीय किसान आवश्यकतानुसार श्रमदान द्वारा नदी से पानी पईन द्वारा आहर में संग्रह किया करते हैं। इस दौरान कई-कई दिनों तक किसानों को श्रमदान करना होता है।
समस्या
यद्यपि आज भी बिहार के दक्षिणी हिस्सों में यह पद्धति है लेकिन उपेक्षित होकर रह गई है। कई इलाकों के गाँवों में आज भी आहर एवं पईन के माध्यम से खेती को मदद मिलती है। इस प्रकार आहर में संचित जल से आवश्यकतानुसार आसपास के सूखे इलाकों की भूमि की सिंचाई होती है। आवश्यकतानुसार रबी एवं भदई की फसलें भी उगाई जा रही हैं। लेकिन गाँवों में अब प्रत्येक वर्ष श्रमदान के जरिये पईन एवं आहर की सफाई करने की परिपाटी मृतप्राय हो चुकी है। किसानों की रुचि भी अब इस काम में नहीं रह गई है। पुराने प्रविधियों के विकास में अब किसानों की भागीदारी नहीं रही। फलतः अब मगध प्रमण्डल सहित पूरे दक्षिण बिहार के आहर एवं पईन वाले इलाकों के गाँवों में पईन की चौड़ाई घट गई है और आहर के अस्तित्व पर संकट के बादल मण्डराने लगे हैं।
अब हरियाली भी देखने को नहीं मिल रही है। समाज जाति, धर्म एवं सम्प्रदाय के टुकड़ों में बँट गया है। समाज के बँटने से जन आधारित इस सामाजिक प्रथा का मानो अन्त हो गया है। किसानों ने ताल-तलैयों को मैदान बना डाला। पईन एवं आहर को खेतों में तब्दील कर दिया और सिंचाई एवं पेयजल के लिए भूमिगत जल का अन्धाधुन्ध दोहन कर डाला। एक बड़ी समस्या पारम्परिक सिंचाई के स्रोतों को खेतों में तब्दील किए जाने की है। सदियों से जिस समाज ने एक समृद्ध परम्परा को विकसित किया वही समाज आज अपने हाथों से इसे मिटा देने पर तुला है। पईन के दोनों किनारों (आल) को काटकर खेतों में मिला लिया गया है। दोनों किनारों की चौड़ाई घट गई है। ग्रामीण पईन के पास ही कूड़े-कचरे का अम्बार लगा देते हैं। रास्तों को अवरुद्ध कर दिए जाने से जल की निकास नहीं हो पाता है। जगह-जगह पईन को बन्द कर दिया जाता है और आवागमन के लिए मिट्टी के पगडण्डीनुमा रास्ते तैयार कर दिए जाते हैं। ग्रामीणों द्वारा कभी-कभी पईन के अन्दर मवेशियों के रहने, खाने-पीने आदि की व्यवस्था कर दी जाती है।
यह देखा गया है कि पारम्परिक सिंचाई के स्रोतों वाले इलाकों के विपरीत जिन इलाकों में इन स्रोतों का अस्तित्व मिट गया है उन इलाकों में औसत उपज दर में कमी आ गई है। खेतों की उर्वरा शक्ति घट गई और भूमिगत जल तेजी से नीचे चला गया है। कहीं-कहीं उपजाऊ जमीन बंजर हो गई है। बिहार में बंजर भूमि का विस्तार होता जा रहा है। पईन द्वारा सिंचाई वाले इलाकों में भूमिगत जल की समस्या गम्भीर नहीं है। बिहार में भूमिगत जल तेजी से साल-दर-साल नीचे खिसकता जा रहा है, जो आने वाले समय की सबसे बड़ी चुनौती बन सकती है। बिगड़ी हुई परिस्थितियों का अनुमान इस बात से लगाया जा सकता है कि नदियों के जाल वाले प्रदेश में भी ग्रामीणों को पेयजल टैंकर के जरिये पहुँचाया जाता है।
समस्या का समाधान
1. बिहार के इस पुराने प्रविधियों के संरक्षण व संवर्द्धन में सबसे बड़ी भूमिका समाज की है। समाज ने ही इस पद्धति को विकसित किया, लेकिन सामाजिक उपेक्षा के फलस्वरूप आज यह हाशिये पर है। समाज ने श्रमदान को बिसार दिया है। श्रमदान से सामूहिक तौर पर विकास की बात हुआ करती थी। गाँवों में अब श्रमदान के जरिये पईन एवं आहर की सफाई करने की परिपाटी समाप्त हो चुकी है, जिसे पुनर्जीवित करने की जरूरत है। किसानों के बीच जागरुकता अभियान चलाने की सिंचाई के इस पुराने पद्धति के विकास में किसानों की भागीदारी सुनिश्चित करने की जरूरत है।
2. सरकार ने मनरेगा एवं लघु सिंचाई विभाग के जरिये आहर, पईन साफ करने की नीति बनाई है। मनरेगा द्वारा क्रियान्वित योजनाओं में सम्पर्क मार्ग, बाधा, वृक्षारोपण आदि को ही प्राथमिकता दी गई है। मनरेगा एवं सिंचाई की योजनाओं में लगी भ्रष्टाचार के दीमक को साफ करने की जरूरत है।
3. आँकड़े के अनुसार, बिहार में लगभग 21 हजार आहर-पईन हैं लेकिन इन सिंचाई के स्रोतों के अतिक्रमण को लेकर कोई नीति तय नहीं की गई है। अतिक्रमण को दूर करने की दिशा में सरकार को दिशा सुनिश्चित करनी पड़ेगी ताकि अतिक्रमण दूर हो सके और पानी का बहाव अबाध हो सके। इसके लिए ग्रामीणों के बीच जागरुकता पैदा कर उन्हें प्रेरित करने की जरूरत है। किसानों को यह अहसास कराने की जरूरत है कि सिंचाई की इस परम्परागत पद्धतियों के संवर्द्धन व संरक्षण के जरिये ही कृषि का विकास सम्भव है। पूरी व्यवस्था में समाज की भागीदारी सबसे अहम सवाल है।
4. दूसरी महत्वपूर्ण बात सिंचाई विभाग द्वारा तकनीकी गड़बड़ियों को लेकर है। कम खर्च को ध्यान में रखते हुए आरसीसी कलवर्ट के बजाय ह्यूमपाइप कलवर्ट बनाया गया है। इससे बखूबी जल बहाव नहीं हो पाता है। वृद्ध किसानों के अनुसार, पईन के उपेक्षित होने से ही खेतों तक पानी नहीं पहुँच पाता है।
5. ढलान का ध्यान रखे जाने से पानी की मात्रा कम होने पर भी पईनों द्वारा आहर में पानी पहुँचाया जा सकता है। पईन के उथले व संकीर्ण हो जाने की वजह से पानी खेतों तक नहीं पहुँच पाता। किसानों के अनुसार पहले चारों ओर पानी फैल जाया करता था अब पानी खेतों तक नहीं पहुँचता है। आहर के आसपास भी पानी देखने को नहीं मिलता। पहले खरीफ के साथ-साथ रबी की फसल भी आराम से होती थी मगर अब तो खरीफ की खेती भी नहीं हो पाती है। आहर पूरी तरह उथला हो गया है।
6. किसानों के साथ-साथ सड़क निर्माण भी दोनों किनारों का अतिक्रमण किया। किसानों के अनुसार, खेतों तक पानी नहीं पहुँचने के पीछे भी यह एक बड़ी वजह है।
7. सड़क मार्गों में कई जगहों पर पईनों को न सिर्फ बन्द कर दिया जाता है, बल्कि पानी निकासी के लिए बनाए जाने वाले कलवर्ट के लिए “यूम पाइप का इस्तेमाल किया जाता है जिससे पानी का समुचित बहाव नहीं हो पाता है।
राज्य के आहर-पईनों की परम्परागत सिंचाई प्रणालियों की जिलावार आँकड़े (संख्या में) | ||||
क्रम सं. | जिला | कार्यरत योजना | अकार्यरत योजना | कुल |
1 | पटना | 212 | 86 | 298 |
2 | नालन्दा | 238 | 82 | 320 |
3 | भोजपुर | 93 | 31 | 124 |
4 | बक्सर | 69 | 0 | 69 |
5 | कैमूर | 1,330 | 71 | 1,401 |
6 | रोहतास | 338 | 19 | 417 |
7 | औरंगाबाद | 1,251 | 442 | 1,693 |
8 | गया | 6,502 | 762 | 7,264 |
9 | नवादा | 1,488 | 1,371 | 2,859 |
10 | जहानाबाद | 406 | 95 | 501 |
11 | अरवल | 91 | 11 | 102 |
12 | भागलपुर | 472 | 50 | 522 |
13 | बांका | 2,146 | 117 | 2,263 |
14 | मुँगेर | 162 | 4 | 166 |
15 | जमुई | 2,449 | 73 | 2,522 |
16 | लखीसराय | 251 | 15 | 266 |
17 | शेखपुरा | 125 | 26 | 151 |
कुल | 17,683 | 3,255 | 20,938 |
निष्कर्ष
ग्रामीण इलाकों में पानी के संकट को देखते हुए यह जरूरी हो गया है कि पुराने पद्धतियों की ओर लौटा जाए। गौरतलब है कि बिहार में भूमिगत जल तेजी से नीचे खिसकता चला जा रहा है। ऐसे में आने वाले दिनों में यह समाज की सबसे बड़ी समस्या बनने वाली है। वर्तमान में इस पद्धति का विस्तार बिहार के 17 जिलों में है। बिहार में जल-संरक्षण का इससे अच्छा दूसरा कोई तरीका नहीं कहा जा सकता है। सूखे से निपटने के लिए आहर, पईन जैसे प्राचीन पद्धतियों के संरक्षण व संवर्द्धन के लिए ठोस नीति बनानी होगी ताकि सिंचाई के साथ ही पेयजल की किल्लत झेल रहे दक्षिणी इलाकों के लोगों को जल मिल सके। मनरेगा एवं सिंचाई विभाग के कार्यक्रमों में शामिल सफाई के साथ ही इसके अतिक्रमण को रोकने के उपायों पर विचार करने की जरूरत है। मामले की गम्भीरता को समझते हुए सरकारी प्रयासों के साथ ही समाज को भी इसके लिए अविलम्ब सोचना होगा।
हालाँकि सरकारी प्रयास भी हो रहे हैं, किन्तु इसमें समाज की भागीदारी नदारद है, जबकि इस पद्धति में सबसे बड़ी भूमिका समाज की ही है। फलतः कहीं-कहीं पर सरकारी कार्यक्रमों से सफाई तो हो रही है लेकिन अतिक्रमण हटाने की दिशा में कोई प्रयास नहीं हो रहा है। दूसरी ओर सिंचाई के परम्परागत पद्धतियों के सफाई के दौरान पानी के बहाव के लिए अपनाए जाने वाले तरीकों में वैज्ञानिक तरीकों की अनदेखी हो रही है।
जानकारों के अनुसार पुनरुद्धार में वैज्ञानिक तरीकों का इस्तेमाल नहीं किया जा रहा है जबकि नदी से जुड़ी पईन की खुदाई में भी निश्चित ढलान का ध्यान रखना होता है। बारिश के दिनों में जब नदियों में पानी पर्याप्त होता है तो श्रमदान से ही किसान पानी पईन में लाने का काम किया करते हैं। पूर्णतः सामाजिक संरचना पर आधारित इस परम्परागत जल-स्रोतों के पुनरुद्धार द्वारा कृषि में आमूल-चूल परिवर्तन लाया जा सकता है। कृषिप्रधान क्षेत्र होने के कारण सिंचाई की समुचित व्यवस्था बनाए रखना समय की माँग है। सूखा के लिए महज प्राकृतिक कारणों को जिम्मेवार मानकर हम अपनी जिम्मेदारियों से बच नहीं सकते।
(लेखक स्वतन्त्र पत्रकार हैं)
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