समस्या भूजल की कम अथवा उसके अतिदोहन की ही नहीं बल्कि उसकी गुणवत्ता की भी है। देश के अनेक हिस्सों एवं राजस्थान में अधिकांश शुष्क क्षेत्रों में किसानों को सिंचाई जल की कमी तथा उसके क्षारीय एवं लवणीय होने की समस्या का सामना करना पड़ रहा है।राजस्थान में वर्षा की कमी एंव अकाल कोई नई बात नहीं है। यहाँ की विकट कृषि जलवायु के अनुरूप जीवनयापन करना यहाँ के लोक जीवन का अभिन्न अंग माना गया है। प्राचीन काल में शहरी एवं ग्रामीण दोनों ही क्षेत्रों में जल संरक्षण को पर्याप्त महत्त्व दिया जाता था। यहाँ सम्भावित जल संकट से निपटने के लिए तालाब, कुण्ड, कुओं, बावड़ियों की न केवल व्यवस्था की जाती थी बल्कि उन्हें पर्याप्त संरक्षण एवं सुरक्षा प्रदान की जाती थी।
यद्यपि विकास यात्रा के बढ़ते दायरे से नहरों एवं विद्युतकृत नलकूपों से न केवल पेयजल बल्कि सिंचाई हेतु भी पर्याप्त जल सुलभ हुआ है लेकिन इसके दूसरे पहलू पर दूरदर्शितापूर्ण नजर डालें तो हम पाएँगे कि न तो यह जल पर्याप्त है, न ही सुलभ। कमजोर मानसून एवं अन्तर्राज्यीय जल विवादों के चलते नहरों में अपर्याप्त जलप्रवाह की स्थिति प्रायः बनी रहती है। विगत वर्षों में भूजल दोहन की दर बढ़ने से भू-गर्भीय जल-भण्डार सीमित हो गए हैं। राजस्थान में वर्ष 1885 से 1997 में भूमिगत जलदोहन की दर में 11 प्रतिशत की वृद्धि दर्ज हुई वहीं राज्य का 60 प्रतिशत से अधिक हिस्सा भूजल स्थिति के लिहाज से सुरक्षित नहीं रह गया है। जनवरी, 1998 के आकलन के अनुसार दोहन की दर बढ़कर 93.64 प्रतिशत हो गई है। राज्य भूजल विभाग के अनुसार ये चौंकाने वाले तथा चिन्ताजनक तथ्य हैं जो पुनर्भरण के अभाव में और भी विकराल रूप ले सकते हैं।
समस्या भूजल की कमी अथवा उसके अतिदोहन की ही नहीं बल्कि उसकी गुणवत्ता की भी है। देश के अनेक हिस्सों एवं राजस्थान में अधिकांश शुष्क क्षेत्रों में किसानों को सिंचाई जल की कमी तथा उसके क्षारीय एवं लवणीय होने की समस्या का सामना करना पड़ रहा है।
सिंचाई जल की कमी के कारण किसान अपने खेत का कुछ ही भाग सिंचित कर पाते हैं। ऐसी स्थिति में यदि उनका जल भी समस्याग्रस्त है तो खेतों में उगाने के लिए उनके पास सीमित फसलें ही रह जाती हैं। सिंचाई जल की मात्रात्मक एंव गुणात्मक कमी के साथ-साथ किसानों को उन्नत सिंचाई विधियों, सिंचाई जल की क्षमता, लवणीय एवं क्षारीय जल के लिए उपयुक्त फसल पद्धतियों एवं जल संरक्षण विधियों की आधुनिक जानकारी के अभाव में सिंचाई जल का समुचित लाभ नहीं मिल पाता।
सिंचाई जल की इकाई मात्रा से बिना मृदा उर्वरता को प्रभावित किए अधिकतम पैदावार लेने को ही समुचित जल-उपयोग कहते हैं। पिछले कुछ वर्षों में परम्परागत सिंचाई तरीकों के स्थान पर सिंचाई जल की दक्षता बढ़ाने हेतु कई आधुनिक विधियाँ विकसित की गई हैं जिन्हें काम में लेकर जल का समुचित उपयोग किया जा सकता है। ये विधियाँ इस प्रकार हैं :
इस विधि द्वारा पानी फव्वारों के रूप में भूमि पर गिरता है। इस विधि द्वारा ऊँचे-नीचे खेतों में भी आसानी से सिंचाई की जा सकती है और सिंचाई की नालियाँ बनाने की आवयकता नहीं होती। गर्मी एवं पाले से फसलों का बचाव होता है तथा कम सिंचाई जल प्रयुक्त होने से भूमि की क्षारीयता बढ़ने से रोकी जा सकती है। इससे कम मेहनत में एकसमान सिंचाई की जा सकती है तथा पानी की बचत करके भी फसल उत्पादकता बढ़ाई जा सकती है। नहरी क्षेत्रों में भी ‘स्टोरेज टैंक’ बनाकर छोटी मोटर द्वारा फव्वारा सिंचाई करके जलमग्नता (सेम) जैसी समस्या नियन्त्रित की जा सकती है।
फव्वारा सिंचाई विधि में निम्न बातों का ध्यान रखा जाना चाहिए :
(अ) सर्वप्रथम कुएँ से मिलने वाले डिस्चार्ज के अनुसार नोजलों की संख्या का चयन करें। लगभग 2 किलो प्रति वर्ग से.मी. दबाव वाली फव्वारा इकाई में सामान्यतया 250 लीटर/मिनट वाले डिस्चार्ज पम्प से 0.4 लीटर/सैकेण्ड डिस्चार्ज वाले 10 फव्वारों (नोजल) से सिंचाई कर सकते हैं। उपलब्ध डिस्चार्ज की तुलना में प्रयुक्त नोजलों की संख्या बहुत कम होने पर पम्प की मोटर पर अधिक भार पड़ेगा तथा विद्युत खर्च बढ़ेगा।
(ब) नोजलों के बीच की दूरी उनके जल फैलाव व्यास एवं हवा की गति के अनुसार रखें। सामान्य पवन गति (6.5 कि.मी. प्रति घण्टा से कम) के लिए नोजल से नोजल की दूरी जल-फैलाव व्यास का 60 प्रतिशत रख सकते हैं। अर्थात यदि जल-फैलाव व्यास 15 मीटर है तो नोजलों के बीच की दूरी 9 मीटर रखी जा सकती है। फव्वारों की दूसरी लाइन प्रथम लाइन के जल-फैलाव व्यास से कुछ कम रखें।
फव्वारा संयन्त्र को लम्बे समय तक सुचारू रूप से चलाने के लिए यह आवश्यक है कि उसकी समय-समय पर देखभाल की जाए तथा आवश्यकतानुसार मरम्मत भी की जाती रहे। अतः किसान भाइयों को इनके सुचारू संचालन हेतु नीचे लिखी बातों का ध्यान रखा जाना चाहिए-
(अ) प्रायः चलते-चलते फव्वारा का नोजल घूमना बन्द हो जाता है। इससे पानी का रिसाव कम अथवा बिल्कुल बन्द हो जाता है या फव्वारा ठीक से चारों तरफ घूम नहीं पाता। अतः इस समस्या के समाधान हेतु किसी पतले तार या पिन से नोजल के छिद्रों को साफ करना चाहिए। नोजल का घूमना इसमें लगे स्प्रिंग के खिंचाव पर निर्भर करता है। स्प्रिंग खराब होने पर इसे बदल देना चाहिए।
(ब) नोजल के किसी भी भाग पर तेल, ग्रीस आदि चिकनाहट का प्रयोग नहीं करना चाहिए, अन्यथा मिट्टी जमकर नोजल खराब हो सकता है।
(स) पाइपों के जोड़ों पर पानी के रिसाव को रोकने हेतु ‘रबड़ गेसकेट’ का प्रयोग किया जाता है। रबड़ गेसकेट के ढीले पड़ने पर पानी रिसने लगता है। अतः ढीले गेसकेट को निकालकर नया गेसकेट प्रयोग करना चाहिए।
(द) फव्वारा संयन्त्र चलाने से पूर्व अन्तिम प्लग को निकालकर पानी से फ्लशिंग कर देनी चाहिए ताकि पाइप के अन्दर मिट्टी, कंकड़ अथवा जीव-जन्तु छुपा हो तो बाहर निकल जाए।
ड्रिप सिंचाई पद्धति में पानी बूँद-बूँद करके सीधे जड़ों तक पहुँचाया जाता है। कम पानी से उबड़-खाबड़, हल्की एवं रेतीली भूमि में वानिकी, फलवृक्षों एवं सब्जियों में अच्छी सिंचाई की जा सकती है। इस विधि द्वारा कीटनाशक एंव रासायनिक खाद भी सिंचाई जल के साथ मिलाकर डाली जा सकती है। पौधों की जड़ों के समीप पौधे की जल-माँग के अनुरूप नमी होने वे कारण पौधों का समुचित विकास होता है जिसके फलस्वरूप अच्छी उपज मिलती है।
(अ) इस सिंचाई पद्धति द्वारा 30 से 50 प्रतिशत पानी की तथा 60 से 70 प्रतिशत श्रम की बचत होती है।
(ब) इस विधि द्वारा उर्वरक तथा कीटनाशक की लगभग 50 प्रतिशत बचत होती है।
(स) ड्रिप सिंचाई से खरपतवार कम पनपते हैं।
(द) उपयुक्त ‘ड्रिपर’ का प्रयोग करके इस विधि द्वारा खारे पानी से भी सिंचाई की जा सकती है।
(अ) खेत में बन्द हुए ‘ड्रिपरों’ को खोलने के लिए क्रमशः सभी ड्रिपरों को देखना चाहिए। साथ ही ड्रिपर के बहाव को नापना चाहिए।
(ब) समय-समय पर फिल्टरों की जाँच, सफाई एंव धुलाई करते रहना चाहिए।
(स) दबाव नियन्त्रक रसायन इंजेक्टर एवं मुख्य पम्प की देखभाल करते रहना चाहिए।
(द) मुख्य एवं सहायक नलियों का निरीक्षण कर कटी हुई एवं रिसाव वाली नलियों को बदल देना चाहिए
(य) बन्द हुए ड्रिपरों को खोलने के लिए रासायनिक जल-उपचार करना चाहिए।
इस विधि में मिट्टी के पके हुए घड़े का प्रयोग किया जाता है। घड़े को जमीन में गर्दन तक पौधों के पास गाड़कर पानी भर दिया जाता है। घड़े का पानी इसकी दीवारों के सूक्ष्म छिद्रों से धीरे-धीरे निकलकर पौधे के आसपास की मिट्टी में आने लगता है। यह पानी पौधे की आवश्क वृद्धि के लिए पर्याप्त नमी बनाए रखता है। घड़े में पानी की कमी को एक निश्चित अन्तराल पर पानी भरकर पूरा किया जाता है। इस प्रकार घड़े को हमेशा ढ़ककर रखना चाहिए। यह विधि उबड़-खाबड़ भूमि एवं पानी की अत्यधिक कमी वाले क्षेत्रों के लिए उपयुक्त है जहाँ वृक्षारोपण या सब्जी उत्पादन बहुत ही मुश्किल होता है।
सिंचाई जल के लाभदायक उपयोग के लिए उचित फसलों और फसल-चक्रों को चुनाव करना चाहिए। ज्यादातर कुओं का जल लवणीय/क्षारीय होने के कारण शुष्क क्षेत्रों में कम पानी चाहने वाली फसलें ही उगाई जानी चाहिए। फिर भी यदि एक ऋतु में अधिक पानी चाहने वाली फसल ली गई हो तो इसके बाद आने वाली ऋतु में कम पानी चाहने वाली फसल का चुनाव करना चाहिए। पानी की कमी एवं लवणीयता की समस्या वाले क्षेत्रों में एक फसल वर्षा आधारित (खरीफ ऋतु में) तथा दूसरी फसल (रबी में) सिंचाई जल के समुचित उपयोग से ली जा सकती है। इसके साथ ही कम सिंचाई चाहने वाली फसलें उगाने से सिंचित क्षेत्र 2 से 3 गुना बढ़ाकर अधिक पैदावार ली जा सकती है। कम सिंचाई चाहने वाली फसलों में जौ, सरसों, ग्वार, बाजरा, मूँगफली मुख्य हैं जबकि अधिक पानी चाहने वाली फसलों में गेहूँ, मक्का, आलू एवं सब्जियाँ आती हैं। गेहूँ-बाजरा फसल-चक्र की तुलना में समस्याग्रस्त जल के साथ बाजरा-सरसों चक्र अपनाकर सिंचाई क्षमता बढ़ाकर अधिक लाभ कमाया जा सकता है। फलदार एवं छायादार पेड़ों में बेर, अनार, आँवला, शीशम, खेजड़ी, सरेस, नीम आदि कम पानी से उगाए जा सकते हैं।
खारे पानी का सिंचाई में उपयोग करने के लिए कुछ प्रबन्धकीय उपाय काम में लिए जाते हैं। अधिक सार्थक खेती के लिए क्षार सहिष्णु तथा क्षाररोधी फसलें जैसे- जौ, सरसों, कपास, ज्वार और बाजरा उगाई जाती है। विभिन्न क्षेत्रों के लिए उपयुक्त लवण-सहनशील किस्में विकसित की गई हैं जैसे- गेहूँ की खारचिया 65, राज 3077, आदि। अतः लवण एवं क्षार सहन करने वाली फसलों के साथ-साथ इनकी लवण-सहन किस्मों का चयन करना चाहिए। खारे पानी की उपस्थिति में उर्वरकों द्वारा साधारण फसल की तुलना में अधिक (लगभग डेढ़ गुना) पोषण देना चाहिए क्योंकि ऐसी अवस्था में पोषक तत्वों की समुचित मात्रा एवं जीवांश पदार्थ पौधों पर खारे जल के विपरीत प्रभाव को कम करते हैं। इसके अलावा ढेंचा या अन्य हरी खाद प्रयोग से भी खारे पानी का विपरीत प्रभाव फसलों पर नहीं पड़ता। क्षारीय जल के समुचित प्रबन्ध के लिए इसमें उपलब्ध अवशिष्ट सोडियम कार्बोनेट (आर.एस.सी.) ज्यादा हो तो उसमें जिप्सम डालकर उसे सन्तुलित करें। आवश्यकतानुसार बारीक जिप्सम की मात्रा बुवाई के पहले खेत में डालकर मिलावें। यदि भूमि का पी.एच. मान 9 के आसपास है तो लगभग 25 क्विंटल जिप्सम प्रति हेक्टेयर काम में लावें।
[ट्रेनिंग एसोसिएट (शस्य विज्ञान), कृषि विज्ञान केन्द्र (गाँधी विद्या मन्दिर) सरदारशहर, चूरू, राजस्थान]
यद्यपि विकास यात्रा के बढ़ते दायरे से नहरों एवं विद्युतकृत नलकूपों से न केवल पेयजल बल्कि सिंचाई हेतु भी पर्याप्त जल सुलभ हुआ है लेकिन इसके दूसरे पहलू पर दूरदर्शितापूर्ण नजर डालें तो हम पाएँगे कि न तो यह जल पर्याप्त है, न ही सुलभ। कमजोर मानसून एवं अन्तर्राज्यीय जल विवादों के चलते नहरों में अपर्याप्त जलप्रवाह की स्थिति प्रायः बनी रहती है। विगत वर्षों में भूजल दोहन की दर बढ़ने से भू-गर्भीय जल-भण्डार सीमित हो गए हैं। राजस्थान में वर्ष 1885 से 1997 में भूमिगत जलदोहन की दर में 11 प्रतिशत की वृद्धि दर्ज हुई वहीं राज्य का 60 प्रतिशत से अधिक हिस्सा भूजल स्थिति के लिहाज से सुरक्षित नहीं रह गया है। जनवरी, 1998 के आकलन के अनुसार दोहन की दर बढ़कर 93.64 प्रतिशत हो गई है। राज्य भूजल विभाग के अनुसार ये चौंकाने वाले तथा चिन्ताजनक तथ्य हैं जो पुनर्भरण के अभाव में और भी विकराल रूप ले सकते हैं।
समस्या भूजल की कमी अथवा उसके अतिदोहन की ही नहीं बल्कि उसकी गुणवत्ता की भी है। देश के अनेक हिस्सों एवं राजस्थान में अधिकांश शुष्क क्षेत्रों में किसानों को सिंचाई जल की कमी तथा उसके क्षारीय एवं लवणीय होने की समस्या का सामना करना पड़ रहा है।
सिंचाई जल की कमी के कारण किसान अपने खेत का कुछ ही भाग सिंचित कर पाते हैं। ऐसी स्थिति में यदि उनका जल भी समस्याग्रस्त है तो खेतों में उगाने के लिए उनके पास सीमित फसलें ही रह जाती हैं। सिंचाई जल की मात्रात्मक एंव गुणात्मक कमी के साथ-साथ किसानों को उन्नत सिंचाई विधियों, सिंचाई जल की क्षमता, लवणीय एवं क्षारीय जल के लिए उपयुक्त फसल पद्धतियों एवं जल संरक्षण विधियों की आधुनिक जानकारी के अभाव में सिंचाई जल का समुचित लाभ नहीं मिल पाता।
सिंचाई जल की इकाई मात्रा से बिना मृदा उर्वरता को प्रभावित किए अधिकतम पैदावार लेने को ही समुचित जल-उपयोग कहते हैं। पिछले कुछ वर्षों में परम्परागत सिंचाई तरीकों के स्थान पर सिंचाई जल की दक्षता बढ़ाने हेतु कई आधुनिक विधियाँ विकसित की गई हैं जिन्हें काम में लेकर जल का समुचित उपयोग किया जा सकता है। ये विधियाँ इस प्रकार हैं :
फव्वारा सिंचाई विधि
इस विधि द्वारा पानी फव्वारों के रूप में भूमि पर गिरता है। इस विधि द्वारा ऊँचे-नीचे खेतों में भी आसानी से सिंचाई की जा सकती है और सिंचाई की नालियाँ बनाने की आवयकता नहीं होती। गर्मी एवं पाले से फसलों का बचाव होता है तथा कम सिंचाई जल प्रयुक्त होने से भूमि की क्षारीयता बढ़ने से रोकी जा सकती है। इससे कम मेहनत में एकसमान सिंचाई की जा सकती है तथा पानी की बचत करके भी फसल उत्पादकता बढ़ाई जा सकती है। नहरी क्षेत्रों में भी ‘स्टोरेज टैंक’ बनाकर छोटी मोटर द्वारा फव्वारा सिंचाई करके जलमग्नता (सेम) जैसी समस्या नियन्त्रित की जा सकती है।
फव्वारा सिंचाई विधि में निम्न बातों का ध्यान रखा जाना चाहिए :
(अ) सर्वप्रथम कुएँ से मिलने वाले डिस्चार्ज के अनुसार नोजलों की संख्या का चयन करें। लगभग 2 किलो प्रति वर्ग से.मी. दबाव वाली फव्वारा इकाई में सामान्यतया 250 लीटर/मिनट वाले डिस्चार्ज पम्प से 0.4 लीटर/सैकेण्ड डिस्चार्ज वाले 10 फव्वारों (नोजल) से सिंचाई कर सकते हैं। उपलब्ध डिस्चार्ज की तुलना में प्रयुक्त नोजलों की संख्या बहुत कम होने पर पम्प की मोटर पर अधिक भार पड़ेगा तथा विद्युत खर्च बढ़ेगा।
(ब) नोजलों के बीच की दूरी उनके जल फैलाव व्यास एवं हवा की गति के अनुसार रखें। सामान्य पवन गति (6.5 कि.मी. प्रति घण्टा से कम) के लिए नोजल से नोजल की दूरी जल-फैलाव व्यास का 60 प्रतिशत रख सकते हैं। अर्थात यदि जल-फैलाव व्यास 15 मीटर है तो नोजलों के बीच की दूरी 9 मीटर रखी जा सकती है। फव्वारों की दूसरी लाइन प्रथम लाइन के जल-फैलाव व्यास से कुछ कम रखें।
फव्वारा सिस्टम की देखभाल एंव मरम्मत
फव्वारा संयन्त्र को लम्बे समय तक सुचारू रूप से चलाने के लिए यह आवश्यक है कि उसकी समय-समय पर देखभाल की जाए तथा आवश्यकतानुसार मरम्मत भी की जाती रहे। अतः किसान भाइयों को इनके सुचारू संचालन हेतु नीचे लिखी बातों का ध्यान रखा जाना चाहिए-
(अ) प्रायः चलते-चलते फव्वारा का नोजल घूमना बन्द हो जाता है। इससे पानी का रिसाव कम अथवा बिल्कुल बन्द हो जाता है या फव्वारा ठीक से चारों तरफ घूम नहीं पाता। अतः इस समस्या के समाधान हेतु किसी पतले तार या पिन से नोजल के छिद्रों को साफ करना चाहिए। नोजल का घूमना इसमें लगे स्प्रिंग के खिंचाव पर निर्भर करता है। स्प्रिंग खराब होने पर इसे बदल देना चाहिए।
(ब) नोजल के किसी भी भाग पर तेल, ग्रीस आदि चिकनाहट का प्रयोग नहीं करना चाहिए, अन्यथा मिट्टी जमकर नोजल खराब हो सकता है।
(स) पाइपों के जोड़ों पर पानी के रिसाव को रोकने हेतु ‘रबड़ गेसकेट’ का प्रयोग किया जाता है। रबड़ गेसकेट के ढीले पड़ने पर पानी रिसने लगता है। अतः ढीले गेसकेट को निकालकर नया गेसकेट प्रयोग करना चाहिए।
(द) फव्वारा संयन्त्र चलाने से पूर्व अन्तिम प्लग को निकालकर पानी से फ्लशिंग कर देनी चाहिए ताकि पाइप के अन्दर मिट्टी, कंकड़ अथवा जीव-जन्तु छुपा हो तो बाहर निकल जाए।
ड्रिप (बूँद-बूँद) सिंचाई पद्धति
ड्रिप सिंचाई पद्धति में पानी बूँद-बूँद करके सीधे जड़ों तक पहुँचाया जाता है। कम पानी से उबड़-खाबड़, हल्की एवं रेतीली भूमि में वानिकी, फलवृक्षों एवं सब्जियों में अच्छी सिंचाई की जा सकती है। इस विधि द्वारा कीटनाशक एंव रासायनिक खाद भी सिंचाई जल के साथ मिलाकर डाली जा सकती है। पौधों की जड़ों के समीप पौधे की जल-माँग के अनुरूप नमी होने वे कारण पौधों का समुचित विकास होता है जिसके फलस्वरूप अच्छी उपज मिलती है।
लाभ
(अ) इस सिंचाई पद्धति द्वारा 30 से 50 प्रतिशत पानी की तथा 60 से 70 प्रतिशत श्रम की बचत होती है।
(ब) इस विधि द्वारा उर्वरक तथा कीटनाशक की लगभग 50 प्रतिशत बचत होती है।
(स) ड्रिप सिंचाई से खरपतवार कम पनपते हैं।
(द) उपयुक्त ‘ड्रिपर’ का प्रयोग करके इस विधि द्वारा खारे पानी से भी सिंचाई की जा सकती है।
देखभाल
(अ) खेत में बन्द हुए ‘ड्रिपरों’ को खोलने के लिए क्रमशः सभी ड्रिपरों को देखना चाहिए। साथ ही ड्रिपर के बहाव को नापना चाहिए।
(ब) समय-समय पर फिल्टरों की जाँच, सफाई एंव धुलाई करते रहना चाहिए।
(स) दबाव नियन्त्रक रसायन इंजेक्टर एवं मुख्य पम्प की देखभाल करते रहना चाहिए।
(द) मुख्य एवं सहायक नलियों का निरीक्षण कर कटी हुई एवं रिसाव वाली नलियों को बदल देना चाहिए
(य) बन्द हुए ड्रिपरों को खोलने के लिए रासायनिक जल-उपचार करना चाहिए।
घड़ा-सिंचाई पद्धति
इस विधि में मिट्टी के पके हुए घड़े का प्रयोग किया जाता है। घड़े को जमीन में गर्दन तक पौधों के पास गाड़कर पानी भर दिया जाता है। घड़े का पानी इसकी दीवारों के सूक्ष्म छिद्रों से धीरे-धीरे निकलकर पौधे के आसपास की मिट्टी में आने लगता है। यह पानी पौधे की आवश्क वृद्धि के लिए पर्याप्त नमी बनाए रखता है। घड़े में पानी की कमी को एक निश्चित अन्तराल पर पानी भरकर पूरा किया जाता है। इस प्रकार घड़े को हमेशा ढ़ककर रखना चाहिए। यह विधि उबड़-खाबड़ भूमि एवं पानी की अत्यधिक कमी वाले क्षेत्रों के लिए उपयुक्त है जहाँ वृक्षारोपण या सब्जी उत्पादन बहुत ही मुश्किल होता है।
फसल-चक्र पद्धति
सिंचाई जल के लाभदायक उपयोग के लिए उचित फसलों और फसल-चक्रों को चुनाव करना चाहिए। ज्यादातर कुओं का जल लवणीय/क्षारीय होने के कारण शुष्क क्षेत्रों में कम पानी चाहने वाली फसलें ही उगाई जानी चाहिए। फिर भी यदि एक ऋतु में अधिक पानी चाहने वाली फसल ली गई हो तो इसके बाद आने वाली ऋतु में कम पानी चाहने वाली फसल का चुनाव करना चाहिए। पानी की कमी एवं लवणीयता की समस्या वाले क्षेत्रों में एक फसल वर्षा आधारित (खरीफ ऋतु में) तथा दूसरी फसल (रबी में) सिंचाई जल के समुचित उपयोग से ली जा सकती है। इसके साथ ही कम सिंचाई चाहने वाली फसलें उगाने से सिंचित क्षेत्र 2 से 3 गुना बढ़ाकर अधिक पैदावार ली जा सकती है। कम सिंचाई चाहने वाली फसलों में जौ, सरसों, ग्वार, बाजरा, मूँगफली मुख्य हैं जबकि अधिक पानी चाहने वाली फसलों में गेहूँ, मक्का, आलू एवं सब्जियाँ आती हैं। गेहूँ-बाजरा फसल-चक्र की तुलना में समस्याग्रस्त जल के साथ बाजरा-सरसों चक्र अपनाकर सिंचाई क्षमता बढ़ाकर अधिक लाभ कमाया जा सकता है। फलदार एवं छायादार पेड़ों में बेर, अनार, आँवला, शीशम, खेजड़ी, सरेस, नीम आदि कम पानी से उगाए जा सकते हैं।
क्षारीय जल का लाभप्रद उपयोग
खारे पानी का सिंचाई में उपयोग करने के लिए कुछ प्रबन्धकीय उपाय काम में लिए जाते हैं। अधिक सार्थक खेती के लिए क्षार सहिष्णु तथा क्षाररोधी फसलें जैसे- जौ, सरसों, कपास, ज्वार और बाजरा उगाई जाती है। विभिन्न क्षेत्रों के लिए उपयुक्त लवण-सहनशील किस्में विकसित की गई हैं जैसे- गेहूँ की खारचिया 65, राज 3077, आदि। अतः लवण एवं क्षार सहन करने वाली फसलों के साथ-साथ इनकी लवण-सहन किस्मों का चयन करना चाहिए। खारे पानी की उपस्थिति में उर्वरकों द्वारा साधारण फसल की तुलना में अधिक (लगभग डेढ़ गुना) पोषण देना चाहिए क्योंकि ऐसी अवस्था में पोषक तत्वों की समुचित मात्रा एवं जीवांश पदार्थ पौधों पर खारे जल के विपरीत प्रभाव को कम करते हैं। इसके अलावा ढेंचा या अन्य हरी खाद प्रयोग से भी खारे पानी का विपरीत प्रभाव फसलों पर नहीं पड़ता। क्षारीय जल के समुचित प्रबन्ध के लिए इसमें उपलब्ध अवशिष्ट सोडियम कार्बोनेट (आर.एस.सी.) ज्यादा हो तो उसमें जिप्सम डालकर उसे सन्तुलित करें। आवश्यकतानुसार बारीक जिप्सम की मात्रा बुवाई के पहले खेत में डालकर मिलावें। यदि भूमि का पी.एच. मान 9 के आसपास है तो लगभग 25 क्विंटल जिप्सम प्रति हेक्टेयर काम में लावें।
[ट्रेनिंग एसोसिएट (शस्य विज्ञान), कृषि विज्ञान केन्द्र (गाँधी विद्या मन्दिर) सरदारशहर, चूरू, राजस्थान]
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