कैलास-मानस के बाद पिथौरारगढ़-चम्पावत के साहसिक यात्रा परिपथों के चिन्हीकरण का काम वर्षों से हो रहा है। अब इनमें छोटा कैलास भी जुड़ गया है। वैसे सिमटते-सिकुड़ते हिमनदों की ओर जाने का उत्साह कम नहीं हुआ है। मिलम, रालम, नामिक व दारमा-ब्यांस, चौदांस के बुग्यालों की ओर जाने के लिए वर्षों पहले पिथौरागढ़ के कुछ युवा व्यवसायियों व छात्रों ने पहल की थी। उत्साही जिलाधिकारियों ने अनुदान भी दिलाया। मामला और आगे बढ़ता कि जिलाधिकारी का तबादला हो गया। यह वह जमाना था जब नैनी सैनी हवाई पट्टी का उद्घाटन होते ही हवाई पट्टी के आस-पास की जमीन के भान बढ़ गए थे।
नियोजित विकास की प्रक्रिया में पर्यटन का जो स्वरूप उभरा है वह आर्थिक क्रियाओं के उत्प्रेरक की भाँति प्रयोग में लाया जाता रहा है। अपने इस स्वरूप में पर्यटन की सफलता की कुछ निश्चित पूर्व दशाएँ हैं। इनको कार्य नीति के मसविदे में खोजा जाना चाहिए। विशिष्ट और विविध उत्तराखण्ड के लिए पर्यटन की नीति अभी तक कुछ वृहद सामान्यीकरणों पर आधारित रही है। इसके दुष्परिणाम प्रतिफलित होते रहे हैं। अक्सर सामान्यीकरण करते हुए आंचलिक विशिष्टताओं, स्थानीय संसाधनों की गहनता-बहुलता व इनके उपयोग की दुर्गति को ध्याम में नहीं रखा जाता है। इसी कारण ऐसी दशाएँ उत्पन्न हुईं जो असन्तुलित वृद्धि, अल्परोजगार व निर्धनता के पाशों की पर्याय थीं व आज तक जो संरचना सामने आई है वह द्वैतता का प्रदर्शन करती रही। नौकरशाही के ढुलमुल क्रियान्वयन व मंत्रियों की संकीर्ण दृष्टि से न तो कोई दीर्घकालिक प्रभाववाली योजनाएँ बन पाईं और न ही पर्यटन कहीं भी आम आदमी से जुड़कर कोई प्रभाव पैदा कर पाया। बस पहले से चली आ रही पर्यटन परिपाटी कुछ नवकुबेरों की पूँजी से नए स्पा, जंगल रिसोर्ट, हैरिटेज, एडवेंचर स्पोर्ट की फुलझड़ी छोड़ती रही। नशे, विलास और मंहगी कारों के दिखावे में धर्म व संस्कृति का बघार लगता रहा। क्या इस पृष्ठभूमि में उत्तराखण्ड में पर्यटन विकास सम्बन्धी नीति प्रस्तावों को उत्तराखण्ड की विशिष्ट भौगोलिक, आर्थिक व सांस्कृतिक विशिष्टता के साथ लोकथात के अनुरूप होना चाहिए ?यदि हाँ तो, नीति प्रस्तावों के सन्दर्भ में इस वास्तविकता को निरन्तर दृष्टि में रखा जाना चाहिए कि आर्थिक क्रियाओं के उत्प्रेरक के रूप में पर्यटन का उपयोग गहन चिन्तन, दूरदृष्टि, सम्यक व्यूह रचना एवं सर्वोपरि घोर सावधान सोच की माँग करती है। पर्यटन का सकारात्मक ही नहीं नकारात्मक पहलू भी है। किसी क्षेत्र की विशिष्टता, सौन्दर्य, संस्कृति, विरासत पर्यटन का आधार बनती है। यदि नीतियाँ सन्तुलित नहीं हों तो पर्यटन ही ध्वंस का कारण भी बनता है।
पर्यटन तभी अर्थव्यवस्था के जड़त्व को तोड़ सकेगा जब इस व्यवसाय से साधारण व्यवसायी व आम आदमी को भी प्रत्यक्षः आय/रोजगार की प्राप्ति हो। यदि यह स्थापना भी स्वीकार की जाती हो तो पर्यटन व्यवस्था के विकास का मामला केवल आधार संरचना या पर्यटकों के लिए सुविधा सृजन तक ही सीमित नहीं रहा जाता। प्रश्न है कि किस वर्ग, रुचि या आय के पर्यटक के लिए सुविधा सृजन हो? यदि पर्यटकों का लक्ष्य समूह उच्च आय वर्ग-विशेषतः नव धवाढय हो तो वह गन्तव्य स्थान पर पाँच सितारा सुविधाएँ चाहेगा या एक ऐशगाह की तलाश करेगा। इस वर्ग के पर्यटकों हेतु सुविधा सृजन से प्राप्त आय में साधारण व्यवसायी या आम स्थानीय व्यक्ति, श्रमिक, कामगार की हिस्सेदारी की सम्भावनाएँ अत्यन्त न्यून होंगी। परिणामतः पर्यटन का आर्थिक अभिप्रेरक के रूप मेें विशेष योगदान नहीं होगा। विपरीतः पर्यटन प्रतिफलित आय के केन्द्रीकरण का कारक बनेगा। विलासभूमि की तलाश मेें आने वाला पर्यटक ही स्थानीयता, जीवनशैली एवं संस्कृति को दुष्प्रभावित कर अपसंस्कृति को आधार देता है। पर्यटन के नाम पर उत्तराखण्ड को नवकुबेरों की विलासभूमि में नही बदला जा सकता। आवश्यकता उत्तराखण्ड के अनुरूप पर्यटन की है न कि किसी अन्तरराष्ट्रीय संस्था के तय मानकों वाले पर्यटन के निहितार्थ मूल्य व संस्कृति रहित उत्तराखण्ड की।
पर्यटक अपने साथ एक भिन्न जीवन शैली एवं जीवन मूल्य लाता है, जिसके प्रदर्शनकारी प्रभाव होते हैं। पर्यटक यदि मेजबान समुदाय के औसत आय वर्ग से अत्याधिक उच्च आय वर्ग का हो तो अपसंस्कृति भौतिक व मानसिक प्रदूषण के खतरों से इतर, मेजबान समुदाय के पर्यटकों जैसे जीवन के प्रति एक छटपटाहट भरा आकर्षण पैदा करता है। इसकी प्राप्ति हेतु जो संसाधन उसके हाथ में हैं, वे भी इस मृगमरीचिका में खो जाते हैं। इसके अनेक उदाहरण हैं। जैसे-रामनगर (नैनीताल) के दो गाँवों लपुआचौड़ और ढिकुली में कृषि भूमि को क्रय कर खड़े किए रिजोर्टस ने कई कृषक परिवारों को तो भूमिहीनों की श्रेणी में ला खड़ा किया है साथ ही इन गाँवों के कृषक परिवार के नवयुवकों द्वारा अपने परिवारों पर डाले जा रहे कृषि भूमि के एक हिस्से को बेच देने सम्बन्धी दबावों में पारिवारिक तनावों को आधार दिया है। यही बात मुक्तेश्वर, रामगढ़, अल्मोड़ा, भीमताल व भवाली में भी देखी जाती रही है कि जो भूस्वामी थे, वे अब अपनी ही जमीन पर खड़े भवनों की चौकीदारी कर रहे हैं। ये खेती की जमीन को बेचकर विलास पर खर्च करने के उदाहरण हैं। धर्मशालाओं और विश्रामगृहों पर भूमाफिया की आँखे गढ़ गई हैं। करोड़ों का खेल शुरू हो गया है। पर्यटक स्थलों में बने हाईटैक शौचालय तक इस दो टप्पे की क्रीड़ा में शामिल हैं। हर साल नए बिल्डर व प्रापर्टी एडवाइजर अपने बड़े नामों व सम्पर्कों से कई मध्यमवर्गीय लोगों का सपना खा-पचा गए हैं। धर्मनगरी और हरियाली के नाम पर एल्युमिनियम फ्रेम में मढ़े सनस्क्रीन ग्लासेस के जंगल खड़े हो गए हैं। वन भूमि पर अतिक्रम कर होटल व रिजोर्टस खड़े करने के कई मामले कानूनी दावपेंच में उलझे हुए हैं।
इस पृष्ठभूमि में उत्तराखण्ड में पर्यटन की सोच के अन्तर्गत पर्यटकों के ऐसे लक्ष्य समूह का निर्धारण हो जो पर्यटन के नकारात्मक प्रभावों को उपयुक्त हो। उदाहरण के लिए चम्पावत व पिथौरागढ़ जैसे उपेक्षित पड़े पर नैसर्गिक दृष्टि से उपयुक्त स्थल की ओर आने की सोच रखने वाले पर्यटकों की रुचि व जेब के आधार पर टनकपुर, अल्मोड़ा, बागेश्वर से आगे सुविधा सृजन की ठोस पहल हो तो यहाँ उपेक्षित पड़े व नये पर्यटन स्थलों के विकास का व्यापक सम्भावनाओं का पूर्वानुमान सम्भव है परन्तु असमंजस तो यह है कि मोटी रकम खर्च करने वालों को देहली से उठा कैलास-मानसरोवर ले जाता निगम तंत्र जब यात्रियों को उनका सामान मुहैया करने में कोताही दिखाता है और यात्री गाँधीगिरी पर विवश होते हैं या टनकपुर से चढ़ते एन.एच.पी.सी. की धमाकों से चट्टानों को तड़काने वाली सड़क पर यात्री अपनी कारों की दुर्दशा और कई दिनों के फंसाव के बाद कसम खाते हैं कि अब मुड़ कर न देखेंगे इस राह को दोबारा। पिथौरागढ़ के होटलों में आमतौर पर आक्यूपंसी रेट 30 से 40 प्रतिशत रहती है। कभी अचानक तीन चार सौ पर्यटक आ गए तो वह कहाँ टिकेंगे ? यह बात भी समझनी होगी कि चम्पावत, पिथौरागढ़, लोहाघाट, दार्चुला के होटलों में अमूमन टिकने वाले पर्यटक की श्रेणी में नहीं कारोबारी हैं, जो माल सप्लाई का ऑर्डर लेने आते हैं। विदेशी व बंगाली पर्यटक तो सीधे वाहन से मुनस्यारी चल देते हैं। रीठासाहिब जाने वाले अपने ट्रकों-बसों में रसद व खाने-पीने के बर्तन लिए सीधे वहीं डेरा जमातें हें तब ऐसे में यात्रा के सहायक प्रभाव तो टूटा दिल लिए कुछ भी मिलने की आस में तराई-भाबर देश, महानगर का रुख कर लेते हैं।
तदर्थ नीतियाँ
अभी तक पर्यटन नीति तदर्थवाद से प्रेरित रही है। पर्यटन की दिशा को गति देने के लिए सरकारी सुविधाओं के नाम पर जो खानापूरी की गई वह अपर्याप्त व अधूरी थी। उदाहरणार्थ कुमाऊँ में जिन पर्यटन स्थलों को न्यूनाधिक रूप औपनिवेशिक काल में स्थापित कर दिया गया वही मुख्य केन्द्र के रूप में प्रभावी रहे। उनके सहायक क्षेत्र विकसित नहीं हो पाए। मुख्य पर्यटक स्थलों के समीप जो नवीन स्थल विकसित हुए भी तो उनकी मुख्य गतिविधि नए भवन, रिसोर्टस के निर्माण से सम्बन्धित रही और नैनीताल, अल्मोड़ा, रामनगर, लोहाघाट, चम्पावत व पिथौरागढ़ जैसे नगरों की समीपवर्ती जमीन के भाव बेतहाशा बढ़ते रहे। बुनियादी सुविधाओं के अभाव से कई नवीन सुरम्य क्षेत्र अविकसित ही बने रहे। सम्पूर्ण पिथौरागढ़, चम्पावत ही नहीं द्वाराहाट, बागेश्वर, सल्ट, स्यालदे, भिकियासैण, मानिला इसके उदाहरण हैं। पर्यटक सुविधायुक्त क्षेत्र में ही रुकता है। जहाँ सुविधाएँ नहीं हैं पर इलाका दर्शनीय है वहाँ वह वाहन से उतर, दो-एक घंटे रुक लौट आता है। दिल्ली या नैनीताल की एजेन्सियाँ पूरे क्षेत्र पर नजर नहीं रखती हैं। वे नैनीताल-कौसानी-पिण्डारी-चौकोड़ी-मुनस्यारी-मिलम से बाहर नहीं निकल पातीं हैं।
टिकाऊ विकास एवं पर्यटन नीति
पर्यटन अब विकास की महत्त्वपूर्ण सामाजिक प्रवृत्ति का रूप ले रहा है, जिसके अन्तर्गत विविध सुविधाओं एवं सेवाओं की माँग सम्मिलित है। जैसे-यातायात, आवास, रेस्टोरेंट, मनोरंजन सुविधाएँ, विक्रय केन्द्र, आकर्षण स्थल व रोमांचकारी पर्यटन जैसी विविध क्रियाएँ। टिकाऊ विकास के लिए पर्यटन महत्त्वपूर्ण है। सीमान्त व पर्यटन की दृष्टि से उपेक्षित पिथौरागढ़ व चम्पावत के पर्यटन विकास पर प्रस्तुत इस नीतिपरक विश्लेषण का उद्देश्य आंचलिक विशिष्टता को ध्यान में रखते हुए पर्यटन का सुधार तथा विस्तार है। इस परिवेश में पर्यटन की वृद्धि आर्थिक विकास के साथ पर्यावरण एवं लोकथात के संरक्षण के प्रति भी संवेदनशील बने।
यद्यपि आर्थिक विकास के साथ पर्यटन के स्वरूप में भी परिवर्तन होता गया। परन्तु स्थानिक स्तर पर विषमताएँ भी बढ़ी। पर्यटन की दृष्टि से विकसित होने की सम्भावना रखने वाले इलाके अपनी दुर्गमता, भंगुरता व दूरी के कारण असन्तुलित विकास के दबाव भोगते रहे। राज्य स्तर पर अवस्थापना एवं अन्तरसंरचनात्मक सुविधाओं हेतु पूँजी का अधियोग विनियोग उन्हीं इलाकों में अधिक किया गया जो पर्यटकों के नियमित प्रवाह की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण थे। पर्वतीय क्षेत्र के लिए शासनादेश संख्या 538/41-99-184/98 दिनाँक 31 मार्च 1999 द्वारा चिन्हित किए गए पाँच परिपथों मेें कुमाऊँ, गढ़वाल, चार धाम, वन विहार, इकोटूरिज्म व साहसिक यात्रा परिपथ में प्रमुख पर्यटन स्थलों के अतिरिक्त अल्पज्ञात पर्यटक स्थलों के विकास की आवश्यकता को रेखांकित किया गया था। इन स्थलों पर विशेषतः पिथौरागढ़ में दन्या से आगे पनार व घाट, गंगोलीहाट पनार, थल से वीसाबजेड़ व जाजर देवल होते हुए पिथौरागढ़, पिथौरागढ़ से जौलजीवी व तवाघट-धारचूला, पिथौरागढ़ से मुनस्यारी, पिथौरागढ़ से टनकपुर के सम्पर्क मार्गों की हालत नाजुक थी।
सड़क मार्गों का निर्माण व रखरखाव लो.नि.वि. के अलावा डी.जी.बी.आर./बी.आर.ओ. के पास था। विभागीय तालमेल में अभाव का कोप वर्षों तक पिथौरागढ़ व चम्पावत जिले की जनता व पर्यटक भोगते रहे। तदनन्तर एन.एच.पी.सी.द्वारा तवाघाट-धारचूला में विद्युत परियोजना आरम्भ होने पर टनकपुर से धारचूला के मार्ग का सुधार व इसे चौड़ा करना अपरिहार्य माना गया। आज टनकपुर-चम्पावत मार्ग थोड़ी-सी बारिश से अनगिनत गड्डों व अनवरत दलदल में बदल जाता है। उस पर चलने वाली रोडवेज को मिली नई-नई बसें महीने-दो महीने बाद कुरूप व भोंडी हो जाती हैं। 2008 में तो पर्यटकों की आवाजाही पर ग्रहण लग गया। मायावती जाने वाले आए ही नहीं। लगातार कई महीनों की बारिश से टनकपुर का रास्ता अवरूद्ध ही रहा।
अब बात करें वन विहार, इकोटूरिज्म व साहसिक यात्रा पथ की, जिसके लिए घोषित सरकारी नीति में पर्यटक स्थलों पर सघन वृक्षारोपण, कूडे के निस्तारण, झीलों-नदियों की सफाई, पॉलिथीन पर रोक, भूस्खलन की रोकथाम, प्रकृति से छेड़छाड़ मेें कमी, भूकम्परोधी भवनों का निर्माण, सीवरेज व्यवस्था आदि के लिए कार्ययोजना में प्राविधान आवश्यक समझे गए। सवाल इससे आगे का है। चाहे वह गंगोलीहाट से पनार घाट वाला पथ हो या अल्मोड़ा-पनार घाट या टनकपुर-चम्पावत,घाट से पिथौरागढ़ तक पहुँचा रास्ता, कहीं सड़क के अगल-बगल सघन वृक्षारोपण किया गया दिखा आपको? जो दिख रहा है वह नैसर्गिक है। हाँ, गर्मी के मौसम धू-धू जलते जंगल, पिरूल के स्वाहा होने का धुँआ और रात में लकीरों में धधकती आग जरूर स्तम्भित करेगी। राष्ट्र की सम्पति, रात के अधियारे में ट्रकों में छिलवा फड़वा कर तमाम वन विभाग की चुंगियों को चकमा दे यहाँ-वहाँ होती रहती है और मुर्दे फूकने के लिए पिथौरागढ़ वाले अक्सर लकड़ी यहीं से घाट के लिए बस की छत में लिटा देते हैं। पता नहीं यह मूल्यवान सम्पत्ति वहाँ मिले । कम न पड़ जाए इस डर से घी के बजाय टायर के पत्तरों की एक पर्त भी चिता मेें लगा दी जाती है। भूस्खलन और प्रकृति से छेड़छाड़ का अतं आदमी यहाँ भी महसूस नहीं करता। हाँ, सात वाले मलामी, श्मशान वैराग्य के क्षणिक अन्तराल में यह सोचते रहें कि मालपा दुर्घटना इसी भंगुर धरती पर घटी। आज भी यह झिझक कम नहीं हुई। उधर कैलास-मानसरोवर यात्री कुमाऊँ मण्डल विकास निगम के लचर प्रबंद से इतना आहत हुए कि उन्हें अर्द्धनग्न होकर धरना-प्रदर्शन करना पड़ा।
कैलास-मानस के बाद पिथौरारगढ़-चम्पावत के साहसिक यात्रा परिपथों के चिन्हीकरण का काम वर्षों से हो रहा है। अब इनमें छोटा कैलास भी जुड़ गया है। वैसे सिमटते-सिकुड़ते हिमनदों की ओर जाने का उत्साह कम नहीं हुआ है। मिलम, रालम, नामिक व दारमा-ब्यांस, चौदांस के बुग्यालों की ओर जाने के लिए वर्षों पहले पिथौरागढ़ के कुछ युवा व्यवसायियों व छात्रों ने पहल की थी। उत्साही जिलाधिकारियों ने अनुदान भी दिलाया। मामला और आगे बढ़ता कि जिलाधिकारी का तबादला हो गया। यह वह जमाना था जब नैनी सैनी हवाई पट्टी का उद्घाटन होते ही हवाई पट्टी के आस-पास की जमीन के भान बढ़ गए थे। पर किसानों की जमीन अधिग्रहण के मुआवजे का मामला लम्बे समय तक लटका रहा था।
इसी साल पिथौरागढ़-चम्पावत के पर्यटन विकास की भावी योजना का सूत्रपात करने एक अन्तरराष्ट्रीय एजेंसी के चरण भी इस भूमि पर पड़े। इससे पहले भी टाटा कन्सल्टेंसी द्वारा कोई सर्वेक्षण कराया गया था। शासन स्तर पर भी रणनीतियाँ बुनी गई थीं। पर्यटन नीति का सिंहावलोकन करके ही करनी व कथनी का भेद खुल पायेगा।
पर्यटन विकास हेतु निर्धारित नीति
वस्तुतः यह पर्यटक व तीर्थयात्री को केन्द्र मानकर पर्यटन गतिविधि की अभिवृद्धि से सम्बन्धित रही है। इसके अधीन धार्मिक, रोमांचकारी व विशिष्ट स्थान आधारित पर्यटक को सुविधाएँ प्रदान करना इष्ट रहा है। सीमान्त जनपदों मेें आधारभूत सुविधाएँ भी उपलब्ध नही कराई जा सकीं। कहा गया कि पर्यटन एक सेवा उद्योग है,अतः इसकी क्षमता में सुधार इस प्रकार किया जाना है कि सामाजिक व आर्थिक लाभों में लगातार वृद्धि के साथ रोजगार सृजन हो। पिथौरागढ़ शहर, बेरीनाग, दार्चुला, मुनस्यारी व चम्पावत में जितने भी होटल खुले उनके पीछे निजी प्रयास थे। मुनस्यारी को छोड़ अन्यत्र होटल सिर्फ कारोबारियों व अन्य जरूरी कामों से आने वाले मुसाफिरों के कारण चलते हैं। दोनों जिलों में बिजली गुल और पानी बन्द आम है। तमाम गुणवत्तायुक्त वस्तु व सेवाएँ भी सड़क चालू रहने पर हल्द्वानी व टनकपुर मंडी से आयात होती है। इन रास्तों पर बने स्थानीय ढाबों, खोखों और रेस्टोरेंट में धूल भरे छोले व बीस-पच्चीस रुपये में भरपेट छक लेने की व्यवस्थाएँ जगह-जगह हैं। पर्यटन विकास हेतु जिस व्यूह नीति पर अमल हुआ उसके मुख्य आधार क्या थेः
1.निजी तथा सार्वजनिक उपक्रमों द्वारा आवश्यक अवस्थापना का विकास करना तथा विदेशों मेें निवास कर रहे भारतीयों के द्वारा विनियोगों को विशेष महत्ता प्रदान करना। दोनों ही जनपदों में विकास भवन की इमारतें तैयार खड़ी हैं। चिकित्सालयों का जीर्णोंद्धार भी मई टायलों व एक्रेलिक पेंट से कर दिया गया है। पर तकनीशियनों की कमी है, जो एक्स-रे व अल्ट्रासाउंड की मशीनों को जंग खाने से बचा सकें। संविदा पर नियुक्त डॉक्टर सेवा पर आ नहीं रहे हैं। मरीजों की संख्या में कोई कमी नहीं आई है। 108 एम्बुलेंस दौड़ने लगी हैं। अस्पतालों के कूड़े का निस्तारण करने को भी ठेकेदार नियुक्त हैं।
2. सीमान्त जनपदों में रेल एक तरफ काठगोदाम तो दूसरी ओर टनकपुर तक आती है। काठगोदाम से तो गरीब रथ चलने लगा है पर टनकपुर की छोटी लाइन वर्षों से करुणा क्रंदन कर रही है कि मुझे भी फास्ट ट्रेक पर लाओ। यह सवारियों का जीवट है कि दुनिया के किसी भी कोने से पूजा, पर्व, जनेऊ, ब्याह या मरण अवसर पर सीमान्त प्रदेश तक पहुँच ही जाते हैं। दूरसंचार सेवाओं मेें बी.एस. एन. एल बाबू से भी नहीं लगता का कीर्तिमान ले रहा है तो धारचूला वाले भी बरसों से गुहार लगा रहे हैं कि यहाँ भी लगाओ, हम भी ट्राई करें। वैसे रिलायंस, एयरटेल, वोडाफोन, आइडिया सब आ गया है। सरकारी नीति में पुरातन स्थलों का पुनरुद्धार एवं विरासत होटल अनुदान स्कीम की प्रस्तावना उत्तराखण्ड में बारी-बारी से बदली सरकार ने जारी रखी है। पर चाहे चम्पावत का बालेश्वर मन्दिर हो या लोहाघाट का बाणासुर का किला, उनके परम्परागत स्वरूप में कोई छेड़छाड़ नहीं हुई है। बालेश्वर मन्दिर के बगल में स्थानीय जनों ने हनुमान मन्दिर भी निर्मित कर दिया है। पाताल भुवनेश्वर पर एकाधिकारी प्रभाव वाला बाहुबली अब चला गया है। वहाँ बिजली व्यवस्था है। पिथौरागढ़ में संग्रहालय व ऑडीटोरियम के लोकार्पण की खबर भी फिजाओं में है। मन्दिरों के जीर्णोद्धार व मेलों-ठेलों पर पर्यटन मंत्री की कृपा बनी हुई है। बग्वाल व हिलयात्रा को काफी फुटेज मिला है।
3.अब बात करें पर्यटन उद्योग के विकास हेतु विविध विभागों के मध्य समन्वय की, जिसके अन्तर्गत प्रस्तावित नीतियों में कहा गया है कि क.उपक्रमियों की सहायता हेतु पर्यावरण मित्र की स्थापनाकी जाएगी। ख.जिला मण्डल व राज्य पर सलाहकार समिति बनेगी। ग. जिला स्तर पर पर्यटन प्रसार समिति बनेगी व घ. सम्बन्ध मंत्रालयों का तालमेल होगा। साथ ही मानव संसाधन विकास हेतु सुविधाओं का सृजन करना, पर्यटन प्रबन्ध संस्थान एवं फूड क्रास्ट संस्थान के प्रबन्ध को उच्चीकृत करना व सुधारना होगा। राजधानी में पर्यटन विकास परिषद स्थापित है, जिसके विज्ञापन यदा-कदा अखबारों में आते हैं।
पर्यटन को एक विषय बना कॉलेजों में लगाने की पहल विश्वविद्यालय अनुदान आयोग ने की। स्थानीय से ज्यादा नेपाली विद्यार्थियों ने रुचि ली। फिर इसे डिप्लोमा कोर्स कर दिया गया। साथ ही इकोटूरिज्म के कोर्स भी चले। विभागों में कम्प्यूटर कैमरे लगे। पर्यटन और इकोपर्यटन की गिनी-चुनी हिन्दी पुस्तकों के साथ ऊँचे कमीशन में बिकने वाली अंग्रेजी किताबों से विभाग भरे। परन्तु फैकल्टी का निरन्तर टोटा रहा। सिसको लैब भी खुली जो विशेषज्ञों के अभाव में सिसकती रही। यू.जी.सी.ग्रांट में दक्ष प्राध्यापक विषय में तो पता नहीं, निविदा मँगाने, उपकरण सजाने व समायोजन में दक्ष थे। व्यवसायियों, टूरआपरेटरों, गाइडों,कुलियों, खानसामाओं के प्रशिक्षण की बातें भी हुई। पर आज भी ढाबों, होटलों मेें भीगे हाथ की एक उंगली पानी के गिलास में डुबाये छोटू सर्विस करता है।
4.पर्यटन विकास सम्बन्धी अवस्थापनाओं (सड़कें, पेयजल एवं स्वास्थ्य व विद्युत सुविधा) के हाले बेहाल रहे। नए होटल एवं रेस्टोरेंट खुले पर पर्यटकों के गमनागमन से ये अप्रभावित रहे। चम्पावत व पिथौरागढ़ को जाने वाले राष्ट्रीय व राज्य मार्गों मेें रेस्टोेरेंट व पार्किंग स्थलों की स्थापना भी उद्घोषणाओं तक सीमित रही। पिथौरागढ़, बेरी नाग, चौकोड़ी, चम्पावत मेें शहर से हट कर जंगलों के बीच पर्यटक रिसोर्ट बनाने के यदा-कदा प्रयास होते परन्तु पर्यटक ग्राम स्थापना की योजना कागजों तक सीमित रही। पिथौरागढ़ व चम्पावत जिले की स्थानिक प्रकृति एवं दर्शनीय स्थलों व विरासत के दर्शन हेतु पथ भ्रमण की सुविधाओं पर कोई पहल नहीं की गई। जबकि अस्कोट-आराकोट के सफल अभियान इसी जनपद से आरम्भ हुए थे। इसी प्रकार परम्परागत शिल्प एवं अन्य लोककलाओं से सम्बन्धित वस्तुओं के अनुरक्षण एवं संवर्धन के स्तर में सुधार भी बाजारीकरण की लपेट में आ गया। सीमान्त क्षेत्रों दार्चुला व मुनस्यारी में परम्परागत ऊनी सामान ठीक बगल में नेपाल से आ रहे कोरिया, थाइलैण्ड के एक्रलिक उत्पादों की प्रतियोगिता के शिकार बने। पर्व, उत्सव, त्योहार व संक्राति के प्रति स्थानीय निवासियों के लगाव से लोकथात की परम्परा बनी रही तो खेतीखान का दीप महोत्सव, देवीधूरा की बग्वाल, पिथौरागढ़, बजेठी व कुमौड़ में हिलाजात्रा व चेंसर का चैतोल व सीमान्त क्षेत्रों में जात, कँडाली व स्यंसैपूजा के आयोजन होते रहे हैं। कुछ संस्कृतिकर्मियों ने झूसिया दमाई, कबूतरी देवी की लुप्त-सुप्त लोक संगीत विरासत को उजागर करने के महत्त्वपूर्ण आयोजन किए परन्तु इसका लाभ सीमान्त क्षेत्र के पर्यटन को प्रत्यक्षतः नहीं हुआ। म्यूजियम की स्थापना एवं प्रबन्ध में सरकारी विभाग सोए रहे व महाविद्यालयों के इतिहास विभागों की तटस्थता बनी रही। सुमेरु संग्रहालय, पिथौरागढ़ जैसी व्यक्तिगत पहल जारी रही। रङ कल्याण संस्था दार्चुला तथा जोहार क्लब या जनजाति संग्रहालय, मुनस्यारी ने शौका सांस्कृतिक धरोहर को सहेजने का काम बड़े धैर्य व मनोयोग से किया। चम्पावत व पिथौरागढ़ की लोक संस्कृत पर डॉ. राम सिंह का लेखन प्रकाश में आया।
5.पिथौरागढ़ रोपवे स्थापना हेतु पर्यटन मंत्री द्वारा घोषणाएँ की गई तो साहसिक क्रीड़ाओं का विकास एवं प्रशिक्षण पुनः सरकारी के सापेक्ष व्यक्तिगत प्रयासों द्वारा उत्प्रेरित हुआ। रामगंगा घाटी, दारमा, ब्यांस, चौदांस में पथारोहण तथा पर्वतारोहण की अपार सम्भावनाएँ थीं। जोहार सबसे आगे था। वहाँ बंगाल से आने वाले पर्यटकों की संख्या सर्वाधिक (500 से अधिक), फिर महाराष्ट्र, उत्तरप्रदेश व दिल्ली के पर्यटक हैं। विदेशी पर्यटकों की संख्या सन् 2000 में 250 थी जो 2004 में 330 व 2008 में 400 से अधिक हुई है। सबसेे अधिक विदेशी पर्यटक यू.के., आस्ट्रेलिया, अमरीका, जर्मनी, इजराइल व फ्रांस से आए। मुनस्यारी से लीलम, रूपसिया बगड़, रड़गाड़ी, बोगडयार, नहार देवी, रिलकोट के पड़ावों को छोड़ मिलम जाने में शौचालय की कमी विदेशी पर्यटकों को अधिक खली क्योंकि उन्हें खुले में दिशा मैदान जाने की आदत नहीं होती।
सीमान्त में पर्यटन की अल्प सहभागिता
अब सीमान्त क्षेत्र पिथौरागढ़ व चम्पावत जिलों में पर्यटकों की आवागमन प्रवृत्ति को देखें। वर्ष 2007 में उत्तराखण्ड आने वाले घरेलू पर्यटकों का प्रतिशत 4.20 तथा विदेशी पर्यटकों का 0.84 था। उत्तराखण्ड आने वाले पर्यटकों में घरेलू पर्यटकों का 67.48 प्रतिशत मैदानी क्षेत्रों में व 32.54 प्रतिशत का प्रवाह पहाड़ी क्षेत्रों की ओर हुआ। कुल विदेशी पर्यटकों में 59.27 प्रतिशत मैदानी क्षेत्रों तथा 40.73 पहाड़ी क्षेत्रों में आया। उत्तराखण्ड आने वाले कितने पर्यटक पिथौरागढ़ व चम्पावत की ओर आए? पिथौरागढ़ आने वाले घरेलू पर्यटकों का अनुपात 4.3 प्रतिशत व विदेशी पर्यटकों का 3.7 था। पिथौरागढ़ जिले में भी यह प्रवाह मुनस्यारी की ओर अधिक हुआ। जिला चम्पावत में घरेलू पर्यटकों का प्रतिशत 0.22 तथा विदेशी पर्यटकों की आवाजाही अत्यल्प .01 ही रही।
साथ उत्तराखण्ड में आए घरेलू एवं विदेशी पर्यटकों की अधिमानयुक्त स्थान भ्रमण प्रकृति का अवलोकन वार्षिक आधार पर करें तो स्पष्ट होता है कि घरेलू पर्यटकों हेतु पिथौरागढ़ का क्रम 18वां तो चम्पावत जनपद का 26वां था, वहीं विदेशी पर्यटकों हेतु पिथौरागढ़ का क्रम 12वां चमपावत का 23वां था।
यह सीमान्त जिलों में पर्यटन गतिविधि के संकोच को प्रकट करता है। देश में उत्तराखण्ड आने वाले पर्यटकों का प्रतिशत भी वर्ष 2006 में 4.12 से अधिक नहीं रहा है साथ ही पर्यटन अन्तरसंरचना की स्थिति भी दुर्बल बनी हुई है।
उत्तराखण्ड में पर्यटन हेतु समस्त नैसर्गिक आकर्षण होने के बावजूद, अन्तरसंरचना की कमी से राज्य पर्यटकों को आकृष्ट करने में सक्षम नहीं बन पाया है। 2006 में उत्तराखण्ड में कुल 10.45 मिलियन पर्यटक आए जो भारत के कुल पर्यटकों का 4.12 प्रतिशत थे । अवस्थापना की कमजोरी को इंगित करती तालिका बताती है कि उत्तराखण्ड में वार्षिक आधार पर प्रति मिलियन (10लाख) पर्यटकों हेतु केवल 8.4 पर्यटक आवास गृह तथा 102.5 होटल/अतिथि गृह हैं तथा प्रति मिलियन पर्यटकों हेतु मात्र 337 शय्या उपलब्ध हैं। जनपद स्तर पर भी बेहतर अन्तरसंरचना मैदानी क्षेत्रों में उपलब्ध है। उत्तराखण्ड में पिथौरागढ़ व चम्पावत जिलों में आवास सुविधाएँ भी अन्य जिलों के सापेक्ष अल्प हैं। इसके अन्तर्गत होटल, गेस्ट हाउस, आश्रम, डोरमेस्ट्री तथा गढ़वाल व कुमाऊँ मण्डल विकास निगम की सुविधाओं को शामिल किया गया है।
तालिका1:भारत की तुलना में उत्तराखण्ड आए पर्यटकों का अंश (इकाई:प्रतिशत में) |
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वर्ष |
उत्तराखण्ड |
घरेलू पर्यटक |
विदेशी पर्यटक |
2001 |
3.97 |
4.04 |
0.82 |
2002 |
3.88 |
3.93 |
0.87 |
2003 |
3.45 |
3.51 |
0.82 |
2004 |
3.15 |
3.20 |
0.75 |
2005 |
3.65 |
3.64 |
0.76 |
2006 |
4.12 |
4.20 |
0.84 |
उत्तराखण्ड में प्रमुख पर्यटन स्थलों में घरेलू पर्यटकोें का वरीयता क्रम निम्न रहाः
1.हरिद्वार(75.4 लाख) 2.मसूरी(10.5 लाख) 3.देहरादून (10.15 लाख) 4. जोशीमठ (9.34 लाख) 5.टिहरी (6.77) 6. बद्रीनाथ (5.7लाख) 7.हेमकुंड साहिब (5.5 लाख) 8. नैनीताल (5.12 लाख) 9.उत्तरकाशी (4.9 लाख) 10. रुद्रप्रयाग (4.4 लाख) 11.केदारनाथ (3.8 लाख) 12.ऋषिकेश (3.7 लाख) 13.कोटद्वार (2.5 लाख) 14. गंगोत्री (2.23 लाख) 15. गोपेश्वर(2 लाख) 16.श्रीनगर-गढ़वाल(1.9 लाख) 17.यमुनोत्री (1.7 लाख ) 18.पिथौरागढ़(1.6 लाख) 19.कार्बेट पार्क(1.15 लाख) 20.पौड़ी (80 हजार) 21.अल्मोड़(79 हजार) 22.रानीखेत (75 हजार) 23.उधमसिंह नगर(69 हजार) 24.कौसानी (66 हजार) 25.काठगोदाम(47 हजार) 26.चम्पावत (45 हजार) 27.औली(10 हजार) व 28.फूलों की घाटी(5 हजार)।
इसी प्रकार उत्तराखण्ड के प्रमुख पर्यटन स्थलों में आने वाले विदेशी पर्यटकों का वरीयता क्रम निम्न रहा है-
1.कोटद्वार (15 हजार) 2. देहरादून (10.15 लाख) 3.टिहरी (10 हजार) 4.कार्बेट पार्क (18 हजार) 5.नैनीताल (17 हजार) 6.ऋषिकेश (6 हजार) 7. केदारनाथ (5 हजार) 8.अल्मोड़ा (5हजार) 9. रुद्रप्रयाग (1 हजार 300) 10. उत्तरकाशी (1 हजार) 11. पिथौरागढ़ (1 हजार)12. रानीखेत (900) 13.फूलों की घाटी (500)14.औली (450) 15. श्रीनगर-गढ़वाल (400) 16. कौसानी (400) 17. गोपेश्वर (300) 18.काठगोदाम (240) 19.गंगोत्री (227) 20. उधमसिंह नगर (250) 21. यमुनोत्री (147) 22.चम्पावत (128) 23.पौड़ी (24) व हेमकुंड (24) थे।
तालिका 2: पर्यटन अन्तरसंरचना की उपलब्धता, 2006 में |
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अन्तरसंरचना |
संख्या |
अन्तरसंरचना की उपलब्धता प्रतिवर्ष प्रति मिलियन जनसंख्या |
अन्तरसंरचना की उपलब्धता प्रतिदिन प्रति हजार जनसंख्या |
महत्त्वपूर्ण पर्यटन स्थल |
238 |
- |
- |
पर्यटन आवास |
163 |
8.30 |
22.96 |
रात्रि रैन बसेरा |
28 |
1.44 |
3.94 |
होटल व गेस्ट हाउस |
1993 |
102.47 |
280.73 |
धर्मशाला |
789 |
40.57 |
111.14 |
पर्यटन विश्राम कक्षों में शैयाएँ |
6562 |
337.38 |
924.32 |
रैन बसेरों में शैयाएँ |
1300 |
66.84 |
183.12 |
तालिका 3: उत्तराखण्ड में जिलेवार पर्यटक आवास, कमरे, शैया |
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जिला |
स्थापित आवास प्रतिष्ठानों की संख्या |
कमरों की संख्या |
शैयाओं की संख्या |
प्रति प्रतिष्ठान कक्ष |
प्रति प्रतिष्ठान शैया |
प्रति कक्ष शैया संख्या |
देहरादून |
317 |
6150 |
15283 |
19.4 |
48.2 |
2.5 |
हरिद्वार |
22 |
4294 |
9120 |
19.3 |
41.1 |
2.1 |
टिहरी गढ़वाल |
79 |
706 |
7747 |
8.9 |
98.1 |
11.0 |
पौड़ी गढ़वाल |
131 |
3849 |
16206 |
29.4 |
123.7 |
4.2 |
उत्तरकाशी |
132 |
1594 |
3496 |
12.1 |
26.5 |
2.2 |
रुद्रप्रयाग |
155 |
1434 |
4584 |
9.3 |
26.6 |
3.2 |
चमोली |
240 |
2527 |
9087 |
10.5 |
37.9 |
3.6 |
उधमसिंहनगर |
47 |
753 |
1464 |
16.0 |
31.1 |
1.9 |
नैनीताल |
126 |
2320 |
6094 |
18.4 |
48.4 |
2.6 |
अल्मोड़ा |
76 |
815 |
2139 |
10.7 |
28.1 |
2.6 |
बागेश्वर |
27 |
399 |
1057 |
14.8 |
39.1 |
2.6 |
पिथौरागढ़ |
70 |
679 |
1444 |
9.7 |
20.6 |
2.1 |
चम्पावत |
26 |
257 |
638 |
9.9 |
24.5 |
2.5 |
उत्तराखण्ड कुल |
1648 |
25777 |
78359 |
15.6 |
47.5 |
3.0 |
स्रोत--टूरिज्म बोर्ड,सी.एम.आई.ई (2008) |
प्राचीन परिपथःशेरिंग रोड
अल्मोड़ा के जिलाधिकारी एवं बाद में कमिश्नर कुमाऊँ चार्ल्स शेरिंग ने अपने कार्यकाल में वर्तमान चम्पावत जिले चूका स्थान से वाह्य हिमालयवर्ती शिवालिक शृंखला के ऊपरी भागों को मिलते हुए नैनीताल तक एक सड़क का निर्माण करवाया था। इस सड़क से मैदान को जोड़ने वाले भाबर प्रदेश और हिममंडित शिखरों के प्राकृतिक सौंदर्य का पर्यटक एक सात दृश्यावलोकन कर सकता है। इसमें अधिक उतार-चढ़ाव भी नहीं है। पूर्णागिरी से नैनीताल तक यह एक ही वाह्य हिमालयी शिवालिक श्रेणी चली गई है, जिससे इसमें वर्ष भर आवागमन बना रह सकता है। इस परिपथ के मुख्य स्थान हैं- चूका, सूखीढांग, मंथियाबांज, बूड़म, मीनार का डांडा, मोरनौला, सौरफाटक, भीमताल और नैनीताल । यही शिवालिक शृंखला मोरनौला से अल्मोड़ा के लिए जलना के निचले ढलानों तक पसरी है, जिसको विश्वनात की गाड़ आगे बढ़ने से रोकती है। किन्तु मोरनौला और सौरफाटक से शिवालिक शृंखला का उत्तरी बाजू मध्य हिमालय के भीतर दूर तक चला गया है। इस शृंखला पर उत्तर की ओर मोरनौला से हाथीखाल या चापखान, चलनीछिना, गुरड़ाबांज, जागेश्वर, धौलछीना, बिनसर, बसोली, ताकुला, गणनाथ, पालड़ीछीना, कौसानी, बघानगढ़ी, बीना तोली तक के मुख्य स्थान अवस्थित हैं।
अल्पविकसित व अल्पज्ञात स्थलों पर ध्यान
उपर्युक्त पर्यटन प्रवृत्तियाँ स्पष्ट करती हैं कि उत्तराखण्ड में कुछ विशिष्ट स्थलों पर ही पर्यटकों की गहनता एवं सघनता बढ़ रही है, जिससे उस स्थान विशेष की धारक पर दबाव बढ़ रहा है। इससे प्रदूषण व पर्यावरण असन्तुलन की विकृतियाँ उत्पन्न हो रही हैं। गिने-चुने स्थलों पर पर्यटकों का दबाव अपसंस्कृति को जन्म देता है। यह आवश्यक है कि पिथौरागढ़ व चम्पावत के विभिन्न स्थलों को पर्यटन हेतु आकर्षक एवं मनोहारी बनाया जाए। पर्यटन का प्रकृति संरक्षण के साथ संवर्धन स्थानीय व्यक्तियों की भागीदारी के बिना सम्भव भी नहीं है क्योंकि स्थानीय व्यक्तियों को अंचल विशेष की सामाजिक-सांस्कृतिक जानकारी व लोकजीवन की पहचान होती है। ऐसे में स्थानीय सांस्कृति उत्सवों, स्थानीय भोजन, कला, व शिल्प से जुड़े हाथों का काम के अधिक अवसर प्रदान करना सम्भव बनता है। पर्यावरण की सीमान्त जिलों पिथौरागढ़ व चम्पावत में विपुल सम्भावनाएँ हैं।
वर्ष 2007-22 के लिए उत्तराखण्ड टूरिज्म डेवलपमेंट मास्टर प्लान तैयार किया जा चुका है जिसका समन्वय भारत सरकार, उत्तराखण्ड सरकार, यूनाइटेड नेशन्स डेवलपमेंट प्रोग्राम व विश्व पर्यटन संगठन द्वारा किया जा रहा है। आशा की जाती है कि यह सीमान्त के पर्यटन की दृष्टि से सूचित न्यून आय व न्यून रोजगार सन्तुलन को खंडित करेगा व इस तथ्य को ध्यान में रखेगा कि पर्यटन के बढ़ते दबाव से कई क्षेत्र असंवेदनशील हो गए हैं। स्थानीय परम्पराओं व संस्कृति पर विपरीत प्रभाव पड़ रहे हैं। बढ़ती हुई नशाखोरी, होटलों में शनैः-शनैः बढ़ते हीन आचरण के उदाहरण, चोरी व हत्या की घटनाएँ पर्यटन में उत्पन्न अधोगामी प्रभावों का प्रदर्शन करते हैं। इसके साथ ही प्राकृतिक कोपों में अतिवृष्टि भूस्खलन एवं भूक्षरण की घटनाएँ विगत वर्षों में तेजी से बढ़ी हैं। इसलिए यह आवश्यक हो जाता है कि नए परिपथों का निर्दिष्टीकरण किया जाए। इससे चुने हुए पर्यटन स्थलों पर पर्यटकों का दबाव कम होगा तथा सीमान्त क्षेत्र पिथौरागढ़ व चम्पावत के पर्यटन की दृष्टि से विकसित होने की सम्भावनाएँ बढ़ेंगी।
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