लातूर, बुन्देलखण्ड एवं कई अन्य प्रान्तों में सूखे के कहर की याद अभी भी ताजा है। भारत दुनिया का सबसे अधिक ऐसे व्यक्तियों वाला देश है जिन्हें साफ एवं सुरक्षित पेयजल उपलब्ध नहीं है। वाटर एड की वर्ष 2016 में आई रिपोर्ट के अनुसार, साढ़े सात करोड़ भारतीय स्वच्छ पेयजल से अभी भी वंचित हैं। ऐसा नहीं है कि हमारे पास जल नहीं है परन्तु जल वहाँ नहीं है जहाँ उसकी आवश्यकता है। सारे देश में प्राकृतिक संसाधनों से प्राप्त जल समान रूप से वितरित नहीं है। जल वहाँ नहीं है जहाँ उसकी आवश्यकता है। सारे देश में प्राकृतिक संसाधनों से प्राप्त जल समान रूप से वितरित नहीं है। यहीं कुशल जल प्रबन्धन का प्रश्न आता है। कैसे सिंचाई की वैज्ञानिक एवं आधुनिक विधियाँ अपनाई जाएँ, कैसे जल प्रदूषण को रोका जाये और कैसे जल के अपव्यय को रोका जाये? कमोबेश यही बातें वैश्विक सन्दर्भों में भी महत्त्वपूर्ण हैं।
लातूर, बुन्देलखण्ड एवं कई अन्य प्रान्तों में सूखे के कहर की याद अभी भी ताजा है। भारत दुनिया का सबसे अधिक ऐसे व्यक्तियों वाला देश है जिन्हें साफ एवं सुरक्षित पेयजल उपलब्ध नहीं है। वाटर एड की वर्ष 2016 में आई रिपोर्ट के अनुसार, साढ़े सात करोड़ भारतीय स्वच्छ पेयजल से अभी भी वंचित हैं। ऐसा नहीं है कि हमारे पास जल नहीं है परन्तु जल वहाँ नहीं है जहाँ उसकी आवश्यकता है।
सारे देश में प्राकृतिक संसाधनों से प्राप्त जल समान रूप से वितरित नहीं है। यहीं कुशल जल प्रबन्धन का प्रश्न आता है। कैसे सिंचाई की वैज्ञानिक एवं आधुनिक विधियाँ अपनाई जाएँ, कैसे जल प्रदूषण को रोका जाये और कैसे जल के अपव्यय को रोका जाये? कमोबेश यही बातें वैश्विक सन्दर्भों में भी महत्त्वपूर्ण हैं।
जल, ऐसी वस्तु नहीं है, जिसका पृथ्वी या ब्रह्माण्ड में अभाव है। पूरी दुनिया में लगभग 1.4 अरब घन किलोमीटर जल है। इस जल से विश्व के चारों ओर 3 किलोमीटर जल की परत बिछाई जा सकती है परन्तु इस जल का 2.5 प्रतिशत ही ताजा जल है। इसका भी लगभग 69 प्रतिशत स्थायी रूप से बर्फ के रूप में है और लगभग 30 प्रतिशत भूजल के रूप में है। इस तरह इस अपार जलराशि का मात्र 0.3 प्रतिशत ही नदियों एवं झीलों में उपलब्ध है और 0.9 प्रतिशत वाष्प के रूप में मिट्टी और वातावरण में समाहित है।
आपको आश्चर्य होगा कि पूरा सौर मण्डल जल से आप्लावित है। अभी तक सौर वैज्ञानिकों को जल के जो निश्चित प्रमाण मिले हैं वह पृथ्वी पर उपलब्ध कुल जलराशि का 50 गुना है। शनि ग्रह के उपग्रह टाइटन पर पृथ्वी का 13 गुना जल उपलब्ध है।
वर्ष 2015 में शनि के दूसरे उपग्रह इन्सेलैडस पर भी जल के विषय में पता चला है मंगल पर जल के विषय में चर्चा से आप अनभिज्ञ नहीं होंगे। बृहस्पति के दो उपग्रहों, कैलिस्टो पर 12 से 14 गुना तथा गैनीमैड पर 1 से 33 गुना जल होने के प्रमाण हैं।
जल का लगभग 70 प्रतिशत भाग सिंचाई शेष 22 प्रतिशत कल कारखानों में एवं लगभग 8 प्रतिशत घरेलू कार्यों के लिये प्रयोग होता है। सिंचाई से उत्पादकता दो से पाँच गुना बढ़ जाती है। पीने के लिये तो 2-4 लीटर जल ही पर्याप्त होता है परन्तु एक व्यक्ति के दैनिक आहार के लिये 2000-से-5000 लीटर जल चाहिए।
भारत में आबादी बढ़ने के साथ जल की प्रति व्यक्ति उपलब्धता लगातार कम हो रही है। वर्ष 2001 में जहाँ प्रति व्यक्ति जल की उपलब्धता 1816 घन मी. थी वहीं वर्ष 2011 में घटकर 1544 घनमीटर रह गई। वर्ष 2050 में अनुमान है कि यह घटकर मात्र 1140 घनमीटर रह जाएगी।
अन्तरराष्ट्रीय मानकों के आधार पर 1000 घन मीटर प्रति व्यक्ति से कम जल ‘जल के अभाव’ की स्थिति होती है। जहाँ गंगा-ब्रह्मपुत्र क्षेत्र में जल की उपलब्धता 20136 घनमीटर है वहीं साबरमती बेसिन में मात्र 263 घनमीटर है। कृष्णा, कावेरी, स्वर्णलेखा, पेन्नार, माही, साबरमती, तापी क्षेत्रों में जल 1000 घनमीटर प्रति व्यक्ति से कम है। इसमें से कावेरी, पेन्नार और लूनी क्षेत्रों में तो 500 घनमीटर या इससे भी कम है। यही वे क्षेत्र हैं जहाँ जल का घोर अभाव है।
देश में जल की कुल उपलब्धता 1869 अरब घनमीटर है। जिसमें से 1123 अरब घनमीटर का उपयोग किया जा सकता है। भूजल 433 अरब घनमीटर है। जहाँ तक माँग का प्रश्न है वर्ष 2010 में सिंचाई, पेयजल, औद्योगिक जल, ऊर्जा उत्पादन के लिये जल तथा अन्य उपयोग को लेकर भी यह 710 अरब घनमीटर थी। अनुमानतः यह माँग वर्ष 2050 में बढ़कर 1180 अरब घनमीटर होगी। इस तरह देश में जल की माँग पूरी हो सकती है परन्तु इसके लिये उचित प्रबन्धन की आवश्यकता है।
जल के कुशल प्रबन्धन की बात आते ही सबसे पहले ध्यान सबसे बड़े उपभोक्ता अर्थात सिंचाई की तरफ जाता है। बढ़ती आबादी को भोजन देने के लिये सिंचाई प्रमुख कारण है। वैज्ञानिकों का विचार है कि सूखे या कम जल में भी पैदावार देने में सक्षम फसलों का विकास, सिंचाई की कम खर्चीली विधियों जैसे- ड्रिप सिंचाई और जड़ों में सिंचाई का यथासम्भव प्रयोग, जल संग्रह करने के नए तरीके (जिससे उसका वाष्पीकरण रोका जा सके) एवं जल के स्रोत से खेतों तक पहुँचने में हो रहे अपव्यय को रोकना प्रमुख समाधान हो सकते हैं।
भारतीय पारम्परिक सिंचाई में खेत में जल खुला छोड़ दिया जाता है। हर कोने-कोने में जल पहुँचने में अधिक जल खर्च होता है। इसमें वाष्पीकरण तथा जमीन में जल का रिसाव भी अधिक होता है। नालियों से सिंचाई तुलनात्मक रूप में 60 प्रतिशत अधिक कुशलता से जल पौधों तक पहुँचाती है।
सतही जल जैसे नदियों, झीलों एवं तालाबों का जल लगातार सन्दूषण के कारण पीने लायक नहीं रह गया है। हिमालय के तराई क्षेत्रों में आर्सेनिक हैण्डपम्प के जल में घुला होता है आर्सेनिक एक गन्धहीन व स्वादहीन तत्व है जो थोड़ी सी भी अधिक मात्रा में जहर की तरह काम करता है। 10 राज्य इससे प्रभावित हैं। इसी तरह फ्लोराइड, नाइट्रेट, लोहा एवं अन्य भारी धातुएँ जैसे-सीसा, क्रोमियम एवं कैडमियम के कारण भी जल पीने योग्य नहीं रह जाता।आपने जल का छिड़काव करते स्प्रिंकलर अवश्य देखे होंगे यह 75 प्रतिशत उपयोगी हैं परन्तु वैज्ञानिक कहते हैं कि ड्रिप सिंचाई विधि सबसे कुशल एवं सक्षम विधि है। इसमें प्लास्टिक के पाइप की सहायता से जल सीधे जड़ों तक पहुँचाया जाता है परन्तु भारतीय परिस्थितियों में प्रत्येक फसल के लिये यह विधि आर्थिक रूप से लाभदायक नहीं होगी। यहाँ इस विधि को प्रयोगशालाओं से किसान द्वारा खेतों तक ले जाने में वैज्ञानिकों का प्रमुख योगदान होगा।
विश्व के कई भागों में सौर ऊर्जा के सिंचाई में बड़े अच्छे प्रयोग हो रहे हैं। इसमें सिंचाई के पम्प को सौर ऊर्जा से चलाया जाता है। कड़ी धूप होने पर अधिक सिंचाई की आवश्यकता होती है तो बिजली भी अधिक बनती है और पम्प अधिक जल देता है। जैसे ही बादल घिर आएँगे, धूप कम होगी, जल की आवश्यकता भी कम होगी और कम बिजली बनने से पम्प भी धीरे चलेगा।
समुद्र जल का सबसे बड़ा स्रोत है परन्तु इसका जल खारा होने के कारण सिंचाई के लिये उपयोग नहीं हो सकता। खारे जल से स्वच्छ जल बनाने की तकनीकी पर शोध हो रहे हैं। अभी भी 7.5 करोड़ घनमीटर से अधिक जल का उत्पादन इस विधि से होता है। यह जल औद्योगिक एवं पेयजल के रूप में प्रयोग होता है।
पारम्परिक विधि जिसमें समुद्री जल को उबालकर स्वच्छ जल बनाया जाता है, काफी महंगी है परन्तु आधुनिक तकनीकी जिसमें झिल्लियों (Filteration Membrane) का प्रयोग होता है। तुलनात्मक रूप में सस्ती है।
इसका उत्तरोत्तर विकास भी हो रहा है। सम्भव है कि आगे चलकर मात्र एक यूनिट बिजली खर्च करके 1000 लीटर जल शुद्ध किया जा सकता है। परन्तु इस जल का सिंचाई के लिये प्रयोग करने पर अतिरिक्त उर्वरक का प्रयोग करना पड़ेगा क्योंकि इसमें मैग्नीशियम, कैलिश्यम एवं फॉस्फेट जैसे तत्व नहीं होते।
पूरे विश्व में जल प्रबन्धन भी सबसे बड़ी चुनौती है, वहाँ जल पहुँचाना जहाँ जल नहीं है। इस सन्दर्भ में अप्रत्यक्ष जल (Virtual Water) की अवधारणा से तो आप परिचित ही होंगे। एक किलो चावल के उत्पादन में 3000 से 5000 लीटर जल का उपयोग होता है। यदि एक किलो चावल भारत से इस्राइल में निर्यात होता है तो इसके मूल्य में 3000 लीटर जल का भी निर्यात होता है।
इसका अर्थ है कि यदि इस्राइल में, जहाँ जल का घोर अभाव है, चावल का उत्पादन न करें और इसका आयात करें तो प्रति किलो चावल के साथ उसे 3000 लीटर जल भी मिल रहा है। इस जल को ‘अप्रत्यक्ष जल’ कहते हैं। मान लीजिए भारत में मराठवाड़ा में जल का अभाव है और गन्ने की फसल को पर्याप्त जल चाहिए। तो इस अवधारणा के अनुसार, यदि गन्ने का उत्पादन गंगा के मैदानों में किया जाये तथा महाराष्ट्र में चीनी उत्तर प्रदेश से जाये तो वस्तुतः वहाँ जल के अभाव को कम किया जा सकता है।
जल को लेकर दो बड़े चिन्ता के कारण हैं एक भूजल का अन्धाधुन्ध दोहन एवं दूसरा जल का सन्दूषण। भारत विश्व में भूजल का सबसे अधिक उपयोग करता है। स्पष्ट है देश भूजल पर सबसे अधिक निर्भर है पेयजल के लिये हैण्डपम्प तथा सिंचाई के लिये ट्यूबवेल का उपयोग करते हैं। वर्ष 2009 में लगभग 24.3 करोड़ घनमीटर जल भूमि से लिया गया था जो कुल उपलब्ध जल का 61 प्रतिशत है।
स्थिति यह है कि देश के 27 प्रतिशत ब्लॉक जल तनाव में है। इसी गति से भूजल का दोहन जारी रहा तो पंजाब एवं हरियाणा में खेती करना कठिन हो जाएगा। समस्या की जड़ है भूमि में जाने वाला जल का लगातार कम होना और जल निकालने की मात्रा लगातार बढ़ना। स्थायी रूप से यह प्रक्रिया जारी नहीं रह सकती।
दूसरी समस्या है जल का सन्दूषण। सतही जल जैसे नदियों, झीलों एवं तालाबों का जल लगातार सन्दूषण के कारण पीने लायक नहीं रह गया है। हिमालय के तराई क्षेत्रों में आर्सेनिक हैण्डपम्प के जल में घुला होता है आर्सेनिक एक गन्धहीन व स्वादहीन तत्व है जो थोड़ी सी भी अधिक मात्रा में जहर की तरह काम करता है। 10 राज्य इससे प्रभावित हैं। इसी तरह फ्लोराइड, नाइट्रेट, लोहा एवं अन्य भारी धातुएँ जैसे-सीसा, क्रोमियम एवं कैडमियम के कारण भी जल पीने योग्य नहीं रह जाता।
इस दूषित जल का मूल कारण बढ़ती आबादी एवं कुशल प्रबन्धन का अभाव है। शहरी कचरा बाहर किसी खाली जगह पर फेंक दिया जाता है। सेप्टिक टैंक रिसते रहते हैं। रासायनिक उवर्रकों एवं कीटनाशक दवाओं का आवश्यकता से अधिक प्रयोग हो रहा है। शहरी मल-मूत्र एवं औद्योगिक कचरा सीधे नदी-नालों में डाल दिया जाता है। ये न सिर्फ नदी, जल वरन भूजल को भी दूषित कर पीने योग्य नहीं रहने देते।
वैज्ञानिकों का मानना है कि मात्र 135 लीटर प्रति व्यक्ति जल से आप अच्छी तरह जीवनयापन कर सकते हैं और विश्व में मात्र दो ही देश कुवैत एवं सउदी अरब ऐसे हैं जहाँ इससे कम जल उपलब्ध है। मूल प्रश्न जल के अभाव का नहीं है, बल्कि जल के समुचित उपयोग का है।
यदि हम जल को राष्ट्रीय सम्पदा मानें, इसका संरक्षण करें, भूजल बढ़ाने के उपायों को मात्र सरकारी नारा न मानें, उतना ही भूजल का उपयोग करें जितना प्राकृतिक रूप से भूमि वहन कर सकती है, सिंचाई प्रणाली में सुधार करें और उन्हीं फसलों को उगाएँ जो वहाँ की जल प्रणाली के अनुकूल हों तो जल की समस्या से निजात पाई जा सकती है। ध्यान रखें जल ही जीवन है और जीवन के लिये जल हमारे सम्मान का अधिकारी है।
सम्पर्क सूत्र :
डॉ. ज्ञानेन्द्र मिश्र
1 बी/3, एन पी एल कालोनी
न्यू राजेन्द्र नगर, नई दिल्ली 110060
मो. : 9811753626;
ई-मेल : mishrag2510@yahoo.com
Path Alias
/articles/saikhanaa-haogaa-jala-kaa-kausala-parabanadhana
Post By: RuralWater