कहें कि यह पत्थर तोड़कर अपनी रोजी-रोटी चलाने वाले आदिवासी कोड़ाकू समुदाय की पहली शिक्षा से जुड़ी बेटियों की पीढ़ी है तो इसमें कुछ अचरज की बात न होगी। साल 2000 के पूर्व तक इस समुदाय में एक दो ही ऐसे युवक थे जो 5 वीं तक पढ़े थे तब उनके लिए आगे की पढ़ाई का कोई रास्ता न हुआ करता जिससे ज्यादातर बच्चे पत्थर खदान में बालमजदूरी करते थे। लेकिन आज कोड़ाकू परिवार की 25 से 30 लड़कियाँ न सिर्फ प्राथमिक शिक्षा के लक्ष्य को पूरा करने जा रही हैं वहीं दुर्गा जैसी कुछ बेटियां अब 8 वीं पढ़ने के साथ ही आगे चलकर कुछ बनने का सपना भी संजोने लगी हैं।
म.प्र. व छ.ग. की सीमा से लगे अनूपपुर जिला अंतर्गत कोयलांचल क्षेत्र बिजुरी के वार्ड क्र.7 का अर्जुन घाट और बरघाट 10 साल पहले तक लोगों के लिए एक अनजान डर और असहजता का कारण बना रहता था। यहां रहने वाले कोड़ाकू समुदाय के वे आदिवासी मजदूर हैं जो कि छ.ग. के सरगुजा प्रतापपुर क्षेत्र से 40-45 साल पहले एक पत्थर खदान में मजदूरी कराने के लिए लाए गए थे। लगभग 210 परिवारों वाली इनकी बसाहट जो कि दो हिस्सों में है वह कपिलधारा कॉलरी की तरफ जाने वाली उस एकांत छोर पर है जहां से बिजुरी नगर की सीमा खत्म होती है और छ.ग. के जंगल शुरू हो जाते हैं। पहले की तुलना में अब यहां बस्ती के अंदर सीमेंटेड सड़क, बिजली के कुछ खंभे और एक सार्वजनिक मंच दिखाई देने लगे हैं। लेकिन इस समुदाय को लेकर लोगों के मन में बैठा डर जो कि मानता रहा कि ये कुछ भी मारकर खा जाते हैं इसलिए कोई शाम होने के बाद इनकी बस्ती की तरफ नहीं जाता था। यह सोच इस समुदाय के विकास और खासकर बच्चों के पत्थर तोड़ते हांथो तक शिक्षा को पहुंचाने में बड़ी बाधा रही है।
साल 2001 में रायुसं द्वारा प्रोत्साहित नवजीवन स्कूल के अनौपचारिक शिक्षा कार्यक्रम से की गई एक छोटी सी शुरूआत से बच्चों का जुड़ाव बना जिसके साथ ही बस्ती में जाने और समुदाय को समझने की प्रक्रिया चलाई गई जिससे जल्द ही यह समझ पड़ने लगा कि वे भी सामान्य आदिवासी हैं जो कि अपने तरह से एकांतप्रेमी हैं और हां सामान्य रूप से खाये जाने वाले मांसाहार को छोड़ दिया जाये तो वे इसके अलावा और कुछ भी नहीं ही खाते रहे हैं। उल्टे वे लंबे समय तक ‘‘ तुम लोग ये खाते हो वो खाते हो ‘‘ इस तरह के भेदभावपूर्ण आरोपों का सामना करते हुए सार्वजनिक विकास योजनाओं से वंचित रहे हैं। इस समुदाय को लेकर तथाकथित षहरी हो चुके लोगों ने इन्हें नरभक्षी तक कहने से परहेज नहीं किया बिना यह सोचे और सच जाने बिना कि एैसे अफवाहों से कोड़ाकू मजदूरों के लिए दूसरी जगह काम कर पाना भी कठिन हो गया दूसरे समाज के साथ घुलना मिलना तो दूर रहा। हालांकि आज भी यह समुदाय पूरी तरह से विकास के नक्षे में आ गया हो एैसा तो नहीं ही कहा जा सकता है । लेकिन बच्चों को षिक्षा से जोड़ने को लेकर की गयी पहल का सुखद परिणाम ही है कि आज यहां पर अर्जुन घाट बस्ती का अपना प्राथमिक और माध्यमिक षाला भवन है जिसमें आसपास की बस्तियों के अन्य बेटे-बेटियों के साथ ही कोड़ाकू समुदाय के ढ़ेरों बच्चे भी पढ़ने आ रहे हैं। इन बच्चियों को स्कूल में आकर पढ़ना ,दोपहर का खाना खाना और खेलकूद जहां पसंद है वहीं बस्ती के अर्जुन साय,भीमसाय जैसे युवाओं का मानना है कि हम लोग भले नहीं पढ़ सके लेकिन अब बच्चों को तो कोई अनपढ़ और बेकार नहीं कहेगा।
इनका कहना है कि लड़के जल्दी स्कूल छोड़ देते हैं और काम में लग जाते हैं लेकिन लड़कियां फिर भी स्कूल जा रही हैं। पाठशाला के शिक्षक रमेश मानते हैं कि इस समुदाय के बच्चों को स्कूल से जोड़े रखने में बालमजदूरी,अशिक्षा और भाषा को लेकर बड़ी चुनौती है लेकिन कोड़ाकू समुदाय की ये बेटियां ही समुदाय को सही रास्ता दिखलाएंगी। एक दशक पहले की बस्ती और अब की बस्ती में कुछ बड़े फर्क दिखाई देने लगे हैं जिनमें राज्य सरकार द्वारा अयोध्या बस्ती की घोषणा के बाद हुए निर्माण कार्य के साथ रहवासियों द्वारा बस्ती के घरों गलियों की रोज़ाना साफ सफाई,दरवाजे पर रंगोली सहित कुछ बच्चों के नाम लिखा जाना और डीटीएच व मोबाइल के जरिए सूचना संचार से जुड़ना प्रमुख हैं। बस्ती में बना मंच बच्चों के खेलकूद की जगह है जहां दीवारों पर पढ़ाई से जुड़े चित्र और अक्षर देखे जा सकते हैं। यहां से स्कूल जाने वाली कुसुम, शीतल, रेशम बताती हैं कि लड़की लोग पत्थर तोड़ने नहीं जाती अब सब स्कूल जाते हैं।
कोड़ाकू आदिवासी समुदाय की महिलाओं लक्ष्मी बाई और सत्यवती के अनुसार यह सबसे बड़ी बात है कि अब दूसरे लोग उन्हें कुछ भी उल्टा पुल्टा नहीं कह सकेंगे क्योंकि उनके बेटे बेटियां पढ़ लिखकर जवाब दे देंगे। इस समुदाय के बच्चों में शिक्षा से जुड़ने की खुशी है तो बड़ों को यह चिंता भी कि बच्चों की आंखो में पलते सपनों को सच करने का कदम भी उन्हें उठाना है। लंबे समय से वंचित कोड़ाकू समुदाय की बेटियां आज जब शिक्षा अधिकार का लक्ष्य साधने में जुट पड़ी हैं तब हमें यह देखना होगा कि उनका जुड़ाव किसी कारण से कमजोर न हो, उनके सपने कहीं भीड़ और बेबसी में धुंधले न पड़ जाएं । यह वह समय है जब समुदाय के साहस के लिए सरकार की तरफ से ठोस जवाबदेही निबाही जाये ताकि उनका विकास पर भरोसा और भागेदारी अधिक मजबूत हो सके।
म.प्र. व छ.ग. की सीमा से लगे अनूपपुर जिला अंतर्गत कोयलांचल क्षेत्र बिजुरी के वार्ड क्र.7 का अर्जुन घाट और बरघाट 10 साल पहले तक लोगों के लिए एक अनजान डर और असहजता का कारण बना रहता था। यहां रहने वाले कोड़ाकू समुदाय के वे आदिवासी मजदूर हैं जो कि छ.ग. के सरगुजा प्रतापपुर क्षेत्र से 40-45 साल पहले एक पत्थर खदान में मजदूरी कराने के लिए लाए गए थे। लगभग 210 परिवारों वाली इनकी बसाहट जो कि दो हिस्सों में है वह कपिलधारा कॉलरी की तरफ जाने वाली उस एकांत छोर पर है जहां से बिजुरी नगर की सीमा खत्म होती है और छ.ग. के जंगल शुरू हो जाते हैं। पहले की तुलना में अब यहां बस्ती के अंदर सीमेंटेड सड़क, बिजली के कुछ खंभे और एक सार्वजनिक मंच दिखाई देने लगे हैं। लेकिन इस समुदाय को लेकर लोगों के मन में बैठा डर जो कि मानता रहा कि ये कुछ भी मारकर खा जाते हैं इसलिए कोई शाम होने के बाद इनकी बस्ती की तरफ नहीं जाता था। यह सोच इस समुदाय के विकास और खासकर बच्चों के पत्थर तोड़ते हांथो तक शिक्षा को पहुंचाने में बड़ी बाधा रही है।
साल 2001 में रायुसं द्वारा प्रोत्साहित नवजीवन स्कूल के अनौपचारिक शिक्षा कार्यक्रम से की गई एक छोटी सी शुरूआत से बच्चों का जुड़ाव बना जिसके साथ ही बस्ती में जाने और समुदाय को समझने की प्रक्रिया चलाई गई जिससे जल्द ही यह समझ पड़ने लगा कि वे भी सामान्य आदिवासी हैं जो कि अपने तरह से एकांतप्रेमी हैं और हां सामान्य रूप से खाये जाने वाले मांसाहार को छोड़ दिया जाये तो वे इसके अलावा और कुछ भी नहीं ही खाते रहे हैं। उल्टे वे लंबे समय तक ‘‘ तुम लोग ये खाते हो वो खाते हो ‘‘ इस तरह के भेदभावपूर्ण आरोपों का सामना करते हुए सार्वजनिक विकास योजनाओं से वंचित रहे हैं। इस समुदाय को लेकर तथाकथित षहरी हो चुके लोगों ने इन्हें नरभक्षी तक कहने से परहेज नहीं किया बिना यह सोचे और सच जाने बिना कि एैसे अफवाहों से कोड़ाकू मजदूरों के लिए दूसरी जगह काम कर पाना भी कठिन हो गया दूसरे समाज के साथ घुलना मिलना तो दूर रहा। हालांकि आज भी यह समुदाय पूरी तरह से विकास के नक्षे में आ गया हो एैसा तो नहीं ही कहा जा सकता है । लेकिन बच्चों को षिक्षा से जोड़ने को लेकर की गयी पहल का सुखद परिणाम ही है कि आज यहां पर अर्जुन घाट बस्ती का अपना प्राथमिक और माध्यमिक षाला भवन है जिसमें आसपास की बस्तियों के अन्य बेटे-बेटियों के साथ ही कोड़ाकू समुदाय के ढ़ेरों बच्चे भी पढ़ने आ रहे हैं। इन बच्चियों को स्कूल में आकर पढ़ना ,दोपहर का खाना खाना और खेलकूद जहां पसंद है वहीं बस्ती के अर्जुन साय,भीमसाय जैसे युवाओं का मानना है कि हम लोग भले नहीं पढ़ सके लेकिन अब बच्चों को तो कोई अनपढ़ और बेकार नहीं कहेगा।
इनका कहना है कि लड़के जल्दी स्कूल छोड़ देते हैं और काम में लग जाते हैं लेकिन लड़कियां फिर भी स्कूल जा रही हैं। पाठशाला के शिक्षक रमेश मानते हैं कि इस समुदाय के बच्चों को स्कूल से जोड़े रखने में बालमजदूरी,अशिक्षा और भाषा को लेकर बड़ी चुनौती है लेकिन कोड़ाकू समुदाय की ये बेटियां ही समुदाय को सही रास्ता दिखलाएंगी। एक दशक पहले की बस्ती और अब की बस्ती में कुछ बड़े फर्क दिखाई देने लगे हैं जिनमें राज्य सरकार द्वारा अयोध्या बस्ती की घोषणा के बाद हुए निर्माण कार्य के साथ रहवासियों द्वारा बस्ती के घरों गलियों की रोज़ाना साफ सफाई,दरवाजे पर रंगोली सहित कुछ बच्चों के नाम लिखा जाना और डीटीएच व मोबाइल के जरिए सूचना संचार से जुड़ना प्रमुख हैं। बस्ती में बना मंच बच्चों के खेलकूद की जगह है जहां दीवारों पर पढ़ाई से जुड़े चित्र और अक्षर देखे जा सकते हैं। यहां से स्कूल जाने वाली कुसुम, शीतल, रेशम बताती हैं कि लड़की लोग पत्थर तोड़ने नहीं जाती अब सब स्कूल जाते हैं।
कोड़ाकू आदिवासी समुदाय की महिलाओं लक्ष्मी बाई और सत्यवती के अनुसार यह सबसे बड़ी बात है कि अब दूसरे लोग उन्हें कुछ भी उल्टा पुल्टा नहीं कह सकेंगे क्योंकि उनके बेटे बेटियां पढ़ लिखकर जवाब दे देंगे। इस समुदाय के बच्चों में शिक्षा से जुड़ने की खुशी है तो बड़ों को यह चिंता भी कि बच्चों की आंखो में पलते सपनों को सच करने का कदम भी उन्हें उठाना है। लंबे समय से वंचित कोड़ाकू समुदाय की बेटियां आज जब शिक्षा अधिकार का लक्ष्य साधने में जुट पड़ी हैं तब हमें यह देखना होगा कि उनका जुड़ाव किसी कारण से कमजोर न हो, उनके सपने कहीं भीड़ और बेबसी में धुंधले न पड़ जाएं । यह वह समय है जब समुदाय के साहस के लिए सरकार की तरफ से ठोस जवाबदेही निबाही जाये ताकि उनका विकास पर भरोसा और भागेदारी अधिक मजबूत हो सके।
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