रिपोर्ट में स्वास्थ्य पर किए जाने वाले अधिक व्यय और व्यक्तियों के जीवनकाल में बढ़ोत्तरी को भी रेखांकित किया गया है। सन् 1990 में जहां औसत आयु 64 वर्ष थी वह सन् 2009 में बढ़कर 68 वर्ष हो गई। परन्तु निम्न और मध्यम आय के देशों में स्वास्थ्य पर होने वाले व्यय में अत्यधिक खाई अभी भी मौजूद है।
विश्व स्वास्थ्य आंकड़े 2011 वास्तव में हमारी आंखे खोलने को पर्याप्त आधार दे रहे हैं। विश्व भर में भारत की कुल आबादी (करीब 110 करोड़) जितने व्यक्तियों को शौचालय या साफ सफाई की किसी भी तरह की सुविधा ही उपलब्ध नहीं है। वैश्विक संदर्भ में बीमारियों की गंभीरता और व्यापकता में कमी तो आ रही है लेकिन जितनी तीव्रता से यह कार्य होना चाहिए था वह नहीं हो पा रहा है। अतएव सहस्त्राब्दी विकास लक्ष्यों की प्राप्ति अभी दूर की कौड़ी है। विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा हाल ही में जारी रिपोर्ट विश्व स्वास्थ्य आंकड़े - 2011 में बताया गया है कि ऐसे देशों की संख्या बढ़ती जा रही है जिनमें बीमारी का कहर दोहरा हो गया है। एक ओर यहां असंक्रामक रोग जैसे हृदय रोग, मधुमेह व कैंसर की संख्या बढ़ रही है वहीं दूसरी ओर संक्रामक रोगों के कारण वे मातृ-शिशु मृत्यु दर में भी कमी नहीं कर पा रहे हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार वैश्विक रूप से हृदय रोग, हृदयघात, मधुमेह व कैंसर जैसे रोगों से मरने वालों की संख्या कुल मृतकों की संख्या की दो तिहाई तक पहुंच गई है। इसकी वजह है बढ़ती उम्र और वैश्वीकरण एवं शहरीकरण से जुड़े खतरों में विस्तार! इसके अलावा अनेक विकासशील देश निमोनिया, दस्त और मलेरिया जैसी स्वास्थ्य समस्याओं से लड़ रहे हैं जिनकी वजह से 5 से कम उम्र के बच्चे बड़ी तादाद में मारे जाते हैं।
विश्व स्वास्थ्य संगठन के टाइस बोइरामा का कहना है तथ्य बताते है कि दुनिया का कोई भी देश स्वास्थ्य समस्याओं को संक्रामक अथवा असंक्रामक में से किसी एक नजरिए से देखकर उनसे नहीं निपट सकता। इसे तो परिपूर्णता में ही देखना होगा। विश्व स्वास्थ्य संगठन का कहना है कि रिपोर्ट 193 सदस्य देशों एवं अन्य स्त्रोतों से स्वास्थ्य के 100 बिन्दुओं को ध्यान में रखकर तैयार की गई है। साथ ही इसमें स्वास्थ्य संबंधी सहस्त्राब्दी विकास लक्ष्यों को भी ध्यान में रखा गया है। रिपोर्ट में पाया गया है कि विश्व के अनेक भागों में बच्चे अभी भी अल्प-पोषण का शिकार हैं। इतना ही नहीं करीब 17.8 करोड़ बच्चे अत्यधिक कुपोषण का शिकार हैं। वैसे विश्व भर में बाल मृत्युदर में कमी आ रही है और वर्ष 2000-2009 के मध्य इसमें वर्ष 1990 के दशक की अपेक्षा काफी कमी आई। विश्व के कई हिस्सों खासकर अफ्रीका और कम आय वाले देशों में यह अभी भी चिंताजनक स्थिति में है। रिपोर्ट के अनुसार निमोनिया और दस्त आज भी बच्चे की मृत्यु के सबसे बड़े कारण बने हुए है और सन् 2008 में इनसे पांच वर्ष के कम उम्र के क्रमश: 18 व 15 प्रतिशत बच्चे की मृत्यु हुई है। इन बीमारियों से अफ्रीका और दक्षिण पूर्व एशिया में सर्वाधिक मौतें हुई हैं और ये देश सहस्त्राब्दी विकास लक्ष्य में निर्धारित बाल मृत्युदर के लक्ष्य (दो तिहाई कमी) को भी प्राप्त नहीं कर पाए हैं।
रिपोर्ट में कहा गया है कि गर्भावस्था और बच्चे को जन्म देने के दौरान महिलाओं की मृत्यु में करीब 34 प्रतिशत की कमी आई है। सन् 1990 में इनकी संख्या 5 लाख 80 हजार थी वह सन् 2008 में घटकर 3 लाख 58 हजार रह गई। हालांकि यह प्रगति ध्यान आकर्षित तो करती है लेकिन यह अभी भी निर्धारित लक्ष्य 5.5 प्रतिशत से आधी से भी कम यानि 2.3 प्रतिशत ही है। यह भी पाया गया है कि सन् 2008 में प्रसव के दौरान मृत में से अधिकांश महिलाएं यानि 99 प्रतिशत विकासशील देशों की थीं। हालांकि दक्षिण पूर्व एशिया में मातृ मृत्यु में सर्वाधिक कमी आई है लेकिन अफ्रीका देशों में यह सन् 2008 में उच्च स्तर यानि 1 लाख जीवित जन्मों में 620 थी। रिपोर्ट में कहा गया है कि दूसरी तरफ मातृ मृत्युदर कम करने हेतु हस्तक्षेप बढ़ा है और इसमें परिवार नियोजन कार्यक्रम सेवा का प्रावधान व सभी महिलाओं को गर्भावस्था, शिशु जन्म एवं जन्म के उपरांत कुशल स्वास्थ्य सेवाएं शामिल हैं।
मलेरिया के संबंध में रिपोर्ट में पाया गया है कि ऐसे देशों की संख्या में वृद्धि हो रही है जहां पर सन् 2000 के बाद से मलेरिया के मामलों में अस्पतालों में भर्ती और मृत्यु के आंकड़ों में कमी आई है। राष्ट्रव्यापी प्रयासों के कारण जहां सन् 2000 में मलेरिया से अनुमानित मौतें 10 लाख थीं वे वर्ष 2009 में घटकर 7 लाख 81 हजार पर आ गई। वहीं सन् 2005 में मलेरिया से पीड़ित लोगों की संख्या बढ़कर 24 करोड़ 40 लाख हो गई जो कि सन् 2000 में 23 करोड़ 30 लाख थी, परन्तु सन् 2009 में यह पुन: घटकर 23 करोड़ 50 लाख पर आ गई। टी.बी. के मामले में रिपोर्ट में कहा गया है कि वैश्विक तौर पर इसकी संख्या में थोड़ी बहुत वृद्धि हुई है। सन् 2009 में इसके कुल मामले 1.2 करोड़ से 1.6 करोड़ के मध्य थे और इसमें से करीब 94 लाख नए मामले थे। यह भी अनुमान लगाया गया है कि सन् 2009 में 13 लाख एच.आई.वी. नेगेटिव व्यक्ति टी.बी. से मारे गए हैं। रिपोर्ट में निष्कर्ष निकाला गया है कि इस बीमारी से होने वाली मौतों में सन् 1990 के मुकाबले एक तिहाई की कमी आई है। अगर वैश्विक रूप से गिरावट की वर्तमान दर बनी रहती है तो टी.बी. को लेकर सहस्त्राब्दी लक्ष्यों में निर्धारित मृत्यु के लक्ष्य को सन् 2015 तक पाया जा सकता है।
विश्व भर में जीवित एचआईवी पॉजिटिव व्यक्तियों की संख्या में निरन्तर वृद्धि हो रही है और यह सन् 2009 में 3.3 करोड़ तक पहुंच गई है जो कि सन् 1999 से 23 प्रतिशत अधिक है। अनुमानत: सन् 2009 में करीब 26 लाख नए लोग इस संक्रमण से ग्रसित हुए और इस दौरान एचआईवी/एड्स से संबंधित 18 लाख व्यक्तियों की मृत्यु हुई। यह भी पाया गया कि एच.आई.वी. पॉजिटिव जीवित व्यक्तियों की संख्या बढ़ने का कारण एंटी रीट्रोवायरल थेरेपी (एआरटी) की उपलब्धता भी है। दिसम्बर 2009 में कम और मध्यम आय वाले देशों के 50 लाख व्यक्तियों को एआरटी सुविधा उपलब्ध थी। इसके अलावा इसी दौरान उच्च आय वाले देशों में अतिरिक्त 7 लाख लोगों को यह उपचार उपलब्ध था। इसके बावजूद वैश्विक रूप से उचित प्रगति नहीं हो पा रही है। उपचार व प्रभावितों के अनुपात में अभी भी अंतर है। निम्न और मध्यम आय वाले देशों में केवल 36 प्रतिशत प्रभावितों को ही यह उपचार मिल पा रहा है। रिपोर्ट में सुरक्षित पेयजल और सेनेटरी की मूलभूत आवश्यकताओं पर पहुंच को भी दृष्टिगत रखा गया है। पाया गया है कि सन् 1990 में जहां 77 प्रतिशत आबादी सुरक्षित पेयजल की पहुंच में थी वहीं सन् 2008 में यह बढ़कर 87 प्रतिशत तक पहुंच गई है। जहां तक सहस्त्राब्दी विकास लक्ष्यों की बात है वर्तमान दर के वृद्धि से इन्हें प्राप्त कर पाना मुश्किल है। सन् 2008 में करीब 88.40 करोड़ व्यक्ति बिना सुरक्षित पेयजल के थे जिनमें से 84 प्रतिशत ग्रामीण क्षेत्रों में निवास करते हैं।
सेनिटेशन संबंधी सहस्त्राब्दी लक्ष्यों की पूर्ति की संभावनाएं भी कम ही नजर आ रही हैं। सन् 2008 में तकरीबन 260 करोड़ व्यक्ति विकसित सेनिटेशन सुविधाओं का उपयोग नहीं कर पा रहे थे। इनमें वे 110 करोड़ लोग भी शामिल हैं जिनके पास सेनीटेशन और शौचालय को किसी भी प्रकार की सुविधा ही उपलब्ध नहीं है। रिपोर्ट में यह भी पाया गया है कि विकासशील में अनिवार्य औषधियों की कमी और अधिक मूल्य की समस्याएं अभी भी विद्यमान है। 40 से अधिक देश जिनमें से अधिकांश निम्न और मध्य आय वर्ग में किए गए सर्वेक्षण से यह बात सामने आई है कि चुनिंदा जेनेरिक दवाइयां सार्वजनिक क्षेत्र की सुविधाओं में से केवल 42 प्रतिशत में और निजी क्षेत्र में केवल 64 प्रतिशत में उपलब्ध हैं। सार्वजनिक क्षेत्र में औषधियाँ की कमी से मरीज निजी क्षेत्र से दवाईयां खरीदने को मजबूर हैं जहां पर ये दवाईयां अंतर्राष्ट्रीय मूल्यों के अनुसार देखें तो जेनेरिक दवाइयों से औसतन 630 प्रतिशत तक महंगी हैं। असंक्रामक रोग जिसमें हृदयरोग मधुमेह, कुछ खास तरह के कैंसर और श्वास संबंधी गंभीर बीमारियाँ शामिल हैं, विकसित और विकासशील देशों और सभी उम्र एवं समूहों के व्यक्तियों में लगातार बढ़ रहे हैं। इन दीर्घकालिक बीमारियों की महामारी के कारणों में अस्वास्थ्यकर भोजन, अत्यधिक खाद्य ऊर्जा ग्रहण करना, शारीरिक गतिविधियों में कमी, अधिक वजन और मोटापा, तंबाकू और शराब का हानिकारक इस्तेमाल शामिल है। रिपोर्ट में स्वास्थ्य पर किए जाने वाले अधिक व्यय और व्यक्तियों के जीवनकाल में बढ़ोत्तरी को भी रेखांकित किया गया है। सन् 1990 में जहां औसत आयु 64 वर्ष थी वह सन् 2009 में बढ़कर 68 वर्ष हो गई। परन्तु निम्न और मध्यम आय के देशों में स्वास्थ्य पर होने वाले व्यय में अत्यधिक खाई अभी भी मौजूद है।
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