ग्रामीण भारत में गैर-कृषि रोजगार के सृजन के वास्तव में कुछ साक्ष्य मौजूद हैं। भारत का ग्रामीण क्षेत्र विविध कारणों से निश्चित रूप से एक बदलाव से गुजर रहा है। हाल के वर्षों में कृषि क्षेत्र में प्रभावी वृद्धि दर होने के बावजूद सेवा और विनिर्माण क्षेत्रों में लाभकारी आजीविका के अवसरों के सृजन की क्षमता बहुत अधिक रही। स्थानीय तौर पर चूँकि ये क्षेत्र बड़े पैमाने पर शहरी हैं, इससे यह स्पष्ट होता है कि कुशल शहरीकरण समावेशी विकास के लिए जरूरी आरम्भिक शर्त है।
ग्रामीण भारत में गैर-कृषि रोजगार के सृजन के वास्तव में कुछ साक्ष्य मौजूद हैं। भारत का ग्रामीण क्षेत्र विविध कारणों से निश्चित रूप से एक बदलाव से गुजर रहा है। हाल के वर्षों में कृषि क्षेत्र में प्रभावी वृद्धि दर होने के बावजूद सेवा और विनिर्माण क्षेत्रों में लाभकारी आजीविका के अवसरों के सृजन की क्षमता बहुत अधिक रही। स्थानीय तौर पर चूँकि ये क्षेत्र बड़े पैमाने पर शहरी हैं, इससे यह स्पष्ट होता है कि कुशल शहरीकरण समावेशी विकास के लिए जरूरी आरम्भिक शर्त है।1-3 अगस्त, 2015 को सरकार की थिंक टैंक-नीति आयोग ने मानव विकास संस्थान (आईएचडी) एवं फ्लोरिडा विश्वविद्यालय के साथ मिलकर “भारत में सतत और समावेशी शहरी विकास” पर एक तीन दिवसीय सम्मेलन आयोजित किया, जिसमें बड़ी संख्या में शहरी विशेषज्ञ शामिल हुए। उम्मीद के मुताबिक ही इस सम्मेलन के प्रभावी मुद्दों में शहरी कायाकल्प मिशन शामिल था। यदि संक्षेप में समझना चाहें तो इस मिशन से सम्बन्धित निम्नलिखित प्रश्न इस सम्मेलन के दौरान पूछे गएः-
i. तीव्र, पहले से अधिक स्थायी और समावेशी आर्थिक विकास के संदर्भ में कुशल शहरीकरण के लिए एक विशेष तौर पर महत्त्वपूर्ण पूर्व-अपेक्षा है। ऐसे में भारत में स्मार्ट सिटी के जरिए कौन-कौन सी सुविधाएँ दी जाएँगी?
ii. इससे भी महत्त्वपूर्ण बात, क्या मिशन की पूर्ण सफलता को सुनिश्चित करने के लिए नीति निर्माताओं और क्रियान्वयन एजेंसियों के पास कोई कार्य प्रणाली या अधूरे कार्य हैं, जिन्हें तेजी से पूरा किया जाना हो?
इस आलेख में संक्षेप में इन प्रश्नों के उत्तर देने का प्रयास किया गया है। इसमें कहा गया है कि केन्द्रीय मन्त्रालयों ने जवाहरलाल नेहरू राष्ट्रीय शहरी नवीकरण मिशन (जेएनएनयूआरएम) के बड़ी सीख को शामिल करने के काफी उपाय किए हैं। इसमें किसी परियोजना का केन्द्र से सूक्ष्म प्रबंधन नहीं करना और राज्य सरकारों को वृहतर निर्णय लेने की शक्ति प्रदान करना शामिल है। हालाँकि स्मार्ट सिटी की रूपरेखा तय करने में बहुत कुछ राज्य सरकारों पर निर्भर करेगा। इसके साथ ही भारत में कुशल शहरीकरण और इसके क्रियान्वयन की सफलता राज्य सरकारों द्वारा राज्य शासन से आगे बढ़कर शहरी शासन को शक्ति हस्तांतरित करने की उनकी इच्छा और क्षमता पर निर्भर करेगा। यह प्रक्रिया हाल ही पूर्ण हुए भारत के प्रमुख कार्यक्रम “जवाहरलाल नेहरू राष्ट्रीय शहरी नवीकरण मिशन” में शुरू की गई थी, लेकिन अधूरी रह गई।
इसमें कुछ क्रमिक विरोधाभास भी हैं। पहला, नगरीय सुविधाओं की आपूर्ति में कुशलता हमारे जीवन को कई प्रकार से प्रभावित करता है। संक्षेप में इन्हें निम्न तीन वृहद श्रेणियों में वर्गीकृत किया जा सकता है। एक शहर स्मार्ट है यदि यह वह (1) सुनिश्चित करता है कि नगर के भीतर आर्थिक उद्यमों के विस्तार हेतु निवेश आकर्षित करने के लिए सकारात्मक संतुलन अर्थव्यवस्थाओं से जुड़ता है, वहन करने योग्य मूल्य पर सभी को आधारभूत सुविधाएँ मुहैया कराता है तथा ग्रामीण शहरी सम्पर्कों को मजबूत करने का लाभ प्राप्त करता है। (2) सुनिश्चित करता है कि वह व्यवस्थित रूप से बसा हुआ है और सामूहिक स्थलों आदि के निर्माण के जरिए लोगों को उच्च स्तरीय जीवन प्रदान करता है। (3) सुनिश्चित करता है कि इसका ऊर्जा उपभोग सन्तुलित है और भौतिक पर्यावरण के साथ इसका साहचर्य स्थायी है। इस आलेख में आर्थिक विकास में शहरों की भूमिका पर सीमित प्रकाश डाला गया है। हालाँकि किसी भी तरह से, अन्य गतिविधियों के महत्व को नकारा नहीं गया है। दूसरा, इस आलेख में जाहिर किए गए विचार जरूरी रूप से ऊपर उल्लिखित सम्मेलन के परिणाम नहीं हैं। तीसरा, मिशन की व्याख्या करने का कोई प्रयास नहीं किया गया है। इसके घटकों, कार्यक्रमों का आकार, उनका प्रारूप और दिशानिर्देश सम्बन्धित मन्त्रालयों द्वारा जनता के समक्ष रखे गए हैं। अन्त में शासन से सम्बन्धित चुनौतियों और अधूरे कार्यों को सूचीबद्ध करते समय, व्यर्थ की चीजों को छोड़कर केवल महत्त्वपूर्ण का चुनाव किया गया है।
इससे आगे, आलेख को निम्न प्रकार से बाँटा गया है: खंड-1 भारत के विकास के सन्दर्भ में शहरीकरण के महत्व को संक्षिप्त रूप से विश्लेषित करता है और शहरीकरण में चुनिंदा बड़े चलन पर ध्यान देने के बाद, स्मार्ट बनने की योग्यता हासिल करने के लिए नगरीय शासनों की सम्भावित भूमिकाओं (जिसे पूरा करने की उनसे आशा की जाती है) को सूचीबद्ध किया गया है। फिर, जैसा कि यहाँ उल्लिखित है, शहर विकास का इंजन बनें, इस पर बहुत कम फोकस किया गया है। खंड-2 में शासन से सम्बन्धित बड़ी चुनौतियों और अधूरे कार्यों को सूचीबद्ध किया गया है उनके हल के लिए बड़े पैमाने पर संस्तुतियाँ की गई हैं।
समावेशी आर्थिक वृद्धि और स्मार्ट सिटी
एक कुशल शहरीकरण कई मायनों में महत्त्वपूर्ण होता है। पहला, भारत की जीडीपी में कृषि और सम्बद्ध गतिविधियों की हिस्सेदारी में, 1951 में 51.45 प्रतिशत के मुकाबले 2014-15 में 16.82 प्रतिशत की उल्लेखनीय गिरावट के बावजूद, इन क्षेत्रों में कार्यरत श्रमिक बल के प्रतिशत में एक व्यावसायिक ठहराव दिखता है। इस दौरान कार्यरत श्रमिक बल की संख्या 70 प्रतिशत से घटकर केवल 54.6 प्रतिशत तक ही पहुँची है। तीव्र समावेशी विकास के लिए, तत्काल रूप से जरूरी है कि गैर-कृषि क्षेत्र में और भी तीव्र गति से लाभकारी रोजगार के अवसर उत्पन्न किए जाएँ।
बारहवीं पंचवर्षीय योजना में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि हाल के वर्षों में कृषि क्षेत्र में प्रभावी वृद्धि दर होने के बावजूद सेवा और विनिर्माण क्षेत्रों में लाभकारी आजीविका के अवसरों के सृजन की क्षमता बहुत अधिक रही। स्थानीय तौर पर चूँकि ये क्षेत्र बड़े पैमाने पर शहरी हैं, इससे यह स्पष्ट होता है कि कुशल शहरीकरण समावेशी विकास के लिए जरूरी आरम्भिक शर्त है।
हालाँकि, उपरोक्त कथन काफी हद तक वैध है, यदि कोई भारत में शहरीकरण में उभरते चलन पर ध्यान दे तो, कुछ हद तक इसे पूरा करने की जरूरत है। पहला, प्रसिद्ध अवधारणाओं के विपरीत, भारत में शहरी जनसंख्या में बहुत तीव्र वृद्धि के अभी तक कोई साक्ष्य नहीं हैं, यद्यपि पिछले दशक में वार्षिक घातीय वृद्धि दर (एईजीआर) में मामूली बढ़त दर्ज की गई, जो 1990 में 2.73 प्रतिशत के मुकाबले 2001-2011 के दौरान बढ़कर 2.76 प्रतिशत हो गई, लेकिन अब भी यह 1970 के दशक के 3.8 प्रतिशत के मुकाबले काफी कम है। दूसरा, और फिर से, व्यापक रूप फैले मान्यताओं के विपरीत, ग्रामीण शहरी पलायन भी पूर्ववत बना हुआ है। वृद्धि के एक महत्त्वपूर्ण भाग का दावा जिसके आधार पर किया जाता है वह ‘जनगणना’ का उद्भव है।
कस्बे जो ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों के चारों ओर बड़ी संख्या में बसे हुए हैं, अभी भी शहरी क्षेत्र के रूप में अधिसूचित नहीं हो पाए हैं। तीसरा, ग्रामीण भारत में गैर-कृषि रोजगार के सृजन के वास्तव में कुछ साक्ष्य मौजूद हैं। भारत का ग्रामीण क्षेत्र विविध कारणों से निश्चित रूप से एक बदलाव से गुजर रहा है। इनमें उच्च कृषि विकास दर (विशेषकर 11वीं योजना के दौरान), घरेलू और विदेशी वित्त प्रेषित धन का उच्च स्तर और महात्मा गाँधी राष्ट्रीय रोजगार गारंटी अधिनियम (एमजीएनआरईजीए), प्रधानमन्त्री ग्राम सड़क योजना, राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन, सर्व शिक्षा अभियान, एकीकृत शिशु विकास योजनाएँ आदि जैसे सामाजिक क्षेत्र की सरकारी योजनाओं की निधियों में धन की आपूर्ति शामिल है।
शहरी योजना शहर प्रबंधन में सबसे कमजोर कड़ियों में से एक रहा है। चतुर मध्य वर्ग या शहरी उच्च वर्ग द्वारा शहर के शासन पर कब्जा कर लिया जाता है। जिसमें शहरी गरीबों के लिए बहुत कम स्थान रह जाता है, ऐसी और भी कई कमियाँ हैं। इसके अलावा भूमि उपयोग का मसला बाज़ार की सच्चाईयों और परिवहन योजनाओं से बेपरवाह चिन्ताजनक स्थिति में होता है।
हमारे शहरी कायाकल्प मिशन को पूर्ण करने की दृष्टि से पूरे किए जाने वाले कार्यों के सम्बन्ध में क्या अनुमान लगाया जा सकता है? पहला, यदि शहरी भारत, भारत के कुल जीडीपी का 63 प्रतिशत उत्पादित करता है और फिर भी गाँव से शहर की ओर पलायन पूर्ववत जारी है, यह दिखाता है कि हमारे शहरों को अब भी समावेशी होने की जरूरत है। इसलिए किसी भी स्मार्ट सिटी में शहरी प्रबंधकों को निम्न विशेष कार्यों को करने की जरूरत है: भारत को यदि यह सुनिश्चित करना है कि उसकी विकास प्रक्रिया व्यापक और समावेशी रहे जैसा कि प्रधानमन्त्री द्वारा दिए गए नारे ‘सबका साथ सबका विकास’ में सन्निहित है, तो समय आ गया है कि अब भारत प्रवासियों के अनुकूल विशेष नीति बनाए। यहाँ तक कि ग्रामीण भारत में कृषि रोजगार से दूर कुछ बदलाव के साथ, यह किसी के लिए मानना मुमकिन नहीं है कि भारत एक मजबूत राष्ट्र के रूप में उभर सकता है, जबकि इसका आधा कार्य बल कृषि और संबद्ध गतिविधियों में उलझा है, जोकि भारत के सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में केवल 17 प्रतिशत का योगदान देते हैं। दूसरा, केवल वर्तमान जनसंख्या के लिए ही नहीं बल्कि बड़ी संख्या में शहरों की ओर आने वाले पूर्वानुमानित प्रवासियों के लिए जो कि आमतौर पर गरीब होते हैं और उनकी भुगतान क्षमता सीमित होती है, के लिए शहर को तैयार करने हेतु उन्हें आधारभूत सुविधाओं की आपूर्ति का विस्तार करना होगा।
इसके अलावा जनगणना के आँकड़े एक रुझान दिखाते हैं कि भारत की समावेशी विकास की कहानी ज्यादातर मध्यम आकार के कस्बों और शहर क आस-पास के क्षेत्रों में लिखी जा सकती है, जिनकी संख्या लाखों में है। स्मार्ट सिटी के शहरी प्रबंधकां का मुख्य कार्य सामान्य तौर पर ग्रामीण शहरी आर्थिक संपर्कों को बढ़ावा देना है और शहर से सटे क्षेत्रों में जो कि अब तक विकास से ओझल रहे हैं लेकिन व्यापक आर्थिक गतिविधियों के क्षेत्र के रूप में उभर चुके हैं, भुगतान क्षमता के भीतर सार्वजनिक परिवहन सुविधाओं सहित आधारभूत सुविधाओं की आपूर्ति सुनिश्चित करना है। इससे ग्रामीण और शहरी भारत का एक साथ विकास करना सम्भव हो पाएगा। यहाँ एक महत्त्वपूर्ण कार्य यह है कि एक असंगठित मजदूर और सम्बन्धित नियोक्ता के बीच सीधे बातचीत स्थापित करने के लिए सूचना विनिमय का तंत्र विकसित किया जाए। इसका उद्देश्य बिचौलियों की भूमिका को कम करना है जो अभी एजेंसी कमीशन के नाम पर मजदूरी का एक बड़ा हिस्सा हड़प जाते हैं।
इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि वास्तविक रूप से स्मार्ट सिटी के निर्माण में विकास के मानदंडों का सावधानीपूर्वक आकलन आवश्यक है। इसमें एक तरफ जहाँ शहर की राशि, स्थल और आस-पास से इसका सम्पर्क महत्त्वपूर्ण बिन्दु है, वहीं दूसरी तरफ शहर की क्षमता के मुताबिक वास्तविक योजनाएँ और उसे पूरा करने के लिए संसाधन शामिल हैं। विश्व स्तरीय व्यापार को आकर्षित करने के लिए आधुनिक प्रौद्योगिकी के माध्यम से इंजीनियरिंग परियोजना के तौर पर श्रेष्ठ काॅलोनियों का निर्माण एक रणनीति हो सकती है लेकिन शायद ही कभी यह एक प्रभावी नीति का हिस्सा हो। इसी कारण से स्मार्ट सिटी की निर्माण योजना राज्यों और शहरों को विभिन्न प्रकार के स्मार्ट सिटी के चुनाव की छूट देती है और इसके लिए कायाकल्प और शहरी बदलाव के लिए अटल मिशन (अटल मिशन फाॅर रेजुवनेशन एंड अर्बन ट्रांसफाॅर्मेशन-अम्रुत) के रूप में एक कार्यक्रम का शुभारम्भ किया गया है। अम्रुत के तहत 500 शहरों में अवसंरचनात्मक ढाँचों का विकास किया जाएगा और 2022 तक सभी के लिए आवास मुहैया कराने का लक्ष्य है, जिसके तहत पानी, बिजली, स्वच्छता, ब्राॅडबैंड आदि से युक्त किफायती मकानों के निर्माण को बढ़ावा दिया जाएगा।
अधूरे कार्य एवं क्रियान्वयन की चुनौतियाँ
भारत में शहरीकरण की चुनौतियाँ बहुत स्पष्ट रूप से दर्ज हैं और तुलनात्मक अध्ययन के लिए इच्छुक पाठक 12वीं योजना का अध्ययन कर सकते हैं। संक्षिप्त करने के लिए- भारतीय शहरों के पास खंडित शासकीय ढाँचा है, जिसमें जिम्मेवारियों और उत्तरदायित्व का स्पष्ट वर्णन नहीं है, शहरी स्थानीय निकाय (यूएलबी) या शहर की सरकारें जिनके ऊपर शहरों के संचालन की जिम्मेवारी होती है, विश्व के स्मार्ट शहरों के मुकाबले भारत के सांस्थानिक तथा वित्तीय रूप से इतने कमजोर हैं कि ठीक प्रकार से अपने कार्यों के निष्पादन में असमर्थ हैं, और न ही भविष्य के लिए उनको मजबूत किया जा रहा है, आधारभूत संरचना के विकास के लिए काफी अधिक निवेश की जरूरत है, जबकि शहरी शासन के पास निवेश के स्रोत उत्पन्न करने क लिए कोई योजना नहीं है और न ही राज्य/संघीय सरकारों द्वारा हस्तांतरित धनराशि की उपलब्धता की स्थिति में परियोजनाओं को लागू करने के लिए अपनी क्षमता का विकास कर रहे हैं। यहाँ पर तदर्थता है, क्योंकि शहरी योजना शहर प्रबंधन में सबसे कमजोर कड़ियों में से एक रहा है। चतुर मध्य वर्ग या शहरी उच्च वर्ग द्वारा शहर के शासन पर कब्जा कर लिया जाता है। जिसमें शहरी गरीबों के लिए बहुत कम स्थान रह जाता है, ऐसी और भी कई कमियाँ हैं। इसके अलावा भूमि उपयोग का मसला बाज़ार की सच्चाईयों और परिवहन योजनाओं से बेपरवाह चिन्ताजनक स्थिति में होता है।
सौभाग्य से इन चुनौतियों में से कोई भी ऐसी नहीं है जिससे पार नहीं पाया जा सकता और यदि अन्य देशों ने यह कर दिखाया है तो, ऐसा कोई कारण नहीं है कि हम नहीं कर सकते। जैसा कि ऊपर उल्लेख किया गया है, जेएनएनयूआरएम की 2005 में बहुत ही उत्साह और आशा के साथ शुरुआत हुई थी, और इसके पीछे एक सोची समझी रणनीति थी। इसके जरिए 23 शहरी सुधारों को मंजूरी दी गई, जिसमें से अधिकतर का उद्देश्य शहरी शासन ढाँचों में सुधार लाना था और इन सुधारों को पूरा करने के लिए संघीय सहायता को राज्यों से जोड़ना था।
ये सुधार भारतीय शहरी शासन संरचना में रिक्त स्थानों की पहचान कर उनके सावधानीपूर्वक मूल्यांकन और इन कमियों को कैसे दूर किया जाए, पर आधारित था। शहरी शासन का सशक्तीकरण करना और उसकी वित्तीय स्थिति को मजबूत करना, सतत विकास हेतु और अधिक कुशल भूमि उपयोग के लिए शहरी स्तर पर नियोजन में सुधार, शहरी गरीबों को आधारभूत सुविधाओं की आपूर्ति सुनिश्चित करना, शहरी स्तर की परियोजनाओं में निजी साझेदारी को बढ़ावा देना, शहरी भूमि बाजार में मौजूद विकृति को दूर करना और शासन में सामुदायिक भागीदारी सुनिश्चित करना और पारदर्शिता लाना आदि उनके प्रमुख उद्देश्यों में शामिल थे।
जेएनएनयूआरएम का एक तात्कालिक योगदान यह बताना था कि शुरुआत कैसे की जाए। इसने वास्तव में कम-से-कम शहरी सुधारों पर बहस को मुख्य धारा में शामिल कराया और कई राज्यों और शहरों ने इन सुधारों को शुरू करने के लिए ठोस कदम उठाए। हालाँकि, इस चुनौती के जारी प्रकृति पर संक्षेप में चर्चा करते हैं। सबसे पहले न्यूयार्क या लंदन जैसे शहरों की तुलना में भारतीय शहरी शासन प्रति एक लाख जनसंख्या पर कर्मचारियों की संख्या में न केवल चिन्ताजनक रूप से अक्षम है, बल्कि नगरपालिकाओं का समूचा कार्यबल बुरी स्थिति में है। केन्द्रीय मन्त्रालय से एक आदर्श सुझाव मिलता है कि नगरपालिका में कर्मचारियों की और भर्ती की जाए। इसका जवाब यह होता है कि जब नगरपालिका शासन मौजूदा कर्मचारियों को ही वेतनमान देने के लिए जूझ रही है, तो बड़ी संख्या में अतिरिक्त कर्मचारियों के लिए वेतन की व्यवस्था कहाँ से करेगी।
एक तर्क दिया जाता है कि हाल में 14वें वित्त आयोग ने यूएलबी को मिलने वाली राशि में काफी वृद्धि की है, जिसका उपयोग नगर निकायों के कर्मचारियों के लिए किया जा सकता है। हालाँकि, एक मोटे अनुमान के अनुसार ये अनुदान प्रति नगरपालिका के लिए औसत रूप से केवल 4.3 करोड़ रुपये बैठते हैं और वित्त आयोग ने यूएलबी को आधारभूत सुविधाओं के लिए भी इस अनुदान को खर्च करने की सलाह दी है। इससे सम्बन्धित निकटतम चुनौती यह है कि शहरी शासन सहयोगात्मक है या नहीं, यह सुनिश्चित करने के लिए एक व्यवहारिक संस्थानिक संरचना का अभाव है। 74वें सीएए में शहरों के प्रबंधन में निर्वाचित प्रतिनिधियों को प्रमुखता देने का अंतर्निहित पूर्वानुमान यह है कि वे लोगों के प्रति ज्यादा जवाबदेह होते हैं, वे लोगों की जरूरतों को दिखाने के लिए शहरी नियोजन को सुनिश्चित करेंगे और उसी के अनुरूप परियाजनाओं को प्रमुखता देंगे। हालाँकि, शहरी क्षेत्र ने कुकुरमुत्ते की तरह उग रहे नागरिक समाजों और गैर-सरकारी संगठनों (एनजीओ) को देखा है, ये स्पष्ट संकेत करते हैं कि शहरी आबादी का एक बड़ा भाग अपना विश्वास निर्वाचित शहरी प्रतिनिधियों के स्थान पर इन निकायों में व्यक्त करता है।
शहरी शासन में दूसरी निकटवर्ती चुनौती नगरपालिका स्तर पर योजनाओं/कार्यक्रमों को एक जगह पर केन्द्रित नहीं कर पाना है। शासन सम्बन्धित मामलों में यदि नगरपालिका शासन एकल खिड़की के रूप में कार्य करे तो यह एक आम नागरिक के लिए बहुत बड़ी बात होगी। हालाँकि, राज्य सरकारों और समकक्ष शासनों में मौजूद समांतर विभागों ने नगरपालिकाओं को यह भूमिका निभाने से रोका है।
राज्य/शहर नियोजन के लिए व्यापक नमूने की व्यवस्था करना चाहते हैं जिसे कि एक तरफ तकनीकी रूप से मजबूत कदम कहा जा सकता है, तो दूसरी और सहयोगात्मक नियोजन तकनीक को शामिल करता है। किसी भी प्रकार से यह एक असाधारण कदम नहीं है। व्यापक नमूने का विकास नहीं होने की स्थिति में सलाहकारों द्वारा योजना बनाए जाने का खतरा होता है जिसकी जिम्मेवारी यूएलबी पर या राज्य सरकार पर नहीं होती है। जेएनएनयूआरएम के तहत कई शहरी विकास योजनाओं के साथ यह मामला हो चुका है।
एक दूसरा मामला जो कि नगरपालिकाओं को केन्द्रीय भूमिका निभाने से मना करता है, वह विशेषज्ञों और निर्वाचित निकायों के बीच तनावपूर्ण सम्बन्ध हैं। शहरी नियोजन जैसे शहरों का प्रबंधन, मेट्रो रेल जैसी शहरी परिवहन परियोजनाएँ, स्वच्छता एवं जल आपूर्ति जैसी परियोजनाओं का नियोजन वास्तव में तकनीकी पहलू हैं और शहरी शासन में विशेषज्ञों के महत्व को नजरअंदाज करना जोखिम भरा हो सकता है। हालाँकि, शहर प्रबंधकों का जनता के प्रति जवाबदेही सुनिश्चित करना अति आवश्यक है, विशेषकर यदि संसाधन कम हों और परियोजनाओं को प्रमुखता के आधार पर पूरा करना हो। विश्व के किसी भी भाग में अनुभव से पता लगता है कि लम्बे समय में जनता के प्रति जवाबदेही सर्वोत्तम तरीके से तब सुनिश्चित की जाती है, जब चुने गए जनप्रतिनिधियों को सशक्त किया जाता है। इसलिए दिल्ली मेट्रो रेल का संचालन करने वाले विशेषज्ञों और दिल्ली के नगरपालिकाओं के बीच किस तरह के सम्बन्ध होने चाहिए? मेट्रो की दिशा किसे तय करनी चाहिए? अहमदाबाद या दिल्ली में भूमि उपयोग का प्रारूपः विशेषज्ञ के नेतृत्व में अहमदाबाद शहरी विकास प्राधिकरण (एयूडीए) या दिल्ली विकास प्राधिकरण (डीडीए) या सम्बन्धित नगरपालिका निगम को? ये सभी मूल रूप से बहुत कठिन प्रश्न हैं।
दूसरा मामला जो सीधे सभी के लिए आवास कार्यक्रम को प्रभावित करता है, वह है नगर निकायों या शहरी भूमि पर नियन्त्रण की कमी होना, क्योंकि सामान्य तौर पर इनका प्रबंधन डीडीए और एयूडीए जैसी विकास एजेंसियाँ करती हैं। अतः झुग्गी पुनर्वास और सभी के लिए आवास की जिम्मेवारी नगरपालिकाओं की ही होनी चाहिए, जबकि इन कामों को पूरा करने के लिए जरूरी भूमि पर नियन्त्रण दूसरी एजेंसी का होना चाहिए।
अम्रुत और स्मार्ट सिटी परियोजनाओं की निर्माण की योजना का स्पष्ट मत है कि शहरों को ही योजना बनानी है। यहाँ पर अधूरा कार्य यह है कि राज्य/शहर नियोजन के लिए व्यापक नमूने की व्यवस्था करना चाहते हैं जिसे कि एक तरफ तकनीकी रूप से मजबूत कदम कहा जा सकता है, तो दूसरी और सहयोगात्मक नियोजन तकनीक को शामिल करता है। किसी भी प्रकार से यह एक असाधारण कदम नहीं है। व्यापक नमूने का विकास नहीं होने की स्थिति में सलाहकारों द्वारा योजना बनाए जाने का खतरा होता है जिसकी जिम्मेवारी यूएलबी पर या राज्य सरकार पर नहीं होती है। जेएनएनयूआरएम के तहत कई शहरी विकास योजनाओं के साथ यह मामला हो चुका है।
संस्तुतियाँ
i. शहरी मिशन की क्रियान्वयन रणनीति में शहरी शासन से सम्बन्धित सुधारों को शामिल करने की अत्यन्त आवश्यकता है। लघु और मध्यम अवधि में गुणवत्तापूर्ण कर्मचारियों की कमी की समस्या के हल के लिए मन्त्रालय यूएलबी के लिए धनराशि की व्यवस्था कर सकता है, जिससे बाजार से उपयोगी कर्मियों की व्यवस्था की जा सके, क्योंकि समर्पित नगरपालिका कर्मचारियों का सृजन खर्चीला और समय खपाने वाली प्रक्रिया है जो कि केवल लम्बे समय के लिए उपयोगी रणनीति हो सकती है।
ii. जेएनएनयूआरएम की तर्ज पर ही सरकार को भी विभागीय कर्मचारियों, जो कि अभी शहरी शासन में कार्यरत हैं, के साथ 18 कार्यों की जिम्मेदारी हस्तांतरित कर राज्यों को लाभ पहुँचाते रहना चाहिए।
iii. इस प्रकार के हस्तांतरण के साथ ही नगर निकायों के लिए बजट बनाने में बड़े सुधार किए जाने बाकी हैं। पूर्व में योजना आयोग के सदस्य रहे अरुण मायरा के नेतृत्व में एक समिति ने 2012 में संस्तुति की थी कि नगर निकायों के बजट सभी पावतियों और खर्च को दिखाते हुए शुरू होने चाहिए, जिसमें 12वीं अनुसूची में सूचीबद्ध 18 कार्यों के लिए लागू की जाने वाली योजनाओं में राज्य और केन्द्र सरकार से प्राप्त सहायताओं का भी जिक्र हो। इससे नगर निकाय शासन को अपनी पावतियों और जिम्मेदारियों के प्रति स्पष्ट रूप से जवाबदेह बनने और सरकारी पहलों को केन्द्रित करने में सुविधा होगी। इससे नगर निकायों के सही कर्तव्य प्रदर्शित होंगे और उनके खातों की पारदर्शिता निजी निवेश आकर्षित करने का मार्ग भी प्रशस्त करेंगे। इस प्रकार की व्यवस्था की जानी चाहिए कि नगर निकाय शासन को निजी निवेश आकर्षित करने के लिए संघीय हस्तांतरण को फायदेमंद और सुरक्षित बनाया जा सके।
iv. नागरिक समाजों और नगर निकायों के बीच रचनात्मक सहयोग के लिए उपयुक्त प्लेटफाॅर्म तैयार करने की अत्यन्त आवश्यकता है। लोक केन्द्रित शहरी नियोजन में सुधार के लिए जरूरी शहरी सेवाओं की कमियों का विश्व स्तरीय सर्वेक्षण तैयार करने के लिए हाल में शीला पटेल के नेतृत्व में ‘सोसाइटी फाॅर द प्रमोशन आॅफ एरिया रिसोर्स सेंटर’ (एसपीएआरसी) ने नगर निकाय शासन के साथ साझेदारी की है। इस प्रकार के माॅडल आसानी से दोहराए जा सकते हैं।
v. विशेषज्ञों और निर्वाचित निकायों के बीच सौहार्दपूर्ण सम्बंध मुश्किल लेकिन सम्भव हैं। 12वीं योजना में कहा गया है कि यदि भूमिका और जिम्मेवारियाँ स्पष्ट रूप से वर्णित हैं, तो एक साझेदारी का प्रोटोकाॅल विकसित किया जा सकता है। जहाँ तक सिद्धान्त की बात है, परियोजनाओं के चुनाव और प्रमुखता का मसला निर्वाचित निकायों का अधिकार है, जबकि इस पर अमल करने की जिम्मेदारी विशेषज्ञों पर छोड़ी जानी चाहिए। बारहवीं योजना में निर्दिष्ट दूसरा उपयुक्त माॅडल यह है कि नगरपालिकाओं जैसे निर्वाचित निकायों को दिल्ली जल बोर्ड वाले निकायों के साथ समझौता करना चाहिए जिसमें उत्पाद और जिम्मेवारियों का स्पष्ट वर्णन हो। इसमें आवश्यक बदलाव करना भी शामिल है ताकि भूमि उपयोग के प्रारूप के निर्धारण के समय विशेषतः क्षमता के भीतर गृह परियोजनाओं और बेघरों के लिए आश्रय स्थल के निर्माण के लिए, नगर निकायों की सहमति हो। इस प्रकार की व्यवस्था से निर्णय लेने और लोगों के प्रति जवाबदेही के लिए व्यावसायिक कौशल का विकास होता है।
सन्दर्भ
1. भारत में सतत और समावेशी विकास पर अन्तरराष्ट्रीय सम्मेलन (नई दिल्ली, 1-3 अगस्त, नीति आयोग, आईएचडी और फ्लोरिडा विश्वविद्यालय)
2. बंदरगाह वाले शहर राष्ट्र के विकास में जो महत्त्वपूर्ण योगदान दे सकते हैं, आदि जैसे अन्य उद्देश्य भी हैं।
3. उदाहरण के लिए भारत सरकार के शहरी विकास, आवास और शहरी गरीबी उपशमन मन्त्रालय की आधिकारिक वेबसाइट को देख सकते हैं।
4. देबोलिन कुंडु: शहरी विकास में मंदी (http://infochangeindia.org/urban-india/analysis/slowdown-in-urban-growth.html)
5. प्रणब सिद्धस्वामी, 2014, ‘कृषि से गैर-कृषि: भारतीय गाँव है ‘शहरीकरण’? सीपीआर शहरी वर्किंग पेपर 4, नवंबर 2014
6. ईशर अहलुवालिया के नेतृत्व में उच्च शक्ति प्राप्त विशेषज्ञ समिति (एचपीईसी, 2011), शहरी विकास मन्त्रालय
7. 12वीं पंचवर्षीय योजना, खंड 2, अध्याय 18, भारत सरकार (2012)
लेखक नीति आयोग, भारत सरकार के आवास और शहरी मामलों के विभाग के सलाहकार हैं। यहाँ व्यक्त किए गए विचार उनके निजी विचार हैं। ईमेल: ranjanrakesh100@gmail.com
/articles/saharai-kaayaakalapa-maisana-kaarayaanavayana-rananaitai