शहर में अवशिष्ट निस्तारण के लिए बने पुराने कायदों पर चलने की यहां के लोगों को फिर से आदत डालनी होगी। इसके अलावा झील के तल पर इकट्ठा ज़हरीली गाद को बाहर निकालने की आधुनिक तकनीकें उपलब्ध हैं, जिसके लिए नगरवासियों को मिल कर राजनीतिक दबाव बनाना होगा। झील नैनीताल की आत्मा है, इसका जीवन नैनीताल के अस्तित्व का आधार है। इसलिए समय रहते यदि इस बीमार झील का इलाज न किया गया तो यही खूबसूरती इसकी कब्र साबित होगी। 18 नवंबर सन् 1841 को बैरन नाम के एक अंग्रेज घुमक्कड़ की नजर जब पहली बार घने जंगलों के बीच छुपी नैनीताल झील पर पड़ी तो इसकी खूबसूरती देख कर वह स्तब्ध रह गया। बयान करने के लिए उसके पास शब्द कम पड़ रहे थे। आज 160 वर्षों के बाद वह खूबसूरत झील शहरी बसासत से घिरे एक अत्यंत प्रदूषित व बीमार तालाब में तब्दील हो चुकी है। झील के चारों ओर सुंदर शहर का बैरन का सपना आज एक दुःस्वप्न की शक्ल इसकी नाज़ुक भू-गर्भीय भौगोलिक व पारिस्थितिक स्थितियों को भाँप कर औपनिवेशिक प्रशासकों ने शहर की व्यवस्था के निमित्त जिन ऐहतियातों का अत्यंत कठोरता से पालन करवाया, आज़ादी के बाद हमने उन्हें छेद-छेद कर बेअसर कर दिया। उत्तराखंड के प्रमुख पर्यटन केंद्र का आर्थिक आधार बनाने वाली झील आज बीमार अवस्था में भी नगर की अर्थव्यवस्था व पेयजल ज़रूरतों का भार ढो रही है। रोज़ाना इससे 10 से 15 एमएलडी पेयजल खींचा जाता है ताकि 5 लाख लोगों की जरूरतें पूरी की जा सकें। पर्यटकों के लिए यह आकर्षण का मुख्य केंद्र है और पर्यटन से होने वाली आय 40 से 60 करोड़ रुपये प्रतिवर्ष है। नैनी झील भारत की 13 ‘राष्ट्रीय’ झीलों में एक है।
कुदरत ने नैनीताल को खूबसूरती तो दिल खोल कर दी लेकिन इसके भूगोल को इसका दुश्मन बनाया। चारों ओर ऊंची पहाड़ियों से घिरी लगभग डेढ़ किमी. लंबी, आधा किमी. चौड़ी और औसतन 18 मीटर गहरी यह झील सिर्फ एक ओर संकरे दर्रे में खुलती है, जहां से उसका अतिरिक्त पानी बाहर निकलता है। चारों ओर की समस्त प्राकृतिक एवं मानवीय गतिविधियों का सीधा असर झील पर पड़ता है। यानी-झील के चारों ओर के क्षेत्र में कुछ भी गिरे या बिखरे उसका झील में आना तय है। प्राकृतिक अवस्था में भी इसके जलग्रहण क्षेत्र के सभी जैविक पदार्थ झील में आकर मिलते थे।
नैनीताल महायोजना के अनुसार, इसके 5 वर्ग किमी. में फैले जलग्रहण क्षेत्र का 48 प्रतिशत भाग जैविक पदार्थों से युक्त नम जंगलों से ढका है, जिनमें वनस्पतियों की 700 तथा पक्षियों की 200 प्रजातियाँ पाई जाती है। 18 प्रतिशत भाग वृक्षविहीन बंजर और 20 प्रतिशत भाग में शहर की बस्तियां हैं। लगभग 10 प्रतिशत क्षेत्र में झील का विस्तार है तथा शेष 4 प्रतिशत भाग सड़क और खेल का मैदान जैसे विविध उपयोग की श्रेणी में आता है। वर्षा, भूमिगत स्रोत और जलग्रहण क्षेत्र से बह कर आने वाला पानी झील में जलापूर्ति के माध्यम है। सम्पूर्ण जल-भंडार का 16 प्रतिशत हिस्सा जलग्रहण क्षेत्र पर सीधे होने वाली वर्षा से आता है, जबकि भूमिगत स्रोतों का योगदान 39 प्रतिशत और झील में गिरने वाले सदाबहार नालों का 15 प्रतिशत है। झील से जल निकासी का मुख्य मार्ग तल्लीताल स्थित गेट हैं, जिनसे 41 प्रतिशत जल बाहर जाता है। इसके अलावा 32 प्रतिशत जल पेयजल पम्पों से, 15 प्रतिशत भूमिगत दरारों में रिसने से तथा शेष 12 प्रतिशत वाष्पन के जरिए झील से बाहर निकल जाता है। चारों ओर सीधी ढलानों पर मौजूद वनस्पतियों का अवशिष्ट गंदगी व मलबा 21 नालों के जरिए झील में मिलता है या नालों के मुहानों पर डेल्टा की शक्ल में एकत्र हो जाता है। इनमें सबसे बड़ा मेट्रोपोल नाला उत्तरी छोर पर नयनादेवी मंदिर के पास झील में आकर मिलता है। रूड़की के नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ हाइड्रोलॉजी ने झील में गाद जमा होने की रफ्तार को 11.5 मिमी. प्रति वर्ष आंका है। अतः नैनीताल नगर के बाशिंदे बाकी हिन्दुस्तानी नागरिकों की तरह जहां चाहे गंदगी फैला कर निश्चित नहीं हो सकते, क्योंकि भारत के किसी भी दूसरे शहर में घरों से निकलने वाली गंदगी सीधे उनके पेयजल स्रोत का रास्ता नहीं पकड़ती है। नैनीताल का भूगोल इस लिहाज से इसे बेहद संवेदनशील बना देता है।
ब्रिटिश काल में नैनीताल में भवन निर्माण तथा गंदगी के निस्तारण-संबंधी-नियमों का कड़ाई से पालन होता था। उल्लंघन करने पर जुर्माना वसूलने में कोताही नहीं बरती जाती थी। नैनीताल नगरपालिका के पुराने रिकॉर्डों मे निर्धारित स्थानों से अन्यत्र गंदगी करने, पालतू जानवरों को पालने व घुमाने, दंगा फसाद करने, गलत ढंग से गाड़ी चलाने, शराब पीकर घूमने, पेड़ काटने दूध-घी में मिलावट करने, नगरपालिका के नियमों का पालन न करने व उन्हें तोड़ने जैसी हरकतों पर वसूले गए जुर्माने के सालाना आंकड़ें आज भी देखे जा सकते हैं। उदाहरण के लिए सन् 1872-74 में एक आदमी से प्रतिबंधित स्थान पर कुत्ता घुमाने पर 5 रुपए जुर्माना वसूला गया। इस वित्तीय वर्ष में उपरोक्त वर्णित अपराधों के लिए कुल 128 रुपये, 14 आने, 6 पाई जुर्माने के बतौर वसूले गए। सन् 1893-94 में मल्ली बाजार में गैर निर्धारित स्थान में गाय पालने पर 8 व्यक्तियों पर 40 रु. तथा गाय चराने पर 6 व्यक्तियों पर 6 रु. का जुर्माना आयात किया गया। झील में नालों के जरिए आने वाली गंदगी के प्रति तत्कालीन प्रशासन कितना सचेत था, इस बात का उल्लेख भी पुराने रिकॉर्डों में मिलता है। सन् 1898-99 के दस्तावेज़ों के अनुसार झील में गिरने वाले सभी नाले अप्रैल से अक्टूबर के बीच हफ्ते में तीन बार परक्लोराइड व मरकरी के घोल से धोए गए। एक पत्र में नॉर्थ-वेस्टर्न प्रोविंस के सेक्रेटरी जे.एस मेस्टन ने कहा है कि सन् 1900-1901 में वर्ष भर झील के पानी के 20 नमूनों को रासायनिक व जीवाणु जांच की गयी। इसके नतीजे बताते हैं कि नैनीताल के पानी की गुणवत्ता उत्कृष्ट कोटि की है और भारत के किसी भी हिल स्टेशन में इतना साफ पानी उपलब्ध नहीं है। अतः स्वास्थ्य लाभ की दृष्टि से नैनीताल पहले नम्बर पर है। सन 1913 में बड़े पैमाने पर झील से काई हटाई गई और सफाई के मद्देनज़र एक सोडा फ़ैक्टरी को बंद करवाया गया।
आज़ादी के बाद देश में जिस तरह की राजनीतिक और सामाजिक संस्कृति का जन्म हुआ, उसमें सार्वजनिक उपयोग व सुविधाओं की बलि देकर निजी सुविधाओं को पक्का करने की प्रवृत्ति लगातार बढ़ती गई। इसलिए चाहे नैनीताल के स्थानीय निवासी हों या बाहर से आने वाले पर्यटक अपनी सुविधा के लिए इस नाज़ुक शहर पर घाव-दर-घाव देते रहने से उन्हें कोई गुरेज नहीं रहता। पिछले दो-तीन दशकों में पर्यटकों की संख्या में ज़बरदस्त उछाल आया है। खास तौर पर पंजाब और कश्मीर में अशांति के बाद से उत्तराखंड के पर्यटन में अप्रत्याशित वृद्धि हुई। परिणामस्वरूप नैनीताल में होटलों की संख्या भी तेजी से बढ़ी। सन् 1927 में नगर में 396 पक्के मकान थे, जो सदी के अंत तक आठ हजार का आंकड़ा पार कर गए। हालांकि शहर की नाज़ुक भौगोलिक परिस्थिति के मद्देनज़र यहां निर्माण संबंधी नियम अत्यंत कठोर हैं और कई क्षेत्रों को ‘असुरक्षित’ घोषित कर निर्माण-कार्यों के लिए पूरी तरह प्रतिबंधित कर दिया गया है, लेकिन नियमों सेंध मार कर वर्जित क्षेत्रों सहित सभी जगह निर्माण कार्य निर्बाध चलता रहता है। ताकतवर लोगों ने अपनी पहुंच व पैसे के बल पर असुरक्षित क्षेत्रों की सीमाओं में हेर-फेर करवा लिया और बड़े-बड़े रिजार्ट या आलीशान व्यावसायिक कॉलोनियां खड़ी कर लीं। नियमानुसार नैनीताल में कहीं भी दो मंजिलों से ज्यादा तथा 25 फीट से ऊंची इमारत नहीं बनाई जा सकती, लेकिन इस नियम की धज्जियाँ कभी भी और कहीं भी उड़ती देखी जा सकती हैं। निर्माण-कार्यों से पैदा होने वाला हजारों टन मलबा प्रतिवर्ष झील में समा जाता है। इस बार बरसात में अनेक मुहल्लों को भू-स्खलन की आशंका से अन्यत्र पहुंचाना पड़ता है। शहर में पंजीकृत होटलों की तादाद 1961 में जहां 20 थी, वह नयी सदी के आते-आते 150 का आंकड़ा पार कर गई है, जबकि अनधिकृत होटलों का कोई हिसाब नहीं। इनमें हर वर्ष औसतन पांच लाख पर्यटक ठहरते हैं। एक सदी पहले लगभग 8,000 बाशिंदों के इस शहर की स्थाई जनसंख्या भी अब 50 हजार से ऊपर जा चुकी है।
नैनीताल में सीवर निस्तारण की ज़िम्मेदारी जल संस्थान की है। दुर्भाग्य से शहर के सभी घर सीवर से नहीं जुड़े हैं और खुले में निपटने वालों की तादाद भी कम नहीं है। सीवर लाइनों की हालत का अंदाज़ इससे लगाया जा सकता है कि रोज कहीं न कहीं पाइप फटते हैं और भारी मात्रा में गंदगी झील में चली आती है। इसके अलावा रसोई व स्नानगृह से निकलने वाली धोवन बहुत कम घरों में ही सीवर से जुड़ी हुई है। सार्वजनिक पेशाबघरों की हालत पहले ही बहुत ख़स्ता है, ऊपर से पूरे नगर में सैकड़ों स्थान अनौपचारिक पेशाबघरों के तौर पर इस्तेमाल होते हैं, जिनका रास्ता सीधे झील में खुलता है। कॉलेज की प्रयोगशालाओं, मांस-मछली-मुर्गी की दुकानों, मोटर वर्कशॉप, पेट्रोल पंप, खुले में चलने वाले रेस्त्राओं की गंदगी तथा सड़कों में दौड़ने वाला भारी ट्रैफिक झील के किनारों से आधा किमी के दायरे में है। नगर में बड़ी संख्या में सवारी घोड़े हैं, जिनका स्थाई स्टैंड उच्च न्यायालय के हस्तक्षेप के बाद झील के जलग्रहण क्षेत्र से बाहर कर दिया गया है, लेकिन वे दिन भर इस क्षेत्र के अंदर सैलानियों को सवारी कराते हैं। गाय, सुअर, कुत्ते, बिल्ली, मुर्गी आदि पालतू पशु-पक्षियों और शहरी हो चुके बंदर व लंगूर की संख्या हजारों में आंकी जा सकती है। इन सबकी गंदगी भी झील में आती है। मेट्रोपोल नाले के किनारे मौजूद धोबीघाट व सार्वजनिक स्नानागार से साबुन की बड़ी मात्रा बह कर आती है। इन सब के ऊपर प्रदूषण की आधुनिक किस्म प्लास्टिक और पॉलीथीन अनेक रूपों में झील में पहुँचता है।
नैनीताल का एक विहंगम दृश्यइस तरह तमाम तरह की गंदगी प्रति दिन झील में समाती है। जो कुछ बचता है, उसे नैनीताल की भारी बरसातें बहा लाती हैं। इसमें प्लास्टिक और मलबे जैसे ऊपर से दिखाई पड़ने वाले प्रदूषण को लेकर पिछले कुछ वर्षों के दौरान जागरुकता आई है और अनेक सरकारी व गैर-सरकारी संस्थाएं इसमें कमी लाने के लिए प्रयत्नशील हैं। हाल के वर्षों में बड़े डेल्टों को हटाया गया है और झील अपेक्षाकृत साफ नजर आती है। लेकिन अनेक प्रकार के खतरनाक घुलनशील लवण, जैविक व कार्बनिक पदार्थों के प्रति बहुत कम जानकारी उपलब्ध है। इनसे न केवल पानी जहरीला होता है बल्कि ये झील को भी बीमार बना देते हैं। कुमाऊँ विश्वविद्यालय के जंतुविज्ञानी डॉ. सुरेन्द्र नगदली ने नैनीताल झील के पानी की गुणवत्ता पर विस्तृत अध्ययन किया है। वे बताते हैं कि घुलनशील लवणों के कारण नैनीताल सर्वाधिक प्रदूषित श्रेणी, जिन्हें यूट्रोफिक झील कहा जाता है, के अंतर्गत आती है। इसका जल अत्यंत क्षारीय हो चुका है और पानी में घुली हुई नाइट्रोजन, फॉस्फोरस और कैल्शियम के लवणों की भारी मात्रा तमाम तरह के कार्बनिक पदार्थों के साथ मिल कर सूक्ष्मजीवियों की उत्पत्ति के लिए आदर्श वातावरण तैयार करती है, जिसके कारण झील की उत्पादकता कई गुना बढ़ जाती है। मानवीय हस्तक्षेप ने नैनीताल झील की प्रकृति को इस कदर बदल दिया है कि जल्दी ही यदि उचित कदम नहीं उठाए गए तो इसे वापस सामान्य अवस्था में लाना असंभव हो जाएगा। आज इस झील में वनस्पति और प्राणिजगत के सूक्ष्मजीवियों की सैकड़ों किस्में मौजूद हैं। झील के पानी में प्रदूषण के कारण घूलनशील ऑक्सीजन में भारी कमी दर्ज की गयी है। एक जमाने में जिस झील में महाशीर मछलियों की भरमार थी, आज वहां गैम्बुसिया ऐफिनिस जैसी दमखम वाली मच्छरमार मछलियां भी इसके जहरीले पानी से हजारों की संख्या में दम तोड़ती हैं और अब तो विलुप्ति के कगार पर हैं। ठंडे महीनों में तापमान परिवर्तन से झील में आंतरिक-जल-संचरण की प्रक्रिया चलती है। तल का गर्म व अत्यधिक प्रदूषित पानी सतह पर आता है तथा सतह का ठंडा पानी नीचे जाता है। इस कारण झील के किनारे अनेक स्थानों पर तेज बदबू उठती है, किंतु झील का जलस्तर न्यूनतम रहने के कारण यह गंदा पानी सतह में होने के बावजूद बाहर नहीं निकल पाता। नगर की जलापूर्ति बनाए रखने की खातिर केवल बरसात में झील के गेट खोले जाते हैं और तब सतह का अपेक्षाकृत साफ पानी ही बाहर निकलता है।
इंदिरा गांधी इंस्टीट्यूट फॉर डेवलपमेंटल रिसर्च, मुंबई द्वारा कराए गए अध्ययन के अनुसार नैनीताल झील विश्व स्वास्थ्य संगठन तथा भारत सरकार के प्रदूषण मानदंडों की निर्धारित सीमा से काफी आगे जा चुकी है। गंदलेपन, रंग, पारदर्शिता, पीएच, कैल्शियम, जस्ता, मैग्नीशियम, मैगनीज, कॉपर, जिंक, लोराइड, जैविक-ऑक्सीजन मांग आदि की मात्रा के हिसाब के इसका पानी पेयजल हेतु स्वीकृति मानदंडों की सीमा को पार कर चुका है। जल-संस्थान के वाटर फिल्टर प्लांट विभिन्न चरणों में पेयजल को प्रशोधित तो करते हैं, लेकिन धातुओं व अन्य घुलनशील पदार्थों के निस्तारण की कोई व्यवस्था इनमें नहीं है। जाहिर है नगरवासी न केवल साफ दिखाई पड़ने वाला जहरीला पानी पीने के लिए मजबूर हैं, बल्कि असुरक्षित पानी से बचाव के लिए लोगों को भारी कीमत भी चुकानी पड़ती है। उपरोक्त अध्ययन के अनुसार वे गंदे पानी की वजह से बोतल बंद पानी खरीदने, घरों में छानने के उपकरण लगाने उबालने अथवा पेयजल जनित बीमारियों के इलाज में वर्ष भर लगभग 57 लाख रुपया खर्च करते हैं, जिनमें मात्र दवाओं का हिस्सा 60 प्रतिशत है।
ऐसा नहीं कि नैनीताल झील को बचाना असंभव है, लेकिन इसके लिए पहली शर्त है कि नगरवासियों में अपने पेयजल स्रोत के रख-रखाव के बारे में संवेदना पैदा हो। उन्हें हमेशा याद रखना होगा कि इस लिहाज से वे देश के दूसरे बाशिंदों जैसी स्थिति नें नहीं हैं। झील की भौगोलिक अवस्थिति नैनीतालवासियों को यह सुविधा नहीं देती कि वे अन्य भारतवासियों की तरह जहां चाहें गंदगी बिखेर लें, फटी सीवर लाइनों और खस्ताहाल पेशाबघरों को नज़रअंदाज़ करें या जहां मर्जी फारिग हो लें या अपने रसोई-स्नानगृहों की धोवन को कुदरतन बहने दें। यदि नैनीताल के पानी को पुरानी तासीर देनी है तो नैनीतालवासियों को न सिर्फ अपनी जीवनशैली में बुनियादी बदलाव लाने होंगे बल्कि उन्हें यहां आने वाले लाखों पर्यटकों के तौर-तरीकों पर भी नियंत्रण रखना होगा। उन्हें नगरपालिका, विकास प्राधिकरण, जल-कल और सीवर निस्तारण से जुड़े महकमों को भी समस्या की गंभीरता का अहसास कराना होगा और भौगोलिक विशिष्टता के कारण कम से कम नैनीताल में उन्हें मुस्तैदी से काम करने पर मजबूर करना पड़ेगा। शहर में अवशिष्ट निस्तारण के लिए बने पुराने कायदों पर चलने की यहां के लोगों को फिर से आदत डालनी होगी। इसके अलावा झील के तल पर इकट्ठा ज़हरीली गाद को बाहर निकालने की आधुनिक तकनीकें उपलब्ध हैं, जिसके लिए नगरवासियों को मिल कर राजनीतिक दबाव बनाना होगा। झील नैनीताल की आत्मा है, इसका जीवन नैनीताल के अस्तित्व का आधार है। इसलिए समय रहते यदि इस बीमार झील का इलाज न किया गया तो यही खूबसूरती इसकी कब्र साबित होगी।
कुदरत ने नैनीताल को खूबसूरती तो दिल खोल कर दी लेकिन इसके भूगोल को इसका दुश्मन बनाया। चारों ओर ऊंची पहाड़ियों से घिरी लगभग डेढ़ किमी. लंबी, आधा किमी. चौड़ी और औसतन 18 मीटर गहरी यह झील सिर्फ एक ओर संकरे दर्रे में खुलती है, जहां से उसका अतिरिक्त पानी बाहर निकलता है। चारों ओर की समस्त प्राकृतिक एवं मानवीय गतिविधियों का सीधा असर झील पर पड़ता है। यानी-झील के चारों ओर के क्षेत्र में कुछ भी गिरे या बिखरे उसका झील में आना तय है। प्राकृतिक अवस्था में भी इसके जलग्रहण क्षेत्र के सभी जैविक पदार्थ झील में आकर मिलते थे।
नैनीताल महायोजना के अनुसार, इसके 5 वर्ग किमी. में फैले जलग्रहण क्षेत्र का 48 प्रतिशत भाग जैविक पदार्थों से युक्त नम जंगलों से ढका है, जिनमें वनस्पतियों की 700 तथा पक्षियों की 200 प्रजातियाँ पाई जाती है। 18 प्रतिशत भाग वृक्षविहीन बंजर और 20 प्रतिशत भाग में शहर की बस्तियां हैं। लगभग 10 प्रतिशत क्षेत्र में झील का विस्तार है तथा शेष 4 प्रतिशत भाग सड़क और खेल का मैदान जैसे विविध उपयोग की श्रेणी में आता है। वर्षा, भूमिगत स्रोत और जलग्रहण क्षेत्र से बह कर आने वाला पानी झील में जलापूर्ति के माध्यम है। सम्पूर्ण जल-भंडार का 16 प्रतिशत हिस्सा जलग्रहण क्षेत्र पर सीधे होने वाली वर्षा से आता है, जबकि भूमिगत स्रोतों का योगदान 39 प्रतिशत और झील में गिरने वाले सदाबहार नालों का 15 प्रतिशत है। झील से जल निकासी का मुख्य मार्ग तल्लीताल स्थित गेट हैं, जिनसे 41 प्रतिशत जल बाहर जाता है। इसके अलावा 32 प्रतिशत जल पेयजल पम्पों से, 15 प्रतिशत भूमिगत दरारों में रिसने से तथा शेष 12 प्रतिशत वाष्पन के जरिए झील से बाहर निकल जाता है। चारों ओर सीधी ढलानों पर मौजूद वनस्पतियों का अवशिष्ट गंदगी व मलबा 21 नालों के जरिए झील में मिलता है या नालों के मुहानों पर डेल्टा की शक्ल में एकत्र हो जाता है। इनमें सबसे बड़ा मेट्रोपोल नाला उत्तरी छोर पर नयनादेवी मंदिर के पास झील में आकर मिलता है। रूड़की के नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ हाइड्रोलॉजी ने झील में गाद जमा होने की रफ्तार को 11.5 मिमी. प्रति वर्ष आंका है। अतः नैनीताल नगर के बाशिंदे बाकी हिन्दुस्तानी नागरिकों की तरह जहां चाहे गंदगी फैला कर निश्चित नहीं हो सकते, क्योंकि भारत के किसी भी दूसरे शहर में घरों से निकलने वाली गंदगी सीधे उनके पेयजल स्रोत का रास्ता नहीं पकड़ती है। नैनीताल का भूगोल इस लिहाज से इसे बेहद संवेदनशील बना देता है।
ब्रिटिश काल में नैनीताल में भवन निर्माण तथा गंदगी के निस्तारण-संबंधी-नियमों का कड़ाई से पालन होता था। उल्लंघन करने पर जुर्माना वसूलने में कोताही नहीं बरती जाती थी। नैनीताल नगरपालिका के पुराने रिकॉर्डों मे निर्धारित स्थानों से अन्यत्र गंदगी करने, पालतू जानवरों को पालने व घुमाने, दंगा फसाद करने, गलत ढंग से गाड़ी चलाने, शराब पीकर घूमने, पेड़ काटने दूध-घी में मिलावट करने, नगरपालिका के नियमों का पालन न करने व उन्हें तोड़ने जैसी हरकतों पर वसूले गए जुर्माने के सालाना आंकड़ें आज भी देखे जा सकते हैं। उदाहरण के लिए सन् 1872-74 में एक आदमी से प्रतिबंधित स्थान पर कुत्ता घुमाने पर 5 रुपए जुर्माना वसूला गया। इस वित्तीय वर्ष में उपरोक्त वर्णित अपराधों के लिए कुल 128 रुपये, 14 आने, 6 पाई जुर्माने के बतौर वसूले गए। सन् 1893-94 में मल्ली बाजार में गैर निर्धारित स्थान में गाय पालने पर 8 व्यक्तियों पर 40 रु. तथा गाय चराने पर 6 व्यक्तियों पर 6 रु. का जुर्माना आयात किया गया। झील में नालों के जरिए आने वाली गंदगी के प्रति तत्कालीन प्रशासन कितना सचेत था, इस बात का उल्लेख भी पुराने रिकॉर्डों में मिलता है। सन् 1898-99 के दस्तावेज़ों के अनुसार झील में गिरने वाले सभी नाले अप्रैल से अक्टूबर के बीच हफ्ते में तीन बार परक्लोराइड व मरकरी के घोल से धोए गए। एक पत्र में नॉर्थ-वेस्टर्न प्रोविंस के सेक्रेटरी जे.एस मेस्टन ने कहा है कि सन् 1900-1901 में वर्ष भर झील के पानी के 20 नमूनों को रासायनिक व जीवाणु जांच की गयी। इसके नतीजे बताते हैं कि नैनीताल के पानी की गुणवत्ता उत्कृष्ट कोटि की है और भारत के किसी भी हिल स्टेशन में इतना साफ पानी उपलब्ध नहीं है। अतः स्वास्थ्य लाभ की दृष्टि से नैनीताल पहले नम्बर पर है। सन 1913 में बड़े पैमाने पर झील से काई हटाई गई और सफाई के मद्देनज़र एक सोडा फ़ैक्टरी को बंद करवाया गया।
आज़ादी के बाद देश में जिस तरह की राजनीतिक और सामाजिक संस्कृति का जन्म हुआ, उसमें सार्वजनिक उपयोग व सुविधाओं की बलि देकर निजी सुविधाओं को पक्का करने की प्रवृत्ति लगातार बढ़ती गई। इसलिए चाहे नैनीताल के स्थानीय निवासी हों या बाहर से आने वाले पर्यटक अपनी सुविधा के लिए इस नाज़ुक शहर पर घाव-दर-घाव देते रहने से उन्हें कोई गुरेज नहीं रहता। पिछले दो-तीन दशकों में पर्यटकों की संख्या में ज़बरदस्त उछाल आया है। खास तौर पर पंजाब और कश्मीर में अशांति के बाद से उत्तराखंड के पर्यटन में अप्रत्याशित वृद्धि हुई। परिणामस्वरूप नैनीताल में होटलों की संख्या भी तेजी से बढ़ी। सन् 1927 में नगर में 396 पक्के मकान थे, जो सदी के अंत तक आठ हजार का आंकड़ा पार कर गए। हालांकि शहर की नाज़ुक भौगोलिक परिस्थिति के मद्देनज़र यहां निर्माण संबंधी नियम अत्यंत कठोर हैं और कई क्षेत्रों को ‘असुरक्षित’ घोषित कर निर्माण-कार्यों के लिए पूरी तरह प्रतिबंधित कर दिया गया है, लेकिन नियमों सेंध मार कर वर्जित क्षेत्रों सहित सभी जगह निर्माण कार्य निर्बाध चलता रहता है। ताकतवर लोगों ने अपनी पहुंच व पैसे के बल पर असुरक्षित क्षेत्रों की सीमाओं में हेर-फेर करवा लिया और बड़े-बड़े रिजार्ट या आलीशान व्यावसायिक कॉलोनियां खड़ी कर लीं। नियमानुसार नैनीताल में कहीं भी दो मंजिलों से ज्यादा तथा 25 फीट से ऊंची इमारत नहीं बनाई जा सकती, लेकिन इस नियम की धज्जियाँ कभी भी और कहीं भी उड़ती देखी जा सकती हैं। निर्माण-कार्यों से पैदा होने वाला हजारों टन मलबा प्रतिवर्ष झील में समा जाता है। इस बार बरसात में अनेक मुहल्लों को भू-स्खलन की आशंका से अन्यत्र पहुंचाना पड़ता है। शहर में पंजीकृत होटलों की तादाद 1961 में जहां 20 थी, वह नयी सदी के आते-आते 150 का आंकड़ा पार कर गई है, जबकि अनधिकृत होटलों का कोई हिसाब नहीं। इनमें हर वर्ष औसतन पांच लाख पर्यटक ठहरते हैं। एक सदी पहले लगभग 8,000 बाशिंदों के इस शहर की स्थाई जनसंख्या भी अब 50 हजार से ऊपर जा चुकी है।
नैनीताल में सीवर निस्तारण की ज़िम्मेदारी जल संस्थान की है। दुर्भाग्य से शहर के सभी घर सीवर से नहीं जुड़े हैं और खुले में निपटने वालों की तादाद भी कम नहीं है। सीवर लाइनों की हालत का अंदाज़ इससे लगाया जा सकता है कि रोज कहीं न कहीं पाइप फटते हैं और भारी मात्रा में गंदगी झील में चली आती है। इसके अलावा रसोई व स्नानगृह से निकलने वाली धोवन बहुत कम घरों में ही सीवर से जुड़ी हुई है। सार्वजनिक पेशाबघरों की हालत पहले ही बहुत ख़स्ता है, ऊपर से पूरे नगर में सैकड़ों स्थान अनौपचारिक पेशाबघरों के तौर पर इस्तेमाल होते हैं, जिनका रास्ता सीधे झील में खुलता है। कॉलेज की प्रयोगशालाओं, मांस-मछली-मुर्गी की दुकानों, मोटर वर्कशॉप, पेट्रोल पंप, खुले में चलने वाले रेस्त्राओं की गंदगी तथा सड़कों में दौड़ने वाला भारी ट्रैफिक झील के किनारों से आधा किमी के दायरे में है। नगर में बड़ी संख्या में सवारी घोड़े हैं, जिनका स्थाई स्टैंड उच्च न्यायालय के हस्तक्षेप के बाद झील के जलग्रहण क्षेत्र से बाहर कर दिया गया है, लेकिन वे दिन भर इस क्षेत्र के अंदर सैलानियों को सवारी कराते हैं। गाय, सुअर, कुत्ते, बिल्ली, मुर्गी आदि पालतू पशु-पक्षियों और शहरी हो चुके बंदर व लंगूर की संख्या हजारों में आंकी जा सकती है। इन सबकी गंदगी भी झील में आती है। मेट्रोपोल नाले के किनारे मौजूद धोबीघाट व सार्वजनिक स्नानागार से साबुन की बड़ी मात्रा बह कर आती है। इन सब के ऊपर प्रदूषण की आधुनिक किस्म प्लास्टिक और पॉलीथीन अनेक रूपों में झील में पहुँचता है।
![नैनीताल का एक विहंगम दृश्य नैनीताल का एक विहंगम दृश्य](/sites/default/files/hwp/import/images/nainital lake.jpeg)
इंदिरा गांधी इंस्टीट्यूट फॉर डेवलपमेंटल रिसर्च, मुंबई द्वारा कराए गए अध्ययन के अनुसार नैनीताल झील विश्व स्वास्थ्य संगठन तथा भारत सरकार के प्रदूषण मानदंडों की निर्धारित सीमा से काफी आगे जा चुकी है। गंदलेपन, रंग, पारदर्शिता, पीएच, कैल्शियम, जस्ता, मैग्नीशियम, मैगनीज, कॉपर, जिंक, लोराइड, जैविक-ऑक्सीजन मांग आदि की मात्रा के हिसाब के इसका पानी पेयजल हेतु स्वीकृति मानदंडों की सीमा को पार कर चुका है। जल-संस्थान के वाटर फिल्टर प्लांट विभिन्न चरणों में पेयजल को प्रशोधित तो करते हैं, लेकिन धातुओं व अन्य घुलनशील पदार्थों के निस्तारण की कोई व्यवस्था इनमें नहीं है। जाहिर है नगरवासी न केवल साफ दिखाई पड़ने वाला जहरीला पानी पीने के लिए मजबूर हैं, बल्कि असुरक्षित पानी से बचाव के लिए लोगों को भारी कीमत भी चुकानी पड़ती है। उपरोक्त अध्ययन के अनुसार वे गंदे पानी की वजह से बोतल बंद पानी खरीदने, घरों में छानने के उपकरण लगाने उबालने अथवा पेयजल जनित बीमारियों के इलाज में वर्ष भर लगभग 57 लाख रुपया खर्च करते हैं, जिनमें मात्र दवाओं का हिस्सा 60 प्रतिशत है।
ऐसा नहीं कि नैनीताल झील को बचाना असंभव है, लेकिन इसके लिए पहली शर्त है कि नगरवासियों में अपने पेयजल स्रोत के रख-रखाव के बारे में संवेदना पैदा हो। उन्हें हमेशा याद रखना होगा कि इस लिहाज से वे देश के दूसरे बाशिंदों जैसी स्थिति नें नहीं हैं। झील की भौगोलिक अवस्थिति नैनीतालवासियों को यह सुविधा नहीं देती कि वे अन्य भारतवासियों की तरह जहां चाहें गंदगी बिखेर लें, फटी सीवर लाइनों और खस्ताहाल पेशाबघरों को नज़रअंदाज़ करें या जहां मर्जी फारिग हो लें या अपने रसोई-स्नानगृहों की धोवन को कुदरतन बहने दें। यदि नैनीताल के पानी को पुरानी तासीर देनी है तो नैनीतालवासियों को न सिर्फ अपनी जीवनशैली में बुनियादी बदलाव लाने होंगे बल्कि उन्हें यहां आने वाले लाखों पर्यटकों के तौर-तरीकों पर भी नियंत्रण रखना होगा। उन्हें नगरपालिका, विकास प्राधिकरण, जल-कल और सीवर निस्तारण से जुड़े महकमों को भी समस्या की गंभीरता का अहसास कराना होगा और भौगोलिक विशिष्टता के कारण कम से कम नैनीताल में उन्हें मुस्तैदी से काम करने पर मजबूर करना पड़ेगा। शहर में अवशिष्ट निस्तारण के लिए बने पुराने कायदों पर चलने की यहां के लोगों को फिर से आदत डालनी होगी। इसके अलावा झील के तल पर इकट्ठा ज़हरीली गाद को बाहर निकालने की आधुनिक तकनीकें उपलब्ध हैं, जिसके लिए नगरवासियों को मिल कर राजनीतिक दबाव बनाना होगा। झील नैनीताल की आत्मा है, इसका जीवन नैनीताल के अस्तित्व का आधार है। इसलिए समय रहते यदि इस बीमार झील का इलाज न किया गया तो यही खूबसूरती इसकी कब्र साबित होगी।
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