मोरिंगा ओलीफ़ेरा जिसे सामान्य भाषा में सहजन कहा जाता है, एक वृक्ष है जो अफ्रीका, केंद्रीय तथा दक्षिणी अमेरिका, भारतीय उपमहाद्वीप और दक्षिण पूर्व एशिया में उगाया जाता है। सहजन के बीजों में 30 से 50 प्रतिशत तक तेल पाया जाता है जो बढ़िया खाद्य तेल भी है और उसका उपयोग बायोडीज़ल बनाने के लिए भी किया जाता है जिसमें NOX उत्सर्जन कम होते हैं और ईंधन में भी स्थायित्व होता है।
सहजन सूखे का सामना करने में सक्षम होने के साथ ही खाने तथा प्रकाश हेतु तेल और जमीन के लिए उर्वरक प्रदान करता है। इसकी फलियों, पत्तियां, फूल और बीज पौष्टिक भोजन प्रदान करते हैं। सर्वाधिक महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि पेयजल के परिशोधन हेतु इसके बीजों का निःशुल्क उपयोग किया जा सकता है। यह उल्लेख करेंट प्रोटोकोल्स इन माइक्रोबायोलॉजी, (फरवरी 2010/DOI: 10.1002/ 9780471729259.mc01g02s16) में प्रकाशित एक अल्प लागत जल परिशोधन तकनीक में किया गया है। अगर, इस तकनीक का विकासशील देशों में वृहतस्तर पर प्रयोग किया जाए तो दूषित जल-जनित रोगों में काफ़ी हद तक कमी लाई जा सकती है। आज भी एशिया, अफ्रीका और लैटिन अमेरिका में एक अरब लोगों को अपनी रोजमर्रा के जल की आवश्यकता हेतु अपरिशोधित सतही जल स्रोतों पर निर्भर रहना पड़ता है। अनुमान है कि इन लोगों में से लगभग बीस लाख लोग प्रतिवर्ष प्रदूषित जल के सेवन से होने वाले रोगों से मारे जाते हैं जिनमें से अधिकांश पांच वर्ष से कम आयु के शिशु होते हैं।
इन बीजों का चूर्ण बना लेने पर उसे जल में घुलनशील निलंबक सत्व के रूप में प्रयुक्त किया जा सकता है। ऐसा करने पर अपरिशोधित जल के जीवाणुओं में 90.00% से 99.99% तक की कमी संभव है। यह तकनीक केवल जल को पीने योग्य ही नहीं बनाती इससे जल की गंदगी भी 90% तक कम हो जाती है क्योंकि यह पूर्ण जल में विद्यमान ठोस कणों के साथ मिलकर तले में बैठ जाती है। यह स्वच्छ जल देखने में ही साफ सुथरा नहीं लगता बल्कि सूक्ष्म जैविक स्तर पर भी मनुष्यों के पीने योग्य बन जाता है। कनाडा की कम लागत में जल परिशोधन तकनीकों की खोज और उनके कार्यान्वयन में रत संस्था ‘क्लीयरिंग हाउस’ में शोधकर्त्ता एवं करेंट प्रोटोकॉल्स के लेखक माइकेल लीया का मानना है कि सहजन के बीजों के उपयोग से दूषित जलजनित रोगों से होने वाली मौतों पर भविष्य में सफलतापूर्वक रोक लगाई जा सकती है। जल परिशोधन के लिए सहजन के बीजों का प्रचलन होने पर लोगों को ऐल्युमिनियम सल्फेट (एलम) जैसे मंहगे रसायनों पर निर्भर नहीं होना पड़ेगा जो कि मनुष्य एवं पर्यावरण दोनों के लिए घातक है। इतना जरूर है कि विभिन्न स्रोतों के जल हेतु सहजन के बीजों के चूर्ण का पृथक मात्रा में उपयोग करना पड़ेगा क्योंकि जल में विद्यमान दूषित पदार्थ एक जैसे नहीं होंगे।
माइकेल लीया के अनुसार सहजन के बीजों की इस जीवनरक्षक क्षमता के बावजूद जल परिशोधन में उसकी भूमिका से लोग उन इलाकों में भी अनजान हैं जहां यह वृक्ष बहुतायत से उगाया व उपयोग में लाया जाता है। उनका मानना है कि इस तकनीक के प्रचार-प्रसार से यह उन समुदायों तक पहुंच सकेगी जिन्हें इसकी जरूरत है। उनका कहना है, “सहजन वृक्ष का पौष्टिक खाद्य, उससे होने वाली आय और जल परिशोधन की गुणवत्ता के कारण पूरी संभावना है कि इक्कीसवीं शताब्दी में जन-जीवन रोगों और मृत्यु के उन कारणों से मुक्त हो सकेगा।” जो उन्नीसवीं सदी में मौजूद थे।
(समग्र विज्ञप्ति डाउन लोड करने के लिएः
http://mrw.interscience.wiley.com/emrw/9780471729259/cp/cpmc/article/mc01g02/current/pdf)
सहजन सूखे का सामना करने में सक्षम होने के साथ ही खाने तथा प्रकाश हेतु तेल और जमीन के लिए उर्वरक प्रदान करता है। इसकी फलियों, पत्तियां, फूल और बीज पौष्टिक भोजन प्रदान करते हैं। सर्वाधिक महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि पेयजल के परिशोधन हेतु इसके बीजों का निःशुल्क उपयोग किया जा सकता है। यह उल्लेख करेंट प्रोटोकोल्स इन माइक्रोबायोलॉजी, (फरवरी 2010/DOI: 10.1002/ 9780471729259.mc01g02s16) में प्रकाशित एक अल्प लागत जल परिशोधन तकनीक में किया गया है। अगर, इस तकनीक का विकासशील देशों में वृहतस्तर पर प्रयोग किया जाए तो दूषित जल-जनित रोगों में काफ़ी हद तक कमी लाई जा सकती है। आज भी एशिया, अफ्रीका और लैटिन अमेरिका में एक अरब लोगों को अपनी रोजमर्रा के जल की आवश्यकता हेतु अपरिशोधित सतही जल स्रोतों पर निर्भर रहना पड़ता है। अनुमान है कि इन लोगों में से लगभग बीस लाख लोग प्रतिवर्ष प्रदूषित जल के सेवन से होने वाले रोगों से मारे जाते हैं जिनमें से अधिकांश पांच वर्ष से कम आयु के शिशु होते हैं।
इन बीजों का चूर्ण बना लेने पर उसे जल में घुलनशील निलंबक सत्व के रूप में प्रयुक्त किया जा सकता है। ऐसा करने पर अपरिशोधित जल के जीवाणुओं में 90.00% से 99.99% तक की कमी संभव है। यह तकनीक केवल जल को पीने योग्य ही नहीं बनाती इससे जल की गंदगी भी 90% तक कम हो जाती है क्योंकि यह पूर्ण जल में विद्यमान ठोस कणों के साथ मिलकर तले में बैठ जाती है। यह स्वच्छ जल देखने में ही साफ सुथरा नहीं लगता बल्कि सूक्ष्म जैविक स्तर पर भी मनुष्यों के पीने योग्य बन जाता है। कनाडा की कम लागत में जल परिशोधन तकनीकों की खोज और उनके कार्यान्वयन में रत संस्था ‘क्लीयरिंग हाउस’ में शोधकर्त्ता एवं करेंट प्रोटोकॉल्स के लेखक माइकेल लीया का मानना है कि सहजन के बीजों के उपयोग से दूषित जलजनित रोगों से होने वाली मौतों पर भविष्य में सफलतापूर्वक रोक लगाई जा सकती है। जल परिशोधन के लिए सहजन के बीजों का प्रचलन होने पर लोगों को ऐल्युमिनियम सल्फेट (एलम) जैसे मंहगे रसायनों पर निर्भर नहीं होना पड़ेगा जो कि मनुष्य एवं पर्यावरण दोनों के लिए घातक है। इतना जरूर है कि विभिन्न स्रोतों के जल हेतु सहजन के बीजों के चूर्ण का पृथक मात्रा में उपयोग करना पड़ेगा क्योंकि जल में विद्यमान दूषित पदार्थ एक जैसे नहीं होंगे।
माइकेल लीया के अनुसार सहजन के बीजों की इस जीवनरक्षक क्षमता के बावजूद जल परिशोधन में उसकी भूमिका से लोग उन इलाकों में भी अनजान हैं जहां यह वृक्ष बहुतायत से उगाया व उपयोग में लाया जाता है। उनका मानना है कि इस तकनीक के प्रचार-प्रसार से यह उन समुदायों तक पहुंच सकेगी जिन्हें इसकी जरूरत है। उनका कहना है, “सहजन वृक्ष का पौष्टिक खाद्य, उससे होने वाली आय और जल परिशोधन की गुणवत्ता के कारण पूरी संभावना है कि इक्कीसवीं शताब्दी में जन-जीवन रोगों और मृत्यु के उन कारणों से मुक्त हो सकेगा।” जो उन्नीसवीं सदी में मौजूद थे।
(समग्र विज्ञप्ति डाउन लोड करने के लिएः
http://mrw.interscience.wiley.com/emrw/9780471729259/cp/cpmc/article/mc01g02/current/pdf)
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