केंद्र सरकार ने गंगा की सफाई का बीड़ा उठाया है, जो एक चुनौती-पूर्ण काम है। इस मुहिम में अभी लंबा समय लगेगा और परिणाम क्या होंगे अभी कुछ कहा नहीं जा सकता। नदियाँ कई तरह के प्रदूषण का शिकार हैं। इनमें औद्योगिक कचरा, घरेलू कचरा प्रमुख है। नदियों के प्रदूषण की मुख्य वजह कचरे का सही प्रबंधन न हो पाना है। यदि आधुनिक तकनीक अपनाकर कचरे का प्रबंधन किया जाए तो नदियों को प्रदूषित होने से बचाया जा सकता है। सुरम्य पर्वतीय राज्यों में कचरे का बढ़ता अंबार नित नई समस्याएँ और स्थान-स्थान पर तनाव का कारण बनता जा रहा है। यह सुंदर वादियों में बदनुमा धब्बे पैदा करके भू-दृश्य को बिगाड़ रहा है। नदी नालों के जल को प्रदूषित कर रहा है। स्थानीय सिंचाई नालियाँ कचरे से पटती जा रही हैं।
डंपिंग स्थलों में सब तरह का कचरा इकट्ठा पड़ा सड़ता रहता है, जिससे आस-पास के इलाकों में बदबू फैलने से सामाजिक तनाव फैलता है और प्रशासनिक स्तर पर भी समस्याएँ पैदा होती हैं। कचरे के ढेरों में जान बूझकर या असावधानी वश आग लग जाती है, गाँवों में भी कचरा खुले में जलाया जा रहा है, जिससे वायु प्रदूषण फैलने से भी तनाव और स्वास्थ्य के लिये खतरा पैदा हो जाता है। इस परिस्थिति का निर्माण कचरे को केवल समस्या के रूप में देखने के कारण होता है। एक समाज के रूप में इस समस्या के समाधान की सारी जिम्मेदारी सरकार पर डाल देने के कारण समाधान और कठिन हो जाता है।
पर्वतीय राज्यों में तो पर्यटन की संभावनाओं के क्षरण के रूप में भारी खतरे का कारण इससे उपस्थित हो सकता है। हमें यह समझना होगा की कचरा गलत जगह पड़ा हो तो समस्या है किन्तु सही रूप में उपचारित कचरा उपयोगी संसाधन भी है। दृष्टि में इस बदलाव के आते ही कचरे के प्रति हमारे व्यवहार में भी बदलाव आना स्वाभाविक है। किंतु यह बदलाव केवल सरकार की दृष्टि में आने से काम नहीं बनेगा। यह बदलाव तो समग्र समाज की सोच में आना पड़ेगा। इसी से हम कचरा निपटाने के मामले में गम्भीर और व्यवहारिक कदम उठाने में सक्षम हो सकेंगे।
कचरा प्रबंधन के लिये हमें इस समस्या को चार चरणों में निपटने की तैयारी करनी होगी। पहले चरण के रूप में हमें प्रति व्यक्ति कचरे की मात्रा कम करने का प्रयास करना चाहिए। इसमें थोड़ी कमी भी बहुत बड़ा सकारात्मक कदम सिद्ध होगा। दूसरा कदम रीसाइकिलिंग और पुन: प्रयोग होना चाहिए। 1 टन लोहे को रीसाइकिल करने से लौह धातु का खनन उतना कम तो होगा ही, इसके साथ 1 टन कार्बन डाइऑक्साइड का वायु में उत्सर्जन होने से बचेगा। तीसरे चरण में जो कचरा पुन: प्रयोग और रीसाइकिल से बच जाएगा उसमें से जैविक कचरे से बायो गैस और जैविक खाद बना लेनी चाहिए। धातुएँ, बैटरियाँ, बल्ब, अलग इकट्ठी की जानी चाहिए। शेष ज्वलन शील कचरे को बिजली बनाने के लिये ईंधन के रूप में प्रयोग किया जाना चाहिए, जिससे जीवाश्म ईंधन की बचत होगी और वायुमंडल में कुल उत्सर्जित होने वाली ग्रीन हाउस गैसों की मात्रा कम हो जाएगी।
इस मामले में हम स्वीडन से काफी कुछ सीख सकते हैं। स्वीडन 47 फीसद कचरे को पुन: प्रयोग और रीसाइकिल कर लेता है, और 50 फीसद कचरे को ऊर्जा उत्पादन के लिये ईंधन के रूप में प्रयोग कर लेता है। केवल 3 फीसद अनुपयोगी कचरे को ही डंप करने की जरूरत पड़ती है। वहाँ भी यह ध्यान रखा जाता है कि जहरीले तत्वों का डंपिंग स्थलों से रिसाव न हो सके। डंपिंग स्थलों में जैविक और ज्वलनशील कचरा डालने पर रोक है। सबसे महत्त्वपूर्ण सीख स्वीडन से लेने योग्य यह है कि वहाँ कचरे को इकट्ठा करने और उपचारित करने की जिम्मेदारियाँ इस तरह बांटी गई हैं कि बहानेबाजी की कोई गुंजाईश ही नहीं बचती है।
इस कार्य को कचरा पैदा करने वाले उद्योगों, व्यापारिक घरानों, नगरपालिकाओं, और निजी उद्यमों में बाँटा गया है। किस कचरे को कौन इकट्ठा करेगा, कौन ढुलाई करके उपचारण केंद्रों में पहुँचेगा, और कौन उपचारित करेगा सब तय है। घरेलू कचरा इकट्ठा करना नगरपालिकाओं के जिम्मे है, तो खतरनाक कचरा जैसे बैटरियाँ, शीशा, बल्ब, इलेक्ट्रॉनिक कचरा आदि उन्हें बनाने वाली कंपनियों की जिम्मेदारी है। व्यावसायिक कचरा व्यावसायिक घरानों की जिम्मेदारी है। म्युनिसिपल कचरे के लिये भूमिगत टैंक बनाए गए हैं जन्हें बड़ी-बड़ी ट्यूबों से आपस में जोड़ा गया है, इस संजाल का आखिरी सिरा लदान स्थल तक जाता है। कचरे को वैक्यूम प्रेशर से लदान स्थल तक धकेला जाता है, जहाँ ढुलान वाहनों में डाल कर उसे उपचारण केंद्रों में पहुँचाया जाता है।
अलग-अलग तरह के उपचारण केंद्रों का संजाल बनाया गया है। जैविक कचरे से बायोगैस बनाने का काम कितनी गंभीरता से किया जाता है इसका अंदाजा इससे लगाया जा सकता है कि 2013 में 5,67,630 मेगावॉट ऊर्जा का उत्पादन इससे किया गया, जिसके लिये 14,74,190 टन घरेलू जैविक कचरे को उपचारित किया गया। बायो गैस को वाहनों के लिये ईंधन के रूप में प्रयोग कर लिया जाता है। शेष ज्वलनशील कचरे को इन्सिनरेटरों में जला कर बिजली बना ली जाती है। जिसकी तकनीक बहुत उन्नत है, और मामूली गैस उत्सर्जन होता है। स्वीडन कचरे से बजली पैदा करने वाला सबसे कुशल देश है। वह 1 टन कचरे से 3 मेगावाट ऊर्जा पैदा कर लेता है।
स्वीडन ने 2013 में ऊर्जा उत्पादन के लिये यूरोप के अन्य देशों से 8,31,400 टन कचरा आयात करके उनको भी कचरे की समस्या से निपटने में मदद की। इन्सीनेरेटरों में कचरा जलाने के बाद बची राख को डंपिंग स्थलों में निर्माण कार्य में लगा लिया जाता है। पैदा होने वाली फ्लू गैसों को भी जला दिया जाता है। इस तरह कचरा जब आय का साधन बन जाएगा तब इसके उपचारण की व्यवस्थाएँ और भी सुदृढ़ होती जाएँगी। इस आय को उपचारण व्यवस्था में लगे कामगारों और सफाई कर्मचारियों के वेतन पर खर्च करके उनकी स्थिति को भी सुधारा जा सकता है। सरकारी खजाने पर बोझ घटेगा और रोजग़ार के अवसर भी पैदा होंगे। एक जगह से सुनियोजित पहल की जाए तो यह व्यवस्था अपनी ताकत से आगे बढ़ने की क्षमता रखती है। हमें एक समाज के रूप में भी कचरे के प्रति बरती जाने वाली लापरवाही से उपर उठ कर स्वच्छता के लिये कचरे को जगह-जगह फेंकने की आदतों को छोड़ना होगा और अपने आस-पास के कचरे के उपचारण का आग्रही बनना होगा।
- कुल भूषण उपमन्यु, अध्यक्ष हिमालय नीति अभियान, चंबा हिमाचल प्रदेश
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