पानी ने ही दुनिया की हर सभ्यता को पाला पोसा है, इसीलिए एक संस्कृति में जल-देवी-देवता रहे हैं। जीवन के बहाव को बनाए रखने की इंसानी चाह प्रतीकों में झलकती रही है। सिंधु घाटी का 80 फीसदी हिस्सा सरस्वती और उसकी सखी नदियों के आसपास का था, जिसकी शाखाएँ उत्तर भारत सहित दक्षिण एशिया के कई हिस्सों तक फैली थी। ये महाभारत काल का सिंधु देश माना जाता है, जहाँ धृतराष्ट्र के दामाद जयद्रथ का राज हुआ करता था। मगर यह भी सच है कि इतिहास के किसी भी शक्तिशाली राज-पाट और परिपक्व सभ्यताओं का प्रकृति के आगे बस कभी नहीं चला। जल और जलवायु का क्रोध ही उनके विनाश की बड़ी वजह बना। आज भी मौसम का कहर हो या जलवायु में बदलाव के खतरे, आधुनिक विज्ञान हमें हद तक आगाह तो कर देता है लेकिन बचाव का पूरा रास्ता नहीं बता पाता। अपने अस्तित्व की नमी बचाए रखने के लिए विज्ञान, तकनीक और पारम्परिक ज्ञान को जल-प्रबन्धन के लिए इस्तेमाल करना है, तो उसके लिए नीतियाँ भी उनके हित में होनी चाहिए और फिर नीतियों का आवरण मिल जाए तो असल चुनौती होती है उन्हें अमल में लाने की। इस मामले में किनारे तक आते-आते अक्सर कश्तियाँ डूब जाया करती हैं। अफसरशाही की शह पर चलने का नतीजा अब तक देखा ही नहीं, भोगा भी है हमने। शहर और गाँव दोनों डूब रहे हैं, बाढ़ की तबाही की मार गरीब पर ज्यादा पड़ रही है, बेतरतीब बसावटों ने बारिश के पानी को बन्दी बना लिया है और खेत हर साल इन्द्र देवता की मेहरबानी की बाट जोहते हुए कभी आबाद होते हैं कभी बर्बाद। और इनमें से किसी भी तरह की त्रासदी हो, उसका भारी बोझ औरतों पर आता ही है।
दुनिया में हिस्सेदारी के लिहाज से भले ही हम खाद्यान्न, पशुधन, दूध-फल-सब्जी उत्पादन आदि में अव्वल हो गए हों, लेकिन पानी के मामले में हमारे हिस्से दुनिया भर में मौजूद पीने लायक पानी का सिर्फ चार फीसदी ही है, जबकि दुनिया भर की 16 फीसदी आबादी का घर हिन्दुस्तान ही है। इसलिए हमारी चुनौतियों से किसी का मुकाबला नहीं।
मैंने इजराइल में देखा कि जिस देश के पास दुनिया का सबसे खारा और सबसे गहरे तल में बसा समुद्र ‘डैड सी’ है। तीन और नमकीन सागर-मैडिटरेनियन, रेड और गेलिली सहित सिर्फ ढाई सौ किलोमीटर लम्बी जार्डन नदी है, वहाँ पानी की बूँद-बूँद काम में लेने की तकनीक और मजबूत जल नीति से उन्होंने पानी की कमी को त्रासदी नहीं बनने दिया। नेगेव रेगिस्तान की सूखी बंजर जमीन पर भी खेती है और अन्नदाता सबसे खुशहाल और भरा-पूरा है वहाँ। वहाँ के शहरों को 85 फीसदी खारा पानी मीठे में बदलकर मिलता है और 90 फीसदी पानी का इस्तेमाल फिर से हो जाता है। इसके अलावा ‘रीसाइकल्ड’ पानी खेतों के लिए 50 फीसदी कम कीमत पर मिलता है और पीने के पानी और बाकी के काम के पानी की व्यवस्था भी अलग-अलग है। वहाँ के घरों और स्नानघरों में लगे नलों तक से छेड़खानी कर उन्हें उतना ही पानी निकालने की इजाजत दी गई है जितना एक व्यक्ति की जरूरत का है। उस देश में पानी की पूरी गणित है तो फिजूलखर्ची पर सख्ती भी और बच्चों में पानी के संस्कार डालने के लिए राष्ट्रीय स्तर के सरकारी और गैर सरकारी अभियान भी।
हमारे यहाँ कौन, कितने भरोसे से बच्चों से साफ पानी की बात कर पाएगा, ये सवाल एक अनुभव की वजह से हमेशा कचोटता रहा। कुछ साल पहले शिक्षा के लिए शुरू किए एक अखबारी अभियान की कमान थामे हुए जब सरकारी स्कूलों को नजदीक से देखने का मौका मिला तब समझ में आया कि बच्चों के साथ कैसे पेश आते रहे हैं, हम सब! राजस्थान के भरतपुर इलाके के सबसे बड़े और सबसे पुराने सरकारी स्कूल में अध्यापकों से बात करते-करते जब वहाँ लगी पानी की पक्की टंकी पर नजर गई तो यूँ ही पूछ लिया, इसकी सफाई कब-कब होती है ? वहाँ सालों से तैनात अध्यापकों का कहना था उनकी नियुक्ति के दौरान तो सफाई कभी नहीं हुई और तहकीकात की तो मालूम हुआ कि स्कूल के पूरे जीवन काल में एक बार भी टंकी साफ करवाएँ जाने के कोई प्रमाण नहीं हैं। प्रदेश के करीब 70 हजार सरकारी स्कूल और देशभर के लाखों स्कूलों के सन्दर्भ में भले ही ये आधा सच ही हो, मगर हालात बहुत बेहतर किए जाने की खासी गुंजाइश है। ‘स्वच्छ भारत’ मिशन के बाद से जागरुकता में बढ़ोत्तरी तो हुई ही है। नवाचार के लिए अपनी पहचान बनाने वाले वनवासी इलाके में तैनात एक प्रधानाध्यापक से हाल ही में बात हुई तो जानकारी हुई कि पानी की टंकी की नियमित सफाई करवाकर उन पर तारीख दर्ज करने का काम वे स्वेच्छा से करते हैं, भले ही इसकी निगरानी की सरकार या समुदाय के स्तर पर कोई व्यवस्था नहीं है।
माध्यमिक और उच्च माध्यमिक विद्यालयों में सफाई के लिए सालाना 5000 की राशि मिलती है। मगर छोटे बच्चों के स्कूल यानी प्राथमिक स्कूलों की अब भी दुर्दशा है। न कोष होता है, न फीस और नन्हें बच्चे सफाई के लिए श्रमदान भी नहीं कर सकते। मगर ये सवाल तो पूछना ही होगा कि अपने बच्चों को साफ पानी भी नहीं दे पाए हम 70 सालों में ? इसीलिए ‘स्वच्छ जल’ का संकल्प स्वच्छ भारत के जैसा ही विशाल है। कुल 21 फीसदी बीमारियों की जड़ है खराब पानी। कड़वी हकीकत यह भी है कि पाँच साल से नीचे की उम्र के 500 बच्चों को सिर्फ उल्टी दस्त की बीमारी की वजह से खो देते हैं, हम हर साल अपने यहाँ। पिछले साल नीति आयोग ने अपनी रिपोर्ट में भी बताया ही था कि साफ पानी नहीं मिलने से भारत में हर साल दो लाख लोग मौत के मुँह में चले जाते हैं और 2030 तक पानी की माँग दोगुनी हो जाएगी और इसे पूरा नहीं किया तो देश की जीडीपी यानी सकल घरेलू उत्पाद में छह फीसदी की गिरावट आ जाएगी।
फिक्र तो गर्त में जाते पानी की करनी ही होगी और अपनी ‘जल शक्ति’ बढ़ाने पर पूरा जोर भी लगाना होगा। दुनिया में हिस्सेदारी के लिहाज से भले ही हम खाद्यान्न, पशुधन, दूध-फल-सब्जी उत्पादन आदि में अव्वल हो गए हों, लेकिन पानी के मामले में हमारे हिस्से दुनिया भर में मौजूद पीने लायक पानी का सिर्फ चार फीसदी ही है, जबकि दुनिया भर की 16 फीसदी आबादी का घर हिन्दुस्तान ही है। इसलिए हमारी चुनौतियों से किसी का मुकाबला नहीं। अन्तरिक्ष से नीली नजर आने वाली हमारी धरती का 75 फीसदी पानी तो पोलर इलाकों में जमा हुआ है और करीब 22 फीसदी जमीन में मौजूद है और पीने लायक पानी है सिर्फ 2.7 फीसदी। और इस करीब ढाई फीसदी पानी में ही सबके बीच बंटवारा होना है। दुनिया ने साफ पानी की सब तक पहुँच को भी टिकाऊ विकास के लिए तय लक्ष्यों में शामिल किया है। इसकी मियाद है 2030।
हमने पानी के मसले को संविधान बनने के दौरान ही राज्यों की झोली में डाला हुआ है इसलिए सबने अपनी-अपनी जरूरत और अपने यहाँ पानी के अलग-अलग तरह के संकटों से उबरने के लिए नीतियाँ बनाई। उनमें से ज्यादातर भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ गई या विभागों और मंत्रालयों के बीच काम के घालमेल में पिस गई और कुछ अदालतों के रहमों करम पर रहीं। शहरों के मास्टर प्लान जब बनाए गए थे तब उनमें पहाड़ों और पानी के रास्तों को रोकने की मनाही साफ तौर पर थी लेकिन अब मास्टर प्लान ही हवा हो गए तो कौन पूछे, कौन बोले। नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल भी पानी और पेड़ों के मसलों पर हर बार अपने फैसले कुदरत के हक में देता रहा है। देश में पहली जल-नीति अमल में 1987 में आई। इसे 2002 और फिर 2012 में सुधारा गया, जिसमें पानी को आर्थिक संसाधन मानते हुए उसके संरक्षण और समझदारी से उपयोग को अहमियत दी गई। पानी के आंकड़ों का मानकीकरण करने, पानी के पुर्नउपयोग और पानी की प्राथमिकताएँ भी तय की गई, यानी सबसे पहले तीन का पानी मुहैया हो, फिर सिंचाई की फिक्र की जाए, इसके बाद पानी से बिजली बनाने और उसका औद्योगिक इस्तेमाल किया जाए। जमीनी पानी के दोहन पर लगाम लगाना भी इस नीति का हिस्सा रहा।
साल 2012 में इस नीति के सुधरे हुए स्वरूप के आने के बाद प्रदेशों ने अपने स्तर की नीतियाँ भी बनाई, मगर बिखरे काम और एक दूसरे विभागों में फंसे कामकाज ने पानी की नीतियों को काफी हद तक कागजों में ही धो दिया। अब हल यूँ निकला है कि इस बार केन्द्र सरकार ने ‘जल शक्ति’ मंत्रालय को जन्म देकर पानी के सारे फैले और उलझे कामों को एक छाते के नीचे कर दिया। अब तक शहरी पानी प्रबन्धन अलग महकमा था तो ग्रामीण जल प्रबन्धन अलग, सिंचाई का काम वाटरशेड के पास तो नदियों का मामला पर्यावरण, वन व जलवायु परिवर्तन मंत्रालय के हिस्से और गंगा का अपना ही अलग मंत्रालय, जल संरक्षण ग्रामीण विकास मंत्रालय के तले तो खारे पानी को मीठे में बदलने का जिम्मा विज्ञान और तकनीक के पास। अब नया मंत्रालय सबके सिरे जोड़कर उन्हें एक में पिरो रहा है और राज्यों की भी पानी को एक बैनर तले लाने की समझाइश हो रही है। जब नतीजा बेहतर चाहिए तो तरीके तो बदलने ही होते हैं।
इस लोकतंत्र की एक बंदिश को तोड़ने का काम भी साथ-साथ होता नजर आना चाहिए। आज जिन परम्परागत जल स्रोतों को हम अपनी धरोहर मान रहे हैं वे दो-चार-पाँच साल में बनकर तैयार नहीं हुए कभी। देश के अलग-अलग हिस्सों में तब के प्रजा संवेदी शासकों ने उनकी पहुँच वाले विज्ञान और अपने विवेक को शिल्प में पिरोकर सालों की मेहनत और पीढ़ियों के संकल्प से ऐसी जल-तिजोरियाँ तैयार की होंगी, जिनकी चाबियाँ हम संभाल कर भी नहीं रख पाए। आज पाँच साल के फ्रेम में फंसी सरकारें लम्बे दौर और लम्बी दूरी के काम तभी कर सकती हैं जब असरदार लोकनीति से जनता के बीच लोकप्रिय बनी रहे। नए जल मंत्रालय की शक्ति भी जनता की भागीदारी में ही निहित है। जो जमीनें और सतहें सूखी हैं उनमें नमी कैसे रहे, जो बारिश बड़ी मिन्नतों के बाद बरसती है, कभी कम कभी जमकर, उसकी हर बूँद सहेजने के स्वीकार्य और स्वीकृत मॉडल पर कैसे काम हो और तूफानों और बाढ़ से बचने के लिए पहाड़ों और पेड़ों की लूट-खसोट पर लगाम कैसे लगे, ये सब बेहतर नीतियों और नेताओं की अच्छी नीयत से ही हो पाएगा। चर्चा खुलकर हो, हर पक्ष पर, हर पक्षकार से। पूरे देश में खपने वाले पानी का करीब 80 फीसदी सिंचाई में काम आता है, जिसकी बेहिसाब बर्बादी पानी को सहेजने के हर उपाय पर भारी है। वैसे हर प्राकृतिक संसाधन के मामले में पूरी दुनिया का आचरण यही है। तो खामियाजा भी पूरा प्राणी जगत भुगत रहा है। अब देश-प्रदेश गाँव को दुनिया के साथ कदमताल मिलाकर अपना पथ-संचलन करना होगा ताकि जल-शक्ति के प्रदर्शन के मौके पर हम वैश्विक मंच पर कहीं आगे ही खड़े दिखें।
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