सहभागी सिंचाई प्रबंधः एक विश्लेषण

पानी की कमी दिन-प्रतिदिन बढ़ रही है। राष्ट्र में 1951 में प्रति व्यक्ति पानी का व्यय 2450 मी.3 प्रतिवर्ष था, जो 1999 में कम होकर 1250 मी.3 प्रतिवर्ष हो गया था। 2050 में वह 760 मी.3 प्रतिवर्ष होने का अंदाजा है। (भारत सरकार, 1999)। पानी की उपलब्धि और जरूरत के बीच का संतुलन बनाये रखने के लिए आने वाले समय में जल प्रबंध का मुद्दा ज्यादा महत्वपूर्ण होने की संभावना है।

संपत्ति हक की अस्पष्टता या गैरहाजरी से संसाधन का योग्य प्रबंध नहीं हो सकता और संसाधन के शोषण की संभावना बढ़ जाती है। बांध और नहरों का मालिकाना हक राज्य का है। इस अर्थ में वह राज्य की संपदा है। कमांड विस्तार के किसान कृषि में नहरों के पानी का उपयोग करते हैं। इस संदर्भ में नहर सामुदायिक संसाधन बनती है। राज्य और लाभार्थी किसानों के बीच परस्पर अधिकार और जिम्मेदारी की अस्पष्टता के कारण दोनों पक्षों के बीच योग्य संकलन नहीं हो पाता। इसी कारण नहरों की स्थिति खुले संसाधन सी बन जाती है। परिणाम स्वरूप नुकसान और शोषण के प्रश्न बढ़ जाते हैं।

विकासशील देशों की आर्थिक गतिविधि में राज्य की भूमिका महत्वपूर्ण और वैविध्यपूर्ण है। जो कई बार परस्पर विरुद्ध सी हो जाती है। जैसे कि राज्य कर स्वरुप आय प्राप्त करें या प्रजा का कल्याण और संसाधन का संवर्धन करे। सामुदायिक संसाधन के मामले में ये विविध उद्देश्य एक साथ प्राप्त नहीं किये जा सकते। जिसका मूल कारण है संपत्ति अधिकार की अस्पष्टता। एक ओर सामुदायिक संसाधन के स्थानिक लाभार्थी है, जबकि दूसरी ओर राज्य, संसाधन का रखरखाव और प्रबंध करता है। इससे संसाधन पर दोहरा मालिकाना हक प्रस्थापित होता है। एक सामुदायिक संपत्ति हक और दूसरा राज्य का हक। परिणाम स्वरूप लाभार्थी और राज्य के बीच संकलन और प्रबंध संबंधी प्रश्न उपस्थित होते हैं (कडेकोडी, 2004)।

लाभार्थी सामुदायिक जल संसाधन पर अपना अधिकार समझते हैं। इसीलिए पानी को मुप्त पाने का प्रयास करेंगे। जबकि राज्य पानी का दाम लेने हेतु लाभार्थी पर नियमन, जिम्मेदारी लाद कर उसे नहर से दूर करने का प्रयास करेंगे। जो लोग नहर पर ज्यादा निर्भर हैं वे उसका दोहन करेंगे। फलस्वरूप पानी का बिगाड़ और पानी बिन कार्यक्षम उपयोग बढ़ेगा। इसी प्रकार राज्य लाभार्थी किसानों पर नियमन करके उनका कल्याण नहीं कर पायेंगे। अगर राज्य कीमत द्वारा नियमन करने की कोशिश भी करें पर लाभों की प्राप्ति की अनिश्चितता के कारण लाभार्थी कीमत देने को तत्पर नहीं होगें। राज्य के तय किये हुए हितों की प्राप्ति में ही विसंगतता रही है। इसी कारण संसाधन का संवर्धन के बदले शोषण होता है।

विकास के ध्येयों को प्राप्त करने के लिए राज्य प्रेरित व्यवस्थापन राष्ट्रीयकरण पर ज्यादा जोर दिया जाता था। अनुभव से यह स्पष्ट हुआ कि सिर्फ केंद्रित नियोजन से विकास प्राप्त नहीं होता। इसलिए राज्य, प्रेरित सिंचाई अनुभव के आधार पर प्रबंध के अन्य विकल्पों की ओर आकृष्ट हुए। निजी संपत्ति अधिकार का समर्थन 1991 के बाद ज्यादा दृढ्तापूर्वक किया जा रहा है। निजी संपत्ति अधिकार से वैयक्तिक हित महत्तम किया जा सकता है लेकिन विकासशील राष्ट्र के लिए सिर्फ निजीकरण नहीं पर सहकारी प्रवृत्ति भी उतनी ही महत्वपूर्ण है। इस प्रकार सामुदायिक संपत्ति अधिकार या सहभागी प्रवृत्तियों पर अधिक सोचने की आवश्यकता है। राज्य प्रेरित और निजी प्रबंध के विकल्प में सामुदायिक प्रबंध द्वारा विकास के उद्देश्य प्राप्ति की संभावना ज्यादा है।

कृषि के विकास के लिए सिंचाई सुविधा का महत्वपूर्ण स्थान है। वर्ष 2000-01 में देश के 502 लाख हैक्टर क्षेत्र में सिंचाई सुविधा उपलब्ध थी। इसमें नहर का योगदान 28.28 प्रतिशत था (सी.एम.आई.ई., 2005)। नियोजन के दौरान बड़ी, मध्यम और छोटी सिंचाई पर निवेश बढ़ता रहा। 1950-51 में निवेश रु. 376.24 करोड़ से बढ़कर 1999-2000 में रु. 12,280 करोड़ हुआ था (भारत, 2002), जो बत्तीस गुना ज्यादा था। नहरों के भौतिक नियोजन पर बड़े तौर पर निवेश किया गया, लेकिन व्यवहारिक कार्य में तकनीकी, मानवीय, प्रबंध और कठिनाईयां उत्पन्न हुई। फलस्वरूप कार्यक्षमता और समता के प्रश्न उपस्थित हुए।

अर्थशास्त्र में किसी भी वस्तु या सेवा को तब आर्थिक कहा जाता है, जब उसका विनिमय मूल्य हो। वर्तमान काल में पहले सार्वजनिक कहने वाले कुदरती स्रोत आर्थिक स्रोत बन गये हैं। जिसका मूल कारण आर्थिक प्रवृत्तियों की वृद्धि है। पानी न्यूनता वाला स्रोत है पर यह जीवन के लिए अति उपयोगी मूलभूत आवश्यकता है। विकास के साथ उसकी मांग वैविध्यपूर्ण बनी है। इस प्रकार जल दोनों रुपों में कमी वाला स्रोत बन गया है। अतः पानी के कार्यक्षम उपयोग के बारे में सोचना चाहिए। भौगोलिक रुप से देश में पानी की विषमता है। एक क्षेत्र में पानी की व्यापकता तो दूसरे क्षेत्र में न्यूनता। देश का तृतीय हिस्सा अकालग्रस्त है। देश के 99 जिले अकालग्रस्त घोषित किये गये थे, जिसमें 67 जिले स्थायी रूप से अकालग्रस्त थे। (माथुर, 2000)। इस प्रकार समग्रतया दिखाई देती पानी की कमी ही उसके महत्तम उपयोग और प्रबंध की मांग है।

पानी की कमी दिन-प्रतिदिन बढ़ रही है। राष्ट्र में 1951 में प्रति व्यक्ति पानी का व्यय 2450 मी.3 प्रतिवर्ष था, जो 1999 में कम होकर 1250 मी.3 प्रतिवर्ष हो गया था। 2050 में वह 760 मी.3 प्रतिवर्ष होने का अंदाजा है। (भारत सरकार, 1999)। पानी की उपलब्धि और जरूरत के बीच का संतुलन बनाये रखने के लिए आने वाले समय में जल प्रबंध का मुद्दा ज्यादा महत्वपूर्ण होने की संभावना है।

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